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आदिवासी कल्याण के मामले में ख़राब है भाजपा का रिकॉर्ड

इस बात की कोई संभावना नहीं है कि द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाने से आदिवासी समुदायों का भाजपा के प्रति जो मोहभंग हुआ है, उसमें कोई सुधार आएगा।
Murmu
'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: ANI

जिस दिन से भाजपा के संसदीय बोर्ड ने घोषणा की है कि पार्टी की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार ओडिशा से एक संथाल नेता द्रौपदी मुर्मू होंगी, मीडिया में ताबड़तोड़ न्युज़ चलाई जाने लगी कि पार्टी के आलाकमान ने ऐसा कर फिर से एक 'मास्टर स्ट्रोक' लगा दिया है, जो आने वाले महीनों/वर्षों में राज्य विधानसभा चुनावों में आदिवासी समुदायों के भीतर जीत की सतह-साथ 2024 के आम चुनावों में भी इसे जीत दिलाएगा।  

इस बारे में पार्टी के प्रचार और मुख्यधारा के मीडिया द्वारा भाजपा के हित में की गई सेवा के ज़रिए हो सकता है कुछ अच्छी तस्वीर नज़र आने लगी हो सकती है, लेकिन इस सब शोर-शराबे के बीच एक बड़ा सवाल खड़ा हो जाता है, वह यह कि भाजपा को आखिर इन बैसाखियों की आवश्यकता क्यों है? पहली बात, आदिवासियों का मोहभंग क्यों हुआ है? यह, निश्चित रूप से, अगले प्रश्न की ओर जाता है। क्या इस तरह के प्रतीकात्मक कदम मध्य भारत और उत्तर-पूर्व दोनों में आदिवासी क्षेत्रों के विशाल हिस्सों में पनप रही गहरी निराशा और आक्रोश को शांत करे पाएंगे?

इसमें तीन प्रमुख मुद्दे ऐसे उभर कर आते हैं, जिन्होंने आदिवासियों के बीच असंतोष पैदा किया है, विशेष रूप से मध्य भारतीय आदिवासी बेल्ट में जो पूर्वी गुजरात से लेकर ओडिशा तक फैली हुई है, जिसमें उत्तर-पश्चिमी महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और दक्षिणी पश्चिम बंगाल शामिल हैं। उल्लेखनीय बात यह है कि इनमें से भाजपा केवल मध्य प्रदेश, गुजरात और अब महाराष्ट्र में राज्य सरकारें चला रही है। इन तीन राज्यों में भी, उसने वास्तव में केवल गुजरात में पिछला विधानसभा चुनाव जीता था, जबकि मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में एक अंतराल के बाद सत्ताधारी दल/गठबंधन को विभाजित कर सत्ता हथियाने में कामयाब रही है। यह आदिवासी बहुल राज्यों में भाजपा की कमजोर स्थिति को दर्शाता है और इसलिए आदिवासी समुदायों को वापस लाने के लिए जो कुछ भी करना है, जो पार्टी की हताशा दर्शाती है। लेकिन मोदी सरकार और भाजपा की राज्य सरकारों का वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के कार्यान्वयन, आदिवासियों के कल्याण के लिए धन आवंटन और आदिवासियों पर बढ़ते अत्याचारों को रोकने वाले तीनों मुद्दों पर बहुत खराब रिकॉर्ड रहा है। 

एफआरए के तहत भूमि का टाइटल

2006 में संसद द्वारा पारित एफआरए, अन्य बातों के अलावा, आदिवासियों और अन्य वनवासियों को भूमि के उन हिस्सों के लिए भूमि का मालिकाना हक देने का प्रावधान करता है, जिन्हें वे परंपरागत रूप से जोतते रहे हैं। आदिवासी समुदाय के सदस्यों को आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के उपाय के रूप में इसकी परिकल्पना की गई थी। नीचे दिया गया चार्ट मार्च 2022 के अंत तक संसाधित किए गए दावों और भूमि के स्वामित्व के दावों के संदर्भ में इस कानून के कार्यान्वयन में विभिन्न राज्यों के रिकॉर्ड को दर्शाता है। स्पष्ट रूप से, अधिकांश भाजपा शासित राज्य - नारंगी रंग में दिखाए गए हैं – जो इसमें पिछड़ हुए हैं।

इन भाजपा शासित राज्यों में, एचपी और उत्तराखंड छोटे राज्य हैं, जबकि यूपी में बहुत कम आदिवासी आबादी है, जो ज्यादातर सोनभद्र जिले में केंद्रित है। उल्लेखनीय बात यह है कि त्रिपुरा को छोड़कर, भाजपा शासित राज्यों में से किसी ने भी टाइटल में परिवर्तित किए गए 50.4 प्रतिशत दावों के अखिल भारतीय औसत को भी पार नहीं किया है। गुजरात, जहां भाजपा लगभग 30 वर्षों से लगातार शासन कर रही है, अभी उस औसत स्तर पर पहुंची है। अन्य गैर-भाजपा शासित राज्यों में से अधिकांश ने बहुत बेहतर प्रदर्शन किया है, आंध्र प्रदेश और ओडिशा के दावों के अनुसार, दोनों ने क्रमश भूमि का 77 और 71 प्रतिशत वितरण किया है। डेटा 20 जुलाई, 2022 को राज्य सभा में किए गए एक प्रश्न के जवाब में सरकार द्वारा दिए मिले उत्तर से लिया गया है।

इसका मतलब यह है कि वन भूमि जोतने वाले आदिवासी किसान अधिकारियों द्वारा बेदखली और उत्पीड़न का सामना करते हैं, जिससे वे जीवित रहने के अन्य साधनों पर निर्भर हो जाते हैं। महामारी की अवधि के दौरान, आदिवासियों के बेदखली बढ़ने की खबरें आईं थी, जिससे उनकी दुर्दशा और बढ़ गई है।

आदिवासी कल्याण के लिए निधियों का आवंटन

इसमें कोई शक नहीं है कि केंद्रीय बजट की निधि का एक निश्चित अनुपात अलग रखा जाना चाहिए और जिसे विशेष रूप से अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के कल्याण के कार्यक्रमों पर खर्च किया जाना चाहिए। निर्धारित धनराशि केंद्रीय योजनाओं और केंद्र प्रायोजित योजनाओं का हिस्सा है। यह अनुपात, कुल जनसंख्या में क्रमशः अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अनुपात से निर्धारित होता है। 2017 के नीति आयोग के दिशानिर्देशों के अनुसार, ये अनुपात एससी के लिए 15.49 प्रतिशत और एसटी के लिए 8.2 प्रतिशत था। 

जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट से पता चलता है, 2018-19 में आदिवासियों के लिए वास्तविक आवंटन मात्र 4.9 प्रतिशत था, जो बाद में 2022-23 के बजट अनुमानों में बढ़कर 7.3 प्रतिशत हो गया था और जो अभी भी अनिवार्य 8.2 प्रतिशत से कम है। बजट दस्तावेजों पर आधारित यह विश्लेषण दलित मानवाधिकारों के लिए बने राष्ट्रीय अभियान-दलित आर्थिक अधिकार आंदोलन, दिल्ली में स्थित दलित और आदिवासी अधिकारों की वकालत करने वाले समूह से लिया गया है।

हालाँकि, स्थिति इससे भी अधिक विकट है, जैसा कि अधिकार समूह बताते हैं। जिन योजनाओं में दलित और आदिवासी समुदायों के लिए आवंटन दिखाया गया है, वे वास्तव में सामान्य योजनाएँ हैं; यानी वे योजनाएं इन दो वंचित और पीड़ित समुदायों पर लक्षित नहीं हैं। उदाहरण के लिए, स्कूलों के लिए आवंटन, स्कूल जाने वाली पूरी आबादी के लिए एक सामान्य योजना है, जिसमें दलित और आदिवासी बच्चे भी शामिल हैं। यह तर्क दिया जाता है कि इस तरह का सामान्य आवंटन इन समुदायों के सशक्तिकरण के लिए लक्षित योजनाओं के उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर रहा है। लक्षित योजनाओं का एक उदाहरण दलित और आदिवासी छात्रों के लिए मैट्रिकोत्तर छात्रवृत्ति योजनाओं का होना है। एनसीडीएचआर द्वारा किए गए विश्लेषण से पता चलता है कि लक्षित फंड कुल फंड का केवल 3.6 फीसदी है, यदपि यह अनुपात आदिवासियों के लिए 8.2 फीसदी होना चाहिए था।

2018-19 और 2022-23 के बीच, केंद्रीय योजनाओं और केंद्र प्रायोजित योजनाओं के लिए कुल आवंटन 49.3 लाख करोड़ रुपये था। जबकि, 8.2 प्रतिशत के हिसाब से कुल आवंटन लगभग 4 लाख करोड़ रुपये होना चाहिए था। वास्तविक आवंटन 3.2 लाख करोड़ रुपये था, जबकि लक्षित और सार्थक आवंटन सिर्फ 1.3 लाख करोड़ रुपये था।

इस घोर उपेक्षा का जनजातीय जीवन पर सीधा प्रभाव पड़ता है - बच्चे छात्रवृत्ति या व्यावसायिक प्रशिक्षण से वंचित हो जाते हैं, उनके घर नहीं बन पाते हैं, उनके ऊपर अत्याचारों और उत्पीड़न से बचाव करने वाले कानूनों को ठीक से लागू नहीं किया जाता है, इत्यादि।

बढ़ता दमन/उत्पीड़न 

राज्यों की रिपोर्टों के आधार पर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा एकत्र किए गए आंकड़ों के अनुसार, पिछले वर्ष 2020 में अत्याचार के 8272 मामले दर्ज किए गए, जिसके लिए अपराध के आंकड़े उपलब्ध हैं। इसका मतलब यह है कि एक आदिवासी व्यक्ति के खिलाफ लगभग हर घंटे, हर दिन, साल भर कोई न कोई अपराध होता रहा है। अत्याचारों में भारतीय दंड संहिता के सभी अपराध शामिल हैं जैसे हत्या, बलात्कार, गंभीर चोट पहुँचाना आदि, इसे अत्याचार निवारण अधिनियम (पीओए) के साथ पढ़ा जाना चाहिए, जो कानून   जानबूझकर किए जाने वाले अपमान, भेदभाव, अपमान या भूमि से बेदखल करना आदि को अपराधों के रूप में परिभाषित करता है।

पिछले पांच वर्षों में एनसीआरबी के आंकड़ों से हासिल नीचे दिए गए चार्ट से पता चलता है कि आदिवासियों के खिलाफ इस तरह के अत्याचारों में वृद्धि हुई है।

भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकारों ने सामाजिक जीवन के इस जघन्य पहलू पर बहुत कम ध्यान दिया है। यह कहा जाना चाहिए कि दलितों के संबंध में भी ऐसी ही स्थिति है।

क्या निर्वाचित राष्ट्रपति मुर्मू इसमें मदद कर सकती हैं?

हालांकि ऐसा कुछ भी करना, जो आदिवासियों की दयनीय और चौंकाने वाली स्थिति में मदद कर सकता है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए, केवल प्रतीकात्मक कार्यों से कोई बदलाव आने की संभावना नहीं है। आखिरकार, भारत के निवर्तमान राष्ट्रपति खुद दलित हैं, लेकिन भारत में दलितों के लिए बहुत कुछ नहीं बदला है। यह वास्तविकता दुर्भाग्यपूर्ण है जो किसी को यह निष्कर्ष निकालने के लिए प्रेरित करे कि द्रौपदी मुर्मू का नामांकन और चुनाव भाजपा की एक चुनावी रणनीति है - और इसके सफल होने की संभावना नहीं है। दलितों और आदिवासियों की स्थिति में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए, रोजगार के अवसर पैदा करना, युवाओं के बीच कौशल पैदा करना, समुदायों को भूमि उपलब्ध कराना, राज्य और केंद्र स्तर पर सरकार में आरक्षित पदों को भरना तथा, इसके साथ और भी बहुत कुछ करने की जरूरत है। अन्य उपायों के साथ-साथ उनकी सुरक्षा के लिए बने कानूनों को सख्ती से लागू करना भी एक बड़ा लक्ष्य होना चाहिए।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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