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जिसे असली अशोक स्तंभ देखना है सारनाथ चला आए, नए स्तंभ से बहुत आहत हैं काशी के कलाकार-इतिहासकार

बनारस के सारनाथ म्यूजियम के बाहर छोटी-छोटी गुमटियों में अशोक स्तंभ की प्रतिकृतियां बिकती हैं। यहां सैकड़ों ऐसे फ़नकार हैं जो चंद घंटों में अशोक स्तंभ की प्रतिकृति हुबहू उतार देते हैं। कोई लकड़ियों पर अशोक की प्रतिकृति बनाता है तो कोई पत्थरों पर और कोई कैनवास या फिर काग़ज़ पर।
Ashok Stambh
सारनाथ की ऐसी हर छोटी-बड़ी दुकान पर मिलती है अशोक स्तंभ की प्रतिकृति।

नए संसद भवन के लिए अशोक स्तंभ की प्रतिकृति को लेकर उठी कंट्रोवर्सी ने बनारस ही नहीं समूचे देश में भूचाल सा ला दिया है। राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न की विवादित प्रतिकृति बनाए जाने से काशी के कला-इतिहासकार आहत हैं। बनारस ऐसा शहर है जहां सैकड़ों ऐसे फनकार हैं जो चंद घंटों में अशोक स्तंभ की प्रतिकृतियां हुबहू उतार देते हैं। कोई लकड़ियों पर अशोक की प्रतिकृति बनाता है तो कोई पत्थरों पर और कोई कैनवास या फिर कागज पर।

बनारस के सारनाथ म्यूजियम के बाहर छोटी-छोटी गुमटियों में अशोक स्तंभ की प्रतिकृतियां बिकती हैं। खासतौर पर सावन के दिनों में यहां देशी-विदेशी पर्यटकों का जमावड़ा लगता है। सारनाथ आने वाला हर पर्यटक लकड़ी और पत्थर पर बनी अशोक स्तंभ की प्रतिकृति खरीदकर यादगार के तौर पर अपने साथ जरूर ले जाना चाहता है। खास बात यह है कि सारनाथ में अशोक स्तंभ की जितनी भी प्रतिकृतियां बिकती हैं, उनमें कोई शेर ‘गुस्सैल’ नहीं दिखता है।

बनारस के कलाविदों और इतिहासकारों का मानना है कि नई संसद भवन के लिए मूर्ति बनाने वाले कलाकार नादान थे या फिर उनकी नीयत में खोट थी और जान-बूझकर उन्होंने भारत के गौरव के प्रतीक चिह्न के साथ घिनौना मजाक किया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 11 जुलाई को नई संसद की छत पर 9500 किलो वजन के बीस फीट ऊंचाई वाले अशोक स्तंभ का अनावरण किया। राष्ट्रीय चिह्न की प्रतिकृति के अनावरण के बाद मीडिया ने जब इसका महिमामंडन शुरू किया तो इसकी बनावट और भव्यता सवालों के घेरे में आ गई। देश भर के तमाम कलाविदों और इतिहासकारों साफ तौर पर कह दिया कि नए संसद भवन पर अशोक स्तंभ की जो प्रतिकृति बनाई गई है उसमें शेर ज्यादा गुस्सैल अथवा क्रोध की मुद्रा में हैं।

बनारस के वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कुमार कहते हैं, ''मूर्तिकारों के पक्ष में दुहाई देने वाले न विशेषज्ञ हो सकते हैं और न ही कला के अध्येता। यह प्रतिष्ठा का नहीं, राष्ट्र के गौरव और धरोहर के मान-सम्मान का सवाल है। बनारस में अशोक स्तंभ की हर आकार की प्रतिकृतियां बिकती हैं, जिसकी डिजाइन में कोई फर्क नहीं होता है। ऐसे में नए संसद भवन पर विकृत अशोक स्तंभ लगाने का क्या मतलब, जिसका शेर गुस्सैल दिखता हो? बेहतर है कि नए अशोक स्तंभ को बदल दिया जाए।''

सारनाथ म्यूजियम में रखा मूल अशोक स्तंभ।

नए अशोक स्तंभ पर उठे सुलगते सवालों पर सफाई देते हुए केंद्रीय नागरिक उड्डयन राज्यमंत्री हरदीप पुरी ने ताबड़तोड़ कई ट्वीट किया है। उन्होंने दावा किया है, ''नई संसद के लिए जो अशोक स्तंभ बनाया गया है, वो असली सारनाथ के स्तंभ का हूबहू प्रतिकृति है। अशोक स्तंभ में शेर के क्रोध को देखने का फेर है। संसद वाले अशोक स्तंभ की डिजाइन, बनावट एक जैसी है। सिर्फ देखने के नजरिया का फर्क है। बनारस के सारनाथ के म्यूजियम में मौजूद अशोक स्तंभ 1.6 मीटर ऊंचा है, जबकि नए संसद भवन बिल्डिंग के ऊपर लगे स्तंभ की ऊंचाई 6.5 मीटर है।''

केंद्रीय मंत्री हरदीप पुरी ने ट्वीट के साथ नए अशोक स्तंभ की फोटो और उसका डायग्राम भी शेयर किया है। उन्होंने यह भी दर्शाने की कोशिश की है कि सारनाथ के अशोक स्तंभ की साइज बहुत छोटी है? अशोक स्तंभ पर सवाल उठाने वाले लोगों पर तंज कसते हुए हरदीप पुरी कहते हैं, ''अगर सारनाथ वाले अशोक स्तंभ के बिल्कुल हूबहू रेप्लिका को अगर संसद के ऊपर रखा जाता है तो वो ज्यादा दूरी से दिखाई ही नहीं पड़ता है। ‘एक्सपर्ट’ को यह भी पता होना चाहिए कि सारनाथ में रखा गया मूल अशोक स्तंभ जमीन के स्तर पर है, जबकि नया प्रतीक जमीन से 33 मीटर की ऊंचाई पर है। दोनों की तुलना करते समय कोण, लंबाई और स्केल से देखा जाना चाहिए। अगर कोई सारनाथ प्रतीक को कोई नीचे से देखता है तो है ये शांत या गुस्सैल दिखाई देता है, जैसा कि चर्चा की जा रही है। नए भवन के प्रतीक को उस आकार में छोटा कर दिया जाए तो कोई अंतर नजर नई आएगा।''

सारनाथ का म्यूजियमः यहीं रखा है मूल अशोक स्तंभ।

सरकार का बयान बचकाना

केंद्र सरकार और मंत्री हरदीप पुरी के बयान को बनारस के तमाम कलाकार और इतिहासकार बचकाना बताते हैं। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राख्यात शिक्षक प्रो.महेश प्रसाद अहिरवार देश के जाने-माने कला-इतिहासकार हैं। ‘न्यूज़क्लिक’ से बातचीत में प्रो. अहिरवार साफ-साफ कहते हैं, ''नई संसद के भवन पर स्थापित अशोक स्तंभ का निर्माण एक दिन के लिए नहीं, सदियों तक के लिए गौरव बढ़ाने वाला प्रतीक है। यह देश का अभिमान, गौरव और शान है। राष्ट्रीय चिह्न चाहे बड़ा हो अथवा छोटा, न उसकी शक्ल बदली जा सकती है और न ही भाव भंगिमा। गुजरात के नर्वदा जिले के केवड़िया स्थित सरदार सरोवर बांध से लगभग तीन किमी दूर साधु द्वीप पर बनी सरदार बल्लभ भाई पटेल की 182 मीटर ऊंची प्रतिमा ‘स्टेच्यू आफ यूनिटी’ के रूप में जानी जाती है। उस प्रतिमा के चेहरे की ऊंचाई ही सात मंजिली इमारत के बराबर है। करीब तीन हजार करोड़ रुपये खर्च कर चीन के कलाकारों से बनवाई गई उस मूर्ति का अनावरण पीएम नरेंद्र मोदी ने 17 सितंबर 2019 को किया था।''

''सरदार बल्लभ भाई का कद छह फीट से ज्यादा नहीं रहा होगा, मगर चीन के कलाकारों ने अशोक स्तंभ की तरह लौहपुरुष पटेल की प्रतिमा को बदसूरत नहीं बनाया। उनके स्वरूप को भी नहीं बिगाड़ा। अशोक स्तंभ के शेरों की तरह गुस्सैल और आक्रामक नहीं बनाया। अशोक स्तंभ की प्रतिकृति लग गई है तो उसके बारे में यह जरूर कहा जा सकता है कि उसे बनाने वाले कलाकार नादान थे या फिर उनकी नीयत में ही खोट जरूर रही होगी?''

कलाविद प्रो. महेश प्रसाद अहिरवार यह भी कहते हैं, ''कला के हिसाब से देखें तो अशोक स्तंभ विलक्ष्ण कलाकृति है, जिसकी मूल कृति सारनाथ के म्यूजियम में मौजूद है। असली अशोक स्तंभ की संरचना विधान के हिसाब से की गई थी। सिंह के शरीर की संरचना अनुपात में है। मुख मुद्रा में शालीनता है। भाव मुद्रा शांत और शालीन है। शेर बलशाली भी दिखाई देते हैं, लेकिन क्रोधित और आक्रोशित कतई नजर नहीं आते। खूंखार, डरावने, हिंसक और रक्त पिपासु नहीं दिखते हैं। शेरों की मुख मुद्रा में सौम्यता, शालीनता, सरलता झलकती है। मूल कृति में मुख मुद्रा शांत है। सौदर्य कला की सर्वोत्तम कृति है। वैसे कोई भी शेर (सिंह) जब बैठा होता है तो वह रिलेक्स मुद्रा में नजर आता है। बैठे हुए सिंह की आकृति शांत होती है। सिंह की भाव-भंगिमा तभी गुस्सैल और डरावनी दिखती है, जब वह अपने शिकार पर झपट्टा मारता है।''

लकड़ी पर उकेरी गई अशोक स्तंभ की प्रतिकृति।

''अगर हम सारनाथ म्यूजियम वाले अशोक स्तंभ से संसद भवन की प्रतिकृति की तुलना करते हैं तो यह नहीं लगता कि उसे निपुण कलाकारों ने बनाया है। शेरों का जबड़ा पिचका हुआ और मुख मुद्रा हिंसक दिखती है, जो उसके शरीर संरचना में मेल नहीं खाती है। खूंखार दिखाने वाले शेरों की आंख और चेहरा हिंसक डरावना नजर आता है। उनकी मुखाकृति में दांत निकले हुए और मुंह ज्यादा खुले हुए, जबड़े उभरे और टेढ़े हैं। पैर और नाखूनों की संरचना भी ठीक नहीं। संसद के अशोक स्तंभ का रूप विधान और शोरों के शरीर की संरचना उचित मापदंड के मुताबिक नहीं है। दूसरा बड़ा सवाल यह भी है कि हमारा संविधान इजाजत नहीं देता कि राष्ट्रीय चिह्न की कोई पूजा करे। भारत बहुधर्मी संस्कृति का प्रतीक है। राष्ट्रीय चिह्न के साथ संवैधानिक मर्यादा और मान्यताएं भी जुड़ी हैं। बेहतर होता कि सभी धर्मों के प्रतिनिधियों और गुरुओं को एक साथ बुलाकर अनावरण किया जाता तो शायद देश-दुनिया में दूरगामी संदेश जाता।''

''हमें नहीं लगता कि मूर्ति स्थापित करने में कुशल शिल्पकारों, कला विशेषज्ञों और इतिहास के अध्येताओं की राय ली गई होगी। अन्यथा अशोक स्तंभ की प्रतिकृति पर विवाद कतई नहीं खड़ा होता। अच्छा होगा कि सरकार पुनः विचार करके दूसरी आकृति बनवाए, क्योंकि यह सदियों तक देश का गौरव बढ़ाने वाला प्रतीक है। सरकार की ओर से मूर्तिकार का बचाव किया जा रहा है और इस मुद्दे पर लीपापोती की जा रही है। यह सवाल मामूली सवाल नहीं है। यह ऐसा सवाल है जो देश की आस्था को खंडित करता है, जिसे अपराध की श्रेणी में रखा जा सकता है। संविधान में जिस तरह का प्रावधान राष्ट्रीय प्रतीकों के अपमान के लिए किया गया है, यह मामला भी उसी तरह के आपराधिक कृत्य की श्रेणी में लाता है।''

दो कलाकारों ने बनाई प्रतिकृति

दिल्ली में संसद भवन की छत पर बने राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न को गढ़ने वाले शिल्पी हैं लक्ष्मण व्यास और सुनील देवड़े। अशोक स्तंभ के अलग-अलग भागों को दिल्ली, जयपुर और औरंगाबाद में गढ़ा गया। उसे बनाने वाले दोनों मूर्तिकारों का यही दावा है कि राष्ट्रीय प्रतीक में कोई बदलाव नहीं किया गया है। तांबे से बने नए अशोक स्तंभ की प्रतिकृति डिजाइन करने वाले कलाकार सुनील देवरे कहते हैं, ''कहा जाता है कि सौंदर्य आपकी आंखों में होता है। यह आप पर निर्भर करता है कि शांति देखते हैं ग़ुस्सा। सारनाथ का अशोक स्तंभ 1.6 मीटर लंबा है और संसद की नई इमारत पर जिस राष्ट्रीय चिह्न को लगाया गया है, वह 6.5 मीटर लंबा है। यदि सारनाथ में स्थित राष्ट्रीय प्रतीक के आकार को बढ़ाया जाए या नए संसद भवन पर बने प्रतीक के आकार को छोटा किया जाए, तो दोनों में कोई अंतर नहीं होगा। शेर का किरदार एक जैसा ही है। संभव है कि कुछ अंतर हो। लोग अपनी-अपनी व्याख्या कर सकते हैं। यह एक बड़ी मूर्ति है और नीचे से देखने में अलग लग सकती है। संसद की नई इमारत की छत पर अशोक स्तंभ को 100 मीटर की दूरी से देखा जा सकता है। दूरी से देखने पर कुछ अंतर दिख सकता है। अशोक स्तंभ बनाने का कॉन्ट्रैक्ट हमें सरकार ने नहीं, टाटा ग्रुप ने दिया था।''

मुंबई के जेजे स्कूल आफ आर्ट्स में पढ़े सुनील देवड़े भी उस वक्त मौजूद थे जब पीएम नरेंद्र मोदी ने अशोक स्तंभ का लोकार्पण किया। दरअसल, इस स्तंभ को शिल्पी राम सूतार के पुत्र देश के महान मूर्तिकार अनिल सूतार बनाना चाहते थे। कोशिश के बावजूद उन्हें कॉन्ट्रैक्ट नहीं दिया गया। सिद्ध मूर्तिशिल्पी अनिल सूतार भी कहते हैं, ''जो राष्ट्रीय चिह्न संसद भवन में स्थापित हुआ है, वह उस अशोक स्तंभ से बिल्कुल अलग है जो सारनाथ के संग्रहालय में है। संसद में लगे अशोक स्तंभ में शेरों के भाव बिल्कुल अलग दिख रहे हैं।''

अनावरण पर बवाल क्यों?

राष्ट्रीय चिह्न अशोक स्तंभ को लेकर भाजपा सरकार की काफी आलोचनाएं हो रही हैं। संभव है कि अशोक स्तंभ की प्रतिकृति बनाने में भले ही कलाकारों ने नादानी बरती हो, लेकिन आरोप के छींटे सरकार पर भी पड़ रहे हैं। सरकार की नीयत पर सवाल खड़ा करने वाले सिर्फ विपक्ष के नेता ही नहीं, बनारस के तमाम इतिहासकार और विशेषज्ञ भी शामिल हैं।

महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ में इतिहास विभाग के पूर्व प्रोफेसर महेश विक्रम कहते हैं, ''यह अशोक स्तंभ की प्रतिमूर्ति की बजाय निश्चित तौर पर उसका एक नया प्रारूप है। नए मॉडल में शेर के शरीर पर जो बाल हैं, उनकी सज्जा बिल्कुल अलग है। इसमें में शेर के अयाल में बालों का स्टाइल अलग तरह से बनाया गया है, जबकि सारनाथ के अशोक स्तम्भ में एक साहसी व अमूर्त गुण है और वह बहुत लयबद्ध भी है।''

''मूल रचना में जो गौरव और भव्यता है जो अद्भुत है। आकृति के मामले में अशोक स्तंभ की डिजाइन परिष्कृत थी। दोनों मूर्तियों में धातु का भी अंतर है। अशोक स्तम्भ, चुनार (मिर्जापुर) के बलुआ पत्थर का बना हुआ है, जबकि नए मॉडल को धातु से बनाया गया है। इसे अलग-अलग हिस्सों के रूप में तैयार किया गया है और फिर उन्हें जोड़ा गया है, जो अपूर्ण है। अशोक स्तंभ के नए मॉडल में मूल स्तंभ से विचलन है। आदर्श रूप में इसे मूल के करीब होना चाहिए था। सौंदर्य-बोध के मामले में मूर्तिकारों की दृष्टिहीनता साफ-साफ परिलक्षित होती है। वैसे भी भाजपा सरकार कला को सौंदर्य-बोध के साथ डिजाइन करने के लिए नहीं जानी जाती।''

प्राचीन भारत के छवि-चित्रण में शेर इतना महत्वपूर्ण क्यों था? इस सवाल के जवाब में महेश विक्रम कहते हैं, ''शेर जंगलों का राजा रहा है। यह एक मिलनसार जानवर है जो प्राइड्स नाम के समूहों में रहता है। यह इंसानों के साथ भी घुल-मिल जाता है। हालांकि आधिकारिक तौर पर संविधान ने इसे उस तरह से कभी राष्ट्रीय प्रतीक का दर्जा नहीं दिया, जिस तरह से तिरंगे को दिया गया है। अशोक स्तंभ उन स्तंभों में से एक है, जो मौर्य काल से जुड़ा है। प्राचीन काल में साम्राज्यवादी राजशाही से जुड़े जानवरों में हाथी, शेर, सांड और घोड़े शामिल हैं। राजसी गौरव के साथ शेर का जुड़ाव पुराना है। बुद्ध का एक नाम ‘ शाक्य सिम्हा’ है, जिसका अर्थ है - शाक्यों का शेर। सारनाथ में बुद्ध के पहले उपदेश को सिम्हानाद यानी सिंह के गरजने के नाम से जाना जाता है। यानी हमारी कल्पना में शेर की जड़ें गहरी हैं। ये जड़ें केवल पाली भाषा में ही नहीं, बल्कि संस्कृत, अरबी, फारसी और तमिल में भी थीं। इन सभी भाषाओं के साहित्य में शेर बहुत महत्वपूर्ण है।''

प्रो. महेश विक्रम यह भी कहते हैं, ''उत्तर प्रदेश के सारनाथ में स्थित अशोक स्तंभ को मौर्य वंश के शासन काल के दौरान बनाया गया था। मूल अशोक स्तंभ में चार भारतीय शेर की आकृति बनाई गई है जो एक दूसरे से पीठ का संपर्क किए हुए दिखते हैं। इन चार भारतीय शेरों की आकृति को सिंह चतुर्मुख कह कर बुलाया जाता है। प्रियदर्शी अशोक को आरएसएस और भाजपा के लोग पहले से ही पसंद नहीं करते हैं। इन दिनों बहुत सी चीजें मजाक बनती जा रही हैं। अशोक स्तंभ की नई प्रतिकृति में जो भाव-भंगिमा है उसे दहाड़ता हुआ दर्शाने की कोशिश की गई है। कलाकारों को अशोक स्तंभ की नई मूर्ति नहीं गढ़नी थी। सिर्फ उसकी प्रतिकृति बनानी थी। जिन्हें देश की गरिमा का ख्याल नहीं, उन्हें भला कोई कलाकार कैसे मान सकता है? ''

विशालकाय अशोक स्तंभ में लगे शेर को लेकर सियासत गरम है। समाजवादी जन परिषद के महामंत्री अफलातून कहते हैं, ''भाजपा सरकार को बौद्ध दर्शन से दिक्कत है। इसलिए लाजमी तौर पर अशोक स्तंभ से भी दिक्कत है। गुंजाइश है कि अभी तक सिक्कों और करेंसी नोटों पर नए और विकृत चिह्न वाले अशोक स्तंभ अंकित करने की चर्चा शुरू नहीं हुई है। सौम्य दिखने वाले राज चिह्न को विकृत और हिंसक रूप में पेश कर मोदी सरकार ने अपनी कुंठा और कमजोरी को छुपाने घिनौना काम किया है।'' आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह ने ट्वीट कर कहा है, ''अशोक स्तंभ की प्रतिकृति को बदसूरत बनाया जाना इतिहास के साथ छेड़छाड़ है। मैं 130 करोड़ भारतवासियों से पूछना चाहता हूं, राष्ट्रीय चिह्न बदलने वालों को 'राष्ट्र विरोधी' बोलना चाहिए कि नहीं?''

अशोक स्तंभ वाले विवाद से पहले यह विवाद खडा हुआ था कि अशोक स्तंभ का अनावरण प्रधानमंत्री ने क्यों किया? एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी ने स्तंभ अनावरण के दौरान पीएम मोदी की मौजूदगी पर सवाल खड़ा करते हुए कहा था उन्होंने संवैधानिक मानदंडों का उल्लंघन किया है। सीपीएम की तरफ से भी इस पूरे विवाद पर एक ट्वीट किया गया। पार्टी के मुताबिक पीएम ने अनावरण के दौरान जिस तरह से पूजा-पाठ किया, वह ठीक नहीं था। अशोक स्तंभ समूचे राष्ट्र की पहचान है, किसी धर्म विशेष की नहीं।''

खुदाई में यही निकला था अशोक स्तंभ।

अशोक स्तंभ का इतिहास?

बनारस के सारनाथ स्थित म्यूजियम में रखे गए अशोक स्तंभ का एक अनोखा इतिहास है, जिसे लोकतंत्र की एक महान विरासत के रूप में देखा जाता है। संवैधानिक रूप से भारत सरकार ने 26 जनवरी, 1950 को राष्ट्रीय चिह्न के तौर पर अशोक स्तंभ को अपनाया था, क्योंकि इसे शासन, संस्कृति और शांति का सबसे बड़ा प्रतीक माना गया था। साल 1950 में तो अशोक स्तंभ को राष्ट्रीय चिह्न माना गया। हालांकि इसकी कल्पना तो हजारों साल पहले सम्राट अशोक ने कर दी थी। प्रियदर्शी अशोक के इस स्तंभ को समझने के लिए 273 ईसा पूर्व के कालखंड को समझना होगा। भारत वर्ष में मौर्य वंश के तीसरे राजा थे सम्राट अशोक। यह वो दौर था जब सम्राट अशोक को एक क्रूर शासक माना जाता था, लेकिन कंलिंग युद्ध में हुए नरसंहार को देखकर सम्राट अशोक को बहुत आघात लगा और वो राजपाट त्यागकर बौद्ध धर्म की शरण में चले गए। बौद्ध धर्म के प्रचार में सम्राट अशोक ने देशभर में इसके प्रतीक के रूप में चारों दिशाओं में गर्जना करते चार शेरों की आकृति वाले स्तंभ का निर्माण कराया।

इतिहासकारों के मुताबिक स्तंभ पर शेरों की आकृति बनाने का मकसद यह था कि बुद्ध को सिंह (शेर) का पर्याय माना जाता है। बुद्ध के सौ नामों में से शाक्य सिंह, नर सिंह नाम का उल्लेख मिलता है। हालांकि अशोक स्तंभ से जुड़ा यह तथ्य रोमांच भी पैदा करता है कि उसमें कहने को कुल चार शेर होते हैं, लेकिन हर बार दिखते सिर्फ तीन हैं। गोलाकार आकृति की वजह किसी भी दिशा से देखने के बाद भी एक शेर दिखाई नहीं देता है। अशोक स्तंभ के नीचे एक सांड और एक घोड़े की आकृति दिखाई देती है। इन दोनों आकृतियों के बीच में एक चक्र भी है जिसे हमारे राष्ट्रीय ध्वज में शामिल किया गया है। इसके अलावा अशोक स्तंभ के नीचे सत्यमेव जयते लिखा गया है। यह मुण्डकोपनिषद का सूत्र है जिसका अर्थ है 'सत्य की ही विजय होती है'।

अशोक स्तंभ से जुड़े कानून

अशोक स्तंभ को लेकर कई नियम कानून बनाए गए हैं, जिसका पालन होना जरूरी है। ऐसा नहीं होने पर जेल से लेकर जुर्माना तक, कुछ भी हो सकता है। अशोक स्तंभ का इस्तेमाल सिर्फ संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोग ही कर सकते हैं। मुख्य रूप से भारत के राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, राज्यपाल, उप राज्यपाल, न्यायपालिका और सरकारी संस्थाओं के उच्च अधिकारियों को ही इसके लिए अधिकृत किया गया है। रिटायर होने के बाद कोई भी पूर्व अधिकारी अथवा पूर्व मंत्री, पूर्व सांसद अथवा पूर्व विधायक बिना अधिकार के इस राष्ट्रीय चिह्न का प्रयोग नहीं कर सकता। देश में जब राष्ट्रीय चिह्न का दुरुपयोग बढऩे लगा तो इसे रोकने के लिए विशेष कानून भारतीय राष्ट्रीय चिह्न (दुरुपयोग की रोकथाम) एक्ट 2005 बनाया गया। साल 2007 में इस कानून को लागू कर दिया था। इस कानून के मुताबिक भारतीय राष्ट्रीय चिह्न (दुरुपयोग की रोकथाम) एक्ट के तहत अगर कोई आम नागरिक अशोक स्तंभ का इस्तेमाल करता है तो उसे दो साल सजा और पांच हजार रुपये का जुर्माना हो सकता है।

क्यों अलग है मोदी का स्तंभ?

अशोक-स्तम्भ, मौर्य साम्राज्य के शासनकाल के दौरान 280 ईसा पूर्व की एक प्राचीन मूर्ति है। इस राष्ट्रीय प्रतीक का डिजाइन आधुनिक भारतीय कला के पथ-प्रदर्शक और विश्व भारती विश्वविद्यालय में कला भवन के प्रधानाचार्य नंदलाल बोस के पांच शिष्यों ने तैयार किया था। दीनानाथ उस टीम के सदस्य थे, जिसने भारतीय संविधान की पांडुलिपि पर लगाए गए मूल राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न को डिजाइन किया था। अशोक स्तंभ पर जारी विवाद के बीच मूल प्रतीक चिह्न डिजाइन करने वाले दीनानाथ भार्गव के परिजनों के मुताबिक वह शेर देखने के लिए तीन महीने तक चिड़ियाघर जाते रहे थे। इसे यूपी के सारनाथ में पाई 250 ईसा पूर्व की एक प्राचीन मूर्तिकला के आधार पर डिजाइन किया गया था। सारनाथ में 1905 में खुदाई के दौरान असली अशोक स्तंभ मिला था। असली अशोक स्तंभ सारनाथ के म्यूजियम में है।

दीनानाथ भार्गव की पत्नी प्रभा ने कहती हैं, ''भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने संविधान की मूल पांडुलिपि को डिजाइन करने का काम रविंद्रनाथ टैगोर के शांतिनिकेतन के कला भवन के प्रिंसिपल और जाने-माने चित्रकार नंदलाल बोस को दिया था। बोस ने उनके पति को अशोक स्तंभ की पिक्चर डिजाइन करने का काम दे दिया था। उस समय उनके पति शांति निकेतन में आर्ट्स की पढ़ाई कर रहे थे। गुरु के निर्देश पर हमारे पति कोलकाता के एक चिड़ियाघर में तीन महीने तक जाते रहे। वो वहां शेरों के हाव-भाव देखते थे। यह भी शिनाख्त करते थे कि शेर कैसे बैठते हैं और कैसे खड़े होते हैं। भार्गव की डिजाइन की गई अशोक स्तंभ की मूल कलाकृति उनके पास मौजूद है, क्योंकि उन्होंने इसे साल 1985 में पूरा किया था।''

''भार्गव की डिजाइन की गई कलाकृति में तीन शेर हैं, जिनके मुंह थोड़े खुले हुए हैं और उनके दांत भी दिखाई दे रहे हैं। इसके नीचे सुनहरे अक्षरों में 'सत्यमेव जयते' लिखा हुआ है। सुप्रीम कोर्ट के वकील और सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत भूषण कहते हैं, ''मूल राष्ट्रीय चिह्न महात्मा गांधी के साथ खड़ा है तो नया वर्जन महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को दर्शाता है। अब दो तरह के उठते हैं। पहला– क्या सरकार ने अशोक स्तंभ में बदलाव किया है? दूसरा-क्या सरकार अशोक स्तंभ या किसी दूसरे राष्ट्रीय प्रतीक में बदलाव कर सकती है? ''

ऐसा दूसरे करते तो जेल में होते

बनारस के एक्टिविस्ट और बौद्ध धर्मावलंबी डॉ. लेनिन कहते हैं, ''नए संसद भवन पर लगे अशोक स्तंभ का शेर गुस्से में हैं। उसका मुंह खुला है, जबकि ऐतिहासिक अशोक स्तंभ का शेर बेहत शांत है। हर किसी को मालूम है कि सम्राट अशोक ने जितनी भी कल्याणकारी योजनाएं बनाई। उन्होंने बताया कि असली ताकत करुणा, बंधुत्व, दया, दान, कल्याण, सेवाभाव में है। अशोक स्तंभ की उनकी परिकल्पना मनुस्मृति के खिलाफ है। कोई दूसरा व्यक्ति गलती से राष्ट्रीय प्रतीक चिह्न के साथ छेड़छाड़ करता तो क्या हाल होता, समझा जा सकता है? शायद वह जेल में होता।''

डॉ. लेनिन यह भी कहते हैं, ''हम संविधान नहीं बदल पा रहे हैं, लेकिन राष्ट्रीय चिह्न के साथ लगातार खिलवाड़ कर रहे हैं। बनारस के काष्ठ कलाकार भी हूबहू अशोक चिह्न बना देते हैं। कोई बड़ा मूर्तिकार कहता है कि असली स्तंभ है तो वह हास्यास्पद है। बड़ा सवाल यह है कि आप मूर्ख है या मूर्तिकार धूर्त है। जब स्तंभ की प्रतिकृति मामूली मूर्तिकार भी बना ले रहे हैं तो करोड़ों का ठेका लेने वाले मूर्तिकार नादान और अनुभवहीन कैसे हो सकते हैं? जाहिर है कि अगर मकसद और भावना सही होती तो प्रतीक चिह्न कतई गड़बड़ नहीं होता। सरकार को चाहिए कि गुस्सैल शेरों वाले चिह्न को वह बदल दे। अगर भारत सरकार राष्ट्रीय चिह्नों को ही बदलना चाहती है तो उसे एक नया विधेयक लाना होगा। फिर उस विधेयक के अनुसार कानून बनाकर ही राष्ट्रीय चिह्नों को बदला जा सकता है।''

यूपी के प्रमुख बौद्ध धर्म स्थल कुशीनगर के डॉ. भिक्षु नंदरतन बनारस के कला-इतिहासकारों के विचारों से सहमत नजर आते हैं। वह कहते हैं, ''सारनाथ बुद्ध का पहला उपदेश स्थल है। बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय के लिए उन्होंने धम्म विजय की घोषणा की थी। वह दुनिया में शांति और सद्भाव का पताका फहरना चाहते थे। बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद उन्होंने अनुयायियों को चारों दिशाओं में भेजा था, ताकि चारों दिशाओं में उसका नाद हो। किसी सत्य बात को दृढ़तापूर्वक कहना ही सिंह नाद कहलाता है। चारों सिंह सम्राट के धम्म विजय की घोषणा का नाद करते दिखाई देते हैं। इसीलिए उनमें सौम्यता है, मृदुलता है, सरलता है और उनका चित्त पूरी तरह शांत है।''

डॉ. भिक्षु नंदरतन यह भी कहते हैं, ''अच्छी बात यह है कि बनारस में बौद्ध धर्म के लोगों ने खूंखार मुद्रा वाले अशोक स्तंभ को अपनी नाक का सवाल नहीं बनाया। कोई वितंडा भी खड़ा नहीं किया, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इनकी भावनाएं आहत और आस्था खंडित नहीं हुई हैं। किसी भी देश के राष्ट्रीय चिह्न का महत्व उसके गौरव से जुड़ता है। नई संसद की छत पर लगी अशोक स्तंभ की प्रतिकृति को देखने से साफ-साफ पता चल जाता है कि उसका स्वरूप बदला हुआ है। यह देश की अखंडता के लिए घातक है। जिस प्रतिकृति को संविधान ने मान्यता दी है, उसे कैसे बदला जा सकता है। राष्ट्रीय गौरव से छेड़छाड़ और खिलवाड़ नहीं होनी चाहिए।''

(विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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