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अयोध्या केस को गलत तरीके से हिंदू-मुस्लिम विवाद के तौर पर पेश किया गया: हिलाल अहमद

CSDS से जुड़े अहमद की मानें तो अब मुस्लिमों की चिंताओं के समाधान के लिए शांति और सद्भाव की राजनीति पर आधारित एक वैकल्पिक तरीके की गुंजाइश है।
hilal ahmad
हिलाल अहमद

हिलाल अहमद ''सेंटर ऑफ डिवेल्पिंग सोसायटीज'' में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। वे दक्षिण एशिया में मुस्लिम पहचान और प्रतीकों की राजनीति के विशेषज्ञ भी हैं। न्यूज़क्लिक के साथ इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि कैसे अयोध्या विवाद, हिंदू-मुस्लिम द्विभाजन में बदल गया। आज के भारत में मुस्लिमों की चिंता को दूर करने के लिए हिलाल एक वैकल्पिक तरीका बताते हैं। इसके तहत 'शांति और सामाजिक सद्भाव' के जरिए स्मृति आधारित आस्था का ऐतिहासिकता  की बजाए नैतिक आधार पर मूल्यांकन करना होगा।

आपकी हाल की किताब ''सियासी मुस्लिम्स: अ स्टोरी ऑफ पॉलिटिकल इस्लाम इन इंडिया'' में आपने मुस्लिमों में जातियों की बात की है। क्या आपको लगता है कि अयोध्या विवाद, फ़ौरी तौर पर ही सही, मुस्लिमों में जाति और वर्ग के पार जाने में कामयाब रहा है।

यह एक अहम सवाल है, जिसे विस्तार से बताने की जरूरत है। निश्चित तौर पर मुस्लिम जाति, क्षेत्र, भाषा और वर्ग के आधार पर बंटे हुए हैं। इसके बावज़ूद उनमें एक होने का भाव मौज़ूद है, कम से कम दो अलग-अलग आधारों पर तो निश्चित, इसी से उनकी इस्लाम धर्म और मुस्लिमों की कल्पना विकसित होती है।

सकारात्मक तौर पर, मुस्लिम नाम वाले लोगों और समूहों को जो खुद को इस्लामिक कहना पसंद करते हैं, उन्हें भारत में कानूनी तौर पर सजातीय समूह माना जाता है। इन्हें संविधान द्वारा धर्म और संस्कृति जैसे सामूहिक अधिकार मिले हैं।

लेकिन यह तब नकारात्मक आधार हो जाता है, जब मुस्लिम सजातीयता, राजनीतिक तौर पर निशाने पर आ जाती है। जैसे जब मुस्लिम नाम और कानूनी तौर पर मान्यता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थानों को हिंदुत्ववादी राष्ट्रवादियों द्वारा हिंसा का शिकार बनाया जाता है। मुस्लिम सजातीयता के इन दो विरोधी मतों से हमारे समय के दो प्रभावी राजनीतिक नजरिए बनते हैं। पहला कानूनी-संवैधानिक उदारवादी नजरिया और दूसरा हिंदू राष्ट्रवादी नजरिया।

उदार संवैधनिकतावादी, अल्पसंख्यक अधिकारों के आधार पर मुस्लिमों का बचाव करते हैं। वहीं हिंदू राष्ट्रवादी, अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक ढांचे को नकार देते हैं और इसे मुस्लिम तुष्टीकरण कहते हैं। लेकिन इनके तर्कों को गौर से देखने पर हमें एक अहम बात नज़र आती है। दोनों मुस्लिमों को एक ऐसे समुदाय के तौर पर देखते हैं, जिसकी एक दूसरे समुदाय, हिंदुओं से तुलना हो सकती है।

हिंदू-मुस्लिम द्विभाजन प्रायोगिक नज़रिए से कमजोर, सामाजिक तौर पर अस्थिर और राजनीतिक हिसाब से अनर्थकारी है। इसलिए आप जो अहम सवाल उठाते हैं, उन्हें हिंदुओं के दावे और उसपर मुस्लिम प्रतिक्रिया के ढांचे से अलग होना चाहिए।

मुस्लिमों की चिंताएं दूर करने के लिए मैं इसकी जगह एक दूसरा तरीका बताता हूं। जिस मुस्लिम समुदाय से हमारा दैनिक जीवन में परिचय होता है और एक समुदाय के तौर पर जिस मुस्लिम समाज की हम कल्पना करते हैं, उनमें अंतर होना जरूरी है। दैनिक जीवन में मुस्लिमों से आचार-विचार बहुत सामान्य होता है। यहां तक कि एक कट्टर हिंदू एक्टिविस्ट भी इन आचार-विचार को एक अलग अनुभव नहीं मानता। लेकिन जब भी देशव्यापी मुद्दों, जैसे पाकिस्तान से युद्ध, अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद या मुस्लिमों का चुनावी व्यवहार, इन पर हमें सोचने की जरूरत पड़ती है तो हम अपनी बनी-बनाई कल्पना को आधार बना लेते हैं। इसमें मुस्लिमों को सजातीय तौर पर रूढ़ और आधुनिकता विरोधी समुदाय के तौर पर पेश किया जाता है। इस स्थिति से पार पाने के लिए हमें खुले दिमाग वाले, प्रायोगात्मक और मुद्दे से जुड़े हुए तर्क पेश करने होंगे। यही मैं अपने काम के दौरान करता हूं।

लेकिन मुस्लिमों के लिए बाबरी मस्ज़िद की क्या अहमियत है; क्या इस मुद्दे पर वे वर्ग और जाति के विचार को छोड़ देंगे?

यहां एक चीज साफ करना जरूरी है। बाबरी मस्ज़िद या अयोध्या के विवादित ढांचे पर कथित ''तटस्थ मत'' की बात एकतरफा है। बाबर द्वारा एक मंदिर को सिर्फ धार्मिक कारणों से गिराए जाने की बात साबित करना संभव नहीं है। पुरातत्ववेत्ता ऐतिहासिक समुदायों या व्यक्तियों की नीयत का पता नहीं लगा सकते (पर जैसा कोर्ट ने आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की 2003 में पेश की गई एक रिपोर्ट को इस केस में सबूत के तौर पर माना है)।

लेकिन इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि बाबरी मस्ज़िद को हिंदुत्वावादियों ने धर्म के नाम पर 16 दिसंबर,1992 को गिराया था। इस तरह अयोध्या विवाद प्राथमिक तौर पर बाबरी मस्ज़िद के बारे में है। राम मंदिर इससे जुड़ा हुआ एक मुद्दा है। मस्ज़िद के केंद्र में होने से हमें यह अनुभव होता है कि सभी मुस्लिम इसके लिए चिंतित हैं। लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है।

मेरी पहली किताब, ''मुस्लिम पॉलिटिकल डिस्कोर्स इन पोस्टकॉलोनियल इंडिया: मोन्यूमेंट्स, मेमोरी एंड कंटेस्टेशन (2014)'' में बाबरी विवाद और इसके एक मुस्लिम मुद्दे के तौर पर उभरने का परीक्षण किया गया है। मैंने पाया कि बाबरी विवाद, 1949 से स्थानीय विवाद था, लेकिन 1986 के बाद हिंदू और मुस्लिम कट्टरपंथियों ने इसे पूरे भारतीय मुस्लिमों पर थोप दिया।

मुस्लिम नेताओं ने 1991 में अपनी दो मांगों के पूरे होने के बाद इसे छोड़ दिया। उनकी पहली मांग थी कि धार्मिक जगहों की रक्षा के लिए कानून बनाया जाए और दूसरी मालिकाना हक़ का मामला हाईकोर्ट की एक विशेष पीठ को सौंपा जाए। हिंदुत्ववादियों की भी मांग पूरी हो गईं। विवादित जगह पर एक सुचारू मंदिर बन गया और कोर्ट में केस पर भी नियंत्रण मिल गया। यह मंदिर आज भी वहां  है और विश्व हिंदू परिषद (आरएसएस का एक उग्र अनुषांगिक संगठन) ने केस मे रामलला विराजमान को भी पार्टी बनाने का समर्थन किया।

तो यह हिंदू और मुस्लिमों, दोनों के लिए जीत थी। लेकिन हिंदुत्व की राजनीति को इस मामले का हिंदू राष्ट्र पर आधारित अपनी राजनीति के लिए इस्तेमाल करना था। इसलिए बाबरी मस्ज़िद के ढांचे को गिराए जाने के बाद वीएचपी एक बड़े राम मंदिर निर्माण के प्रस्ताव के साथ आई। इस पृष्ठभूमि के उलट, अगर अब फ़ैसला रामलला विराजमान और निर्मोही अखाड़ा (केस की दो पार्टियां) के खिलाफ भी आता है तो भी मुस्लिम एक सजातीय समूह नहीं बनेंगे।

बीजेपी मुस्लिमों को ''बाहरी'' बताती रही है। 2014 के बाद लिंचिंग, असम में एनआरसी, कश्मीर और अब बाबरी (हालांकि यह सुप्रीम कोर्ट के रास्ते से आ रहा है)। इन सबका भारत में आज मुस्लिमों के लिए क्या मतलब है? अयोध्या केस में जजों से मुस्लिमों की क्या अपेक्षाएं हो सकती हैं?

पहले मैं बाबरी मस्ज़िद मामले की बात करता हूं। मैं कहता हूं कि मुस्लिमों की बाबरी मस्ज़िद में कोई रुचि नहीं है। इसके दो कारण हैं। पहला, जो मस्ज़िद या ढांचा था, उसे 1992 में तोड़ा जा चुका है, इसलिए विवादित जगह पर कोई मस्ज़िद नहीं है। दूसरा, वहां एक हिंदू मंदिर है, जो सभी हिंदुओं के लिए खुला है।

जिस जगह पर कभी मस्ज़िद थी, वहां अब एक हिंदू जाकर भगवान को भोग लगा सकता है और पूजा कर सकता है। लेकिन ऐसा मुस्लिमों के साथ नहीं है। किसी मुस्लिम को इस जगह पर प्रार्थना करने की अनुमति नहीं है। कानूनी प्रतिबंध भी मुस्लिमों को इस जगह पर नमाज करने से रोकते हैं, क्योंकि मुस्लिमों के पास बाबरी मस्ज़िद के लिए कोई विशेषाधिकार नहीं है। 1992 में हुए ध्वंस के बाद बाबरी मुस्लिमों के लिए एक बेमतलब मस्ज़िद बन चुकी है।

दूसरा कारण बाबरी मस्ज़िद पर होने वाली मुस्लिम राजनीति की प्रकृति है। सभी मुस्लिम पार्टियों और संगठनों ने AIMPLB की उच्चस्तरीय कमेटी को ध्वंस के बाद बाबरी मामले में कानूनी केस की देखरेख करने वाली मुख्य संस्था माना है। बाबरी मस्ज़िद एक्शन कमेटी ने एक दिसंबर,1993 को प्रस्ताव पास कर सभी तरह के विरोध कार्यक्रमों और गतिविधियों पर लगाम लगा दी थी।

आम मुसलमान जिन्हें मस्ज़िद को बचाने के नाम पर इकट्ठा किया गया था, उन्हें बाबरी मस्ज़िद के विध्वंस को एक राजनीतिक हार बताया गया। यहां तक कि 1991 के एक्ट और 2010 के हाईकोर्ट के फ़ैसले, जिससे सुन्नी वक्फ बोर्ड के दावे को मान्यता मिली, इन जैसी कानूनी उपलब्धियों का भी जश्न नहीं मनाया गया ताकि इस मुद्दे को जिंदा रखा जा सके।

इस तरह बाबरी मस्ज़िद का धार्मिक महत्व का खत्म होना और मुस्लिम नेताओं की बेईमानी के चलते मुस्लिम समुदाय के पास बाबरी मस्ज़िद केस से जुड़ने की कोई वज़़ह ही नहीं है।

आप कहते हैं कि मुस्लिमों की बाबरी मस्ज़िद में कोई रुचि नहीं है, इसके बावजूद मस्ज़िद को गिराए जाने के बाद बांग्लादेश, पाकिस्तान और भारत समेत पूरे उपमहाद्वीप में हिंसा हुई थी। क्या हिंसा के पीछे धार्मिक पवित्रता को नुकसान पहुंचाए जाने की भावना नहीं थी? ठीक इसी तरह बहुत सारी मस्ज़िदें ASI के द्वारा संरक्षित हैं, लेकिन इसके चलते उन्हें मंदिर तो नहीं बनाया जा सकता?

बाबरी मस्ज़िद को गिराए जाने का निश्चित ही भारतीय मुस्लिमों पर मनौवैज्ञानिक असर हुआ है। लेकिन यह भी उन्हें हिंसात्मक प्रतिक्रियावादी राजनीति के लिए नहीं उकसा पाया। 6 दिसंबर 1992 की घटना के बाद जो हिंसा हुई, उसे मुस्लिम प्रतिक्रिया कहना सही नहीं है। ज्यादातर मामलों में मुस्लिम इलाकों में दक्षिणपंथी हिंदू समूहों ने हमला किया। बहुत सारे अध्ययन, जिसमें न्यायायिक जांच भी शामिल हैं, उनसे पता चलता है कि 1992 के दंगों की प्रकृति प्राथमिक तौर पर मुस्लिम विरोधी थी। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि हम एक आम मुस्लिम और अंडरवर्ल्ड के अपराधी, जो मुस्लिम हैं, उनमें फर्क न करें। बॉम्बे ब्लास्ट केस असल में इसे साफ दिखाता है। अंडरवर्ल्ड की दुश्मनियों में एक नया सांप्रदायिक नजरिया आ गया और अपराधी, हिंदू और मुस्लिम हितों के प्रतिनिधि बनकर काम करने लगे।

पड़ोसी देशों में दंगे और मंदिरों पर हुए हमलों की प्रकृति प्राथमिक तौर पर अल्पसंख्यक विरोधी थी।  हमें याद रखना चाहिए कि बांग्लादेश और पाकिस्तान में अकसर अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न होता है, क्योंकि यह दोनों देश द्विराष्ट्र सिद्धांत से बने हैं।

मैंने ASI संरक्षित उन मस्ज़िदों, जिनमें नमाज़ नहीं होती, उनपर खूब लिखा है। तकनीकी कारणों के चलते यह मस्ज़िदें हमेशा से सांप्रदायिक तौर पर संवेदनशील रही हैं। मॉन्यूमेंट्स एंड आर्कियोलॉजिकल साइट्स एंड रिमेन्स एक्ट 1958 किसी इमारत की स्थिति उस आधार पर तय करता है, जिस तारीख को उसे ASI ने संरक्षित घोषित किया हो। अगर नोटिफिकेशन की तारीख पर इमारत का इस्तेमाल किसी धार्मिक गतिविधि के लिए नहीं हो रहा हो तो उसे अक्रियाशील स्मारक माना जाएगा। इस कानून में समस्याएं हैं। इसका वक्फ कानून और धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार से टकराव है।

1980 की मुस्लिम राजनीति इसी के आसपास घूमती थी और बाबरी मस्ज़िद का मुद्दा भी विरासतों के अधिकार पर होने वाले विमर्श का हिस्सा थी। इसी पृष्ठभूमि में ''प्रोटेक्शन ऑफ रिलीजियस प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट 1991'' पास हुआ था। हालांकि एक्ट मे ASI एक्ट को संबोधित नहीं किया गया था, लेकिन इससे ऐतिहासिक मस्ज़िदों को कानूनी व्याख्या मिली। इसलिए किसी मस्ज़िद को आस्था के आधार पर मंदिर में बदलने की संभावना पूरी तरह खत्म हो गई। हिंदुत्वावादी ताकतों ने भी मथुरा और काशी को छोड़कर अयोध्या पर ध्यान लगाना शुरू कर दिया। लेकिन आज की स्थितियों में ASI संरक्षित मस्ज़िदों पर दोबारा हिंदुत्ववादी राजनीति के शुरूआत से इंकार नहीं किया जा सकता।

और मुस्लिम विरोध के विमर्श पर मुस्लिमों की क्या समझ है?

यहां यह समझना अहम है कि मुस्लिमों की राजनीतिक प्रतिक्रिया को अकसर उर्दू, एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा, शरीयत/पर्सनल लॉ या बाबरी मस्ज़िद जैसे कुछ पहचान आधारित मुद्दों से ही समझा जाता है। इस संकीर्ण मुस्लिम रवैये की कल्पना को राजनीतिक पार्टियों ने बढ़ावा दिया और संरक्षित किया है।  कथित सेकुलर पार्टियों और मुस्लिम नेताओं ने भी इसे बल दिया है। यहां तक कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट, जिसने तथ्यात्मक तौर पर मुस्लिमों के पिछड़ेपन को बताया, उसे भी राजनीतिक शिकार के प्रतीक के तौर पर पेश किया गया।

इसके उलट बीजेपी ने ''बाहरी'' के तौर पर मुस्लिम पहचान को अपने हिंदुत्व वोट बैंक को साधने में इस्तेमाल किया। पिछली एनडीए सरकार से उलट, मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी जानबूझकर सीधे ''मु्स्लिम मुद्दों'' को खत्म करती है।मुस्लिमों की इस नकारात्मक पहचान से निश्चित हिंदू ध्रुवीकरण हुआ है।  अलग-अलग अध्ययनों में पता चला है कि राजनीतिक हिंदू पहचान 2014 के बाद भारत में निर्णायक तौर पर उभरी है। लेकिन यह हिंदू ध्रुवीकरण, मुस्लिमों की सामूहिक प्रतिक्रिया को पैदा करने में नाकामयाब रहा। लव जिहाद, घर वापसी, राम मंदिर, यहां तक कि तीन तलाक पर प्रतिबंध से भी बीजेपी के हिंदुत्व विमर्श पर मुस्लिमों को सीधे तौर पर नहीं उकसाया जा सका।

इस रणनीतिक असफलता के चलते हिंदुत्ववादी समूहों ने गोरक्षा की आक्रामक राजनीति पर ध्यान केंद्रित किया। इससे मॉब लिंचिंग के रूप में मुस्लिमों के खिलाफ एक नई तरह की हिंसा का जन्म हुआ। दंगे के उलट लिंचिंग इनके लिए मुफ़ीद है। इसमें एक ताकतवर प्रभाव बनाने के लिए मुस्लिमों को निशाना बनाया जाता है। मॉब लिंचिंग इस वक्त सबसे प्रभावी राजनीतिक हथियार है जो पूरे भारत में मुस्लिमों पर प्रभाव पड़ा है। इसके बावजूद यह मुस्लिम मुद्दे के रूप में राजनीतिक तौर पर नहीं उभर सका। हालांकि कांग्रेस ने 2019 के मेनीफेस्टो में मॉब लिंचिंग को रोकने के लिए कानून बनाने की बात कही थी, पर गैर बीजेपी पार्टियों ने इसे चुनाव में राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल नहीं किया है।

सार्वजनिक जीवन में मुस्लिमों के विरोधी चित्रण (साथ ही मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा के नए हथियार) ने मुस्लिमों को एक देशविरोधी समुदाय ''बाहरी'' के तौर पर चिन्हित कर दिया है। लेकिन इससे भी बीजेपी की हिंदुत्ववादी और विरोधियों की राजनीति में कोई सतत चुनावी द्विभाजन नहीं हुआ।

एक आम धारणा है कि अयोध्या का फैसला मुस्लिमों के पक्ष के खिलाफ जाएगा। यह धारणा हमारे समाज, राजनीतिक सिस्टम और न्यायव्यवस्था के बारे में क्या बताती है?

मुझे इस केस में कानूनी विवाद को विस्तार देने दीजिए। सुप्रीम कोर्ट में जो मामला चल  रहा है, उसे गलत तरीके से हिंदू-मुस्लिम विवाद के तौर पर पेश किया जा रहा है। पर ऐसा नहीं है। यह एक संपत्ति का विवाद है, जिसमें जमीन, एक ढांचा और जमीन के अधिकार के लिए तीन पक्ष लड़ रहे हैं।

सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला विराजमान, तीनों पक्षों ने बहुत अलग-अलग कानूनों, स्मृतियों और आस्थाओं के सहारे केस लड़ा है। वीएचपी के समर्थन वाली रामलला विराजमान ने आस्था पर आधारित तर्क दिए हैं, जिसमें कहा गया है कि हिंदू भगवान राम के दैवत्य में यकीन रखते हैं और उनकी भावनाओं का सम्मान करना चाहिए।

निर्मोही अखाड़ा ने विवाद के इतिहास को आधार बनाया है। वहीं उत्तरप्रदेश सुन्नी वक्फ बोर्ड ने कानून को केंद्र में रखकर जमीन का केस (मस्ज़िद का नहीं) बनाया है। हमें याद रखना चाहिए कि निर्मोही अखाड़ा वीएचपी की हिंदुत्ववादी राजनीति का दो स्तर पर विरोध कर रहा है। पहला, अखाड़ा ऐतिहासिक तौर पर वीएचपी के दावे को चुनौती दे रहा है। अखाड़े के मुताबिक वो 1934 से वो मुख्य दावेदार है। दूसरा, अखाड़ा मामले को क्षेत्रीय विवाद की प्रकृति का बताते हुए रामलला विराजमान के हिंदू राष्ट्रवादी प्रोजेक्ट को खारिज़ करता है।

साफ है कि हर पक्ष अपनी सहूलियत के हिसाब से चल रहा है और जमीन के हक़ को हिंदू और मुस्लिमों की सभ्यता का विवाद बनाने की कोशिश में है। इस स्थिति में कोर्टरूम अब थियेटर बन गया है, जहां विवाद के अलग-अलग पहलू सामने आ रहे हैं ताकि विवाद को जारी रखा जा सके।

इस देश के हिंदुओं या मुसलमानों ने इन संगठनों और लोगों को अपनी तरफ से बोलने का हक नहीं दिया है। न ही वे हिंदू धर्म और इस्लाम का आधिकारिक स्वरूप पेश कर रहे हैं। हां अयोध्या विवाद का हल जरूरी है। लेकिन समाधान में शांति से एक-दूसरे के साथ रहने वाले हिंदुओं और मुसलमानों की चिंताओं का हल निकाला जाए।

आपने स्मृतियों और इतिहास की बात की। स्मृतियों तो स्थिर नहीं होती, बल्कि लगातार नया स्वरूप लेती है। जैसे हमारे पास इस बात के कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है कि जिस जगह पर कभी बाबरी मस्ज़िद थी, वहां एक मंदिर हुआ करता था। इस कथित मंदिर के बारे में प्रमाण 19 वीं सदी के आखिर में सामने आए। इसलिए कोई उन चीजों की स्मृतियों का क्या किया जा सकता है जो कभी थी ही नहीं। लेकिन उनमें आज भयानक उठापटक करने की ताकत है?

हां स्मृतियां स्थिर नहीं होतीं। कई बार कुछ स्मृतियां हमारी सामूहिक आस्था का हिस्सा बन जाती हैं। इस केस में बाबरी मस्ज़िद एक विवाद की स्मृति है, जो हमारी आम सोच का हिस्सा बन चुकी है। यह स्मृतियां ऐतिहासिक तौर पर हिंदुओं और मुस्लिमों के बीच टकराव को सही ठहराती है और हिंदुओं के पीड़ित होने के विचार को सही बताती है।

इस तरह की सामूहिक भावनाओं को इतिहास के ठोस साक्ष्यों को पेश कर दूर नहीं किया जा सकता। इतिहासकारों की बाबरी मस्ज़िद पर 1991 में आई रिपोर्ट में राम मंदिर को तथ्यात्मक तौर पर ख़ारिज कर देना एक ऐसी ही कोशिश थी। यहां पेशेवर इतिहासकार पूरी तरह से गलत नहीं थे। उन्होंने वाकई अहम काम किया। लेकिन उनका फैसला राजनीतिक तौर पर गलत था। उन्होंने राम मंदिर की स्मृतियों/आस्था पर इतिहास के ठोस तथ्यों से सवाल उठाया। इससे हिंदुत्वावादी राजनीतिज्ञों को फायदा हुआ और उन्होंने विवाद की स्मृतियों को ''राम के होने की आस्था'' में बदल दिया।

इसका मतलब स्मृतियों पर सवाल नहीं उठाया जा सकता?

इसका ये मतलब नहीं है कि विवाद की स्मृतियों पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। मेरे विचार से इस तरह की स्मृतियों पर आधारित विवाद को नैतिक आधार पर तौलने की जरूरत होती है। उदाहरण के लिए किसी को तीन सवाल पूछने की जरूरत होती है:

क्या भारत के मुस्लिम और हिंदू समुदाय, मध्यकालीन शासकों की हरकतों के लिए जिम्मेदार हैं?

क्या मर्यादा पुरुषोत्तम राम को मानने वाले हिंदू को उनके नए मंदिर के लिए एक धार्मिक जगह को तोड़ने की जरूरत है?

क्या मुस्लिम एक ऐसी मस्ज़िद में अल्लाह के लिए नमाज अदा करेंगे जो अवैध जमीन पर बनी है?


इन बेहद सीधे सवालों से शांति और सद्भाव की सकारात्मक राजनीति गढ़ने के लिए अलग तरह की नैतिकता की जरूरत होती है। चुनावी दौड़ में लगी राजनीतिक पार्टियां ऐसा नहीं कर सकतीं क्योंकि उन्हें समूहों और समुदायों के चुनावी प्रबंधन पर निर्भर होना पड़ता है। गैर दलीय राजनीतिक संगठन और जनआंदोलन इसका जबाव हो सकते हैं।

पुरात्तव सिद्धांतों में भी इमारतों के नीचे नई खोजों के साथ बदलाव आते रहते हैं। बाबरी मस्ज़िद के मामले में क्या एक ऐसी स्थिति है जिसमें राज्य एक पक्ष बन चुका है जो जानकारी को बना और बदल रहा है? उदाहरण के लिए एनडीए के पहले कार्यकाल में शुरू हुआ पुरातत्व शोध। अब हमें इतिहास को दोबारा लिखने को कहा जा रहा है। आज बाबरी मस्ज़िद भारतीय राज्य, मुस्लिमों और हिंदुओं के लिए किस बात का प्रतीक है?

हां, राज्य अब एक पक्ष बन चुका है। यह प्रक्रिया 1991 में शुरू हुई थी जब राज्य ने विवादित समूहों को बुलाया था और उसे बाबरी मस्ज़िद पर समझौता नाम दिया था। जैसा मैंने चिन्हित किया कि सुप्रीम कोर्ट ने इशारा किया है कि एएसआई रिपोर्ट को वैज्ञानिक सबूत माना जाएगा, जबकि 1991 में आई इतिहासकारों की रिपोर्ट् (जिसमें राममंदिर के होने की संभावना से इंकार किया गया था) को केवल कुछ राजनीतिक तौर पर सक्रिय इतिहासकारों का नजरिया माना जाएगा।

इतिहास को एक नजरिए और पुरातत्व को भगवान राम की जन्मभूमि की खोज के संबंध में विज्ञान की तरह पेश करने वाली कानूनी व्याख्या में दिक्कत है। पेशेवर पुरातत्ववेत्ता जिस सामग्री को इकट्ठा करते हैं, उसके आधार पर अपने निष्कर्ष निकालते और नजरिया बनाते हैं। आखिर पुरातत्व खोजों की कई व्याख्याएं हो सकती हैं। अयोध्या में होने वाली पुरातत्व खुदाई के बारे में भी यह सही है। पुरातत्ववेत्ताओं ने कई बार अयोध्या में खुदाई की। लेकिन भगवान राम के जन्म का स्थान खोजने के लिए नहीं, बल्कि यह खुदाई ''परंपरा आधारित पुरातत्व'' के लिए की गई।

कोई नहीं जानता मालिकाना हक के मुक़दमे का क्या होगा। लेकिन इतना तय है कि अयोध्या मामले में पुरातत्वविज्ञान का मक़सद खारिज हो चुका है। अब पुरातत्व की दुनिया, जिसमें राम की कहानी गढ़ी गई, उसमें कुछ भी खोजना संभव नहीं है क्योंकि उनसे जुड़ा हुआ सबकुछ एक ठोस आस्था और रूढ़ीवादी विज्ञान में बदल चुका है।

हमें याद रखना चाहिए कि पेशेवर पुरातत्व हमेशा भविष्य के अतीत के बारे में चिंतित रहता है। यह प्रायोगिक कदम यह बताने के लिए उठाता है कि हमारी अतीत की समझ क्षणिक है. इसलिए हमें इसे रूढ़ और स्थायी नहीं बनाना चाहिए। हिंदुत्व के इतिहास को दोबारा लिखने का प्रस्ताव विवाद की स्मृति का ही अगला पड़ाव है।  पेशेवर इतिहास और दूसरा शांति और सद्भाव की राजनीति के दो आधारों के ऊपर इस पर सवाल उठाना चाहिए।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आपने नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Ayodhya Case Falsely Projected as Hindu-Muslim Conflict: Hilal Ahmed

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