चित्रकार निकोलाय रेरिख: जिनकी आत्मा बसती थी भारत में
निकोलाय रेरिख (जन्म 9 अक्तूबर 1874 -मृत्यु 13 दिसम्बर 19 74) का विश्वास था कि 'कला ही समस्त जाति को एकीकृत करेगी। कला एक है और वह अविभाज्य है, वह आगे आने वाले मानवीय संश्लेषण का अभिव्यक्तिरण है। कला सबके लिए है। प्रत्येक व्यक्ति सच्ची कला का आनंद प्राप्त करेगा और कला का प्रकाश असंख्य लोगों के हृदय को एक नूतन प्रेम से प्रदीप्त करेगा। पहले-पहल तो यह भावना अवचेतन में होगी, लेकिन बाद में वह मानव चेतना को शुद्ध करेगी।'
निकोलाई मानवता के प्रति इतने संवेदनशील हो गये थे कि उन्होंने कहा 'हमें केवल म्यूजियमों, थियेटरों, विश्वविद्यालयों, सार्वजनिक स्थलों, पुस्तकालयों और अस्तपतालों को ही नहीं सजाना है, बल्कि बंदीगृहों को भी सजाना और उन्हें सुन्दर बनाना है, कि वे बंदीगृह ही न रहें।' (हिमालय की आत्मा का चितेरा निकोलाई रेरिख, ले. डॉ. जगदीश चंद्रिकेश)।
रवीन्द्रनाथ टैगोर उनसे काफी प्रभावित थे उन्होंने रेरिख के बारे में लिखा ' ललित कलाओं के इतिहास में समय-समय पर ऐसे अनेक व्यक्ति पैदा हुए हैं, जिनका कृतित्व अपनी गुणात्मक विशिष्टता के कारण उन्हें उनके समकालीनों से अलग, एक विशेष स्थान दिलाता रहा है।
उस विशिष्टता के कारण उन्हें किसी ज्ञात श्रेणी में रखना या किसी धारा विशेष से जोड़ना संभव नहीं है, क्योंकि वे अपने-आप में अकेले व अद्वितीय होते हैं। रेरिख अपने चरित्र और कला की दृष्टि से उन्हीं गिने-चुने कलाकारों में से एक रहे हैं।'
अपने भारत प्रेम को रेरिख ने यूँ जाहिर किया
'ओ भारत
हे अत्यंत सौंदर्यमय देश
मुझे अनुमति दो
अपने हृदयोल्लास को
तुम्हें अर्पित करने की
मेरा हृदय
तुम्हारे प्राचीन नगरों, मंदिरों
तुम्हारी वादियों,पवित्र नदियों
और हिमालय की भव्यता
के वैभव से अभिभूत है
अनुप्रेरित है...’
निकोलाय रेरिख रूसी चित्रकार, लेखक, पुरातत्वविद् और दार्शनिक थे। बौद्ध धर्म से तो वे प्रभावित थे ही इसके अलावा वे थियोसोफिस्ट थे। उनके पिता कांस्तनतिनोविच फ्योदरविच रेरिखस्कैंडिनेवियाई (योद्धा) मूल के थे और माँ मरिया वसिलियेव्ना का संबंध रूस के प्रख्यात प्स्कोव परिवार से था। कांस्तनतिनोविच पेशे से वकील (सेंट पीटर्सबर्ग सर्किट कोर्ट) थे। और उन्होंने अपने पैसे से सेंट पीटर्सबर्ग के पास ही एक स्टेट खरीदा। जिसके भवन में उन्हें एक डच चित्रकार द्वारा बनाया गया हिमालय पर्वत श्रृंखला का चित्र मिला जिसमें सूर्यास्त के सुन्दर रंगों से प्रकाशमय कंचनजंघा पर्वत माला की बर्फ से ढकी चोटियां चित्रित थीं। इस चित्र ने निकोलाय रोरिख के बाल मन को बहुत प्रभावित किया और वे भारत के प्रति आकर्षित हुए। उस भवन में एक पुस्तकालय भी था जिसने उनमें इतिहास के प्रति प्रेम पैदा किया ।
बचपन से ही निकोलाय रेरिख चित्रकला, अध्ययन और पुरातत्व में रूचि रखते थे। उनके पिता के चित्रकार मित्र मिखाइल मीकेशीन ने उन्हें चित्रकला की प्रारंभिक शिक्षा दी। लेकिन उनके पिता की इच्छा थी कि रेरिखभी वकील बनें। अतः स्कूली शिक्षा के बाद निकोलाई ने इंपीरियल यूनिवर्सिटी की लॉ फैकल्टी में दाखिला लिया साथ ही पिता को सहमत कर, इंपीरियल अकादमी ऑफ फाइन आर्ट्स में भी दाखिला लिया। कला शिक्षा के दौरान ही कला शिक्षक आर्किप कुइनजी के प्रभाव में रेरिख ने अपनी मौलिक शैली विकसित की।
उनके चित्रों में ऐतिहासिक विषय और प्राकृतिक दृश्यों का समन्वय था। वे इतिहासकार स्तासोव की इस मान्यता से प्रभावित थे कि प्राचीन रूसी सभ्यता और पूर्वी एशियाई सभ्यता के बीच संबंध रहा है। स्तासोव ने सिद्ध किया था कि रूसी लोक काव्य, पर्शियन लोक काव्य- शाहनामा और भारतीय महाकाव्य महाभारत में समानताएं हैं। इससे प्रभावित होकर निकोलाय रोरिख ने ऐतिहासिक घटनाओं पर चित्र श्रृंखला बनाई जिसमें 'संदेश-वाहक शीर्षक चित्र को काफी प्रसिद्धि मिली। रेरिख तालस्ताय से भी मिले और उनसे बहुत प्रभावित हुए।
कला के बारे में और ज्यादा जानने के लिए रेरिख बर्लिन, ड्रेस्डेन, म्यूनिख होते हुए पेरिस पहुंचे। गोगा और देगा से काफी प्रभावित हुए। रूस वापस पहुंचने पर उनकी 1901 में हेलेना से शादी हो गई। हेलेना के पिता एक कुशल आर्किटेक्ट थे जिनकी मृत्यु हो चुकी थी। उनके बड़े बेटे यूरी (जार्ज) का सन् 1902 में और छोटे पुत्र स्व्यातोस्लाव(स्वेतोस्लाव) का सन् 1904 में जन्म हुआ।
1904 में रेरिख ने लोक कथाओं पर आधारित एक चित्र बनाया 'आगत अतिथि ' जिसमें शांति के संदेश को चित्रित किया गया था।
विनष्ट होती प्रकृति के प्रति चिंता जतलाते हुए निकोलाय ने एक लेख लिखा जिसमें बताया कि पाषाणयुग मानवता का स्वर्णयुग था, क्योंकि उसमें मानव प्रकृति के साथ मिलकर सामंजस्य के साथ रहता था और उसके लिए कार्य तथा कला एक ही थी। रेरिख की दृष्टि में आधुनिक सभ्यता ने अतीत के सबसे सम्पन्न तत्व सौंदर्य को खो दिया है। उन्होंने लिखा-- 'हरेक सुन्दर वस्तु हमारी जिन्दगी से गायब हो गई है। हमारे समय में व्याप्त व्यापक नैराश्य एवं उदासीनता है उसमें सौंदर्य के लिए तो कोई स्थान नहीं रह गया है। '( निकोलाई रेरिख, लेखक डॉ. जगदीश चंद्रिकेश)
1903 में रेरिख अपनी पत्नी हेलेना के साथ रूस के भ्रमण के लिए निकल पड़े। जिसमें उनका उद्देश्य था रूस की प्राचीन इमारतों, स्मारकों और स्थापत्य के अध्धयन का। जिनको उन्होंने चित्रों में बड़े और गतिशील तूलिकाघात (ब्रश स्ट्रोक्स) से चित्रित किया। उन्होंने ये चित्र आम जनता को अपनी प्राचीन स्थापत्य और सांस्कृतिक विरासत का महत्व समझाने और संरक्षण के लिए चित्रित किया । इन चित्रों की सफल प्रदर्शनी रूस, प्राग, वियाना, वेनिस , म्यूनिख,बर्लिन आदि शहरों में हुए और विश्व प्रसिद्ध संग्रहालयों ने उनके चित्रों को खरीदा।
निकोलाय रेरिख ने 1917 के रूसी जन क्रांति का समर्थन किया। उन्होंने लोक कलाओं और हस्तकलाओं को भी बहुत महत्त्व दिया। उनके अनुसार कला केवल म्यूजियम और गैलरियों के लिए ही नहीं,बल्कि दैनिक जीवन के उपयोग का अभिन्न अंग होनी चाहिए ।उन्होंने ललित कला और हस्त कला को एक समान ही महत्व दिया ।
रेरिख बहुमुखी प्रतिभा वाले थे वे रंग मंच के प्रसिद्ध डिजाइनर थे। उन्होंने इब्सन के एक पांच अंकीय नाटक लिए तेरह सेट बनाए। जिन्होंने रूसी कला में अपने प्रतिमान स्थापित किये।
निकोलाय के लिए 1910 आवसादपूर्ण रहा। इसी साल तालस्ताय और उनके कला शिक्षक आर्किप कुइनजी की मृत्यु हो गई थी। यह समय रूस में युद्ध और अशांति का समय था।
रूसी जनक्रांति के दौरान ही अत्यधिक कठोर श्रम के कारण रेरिख निमोनिया ग्रस्त हो गये और स्वास्थ्य लाभ के लिए परिवार समेत फिनलैंड चले गये।
वहां वह स्वास्थ्य लाभ करते कला सृजन में पूरी तरह से डूब गये। हलांकि रूस के हालात से वे बेहद चिंतित और व्यथित थे। यद्यपि रोरिख की शिक्षा-दीक्षा पाश्चात्य पद्धति में हुई थी। लेकिन पूर्व के संस्कृति की ओर उनका झुकाव बचपन से था। भारतीय धर्म और दर्शन के संपर्क में वे पहले से ही थे। यह झुकाव उनका अपनी ऑ ऑ हेलेना के कारण भी हुआ। रबीन्द्रनाथ टैगोर कि कविताएं उन्हें पसंद थीं। प्राचीन स्लाव और भारतीय संस्कृति के गहन अध्ययन से उनका विश्वास गहरा होता गया कि दोनों संस्कृतियां किसी एक मूल से विकसित हुईं हैं। इस लगाव के कारण वे चिंतित थे कि अंग्रेज अपने अधीनस्थ भारतीय संस्कृति को नष्ट कर डालेंगे।
उनके एक मित्र दिघिलेव ने 'प्रिंस इगोर के नाटक के सेट बनाने के लिए ब्रिटेन आमंत्रित किया और 1919 में निकोलाय सपरिवार ब्रिटेन पहुंचे। ब्रिटेन में रोरिख द्वारा ओपेराओं के बनाये गये लिए बनाए गए सेट इतने सराहे गए कि अन्य देशों से भी बुलाया जाने लगा। ब्रिटेन में ही वो पहली बार रबीन्द्रनाथ टैगोर से मिले। रबीन्द्रनाथ टैगोर ने उन्हें भारत आने का निमंत्रण दिया परंतु ब्रिटिश हुकूमत के असहयोग के कारण रेरिख भारत नहीं जाने पाये। शिकागो आर्ट इंस्टीट्यूट के निर्देशक रोबर्ट हार्शे के निमंत्रण पर 3 अक्तूबर 1920 को पानी के जहाज से न्यूयार्क पहुंचे। जहाँ उन्होंने ढेरों चित्र बनाए जिसकी प्रदर्शनी लगाई गई। उनके चित्र अमेरिकी दर्शकों के लिए बिल्कुल नये ढंग के थे।
निकोलाय रेरिख ने न्यूयार्क में मास्टर इंस्टीट्यूट ऑफ यूनाइटेड आर्ट्स खोला जहाँ सभी कलाओं का प्रशिक्षण दिया जाता था। अमेरिका में रेरिख के सम्मान में रेरिख म्यूजियम की स्थापना की गई। जिसमें उनके एक हजार से ज्यादा चित्रों को संग्रहित किया गया।
बहुत कोशिश और तैयारी के बाद रेरिख 2 दिसंबर 1923 को जलयान से सपरिवार मुंबई पहुंचे।
वे भारत के कला संस्कृति का गहन अध्ययन करना चाहते थे। इसकी शुरूआत उन्होंने मुंबई के एलीफेंटा की गुफाओं से करते हुए जयपुर, बनारस, सारनाथ होते हुए कोलकाता पहुंच कर रविन्द्रनाथ टैगोर से मिले। कोलकता के दार्शनिक, विचारक और कलाकारों ने रेरिख और उनके अभियान का स्वागत किया। इसके बाद वे दार्जिलिंग पहुंच कर सिक्किम के पास एक सुन्दर स्थल पर ठहरे। पांचवें दलाई लामा जिस घर में रूके थे उसे रेरिख ने अपना निवास-स्थान बनाया। जहां से हिमालय पर्वत श्रृंखला के सुन्दर और मनोरम दृश्य दिखाई पड़ता था। दार्जीलिंग के कुछ महीने के प्रवास के दौरान उन्होंने 'हिज कंट्री 'शीर्षक से चित्र श्रृंखला बनाई जिसमें हिमालय पर्वत श्रृंखला को उच्च आध्यात्मिक सौंदर्य के साथ चित्रित किया।
दरअसल रेरिख ने बहुत पहले से ही भारत और मध्य एशिया में हिमालय के मैदानी तथा अल्ताई व मंगोलिया में विकसित सभ्यता और संस्कृति के गहन वैज्ञानिक अध्ययन अभियान की योजना बना रखी थी। जिसके लिए उन्होंने कश्मीर,सिक्किम, लद्दाख, के दुर्गम पहाड़ियों को लांघा और प्राकृतिक दृश्यों पर आधारित सुन्दर चित्रण किया। इस अभियान के दौरान उन्हें और उनके काफिले को अत्यंत कठिन स्थितियों से गुजरना पड़ा।
ब्रिटिश सरकार को रेरिख का अभियान पसंद नहीं था, क्योंकि रेरिख ने अपने कार्यो द्वारा पौरवात्व के ज्ञान-विज्ञान और उसकी महानता को उजागर किया था। रेरिख के इस कार्य ने साम्राज्यवादी अंग्रेजों को एक गंभीर चिंता में डाल दिया था। इसी बीच रेरिख मास्को भी गए थे। इसलिए रेरिख पर भारत आगमन के साथ ही गुप्तचर निगरानी आरंभ हो गई थी। हिमालय अभियान के दौरान जब रेरिख तिब्बत की सीमा में प्रवेश कर रहे थे तो ब्रिटिश सरकार के इशारे पर तिब्बती सेना ने हिरासत में लेकर उन्हें और उनकी पत्नी को अमानवीय यंत्रणाएं पहुंचाई।
इन यंत्रणाओं की कहानी रेरिख द्वारा न्यूयार्क स्थित रेरिख म्यूजियम को भेजे गये तार से पता चलता है। 1947 में रूस के महान विजय और भारत की स्वतंत्रता का उत्सव मनाने के साथ ही हृदय रोग के कारण उनकी मृत्यु हो गई।
उनके बड़े पुत्र यूरी रेरिख विश्व स्तर के प्राच्यविद्याविद एवं पुरावेत्ता थे। वहीं स्वेतोस्लाव रेरिख अंतररार्ष्ट्रीय ख्याति के चित्रकार थे। भारतीय हिन्दी फिल्म अभिनेत्री देविका रानी उनकी पत्नी थीं।
एक प्रतिभावान, संवेदनशील और साहसिक चित्रकार निकोलाय ने जो भारतीय प्राकृतिक और सांस्कृतिक संपदा का सुन्दर वर्णन और अंकन किया है वे अद्भुत हैं। इसके लिए भारत उनका हमेशा आभारी रहेगा।
कला आशा और विश्वास का प्रतीक है। रेरिख के अनुसार, 'विश्व में शांति केवल कला और संस्कृति के माध्यम से ही स्थापित हो सकती है, क्योंकि, कला पीड़ित मानवता को स्नेहिल स्पर्श प्रदान करती है।' ( निकोलाई रोरिक, ले. डॉ. जगदीश चंद्रिकेश)
(लेखक डॉ. मंजु प्रसाद एक चित्रकार हैं। आप इन दिनों लखनऊ में रहकर पेंटिंग के अलावा ‘हिन्दी में कला लेखन’ क्षेत्र में सक्रिय हैं।)
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