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आज़ादी@75: भारत की आज़ादी की लड़ाई और वामपंथ

आज़ादी के आंदोलन में वामपंथियों ने क्या भूमिका निभाई थी इसपर मुख्यधारा में कभी कोई खास चर्चा नहीं हुई और अगर हुई भी है तो बहुत ही संकुचित दायरे में।
CPI

भारत के जनमानस से वामपंथी विचारधारा और वामपंथी आंदोलन के आज़ादी की लड़ाई में योगदान को ले कर अत्यंत अल्प जानकारियां हैं। लेकिन क्या जानकारी और चेतना का ये अभाव इस बात का सूचक है कि वामपंथी आंदोलन और वामपंथी संगठनों ने अंग्रेज़ों को देश से खदेड़ने के लिए लड़ाई नहीं लड़ी? क्या गुलाम भारत के वामपंथी नेताओं ने वही त्याग, वही बलिदान नहीं दिए जो कांग्रेस के स्वतंत्रता सेनानियों और दूसरे क्रांतिकारियों ने दिए?

अगर हम इतिहास के पन्नों को सतही तौर पर भी खँगालना शुरू करें तो हम पाएंगे की अपने शुरुआती दौर से ही वामपंथी आंदोलन ने स्वाधीनता संग्राम में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष- दोनों ही रूपों में अग्रणी भूमिका निभाई है। भारत में पहली बार पूर्ण स्वराज की मांग करते हुए सन् 1921 में कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन  में वामपंथी विचारधारा से प्रभावित मौलाना हसरत मोहनी ने एम.एन. राय द्वारा लिखित और ताशकंद में बनी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का मुखपत्र बांटा था। अगले साल यानी 1922 के कांग्रेस के गया अधिवेशन में भी वामपंथियों ने पूर्ण स्वराज की मांग उठाई थी।

इसी दौरान एम.एन. राय द्वारा ताशकंद में गठित भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य जब अफ़ग़ानिस्तान के रास्ते भारत आ रहे थे तो उनको गिरफ्तार कर उनपर मुकदमा चलाया गया जिसे पेशावर कांस्पीरेसी केस से नाम से जाना जाता है। अंग्रेजी सरकार ने उन वामपंथी कार्यकर्ताओं पर सर्वहारा क्रांति द्वारा ब्रिटिश साम्राज्यवाद को उखाड़ फेंकने की योजना बनाने  के आरोप में मुकदमा चलाया जिसके तहत उनको कई सालों की जेल हुई।

इसके बाद  1924—25 में अंग्रेजी हुकूमत ने कुछ प्रमुख वामपंथी नेताओं जैसे एम.एन. राय, मुज़फ्फर अहमद, सिंगारावेल चेट्टियार, श्रीपाद अमृत डांगे,  शौकत उस्मानी, गुलाम हुसैन, नलिन गुप्त, और रामचरण लाल शर्मा पर क्रांतिकारी आंदोलन द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य की भारत पर सत्ता को ख़त्म करने का षड्यंत्र रचने के आरोप में मुकदमा चलाया जिसको कानपुर-बोल्शेविक कांस्पीरेसी केस के नाम से जाना गया।

इस मुक़दमे में चार लोगों को चार-चार साल की कड़ी कैद की सजा सुनाई गई। इस मुक़दमे  के पीछे अंग्रेज सरकार का उद्देश्य जन-मानस में वामपंथी विचारधारा के साथ खिलाफ जनता में भय पैदा करना था, जो असफल रहा। उसी साल यानी 1925 में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का पहला सम्मेलन कानपुर में हुआ। 1927 में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का संविधान पारित किया गया जिसमें पूर्ण स्वराज, सार्वजनिक मताधिकार, जमींदारी उन्मूलन,  स्वास्थ्य, शिक्षा, रेलवे, बैंक के राष्ट्रीयकरण जैसे मुद्दों लिए जन-आंदोलन खड़ा करने की बात कही गयी।  

देश में बढ़ते किसान और मज़दूर आंदोलन और उससे अंग्रेजी हुकूमत के खतरे को भांपते हुए वामपंथियों पर अगला मुकदमा 1929 में चला जिसको मेरठ कांस्पीरेसी केस के नाम से जाना गया। यह केस चार साल तक चला जिसमें 27 भारतीय मज़दूर और किसान नेताओं को महज इसलिए दोषी ठहराया गया क्योंकि वे वामपंथी थे। वामपंथी होना सिर्फ आज के भारत में ही गुनाह नहीं है! इस केस में भी वामपंथियों पर ब्रिटिश सम्राट की भारत पर सत्ता को छीनने के लिए षड्यंत्र करने का आरोप लगा था।

उपर्युक्त सभी मुकदमों में वामपंथियों को धारा 121-ए (जिसका इस्तेमाल आज के समय में देशद्रोह के लिए किया जाता है) के तहत राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया था।  

इन तमाम कोशिशों के बावजूद भारत में साम्यवादी विचारों और वामपंथी आंदोलन का विस्तार होता रहा। 1930 में जब मेरठ केस अपने चरम पर था तभी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने राजनीतिक कार्यक्रम का मसौदा पेश किया जिसके कुछ प्रमुख बिंदु इस प्रकार थे:

1) ब्रिटिश शासन को हटा कर भारत को पूर्ण स्वतंत्र करना। जनता पर हर प्रकार के कर्ज को रद्द करना। सभी ब्रिटिश कारखानों, बैंकों, परिवहन का राष्ट्रीयकरण।

2) भारत में मज़दूर राज कायम करना। देसी रजवाड़ों का उन्मूलन।

3) बिना किसी मुवावजे के देशी राजाओं, जमींदारों, धार्मिक स्थलों, साहूकारों, अंग्रेजी अधिकारियों की संपत्ति की जब्ती और उसका देश की गरीब जनता में बंटवारा।

4) जाति, धर्म और लिंग आधारित हर प्रकार के भेदभाव को दूर करना।

कम्युनिस्ट पार्टी की बढ़ती लोकप्रियता और उनके अमूल परिवर्तनवादी विचारधारा का ही एक प्रभाव था कि कांग्रेस ने अपने 1930 के लाहौर सत्र में पहली बार पूर्ण स्वराज की मांग रखी। दूसरा प्रभाव इसका यह हुआ कि 1934 में अंग्रेज़ सरकार ने कम्युनिस्ट पार्टी और उसके जन संगठनों पर प्रतिबन्ध लगा दिया जो की 1942 तक रहा।

प्रतिबन्ध के दौर में भी वामपंथी आंदोलन में कोई ठहराव नहीं आया अपितु उसका विस्तार ही हुआ। साथ ही साथ कई वामपंथी नेताओं ने उस दौर में कांग्रेस में शामिल हो कर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी बनाई जिसने कांग्रेस पर आज़ादी के आंदोलन में मज़दूर-किसानों की मांग को प्रमुखता से रखने का दबाव बनाया।

जब दूसरा विश्व युद्ध शुरू हुआ तो कम्युनिस्ट पार्टी ने देश के कई हिस्सों में युद्ध विरोधी धरने आयोजित किये।  लेकिन जब हिटलर ने तत्कालीन सोवियत संघ पर हमला किया तब कम्युनिस्ट पार्टी ने फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में मित्र राष्ट्रों का समर्थन किया। उसी दौर में महात्मा गाँधी और कांग्रेस ने भारत छोड़ो आंदोलन छेड़ दिया जिसमें कम्युनिस्ट पार्टी ने हिस्सा नहीं लिया। लेकिन हिस्सा नहीं लेने का यह मतलब कतई नहीं था कि कम्युनिस्ट पार्टी ने स्वतंत्रता संग्राम में अपनी भागीदारी खत्म कर दी। यहाँ इस बात का उल्लेख करना जरूरी है कि जब सोवियत संघ और नाज़ी जर्मनी के बीच युद्ध पूरे उफान पर था तभी कम्युनिस्ट पार्टी ने बंगाल में ऐतिहासिक तेभागा आंदोलन की शुरुआत की।  विश्व युद्ध के ख़त्म होते-होते कम्युनिस्ट पार्टी ने हैदराबाद रियासत में ऐतिहासिक तेलंगाना आंदोलन (1946 -1951), त्रावणकोर में पुन्नप्रा-वायलार विद्रोह (1946), महाराष्ट्र में वर्ली आंदोलन (1945-1947) आदि कई  जनहित के आंदोलन शुरू किए।

विश्व युद्ध की समाप्ति के साथ ही कम्युनिस्ट पार्टी ने एक बार फिर से देश के औद्योगिक शहरों में मज़दूरों को लामबंद कर आज़ादी का संग्राम तेज किया।  कई हड़तालें कराईं और धरने भी दिए। कम्युनिस्ट पार्टी के 1946 के दौर में भूमिका को रेखांकित करते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार शेखर बंदोपाध्याय अपनी पुस्तक 'फ्रॉम पलासी टु पार्टीशन' में लिखते हैं,  "1946 में भारतीय उद्योगों में हड़तालें अपने चरम पर पहुंच गई थी जब 1.2 करोड़ से अधिक श्रम दिनों का नुकसान हुआ। यह आंकड़ा पिछले तीन वर्षों से कहीं अधिक था। हड़तालें उद्योगों के अलावा डाक और टेलीग्राम विभाग तथा दक्षिण और उत्तर पश्चिम रेलवे तक पहुंच गई थीं।" कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा आयोजित इन देशव्यापी हड़तालों ने अंग्रेज़ शासकों को यह एहसास दिला दिया था की अब भारत पर राज करना उनके लिए आसान नहीं और उनके दिन गिने-चुने ही बचे थे।

भारत के स्वाधीनता संग्राम के 200 सालों के इतिहास में एक निर्णायक घटना फ़रवरी 1946 में बंबई (अब मुंबई) में हुआ नौ-सेना विद्रोह है जब रॉयल ब्रिटिश नेवी के भारतीय गैर कमीशंड अधिकारियों एवं नौसेनिकों ने अपने साथ हो रहे बुरे और अपमानजनक बर्ताव के खिलाफ विद्रोह का बिगुल फूंक दिया था। ये नौ-सेना विद्रोह मुंबई से होते हुए कराची, मद्रास और कोलकाता तक पहुंच गया था। नौ-सेना से आरंभ हुआ यह विद्रोह वायु सेना तक भी फ़ैल गया था।  विद्रोह कर रहे नाविकों के समर्थन में उतरने वाली सबसे पहली पार्टी भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ही थी जिसने अलग-अलग जगहों पर चल रहे विद्रोह के समर्थन में कार्यक्रम आयोजित किए। मुंबई में एक हड़ताल के दौरान मज़दूरों और अंग्रेज़ी सेना में भिड़ंत हो गयी जिसमें करीबन 300 मज़दूरों की शहादत हुई और 1700 से ज़्यादा घायल हुए।

हैरानी की बात यह थी की नाविकों के इस आंदोलन को न तो कांग्रेस का समर्थन मिला न ही मुस्लिम लीग का। महात्मा गाँधी ने इस विद्रोह की कड़ी आलोचना की थी। सरदार पटेल ने तो विद्रोहियों से आत्म समर्पण तक करवाया था। इसीलिए शायद इस घटना को स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के 'फुटनोट' में डाल दिया गया। 

आम जनमानस में जब भी वामपंथियों के आज़ादी आंदोलन में हिस्सेदारी की चर्चा होती है तो मात्र उनके 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सेदारी नहीं करने का जिक्र होता है। इस बात को इतिहास से भुला दिया गया है कि वह वामपंथी ही थे जिन्होंने 1920 से ही पूर्ण स्वराज की मांग की थी, वह वामपंथी ही थे जिन्होंने देश के मज़दूर-किसानों का आंदोलन खड़ा कर अंग्रेज़ों के नाक में दम कर रखा था, वह वामपंथी ही थे जिन्होंने नाविक विद्रोह को समर्थन दिया था। अंग्रेज़ों के चले जाने के बाद भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने पांडिचेरी को फ्रांस से और गोवा को पुर्तगाल से आज़ादी दिलाने में भी अहम भूमिका निभाई थी जिसमें कई वामपंथी कार्यकर्ताओं ने शहादत दी थी।

जहाँ तक वामपंथी विचारधारा की बात है तो यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारत में 1920 के बाद का क्रांतिकारी आंदोलन साम्यवादी-समाजवादी विचारों से काफी प्रभावित था। भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सुखदेव इत्यादि क्रांतिकारियों ने समाजवादी भारत के सपने को पूरा करने के लिए बलिदान दिया।

प्रसिद्ध चेक लेखक मिलान कुंदेरा ने एक जगह लिखा है; "ताक़त के विरुद्ध मनुष्य का संघर्ष भूलने के विरुद्ध स्मृति का संघर्ष है।" आज के दौर में जब घर-घर तिरंगा लहराने की बात वे लोग कर रहे हैं जिनका आज़ादी के आंदोलन में धूल भर का भी योगदान नहीं था,  जो प्रचार के माध्यम से जन-स्मृति से अपने काले इतिहास को मिटा देना चाहते हैं। जो चुनाव जीत कर  सत्ता पाने के बाद सिर्फ प्रचार के  माध्यम से इतिहास को अपने अनुसार बदलना चाहते है, उस दौर में ये और भी जरूरी हो जाता है कि वामपंथियों के स्वाधीनता संग्राम में योगदान को आम-जन तक के जाने का प्रयास तेज हो।

आज का दौर एक तरीके से भूलने के विरुद्ध स्मृति का संघर्ष है। हमारे क्रांतिकारियों के सपने को ज़िंदा रखने का संघर्ष है, उन सैकड़ों-हज़ारों स्वतंत्रता संग्रामियों, जिन्होंने एक धर्म निरपेक्ष देश के लिए बलिदान दिया, उनके विचारों को ज़िंदा रखने का संघर्ष है, उन किसानों और मज़दूरों की संघर्ष को जिन्दा रखने का संघर्ष है जिन्होंने  सामंतवाद और पूंजीवाद से लड़ते हुए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। आज का दौर उस दलित महिला के संघर्ष को जिन्दा रखने का दौर है जिनको अपने स्तन काटने पड़े  थे क्योंकि उनको सवर्ण समाज से पूरे कपडे पहने की 'इजाजत' नहीं थी!

(लेखक जेएनयू के शोधार्थी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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