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ऑस्ट्रेलिया: नौ साल बाद लिबरल पार्टी सत्ता से बेदख़ल, लेबर नेता अल्बानीज होंगे नए प्रधानमंत्री

ऑस्ट्रेलिया में नतीजों के गहरे निहितार्थ हैं। यह भी कि क्या अब पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन बन गए हैं चुनावी मुद्दे!
Anthony Albanese
पार्टी की जीत के बाद विजय रैली में लेबर पार्टी के नेता एंथनी अल्बानीज अपने परिवार के साथ। फोटो साभारः रायटर्स

दुनिया भर की: शनिवार को हुए ऑस्ट्रेलिया के संसदीय चुनावों में विपक्षी लेबर पार्टी की जीत अप्रत्याशित तो नहीं है क्योंकि चुनावों से पहले जितनी रायशुमारियां आ रही थीं, उन सभी में लेबर पार्टी की जीत के अनुमान लगाए ही जा रहे थे। हालांकि मतदान का दिन नजदीक आते-आते लेबर व प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन की सत्तारुढ़ लिबरल पार्टी के बीच का अंतर घट सा रहा था। फिर भी लेबर ने नई सरकार बनाने लायक सीटें हासिल कर ही ली हैं, हालांकि उसे अभी तक पूर्ण बहुमत हासिल नहीं हुआ है।

यह तय ही हो गया है कि लेबर पार्टी के नेता एंथनी अल्बानीज ऑस्ट्रेलिया के नए प्रधानमंत्री होंगे। इस तरह वहां पिछले नौ सालों से चल रहा लिबरल पार्टी का शासनकाल खत्म हो गया है। ऑस्ट्रेलिया की राजनीति में आम तौर पर लेबर व लिबरल पार्टी की सीधी भिड़ंत रही है। इसीलिए वहां के चुनाव एकतरफा कम ही होते हैं। सीटों की संख्या के लिहाज से किसी एक पार्टी को प्रचंड बहुमत मिलने वाली स्थिति वहां नहीं होती। यही स्थिति इस बार भी है, लेकिन इस बार के नतीजे इन दोनों बड़ी पार्टियों की सीधी टक्कर के अलावा भी कई निहितार्थ की ओर संकेत कर रहे हैं।

अभी तक जो नतीजे सामने आ रहे हैं, उनके हिसाब से ऑस्ट्रेलिया में इन चुनावों में जलवायु परिवर्तन व पर्यावरण को लेकर चिंता एक बड़ा मुद्दा रहा है। वहां की ग्रीन पार्टी हमेशा इन मुद्दों पर लड़ती रही है। इस बार न केवल उसे मिलने वाला समर्थन बढ़ा है, बल्कि लैंगिक समानता व जलवायु परिवर्तन से लड़ने के मुद्दे पर खास तौर पर मैदान में उतरे कई निर्दलीय उम्मीदवार—जिन्हें टील इंडीपेंडेंट कहा गया है—जीते हैं और उन्होंने चुनावों की दिशा पलटी है। मजेदार बात यह है कि इन प्रत्याशियों ने लिबरल पार्टी की हार में तो महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ही, लेबर पार्टी के वोट भी कई जगह काटे।

इससे यह बहस यकीनी तौर पर तेज होगी कि क्या आगे के चुनावों में—और यहां हम ऑस्ट्रेलिया के बाहर के चुनावों की ओर भी संकेत कर रहे हैं—किसी भी राजनीतिक धारा के लिए पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन के मुद्दों को नज़रअंदाज करना मुमकिन होगा?

ऑस्ट्रेलिया में निचले सदन—जिसे हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्ज यानी प्रतिनिधि सभा कहा जाता है—में कुल 151 सीटें हैं। बहुमत के लिए किसी भी पार्टी को 76 सीटें जीतनी होती हैं। सदन का कार्यकाल केवल तीन साल का होता है। यानी वहां सरकार बनाने के लिए हर तीसरे साल चुनाव होते हैं। ऊपरी सदन यानी सीनेट में 76 सीटें हैं—12-12 सभी छह राज्यों की और 2-2 दो केंद्र शासित क्षेत्रों की—और उसकी आधी सीटों के लिए भी चुनाव हर तीसरे साल निचले सदन के चुनावों के साथ ही होते हैं।

ख़ुशी जताते लेबर पार्टी के समर्थक। फोटो साभारः रायटर्स

अभी इस बार के चुनावों के सारे वोट नहीं गिने गए हैं। इसलिए वहां अंतिम नतीजे आने में वक़्त लगेगा, कई दिन भी लग सकते हैं। कोविड के कारण इस बार रिकॉर्ड 27 लाख लोगों ने वहां पोस्टल बैलेट का इस्तेमाल किया। उनके अलावा लाखों लोगों ने यात्रा या किसी कार्यवश पहले मतदान का विकल्प भी चुना था। उन सबकी गिनती रविवार दोपहर से शुरू होगी। अभी तक की गिनती के अनुसार लेबर पार्टी के खाते में करीब 72 सीटें जाने वाली हैं और स्कॉट मॉरिसन के लिबरल-नेशनल गठबंधन के खाते में 55 सीटें। सबसे हैरान करने वाले नतीजों में ग्रीन पार्टी व निर्दलीयों ने 11 सीटें जीतने की तरफ कदम बढ़ा दिए हैं। बाकी बची 13 सीटों को लेकर थोड़ा संशय है।

लेबर पार्टी को उम्मीद है कि बचे हुए वोटों की गिनती पूरी होने तक उसे पूर्ण बहुमत मिल जाएगा। नहीं भी मिला तो उसे ग्रीन व निर्दलों का समर्थन मिल जाएगा। 2010 में भी लेबर पार्टी ने ग्रीन पार्टी के समर्थन से ही अल्पमत सरकार बनाई थी। नौबत आई तो ऐसा फिर से होने में कोई दिक्कत नहीं होगी।

लेकिन इसे ऑस्ट्रेलिया की राजनीति की परिपक्वता ही कहा जाएगा कि इतनी बड़ी संख्या में वोटों की गिनती का काम अभी बाकी होने के बावजूद प्रधानमंत्री मॉरिसन ने अब तक के रुझान के आधार पर अपनी हार स्वीकार कर ली और लेबर पार्टी के नेता को जीत की बधाई भी दे दी। अब लेबर पार्टी के अल्बानीज को उम्मीद है कि सोमवार को वह शपथ ग्रहण करके सत्ता संभाल लेंगे ताकि वह मंगलवार को टोक्यो जाकर क्वाड देशों की शिखर बैठक में हिस्सा ले सकें। वहां वह बाइडेन व मोदी से मुलाकात करने वाले हैं।

ऑस्ट्रेलिया भरपूर जैव विविधता वाला देश है। लेकिन पिछले कुछ सालों से यह महाद्वीपीय देश पर्यावरण आपदाओं को झेलता आ रहा है- हर साल कहीं न कहीं होने वाला भीषण दावानल या फिर भयानक बाढ़। लोग पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन को लेकर नीति-निर्माताओं की निष्क्रियता से परेशान से हैं। पिछले साल मई में लोवी इंस्टीट्यूट के एक सर्वे में तकरीबन 60 फीसदी ऑस्ट्रेलियाई लोगों ने माना था कि जलवायु परिवर्तन एक गंभीर समस्या बनती जा रही है।

ग्रीन पार्टी व टील निर्दलीयों ने लोगों के इसी गुस्से का फायदा उठाया। सत्तारूढ़ लिबरल पार्टी को खास तौर पर पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में शहरी मतदाताओं की तगड़ी नाराजगी झेलनी पड़ी। लिबरल पार्टी के कम से कम चार मंत्रियों को अपनी सीटें टील निर्दलों के हाथों गंवानी पड़ी, इनमें पार्टी के उपनेता और देश के वित्त मंत्री जोश फ्रिडनबर्ग भी शामिल हैं, जिन्हें मॉरिसन का उत्तराधिकारी माना जा रहा था।

यही कारण था कि नतीजों के बाद लेबर पार्टी की विजय रैली में अल्बानीज ने भी मौसम के मुद्दे का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि वह ‘जलवायु जंग’ को खत्म करना चाहते हैं। हालांकि उनके भाषण में एक और अहम बात ऑस्ट्रेलिया के मूल अब्रोजिनल लोगों को संवैधानिक मान्यता और संसदीय प्रतिनिधित्व देने की भी थी।

अल्बानीज खुद एक श्रमिक वर्ग से आते हैं। उनकी छवि लोगों को जोड़ने वाले और एक व्यावहारिक नेता के रूप में है। यही वजह है कि वह देश में लोगों के बीच की खाइयों को पाटने के लिए कहते हैं। वह खुद को पिछले 121 साल के इतिहास में प्रधानमंत्री पद के लिए खड़े होने वाले पहले गैर-अंग्रेजी सेल्टिक नाम वाले नेता के तौर पर देखते हैं।

अल्बानीज अभी महज 59 साल के हैं लेकिन उन्होंने 26 साल पहले 1996 में ही संसद में पहली बार कदम रख लिए थे। जब 2007 से 2013 में सत्ता में  रहने के दौरान लेबर पार्टी आपसी खींचातानी में लगी थी तो अल्बानीज ने दोनों ही खेमों को जमकर आड़े हाथों लिया था। उन सालों ने लोगों को मिलाने वाले के रूप में उनकी छवि को खूब उभारा। 2010 में अल्पमत सरकार चलाने में भी उनकी इस छवि का योगदान रहा।

महज 12 साल की उम्र में अल्बानीज ने एक किराया हड़ताल करने में मदद दी थी ताकि जिस सार्वजनिक निवास में वह अपनी अकेली मां के साथ रहते थे, उसे डेवलपर्स को बेचा न जाए। श्रमिक वर्ग को विरासत में मिलने वाले सामाजिक न्याय क अनुभव को उन्होंने बचपन से जीया। उनकी मां विकलांग पेंशन से गुजरबसर करती थी और कई बार उन्हें भोजन के लिए पड़ोसियों के भरोसे रहना पड़ता था।

अल्बानीज अपने परिवार से यूनिवर्सिटी जाने वाले पहले व्यक्ति थे और वह छात्र राजनीति में जल्द ही कूद पड़े। 22 साल की उम्र में वह लेबर पार्टी की युवा इकाई के प्रेसिडेंट बन गए। वह लेबर पार्टी की बॉब हॉक की सरकार में शोध का काम करने लगे।

देखना होगा कि उनका व्यावहारिक अनुभव ऑस्ट्रेलिया को इसकी मौजूदा मुश्किलों से पार ले जाने में कितना कारगर रहता है।

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लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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