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पश्चिम बंगाल में जाति और धार्मिक पहचान की राजनीति को हवा देती भाजपा, टीएमसी

बंगाल ऐसे दौर से गुज़र रहा है जहां हिंसक झड़पों और शुरुआती झगड़ों से पल-पल उसके सामाजिक ताने-बाने को चोट पहुंच रही है, जो वाम मोर्चे के 34 सालों के शासन में कभी देखने को नहीं मिला।
TMC

कोलकाता: भारत के बंटवारे और आज़ादी के समय से जुड़ी हुई सांप्रदायिक हिंसा की भयावह यादें  इस समय बंगाल के लोगों के जेहन में एक बार फिर से ताज़ा होने लगी हैं राज्य चुनाव इसके लिए कमर कस रही है और यह चुनाव इस लिहाज़ से एक बहतु बड़ा मोड़ साबित हो सकता है।

1977 से 2011 तक के वाम मोर्चे के शासन के 34 सालों के दौरान इस स्याह अतीत से निजात पा लिया गया था और उसे दफ़्न कर दिया गया था। जब से ममता बनर्जी की अगुवाई वाली तृणमूल कांग्रेस 2011 में सत्ता में आयी है, तबसे राजनीतिक हिंसा बढ़ गई है और सत्तारूढ़ पार्टी के कार्यकर्ता ने इस हिंसा का इस्तेमाल ज़्यादातर वामपंथी पार्टियों से जुड़े कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ ही किया है।

लेकिन, हाल के महीनों में नए राजनीतिक दावेदार के रूप में भारतीय जनता पार्टी के सामने आने से एक और ख़तरनाक मोड़ आ गया है,  क्योंकि भारतीय जनता पार्टी विभाजनकारी और विषाक्त राजनीति पर सवार होकर सत्ता हासिल करना चाहती है। भाजपा और टीएमसी मौत के इस खेल को इसलिए खेल रहे हैं, क्योंकि वे आपस में राजनीतिक गुंज़ाइश बनाने और उसकी सीमा तय करने के लिए लड़ रहे हैं। (कुछ प्रमुख सांप्रदायिक और हिंसक घटनाओं के लिए परिशिष्ट पर नज़र डालें)

यह प्रक्रिया वास्तव में 2011 के बाद तब शुरू हुई थी, जब भाजपा और विशाल संघ परिवार ने खुले तौर पर सांप्रदायिक राजनीति के हर मौक़े का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। आरएसएस ने इस राज्य में अपनी गतिविधियों को बढ़ाना शुरू कर दिया था। दोनों समुदायों के बीच के कलह के बोए जाने के इस प्रयास का एक प्रारंभिक युद्धक्षेत्र बंगाल का प्रमुख त्योहार, दुर्गा पूजा बनता गया, जिससे सालों की बनी एकता नष्ट हो गई। उस दुर्गा पूजा विसर्जन कार्यक्रम का इस्तेमाल समुदायों के बीच झगड़े को बढ़ाने के प्रयास के तौर पर किया जाता रहा है, जो संयोग से मुसलमानों के पवित्र त्योहार-मोहर्रम के साथ आयोजित होता है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। सत्तारूढ़ टीएमसी उन सांप्रदायिक ताक़तों के हाथों में खेलती रही है, जो स्थिति को और भी ख़राब कर सकती हैं।

उबलती सांप्रदायिकता 

2016 के विधानसभा चुनावों में टीएमसी की सत्ता में वापसी हुई थी और बीजेपी की हार हुई थी, उसके बाद राज्य में सांप्रदायिक हिंसा की कई घटनायएं होती रही हैं। 2016 में ही धूलागढ़ में दंगे भड़के थे और बाद में 2017 में उत्तरी 24 परगना ज़िले के बशीरहाट क्षेत्र के बदुरिया में एक और ऐसी घटना हुई थी। राज्य के कोयला क्षेत्र-आसनसोल में 2018 में हिंदू त्योहार के दौरान निकला एक धार्मिक जुलूस ने एक क्रूर दंगाई भीड़ का रूप अख्तियार कर लिया था। यह वही घटना थी, जब उस मौलवी ने शांति की अपील की थी, जिसके ख़बर के मुताबिक़ एकमात्र बेटा, एक स्कूली छात्र एक सशस्त्र भीड़ के हत्थे चढ़ गया था।

दंगों के ठीक बाद मशहूर लेखक, सुभजीत बागची ने बशीरहाट क्षेत्र का दौरा किया था और टिप्पणी की थी कि इस दंगे के पीछे सत्ताधारी पार्टी के नेताओं की दोहरी भूमिका का हाथ था। पश्चिम बंगाल सही मायने में सांप्रदायिकता और जातिवाद का बन रहे एक घातक गठजोड़ का गवाह बन रहा है। अब तक,  वर्ग से जुड़े मुद्दे ही धार्मिक और जातिगत पहचान पर हावी होते थे, उनकी अहमियत किसी और मुद्दे से कहीं ज़्यादा होती थी। अल्पसंख्यक समुदाय के एक हिस्से को छोड़कर चुनावों का भी यही स्वरूप होता था। लेकिन, पिछले एक दशक में यह स्थिति विलुप्त सी होती दिखाई पड़ रही है और इस तरह के मुद्दे ग़ायब होने लगे हैं। जैसे-जैसे आने वाले चुनाव की लड़ाई के लिए सरगर्मी बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे कई लोगों के भीतर यह डर घर करता जा रहा है कि इस तरह की हिंसक और बांटने वाली राजनीति अहम होती जाएगी।

भाजपा, राज्य के दूसरे हिस्सों के इस राजनीतिक विभाजन को सांप्रदायिक विभाजन में बदलने की कोशिश कर रही है। भाजपा को इस बात की उम्मीद है कि इसके ज़रिये उसे एक समुदाय विशेष के ज़्यादा वोट मिल जायेंगे। इन वोटों को पाने के लिए ही पिछले दो वर्षों से उसकी ये सारी गतिविधियां चल रही है, जिनमें सांप्रदायिक अफ़वाहें और झूठ फैलाने वाली विशाल ऑनलाइन सेना भी शामिल है। और परेशान करने वाली बात यह है कि इससे राज्य का वातावरण कुछ हद तक ज़हरीला बन गया है,  हालांकि प्रगतिशील तबका इस हालात से बहादुरी के साथ मुक़ाबले कर रहा है।

सोशल इंजीनियरिंग, जातिवाद का दूसरा नाम

राजनीतिक टिप्पणीकार और राज्य के वरिष्ठ विचारक, अजिजल हक़ के विचार में पश्चिम बंगाल जैसे राज्य में वर्ग-आधारित एकता कहीं ज़्यादा असरदार रही है, वहां जातिवादी राजनीति को उस तरह हथियार बना पाना आसान नहीं है,  जिस तरह कई दूसरे राज्यों में हुआ है।

अजिजुल न्यूज़क्लिक से बात करते हुए बताते हैं,  “सोशल इंजीनियरिंग असल में जातिवाद का ही दूसरा नाम है। पश्चिम बंगाल में जातिवाद को अच्छी नज़रों से नहीं देखा जाता है। इसलिए,  इसे एक नई बोतल में पुरानी शराब की तरह आरएसएस सोशल इंजीनियरिंग की तरह परोस रहा है।”

हक़ का कहना है कि दूसरे राज्यों की तरह पड़ोसी राज्य बिहार की जाति-आधारित राजनीति और सामाजिक वास्तविकतायें पश्चिम बंगाल से बहुत अलग हैं और कई टिप्पणीकार पश्चिम बंगाल में नतीजों की भविष्यवाणी करते समय जाने-अनजाने यही (समानतायें जताते हुए) ग़लती कर रहे हैं।

वह कहते हैं, ‘स्मृति हत्या नाम की एक चीज़ होती है। कोई किसी चीज़ का नाम बदल देता है तो कोई और उसे अलग तरह से पेश करने की कोशिश करता है। मसलन, बांग्ला में पुराने इप्टा (इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन) के ‘गणसंगीत’ (लोगों का संगीत) शब्द को ‘जीबोनमुखी’ (जीवनोन्मुख) गीतों से बदल दिया गया। आज के कॉरपोरेट्स के प्रभुत्व वाले भारत में उनकी ही भाषा और शर्तों को इस स्मृति हत्या के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। इसलिए,  'जातिवाद' जैसे नफ़रत फ़ैलाने वाले शब्दों का इस्तेमाल मतुआओं जैसे विभिन्न समुदायों को भड़काने के लिए किया जा रहा है और उसे ही सोशल इंजीनियरिंग का नाम दिया जा रहा है।’

हक़ के मुताबिक़, इस लिहाज़ से टीएमसी और बीजेपी दोनों ही एक तरह के हैं और उनकी विचारधारा के कई दूसरे पहलुओं में भी समानता है।

कई राजनीतिक विश्लेषकों को भी मिसाल के तौर पर पुरुलिया में "महतो वोट" या "कुर्मी वोट" जैसी कोई चीज़ नहीं दिखती है,  जैसा कि कई कथित जानकारों और लगातार मीडिया में बने रहने वालों को लगता है। वह बताते हैं कि इस ज़िले में पिछले लोकसभा चुनाव में धारा के ख़िलाफ़ मतदान इसलिए हुआ था, क्योंकि यहां सत्ता के ख़िलाफ़ भावना और सत्ता और संसाधनों के चलते उग्रवादी गतिविधि से लड़ने के बीजेपी के बड़े दावों के सामने वामपंथियों को छोड़कर जाने के बाद जनगलमहल ज़िलों में वामपंथ की बहुत कम मौजूदगी थी। इसके बावजूद,  जिन लोगों को खेते खोओआ (मुख्य धारा से बाहर के ग़रीब लोगों) के रूप में जाना जाता है,  वही वहां के उम्मीदवारों के भाग्य का फ़ैसला करते हैं और उन्हें वर्ग या जाति के अनुरूप भी परिभाषित नहीं किया जा सकता है।

रणनीतिक मतदान

कुछ पर्यवेक्षकों को लगता है कि भाजपा को हराने के लिए अल्पसंख्यक आबादी इस चुनाव में रणनीतिक मतदान का सहारा ले सकती है। अल्पसंख्यक वर्ग से सम्बन्धित एक डीवाईएफआई कार्यकर्ता की मौत ने भी एक बड़े तबके के बीच सत्ताधारी दल के ख़िलाफ़ भावनाओं को बढ़ा दिया है। फ़ुरफ़ुरा शरीफ़ में धार्मिक तबके के विद्रोह ने भी इस भावना के उभराने में योगदान दिया है।

इस तरह, अल्पसंख्यक समुदाय का एक वर्ग अब इस उधेड़-बुन में है कि भाजपा को उनमें कोई ज़्यादा दिलचस्पी तो है नहीं, क्योंकि उसकी नज़र सिर्फ़ बहुसंख्यक समुदाय को लामबंद करने पर है, जबकि टीएमसी पर उनका भरोसा नहीं रह गया है। टीएमसी अब यही मानती है कि महिला मतदाताओं की तरह अल्पसंख्यक मतदाता भी उनकी जेब में हैं। लेकिन, खासकर लेफ़्ट, कांग्रेस और आईएसएफ़ के संयुक्त मोर्चे के सामने आने के साथ ज़मीनी हक़ीक़त तेज़ी से बदल रही है।

देश भर में चल रहे किसानों का संघर्ष वामपंथी और अन्य धर्मनिरपेक्ष ताक़तों की मदद करने वाला एक दूसरा कारक है। जैसा कि कई लोगों को लगता है कि यह मुमकिन है कि उन अल्पसंख्यक समुदाय के वर्गों के बीच रणनीतिक बदलाव से वामपंथी को लाभ मिल सकता है, जो नहीं चाहते हैं कि भाजपा के ज़हरीले विचार नाबन्ना (राज्य सचिवालय) में दाखिल हो।

कुछ सांप्रदायिक घटनायें और टीएमसी-बीजेपी के बीच झड़प

  • भांगर (दक्षिणी 24 परगना) में टीएमसी नेताओं की तरफ़ से दूसरी पार्टियों के समर्थकों को अपने-अपने घर के भीतर रहने की धमकियां मिलनी शुरू हो गयी हैं। यह हिंदू-मुस्लिम विभाजन से कहीं ज़्यादा पार्टी का रुख़ है।
  • मल्लारपुर (बीरभूम) में 2019 के लोकसभा चुनावों में पर्याप्त बढ़त हासिल करने के बाद, दोनों दलों के बीच जून में झड़पें हुई थीं, जिसने बाद में सांप्रदायिक रूप अख़्तियार कर लिया था।
  • नानूर में जून 2091 को हुई यह घटना शुरुआत में सांप्रदायिक प्रकृति की नहीं थी,  लेकिन भाजपा और टीएमसी के बीच हुई झड़पों में सर में चोट लग जाने से एक पुलिस अफ़सर घायल हो गया था। हिंसा का केंद्र पिलकुंडी और शकबाह के दो गांव थे।
  • सिउरी (बीरभूम): 18 जुलाई,  2019 को पुकुड़ी गांव में नियमित अंतराल पर उस स्थानीय टीएमसी ‘ग़ुंडे’ पर बम फेंके गये,  जिसे ‘साहेब’ के नाम से जाना जाता है और बाद में वह बीजेपी में चला गया था।
  • परुई (बीरभूम): 28 जुलाई,  2019 को भाजपा नेता के घर पर टीएमसी के लोगों ने हमला किया था,  जिसके बाद बीजेपी द्वारा हिंदू नेताओं पर हो रहे हमले का आरोप लगाते हुए एक कानाफूसी अभियान शुरू कर दिया गया था।
  • 5 जून,  2019 को बांकुरा खटरा में दोनों दलों के कार्यकर्ताओं के बीच राजनीतिक झड़प हुई थी।
  • 23 जून,  2019 को,  बांकुरा में टीएमसी बस को पटसैयार में रोके जाने के बाद पुलिस ने स्थानीय निवासियों पर गोलियां चला दी थीं।
  • 16 जून,  2019 को नादिया ज़िले के कल्याणी में टीएमसी और भाजपा कार्यकर्ताओं के बीच खुलकर भयंकर झड़प हुई।
  • उत्तरी 24 परगना के बारासात में 11 जून,  2019 को समाज विरोधी तत्वों की तरफ़ से राजनीतिक तरफ़दारी के चलते बशीरहाट संदेशखली उबाल पर था।
  •  12 जून 2019 को उत्तरी परगना के काकीनाडा में एक राजनीतिक झड़प के चलते दो लोगों की जानें चली गयीं।
  • उत्तरी 24 परगना के शाशन के भेरी में असामाजिक लोग टीएमसी और भाजपा के झंडे के साथ आ भिड़े,  जिसमें भाजपा के चार कार्यकर्ता घायल हो गये थे।
  • उत्तर 24 परगना के अमदांदगा में 1 अगस्त 2019 को भाजपा-टीएमसी की झड़प ने सांप्रदायिक रंग ले लिया था।
  • बीजेपी द्वारा 2019 के लोकसभा चुनाव जीतने के बाद कूच बिहार में एक भयंकर झड़प फूट पड़ी।
  • मार्च-जून 2020 में उत्तर 24 परगना के भाटपारा में बीजेपी-टीएमसी के बीच झड़पें हुईं थीं, जिन्होनें बाद में सांप्रदायिक रंग अख़्तियार कर लिया था और फिर हालात दंगे जैसी स्थिति में बदल गए।

लेखक कोलकाता में रहते हैं। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/BJP-TMC-Fan-Caste-Religious-Identity-Politics-West-Bengal

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