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नाम बदलने के लिए आयोग की मांग पर भाजपा नेता को कोर्ट से फटकार!

मौजूदा सरकार के नेता नाम बदलने में इतने ज़्यादा मशग़ूल हो गए, कि उन्होंने आयोग बनाने की याचिका तक डाल दी। हालांकि कोर्ट की ओर से याचिका ख़ारिज कर दी गई है।
Ashwani Upadhyay

साल 2014 में एक ओर सरकार बदल रही थी, तो दूसरी ओर लाइनें रटी जा रही थीं, कि ये बदलाव की शुरुआत है, और वाकई भारतीय जनता पार्टी ने ये काम करके दिखाया। रंगों का मतलब बदल दिया, खाने की पहचान बदल दी, कपड़ों को लेकर लोगों की सोच बदल दी। सड़कों के रास्तों से लेकर शहरों के नाम बदल दिए, यहां तक उद्यानों को भी दूसरी संज्ञा दे दी...इतने बड़े-बड़े और जनता की भलाई के लिए ऐतिहासिक बदलावों के बाद अब बस उम्मीद है, जल्द ही महंगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी, ग़रीबी का नाम भी बदल दिया जाएगा, और सब ठीक हो जाएगा।

‘सब ठीक हो जाएगा’ वाली कड़ी में सरकार धीरे-धीरे ज़्यादा गंभीर होने लगी और भाजपा नेता ने सुप्रीम कोर्ट में बकायदा एक याचिका दाखिल कर दी, कि नाम बदलने के लिए आयोग का गठन कर दिया जाए।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट को भाजपा नेता की ये तथाकथित ज़्यादा गंभीरता वाली चिंता पसंद नहीं आई और उसने इन्हें फटकार लगाते हुए कहीं का नहीं छोड़ा।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारत आज एक धर्मनिरपेक्ष देश है, आपकी उंगलियां एक विशेष समुदाय पर उठाई जा रही हैं, जिसे बर्बर कहा जा रहा है, क्या आप देश को उबलते हुए रखना चाहते हैं? हम धर्मनिरपेक्ष हैं और संविधान की रक्षा करने वाले हैं। आप अतीत के बारे में चिंतित हैं और वर्तमान पीढ़ी पर इसका बोझ डालने के लिए इसे खोद रहे हैं, इस तरीके से और अधिक वैमनस्य पैदा होगा। भारत में लोकतंत्र कायम है।

दरअसल सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल कर देश में विदेशी आक्रमणकारियों के नाम पर रखे गए शहरों, सड़कों, इमारतों और संस्थानों के नाम बदलने के लिए आयोग बनाने की मांग की गई थी। याचिकाकर्ता वकील अश्विनी उपाध्याय की याचिका में हज़ार से ज़्यादा नामों का हवाला दिया गया। री-नेमिंग कमीशन बनाने का आदेश जारी करने की अपील के साथ दाखिल इस याचिका में संविधान के अनुच्छेद 21, 25 और 29 का हवाला देते हुए ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने की बात भी कही गई।

इस सिलसिले में औरंगजेब रोड, औरंगाबाद, इलाहाबाद, राजपथ जैसे कई नामों में बदलाव कर उनका स्वदेशीकरण करने का ज़िक्र किया गया, ऐतिहासिक गलतियों को ठीक करने के लिए अश्विनी उपाध्याय ने कोर्ट के कई निर्णयों का भी उल्लेख किया।

ख़ैर..भाजपा की बदलो नीति के चक्कर में आज लोगों की जेब का साइज़ ज़रूर बदल गया है, पहले जेबें बड़ी हुआ करती थीं, अब इतनी छोटी हो गई हैं, कि लोग उसमें या तो एक लीटर तेल का पैसा रख लें या फिर एक किले दाल का। क्योंकि दाल और तेल दोनों को एक साथ ख़रीदने के लिए ज़्यादातर लोगों के पास पैसे हैं ही नहीं।

नाम बदलना कितना तार्किक है और कितना राजनीतिक, इसके बारे में ज़्यादा जानने के लिए हमने इतिहासकार सोहेल हाशमी से बात की...उन्होंने कहा कि नाम बदलने की एक प्रक्रिया है जो पहले भी हुई है। जैसे आज़ादी के बाद भी कुछ जगहों के, सड़कों के नाम बदले गए। लेकिन यहां अंग्रेजों के खिलाफ लोगों के अंदर एक गुस्सा था, और सरकार ने इसे एक प्रक्रिया के तहत किया था। लेकिन अब जो हो रहा है, ये विशुद्ध रूप से राजनीतिक है, ये इतिहास का पुनर्लेखन करने की कोशिश नहीं है, बल्कि नया इतिहास गढ़ा जा रहा है। जिसकी बुनियाद वास्तविकता में कुछ नहीं है।

सोहेल ने बताया कि, "आज एक नई चीज़ शुरु हुई है, कि चंद्रशेखर आज़ाद की हत्या में नेहरू ज़िम्मेदार थे, जिसका कहीं पर कोई तथ्य नहीं है। किसी भी किताब में इस तरह का कोई ज़िक्र नहीं है। ऐसी ग़ैर-तथ्यों वाली बातों को कश्मीर पर किताब लिखने वाले अशोक पांडे खूब एक्सपोज़ कर रहे हैं।"

नाम बदलने जैसी चीज़ों के पीछे का मकसद बताते हुए सोहेल हाशमी ने कहा कि, "इसका सीधा सा मकसद है-एक विशेष समुदाय को टारगेट करना। या यूं कहें कि जिसके लिए इन्हें लगता है कि ये बाहर से आएं हैं, उनके ख़िलाफ पूरी मुहिम चल रही है। वो अकबर का नाम हटाना चाहते हैं। असल में ये इस देश के मूल निवासियों की पहचान को छुपाना चाह रहे हैं, क्योंकि इन्हें भी पता है कि इस देश में सबसे पहले आदिवासी आए थे। यानी ये पूरी तरह से एक समुदाय को टारगेट कर रहे हैं।"

सोहेल हाशमी की बातों से इतना तो साफ है कि मौजूदा सरकार और उसके नुमाइंदे वोट बैंक के लिए एक समुदाय को मजबूत करने में जुटे हैं। वैसे एक समुदाय को मजबूत करने तक तो ठीक है, लेकिन जो दूसरे समुदाय को कथित तौर पर विदेशी बताने की साज़िश है, इसका परिणाम हम वर्तमान में तो भुगत ही रहे हैं, बाकी आने वाले भविष्य की कल्पना ही कर सकते हैं।

अगर नाम बदले गए जगहों की बात करें तो हाल ही में औरंगाबाद और उस्मानाबाद शहरों के नाम बदल दिए गए है। अब औरंगाबाद को छत्रपति संभाजी नगर और उस्मानाबाद को धाराशिव के नाम से जाना जाएगा।

आज़ादी के बाद से ज़्यादातर नाम परिवर्तन अंग्रेजों की गलतियों की वजह से किए गए। त्रिवेंद्रम को तिरुवनंतपुरम या कोचीन को कोच्चि सिर्फ अंग्रेजों की स्पेलिंग में सुधार के लिए किए गए। आज़ादी के बाद से अब तक 21 राज्यों ने कुल 244 जगहों के नाम बदले हैं।

वैसे शहरों के नाम बदलने को लेकर सबसे ज़्यादा विवाद उत्तर प्रदेश में उठते हैं, मगर जगहों के नाम बदलने में आंध्र प्रदेश सबसे आगे है, जहां करीब 76 जगहों के नाम बदले जा चुके हैं। ऐसे ही तमिलनाडु ने 31 और केरल ने 26 जगहों का नाम बदला है। महाराष्ट्र ने भी 18 से ज़्यादा जगहों का नाम बदला है।

हालांकि नाम बदलने का ज़्यादा फर्क जनता पर नहीं पड़ता है, यानी वो उन्ही नामों के सहारे अपने राज्य या शहर की पहचान करती है, जो पहले हुआ करती थी। उदाहरण के लिए प्रयागराज हो चुके इलाहाबाद और अयोध्या हो चुके फैज़ाबाद को ही ले लें। आज भी यहां लोग आम बोलचाल में इन्हीं पुराने नामों का इस्तेमाल करते हैं।

हालांकि जिस तरह से ध्रुवीकरण और तुष्टीकरण के लिए एक समाज को टारगेट कर उसी से जुड़े नामों को बदलने की कोशिश की जाती है, उससे साफ तौर पर ये वोटों की राजनीति मालूम पड़ती है।

ख़ैर..जो एक बात सच है वो ये कि नाम बदलने से ज़्यादा कुछ होने वाला है नहीं, अगर इस सरकार को वाकई कुछ बदलाव करने हैं तो अपनी अपरिपक्व नीति को परिपक्व करना होगा, ताकि देश में महंगाई के हालात बदल सके, भुखमरी से प्रभावित हो रही लोगों की ज़िंदगी बदल सके, और इस देश का भविष्य बदल सके।

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