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पड़तालः स्मार्ट शहर बनारस में टूरिस्टों पर टूट पड़ते हैं भिखारी, दुनिया भर में बदनाम हो रहा ‘मोदी का क्योटो’ 

भीख मांगना यूं तो क़ानूनन जुर्म है, लेकिन भीख अगर मजबूरी में मांगी जा रही है तो ऐसे व्यक्ति के प्रति सहानुभूति पूर्वक सोचने और उसके पुनर्वास के लिए काम करने की ज़रूरत है, लेकिन अगर भीख मांगना धंधा बन जाए तो भिखारी, उसे प्रश्रय देने वाली व्यवस्था और इस व्यवस्था को बने रहने देने वाली सरकार सभी को कठघरे में खड़े करने की ज़रूरत है। सवाल पूछने की ज़रूरत है। बनारस से यही काम कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार विजय विनीत।
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सीन-1

सुबह-ए-बनारस का नजारा देखने टूरिस्टों का एक समूह दशाश्वमेध घाट के पास पहुंचा तो माला, चिलम और तांबे के बर्तन बेचने वालों ने उन्हें घेर लिया। फिर घाट की सीढ़ियों पर उतरते ही बाल भिखारियों की फौज उन पर टूट पड़ी। गिव मी मनी...मनी...कहते हुए वो टूरिस्टों के पीछे पड़ गए। गाइड ने टूरिस्टों को भिखारियों से बचाने के लिए बहुत जतन किए, लेकिन वो भी बेबस नजर आया। भिखारियों से पीछा तभी छूटा जब टूरिस्टों ने सभी को रुपये दिए।

सीन-2

बुद्ध की तोपोस्थली सारनाथ (बनारस) में दक्षिण भारतीय टूरिस्टों का जत्था पहुंचा। बस से नीचे उतरकर वो जैसे ही मूलगंध कुटी विहार की ओर जाने लगे, तभी हाथ में कटोरा लिए मैला-कुचैला कपड़ा पहने तमाम छोटे-छोटे बच्चों ने उन्हें घेर लिया। भीख मांगने में दक्ष भिखारियों के बच्चे टूरिस्टों के पीछे लग गए और उनके कपड़े खींच-खींचकर रुपये मांगने लगे। भीख मांगने वाले बच्चों ने टूरिस्टों से रुपये लेने के बाद ही पीछा छोड़ा।

सीन-3

बनारस के दुर्गाकुंड में मध्य प्रदेश के दर्शनार्थियों का एक समूह पूजा-अर्चना करने पहुंचा। वह फूल-माला और प्रसाद खरीदते, इससे पहले ही भिखारी महिलाओं ने उन्हें घेर लिया। इन महिलाओं ने मंदिर के गेट तक दर्शनार्थियों का पीछा किया। इनमें ज्यादातर औरतें तंदुरुस्त थीं और वह मेहनत-मजूरी कर सकती थीं। एक दर्शनार्थी ने टोका कि कोई दूसरा काम क्यों नहीं करतीं? इस पर भिखारी महिलाओं ने उसे बद्दुआएं देनी शुरू कर दीं...!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में भीख मांगने वालों की भारी-भरकम फौज देखकर कोई भी कह सकता है कि यह निठल्लों का शहर है। ऐसा शहर जिसे मोदी ने "क्योटो" बनाने का सपना दिखाया था। पूजा स्थलों, रेलवे-बस स्टेशनों और गली मुहल्लों में फैले भिखारियों का जाल इस बात को तस्दीक करता है कि गरीबी मिटाने के भाजपा सरकार के आंकड़े पूरी तरह फर्जी हैं। बनारस में बड़ी तादाद ऐसे निठल्ले मौजूद हैं जिन्होंने भिक्षावृत्ति को व्यवसाय बना लिया है।

वरिष्ठ पत्रकार डा.संतोष ओझा कहते हैं, "बनारस का नाम देश के उन प्रमुख शहरों में शुमार है जिसे मोदी सरकार ने स्मार्ट सिटी घोषित कर रखा है। मकसद यह है कि स्मार्ट हो रहे इस शहर में लोग आएं और लौटें तो अपने शहर में भी तरक्की की नई इबारत लिखें। सरकारी मशीनरी शहर के जिस दशाश्वमेध इलाके को स्मार्ट बनाने में जुटी है, वहीं सबसे ज्यादा भिखारी हैं। बनारस के घाटों पर अवांछनीय लोग टूरिस्टों पर टूट पड़ते हैं। कई बार तो वे दबंगई पर भी उतर आते हैं, जिन्हें रोकने वाला कोई नहीं होता।"

जर्नलिस्ट गुरु अनिल उपाध्याय कहते हैं, "पीएम नरेंद्र मोदी को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके स्मार्ट सिटी की इमेज बिगड़ रही है। भिखारियों की गंदी हरकतें भले ही टूरिस्टों को अखरती हैं, लेकिन नौकरशाही को कोई चिंता नहीं है। जल पुलिस अथवा टूरिस्टों की हिफाजत के लिए तैनात टूरिस्ट पुलिस भी भिखारियों को नहीं रोकती। नतीजा, बनारस में निठल्लों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। जाहिर है कि समाज का यह वर्ग आर्थिक विकास से वंचित है, तभी वह भीख मांगने के लिए विवश है। इनकी विवशता को नियंत्रित करने के लिए मोदी-योगी सरकार के पास न कोई पुख्ता योजना है, न ही कानून।" 

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मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक बनारस में भिक्षावृत्ति को रोजगार में बदल चुके निठल्ले लोगों की तादाद करीब 10 हजार है। लॉकडाउन के समय जो भिखारी लापता हो गए, वह अब फिर लौट आए हैं। शहर में आतंक का पर्याय बने भिखारियों में बच्चों की तादाद करीब 3500 है। ऐसे प्रौढ़ भिखारियों की संख्या करीब चार हजार है, जो काम करने में पूरी तरह सक्षम हैं, लेकिन निठल्लागीरी छोड़ने के लिए कतई तैयार नहीं है। बनारस में ऐसे पर्यटकों की तादाद करीब तीन लाख से अधिक होती है जिन्हें भिखारी अपना निशाना बनाते हैं और उनसे रुपये मांगने के साथ छीना-झपटी पर उतर आते हैं।

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गौर किया जाए तो साफ पता चलता है कि बनारस में भिक्षावृत्ति का स्वरूप पूरी तरह बदल गया है। यह ऐसा व्यवसाय बन गया है जो कम श्रम पर अधिक मुनाफा दे रहा है। यही वजह है कि निठल्ले लोगों में इस लाभप्रद व्यवसाय को अपनाए जाने की होड़ सी लग गई है। बनारस रेलवे स्टेशन हो या फिर पर्यटन स्थल, यहां ऐसे युवकों को देखा जा सकता है जो खुद को गरीब परिवार का बताकर पुस्तकें आदि खरीदने, परिजनों के बाढ़ में बह जाने अथवा पाकेटमारों द्वारा जेब काटे जाने का बहाना बनाकर भीख मांगते हैं।

बनारस के दशाश्वमेध घाट पर भीख मांगने का नया अंदाज

दशाश्वमेध व्यापार मंडल के महामंत्री सुरेश तुलस्यान कहते हैं, "भिखारियों के लिए पुख्ता नियम-कानून और उनके पुनर्वास की पुख्ता व्यवस्था न होने की वजह से बनारस का पर्यटन प्रभावित हो रहा है। यह शहर पर्यटन कारोबार से हर साल करीब दस हजार करोड़ की इकॉनामी जुटाता रहा है। भिखारियों पर सख्ती नहीं हुई तो यह शहर देसी-विदेशी सैलानियों का चेहरा देखने के लिए  तरस जाएगा।" 

सड़क पर लाइन लगाकर बैठे भिखारियों के हूजूम को दिखाते हुए सुरेश कहते हैं, "बनारस में कदम रखते ही टूरिस्टों पर भिखारियों का भारी-भरकम फौज टूट पड़ती और उन्हें तब तक नहीं छोड़ती जब तक मनमाफिक रुपये नहीं मिल जाते। अगर किसी के पास भारतीय नोट नहीं होते तो ये भिखारी डॉलर लेने में भी संकोच नहीं करते। 

दशाश्वमेध घाट इलाके में दो बार आतंकवादी बम विस्फोट की घटनाएं हो चुकी हैं। भिखारियों के भेष में असामाजिक तत्व भी यहां डेरा डाले रहते हैं, जिनमें बहुत सारे पाकेटमार और उठाईगीर भी होते हैं। ये लोग यात्रियों का बैग, पर्स, कपड़ा और कीमती सामान पलक झपकते ही गायब कर देते हैं। लूट-मार भिखारी करते हैं और बदनाम होते हैं मल्लाह व पंडे। अगर भिखारियों की मौजूदगी बेहद जरूरी है तो सबकी जांच-पड़ताल कराई जाए और उन्हें पहचान-पत्र दिया जाए।"

हर जगह हैं भिखारी

बनारस में भिखारियों की फौज हर उस जगह पर मौजूद रहती है, जहां टूरिस्ट्स का आना-जाना होता है। खासतौर पर दशाश्वमेध घाट, राजेंद्र प्रसाद घाट, शीतला घाट, आस्सी घाट, लाली घाट, राजघाट के अलावा विश्वनाथ मंदिर के आसपास, संकटमोचन मंदिर, दुर्गा मंदिर, महामृत्युंजय मंदिर, कौड़ी माता मंदिर, गौरी केदारेश्वर, कालभैरव, बटुक भैरव और लाट भैरव मंदिर, सारनाथ, रविदास पार्क, शहीद उद्यान सहित शहर के सभी प्रमुख पार्कों और पर्यटन केंद्रों पर भिखारियों की इतनी भीड़ जुटती है, जिन्हें गिन पाना कठिन है। रामनगर किला, चेतसिंह किला, माधवराव का धरहरा जैसे ऐतिहासिक स्थल देखने आने वाले पर्यटक भिखारियों से नहीं बच पाते हैं। इन भिखारियों का निशाना घरेलू पर्यटक ही नहीं, विदेशी सैलानी भी होते हैं। सहानुभूति का अनुचित लाभ उठाने के लिए गंगा घाटों के किनारे तमाम हट्टे-कट्ठे और भले चंगे लोग बहुरुपियों की तरह भेष धारण किए रहते हैं। अपने शरीर पर फटे हुए मैले-कुचैले कपड़े धारण कर सहृदय किस्म के लोगों को ठगने में कामयाब हो जाते हैं। 

वाराणसी के शीतलाघट पर भीख मांगता भिखारी

एक्टिविस्ट प्रज्ञा सिंह कहती हैं, "बनारस में भिक्षावृत्ति की रवायत भले ही पुरानी रही है, लेकिन अब एक संगठित और व्यापक स्तर पर चल निकली है। इस धार्मिक शहर में बहुत से लोग खुद को शारीरिक रूप से विकलांग प्रदर्शित करते हैं, जबकि होते नहीं हैं। कैंट रेलवे स्टेशन पर लंगड़े और अंधे भिखारियों को धक्का-मुक्की करते हुए देखकर पुलिस वाले डंडा फेरते हैं तो अंधों को दिखाई देने लगता है और लंगड़े भिखारी दौड़ने में समर्थवान हो जाते हैं।"  

प्रज्ञा कहती हैं, " भिखारियों के ज्ञान और विवेक को देखकर ताज्जुब होता है कि ये लोग भीख मांगने के लिए कितना व्यावहारिक और मनोवैज्ञानिक तरीका इस्तेमाल करते हैं। कोई अपने बेटे की मौत का स्वांग रचता है तो किसी महिला को अपने पति के अंतिम संस्कार के लिए कफन की जरूरत होती है। गंगा घाटों पर देवी-देवताओं का रूप धारण किए भिखारियों की धर्मभीरू लोगों से रुपये ऐंठती नजर आती है।"

पुरातन सांस्कृतिक शहर के आकर्षण के चलते यहां दुनिया भर से पर्यटक आते हैं। गंगा में नौकायन, अलबेली गलियां और सैकड़ों होटल, लॉज, रेस्तरां बनारस की पहचान हैं। सारनाथ में श्रीलंका, चीन, जापान, मलेशिया, थाईलैंड समेत दुनिया भर के बौद्ध धर्मावलंबी आते हैं। गंगा घाट की खूबसूरती निहारने के लिए अमेरिका, रूस, फ्रांस, जर्मनी, इटली आदि देशों के टूरिस्ट भी पहुंचते हैं। ये पर्यटक जब लौटते हैं तो अपने देश में बनारस के भिखारियों की लूट-खसोट के किस्से भी सुनाते हैं।

भिखारियों का कॉर्पोरेट घराना

भारतीय संविधान में भीख मांगना अपराध है, लेकिन बनारस में निठल्ले लोगों को कटोरा लेकर घूमने के लिए लाइसेंस मिलता है। यह लाइसेंस देता है भिखारियों का "कॉर्पोरेट  घराना"। बनारस के घाट और मंदिर, इन भिखारियों से घिरे पड़े हैं। इनकी भीख के पैसे में पुलिस और सफेदपोशों के भी हिस्से होते हैं। बनारस में भिखारियों की गहन पड़ताल करने वाले टीवी पत्रकार आकाश यादव कहते हैं, "यहां भिखारियों के कई गुट हैं। एक गुट का भिखारी दूसरे इलाके में  भीख नहीं मांग सकता है। भिखारियों के कॉर्पोरेट घरानों ने जो आचार संहिता बना रखी है, उसे तोड़ने वालों की पिटाई भी होती है। दिन भर भीख मांगने के बाद ये लोग किसी पूर्व निर्धारित स्थान पर जुटते हैं और भीख के रूप में मिली धनराशि का एक तयशुदा हिस्सा ईमानदारी से अपने मुखिया को दे देते हैं। लौटते समय मुखिया से यह निर्देश भी प्राप्त करते हैं कि अगले दिन उन्हें किस क्षेत्र में कहां भीख मांगना है?"

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टीवी पत्रकार आकाश यादव आगे कहते हैं "बहुत से भिखारियों का पाकेटमारों और उठाईगीरों से भी गठजोड़ होता है। ये लोग संदेशवाहक के रूप में काम करते हैं। उन्हें यह बताने में अच्छा कमीशन मिल जाता है कि अमुक स्थान पर मौजूद व्यक्ति मालदार है अथवा किसकी जेब या सामान पर आसानी से हाथ साफ किया जा सकता है। लॉकडाउन के समय चितरंजन पार्क के सामने भीख मांगने वाले एक दंपती के बीच विवाद हुआ तो उनकी गाड़ी से करीब 75 हजार रुपये की नकदी निकली। निठल्लों और कामचोरों को भीख का धंधा इसलिए भी रास आ रहा है कि इन्हें न तो कोई सरकारी टैक्स देना पड़ता है और न ही किसी आवास की जरूरत पड़ती है। धर्म एक ऐसा औजार है जिसके सहारे चतुर लोग टूरिस्टों को ठगने में कामयाब हो जाते हैं।" 

बनारस के विश्वसुंदरी पुल के नीचे ताश और जुआ खेलते भिखारी

क्राइम रिपोर्टर आकाश यह भी कहते हैं, "भिखारियों के जीवनयापन का अपना एक स्तर होता है जो निश्चित रूप से उससे कहीं ज्यादा होता है, जितना कि ये दिखावा करते हैं। बहुतों के पास परिवार और चल-अचल संपत्तियां भी होती हैं। दशाश्वमेध घाट पर भीख मांगने वाले तमाम ऐसे लोग हैं जो रात के अंधेरे में ऑटो कर पहले ठेके पर पहुंचते हैं। गला तर करते हैं और पहुंच जाते हैं अपने ठाट-बाट वाले ठिकानों पर। भीख मांगने वाला जर्जर ड्रेस खूंटी पर टांगा और हो लिया मोहल्ले के इज्जतदार, सभ्य-भले मानुस। कहीं घूमने-फिरने जाना हुआ तो दरवाजे पर गाड़ियां भी खड़ी हैं।"

लखपति भिखारियों में कपिल उर्फ राकेट दशाश्वमेध पर भीख मांगता है। वह आलीशान मकान में रहता है। उसके पास खुद की कार है जो रात में उसे घर ले जाने और छोड़ने आती है। वह रोजाना हजारों रुपये कमा लेता है। रेस्तरां में भोजन करता है। खासा बैंकबैलेंस भी है। ऐसी बरक्कत की कुछ और जानकारियां हमें चौंकाती हैं। दुनिया की सांस्कृतिक राजधानी बनारस के सभी मंदिरों पर भिखारियों का हुजूम सा जमा रहता है। इन भिखारियों ने अपने-अपने क्षेत्र और मंदिर से लगायत घाट तक बांट रखे हैं।

मोटा-मुनाफा कूटने वाला भिखारी राकेट

दशाश्वमेध घाट रोड के किनारे भीख मांगने वाली कुंती और उसका पति रोजाना कम से कम डेढ़ हजार कमा लेते हैं। इनके पास पक्का मकान है। अच्छा-खासा कई बैंकों में बैलेंस है। राजेंद्र प्रसाद घाट, दशाश्वमेध घाट और शीतलाघाट पर ऐसे भिखारियों की संख्या भी कम नहीं है जो फर्राटेदार अंग्रेजी में बात करते दिख जाते हैं। उनके बच्चे ठाट से कॉन्वेन्ट स्कूलों में पढ़ रहे हैं। बिना लागत के भीख मांगने का अच्छा खासा बिजनेस चल रहा है।

गोदौलिया के पांच किमी की परिधि में स्मार्ट सिटी के सभी प्रमुख चौराहे भिखारियों से आबाद हैं। वाहनों की रफ्तार थमते ही चींटियों की तरह तमाम भिखारी बच्चे फुर्ती से आते हैं और गुब्बारा, पेन अथवा खिलौने खरीदने के लिए दबाव बनाते हैं। हाथ फैलाए रिरियाते हुए ये बच्चे रोजाना आठ सौ से एक हजार रुपये तक की कमाई कर लेते हैं।

भिखारियों के संगठित गिरोह

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक बनारस के ज्यादातर भिखारी रोजाना कम से कम एक हजार रुपये कमा लेते हैं। शनिवार, रविवार अथवा त्योहार के मौकों पर इनकी कमाई दोगुनी अथवा तीन गुनी तक हो जाती है। इनकी भीख में सफेदपोशों, पुलिस वालों का भी हिस्सा होता है। इनका कोई ईमान-धर्म नहीं होता है। मुस्लिम बहुल ठिकानों पर मुस्लिम हुलिया में, हिंदू बहुल स्थलों पर साधु-संन्यासियों वाली वेशभूषा धारण कर लेते हैं। उसी के अनुरूप बोलचाल, भाषा का भी इस्तेमाल करते हैं।

अधिवक्ता संजीव वर्मा बताते हैं, "कुछ भिखारी बहुत शातिर होते हैं। ये उन घरों पर निशाना साधे रहते हैं, जिनके पुरुष ड्यूटी पर चले जाते हैं। ऐसे घरों की महिलाओं पर वे इमोशनल अत्याचार करते हैं। भिखारियों के गिरोहों में सक्रिय तमाम बच्चे अपहृत किए हुए होते हैं। पुलिस रिकार्ड के मुताबिक देश में हर साल लगभग चालीस-पैंतालीस हजार बच्चे गायब हो रहे हैं। लगभग 10 लाख बच्चों के बिछुड़ने की सूचनाएं मिलती रहती हैं। इनमें से तमाम बच्चे भिखारी गिरोहों के चंगुल में खींच लिए जाते हैं।

बच्चों को भिक्षावृत्ति के दलदल से निकालने में जुटी संस्था उर्मिला देवी मेमोरियल सोसाइटी की सचिव प्रतिभा सिंह कहती हैं, "बनारस में भीख मांगना एक बड़े धंधे का रूप ले चुका है। भिखारियों के छोटे-बड़े गैंग इनमें शामिल हैं। बाकायदा दबंग किस्म के लोग इस गैंग का संचालन करते हैं। भीख में अधिक से अधिक रुपये हाथ आ सकें इसके लिए गैंग हर तरह का हथकंडा अपनाता है। भिखारियों का पुनर्वास कराने पर इस गिरोह के लोग कई बार मुझे धमकियां भी दे चुके हैं।"

‘’भिक्षावृत्ति से जुड़े जितने भी लोग हैं, वो अपना असली पता नहीं बताते। वे किसके लिए यह धंधा करते हैं, यह भी बताने से कतराते हैं। भिखारियों के जीवन पर काम करने वाले एक पत्रकार राजीव मौर्य कहते हैं, "भिक्षावृत्ति से जुड़े लोगों का एक सिंडिकेट चलता है। हर दिन और घंटे में बदल-बदल कर ये लोग मंदिरों और चौराहों पर बैठते हैं। ये अपने जीवन से खुश रहते हैं। अगर बदलाव की कोई बात करो तो मना कर देते हैं।"

राजीव कहते हैं, "हमने तो पूरी छानबीन की है। किसी-किसी भिखारियों के पास रेलवे और बस के पास भी मिले हैं। वे अन्य जिलों से हर सप्ताह आकर यहां पर भीख मांगते और पैसा लेकर निकल जाते हैं। इनके पीछे कौन सा गिरोह काम कर रहा है, यह तो ठीक से पता नहीं चल पाया है, लेकिन एक बात तय है कि इसमें जुड़े लोग बड़े स्तर के माफिया और सिंडिकेट हैं, जो व्यापार के नाम पर ऐसा धंधा कर रहे हैं।"

आमदनी का एक जरिया यह भी

गोदौलिया के पास भीख मांग रहे राधेश्याम ने बताया, "वह रेजगारी का धंधा भी करते हैं। हर 97 रुपये पर तीन-चार रुपये अधिक मिल जाता है। कई दुकानदार तो हमारी राह देखते रहते हैं। कई बार हम अपनी शर्तों पर दुकानदारों को छुट्टे देते हैं। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कुछ रेजगारी की किल्लत झेल रहे दुकानदार पांच से दस रुपये एडवांस भी दे देते हैं।"

50 वर्षीय सकीना नेत्रहीन हैं और वह नदेसर इलाके में एक मस्जिद के बाहर हर शुक्रवार को भीख मांगती नजर आती हैं। जुमे का दिन इनके लिए काफी व्यस्त होता है। नमाज खत्म होने के बाद जब लोग मस्जिद से बाहर आने लगते हैं तो भिखारियों को दान देते हैं। मस्जिदों में नमाज दस-पंद्रह मिनट के अंतराल पर ही खत्म होती है। ज्यादा से ज्यादा पैसे पाने के लिए वह टेम्पो से एक के बाद दूसरी मस्जिद तक पहुंचती हैं।

सकीना कहती हैं, "जुमे के दिन दुकानदार भी छुट्टे पैसे के लिए हमारा बेसब्री से इंतजार करते हैं। अब हमने बैंक में खाता भी खोल लिया है। पहली बार बैंक जाते समय कलेजे ने 'धुकधुक' किया था। एसी की हवा के बावजूद बैंक जेल जैसा लगा था। अंदर घुसने की हिम्मत नहीं हो रही थी। डर लग रहा था कि कोई कुछ बोल देगा। कोई कुछ कह देगा और घुसने देगा कि नहीं। अब दिक्कत नहीं होती। झुग्गी-झोपड़ियों में नोटों की पोटलियों को सहेज पाना कठिन है। हम समय चूहों का खतरा रहता है। इस लिहाज से बैंक ज्यादा सुरक्षित है।"

धर्म की आड़ में फूल-फल रहा धंधा

पत्रकार मोनेश श्रीवास्तव बताते हैं, "भीख मांगने वालों में अवांछनीय तत्व ज्यादा होते हैं। गंगा घाटों और पूजा स्थलों पर भिखारी दान देने से मोक्ष प्राप्ति का रास्ता भी बताते हैं। धर्मभीरू लोग स्वर्ग में अपनी सीट सुरक्षित कराने के लिए गली-गली चीखने वालों को भीख देने से कतई परहेज नहीं करते। शायद भीख देने वालों को बराबर यह चिंता सालती रहती है कि अगर वे भीख देकर पुण्य अर्जित नहीं कर लेते तो अगले जन्म में कीड़े मकोड़े के रूप में जन्म लेना पड़ सकता है। इन कपोर-कल्पित कहानियों और रूढ़ियों के चलते बनारस में हजारों भिखारियों का धंधा जोरों से फूल-फल रहा है।"

बनारस में त्योहार पर जुटता है भिखारियों का हुजूम

जाने-माने एक्टिविस्ट डा. लेनिन कहते हैं, "बनारस मे कुछ धार्मिक स्थलों के व्यवस्थापक भी चाहते हैं भिखारी और कोढ़ी वीभत्स आकृति लिए अपनी असहनीय पीड़ा और दुर्दशा का इजहार करते रहें, ताकि भक्त लोग दान देने के मूड में आएं और पुण्य अर्जन के नाम पर  ढेर सारा धन न्योछावर कर सकें। भिखारियो  का जीवन स्तर न सुधर पाने का सबसे बड़ा कारण यह है कि वह तमाम रूढ़ियों के शिकार हैं। अपने बच्चों की शिक्षा पर ध्यान देने के बजाए पैसे की हवस में उनका बचपन भिक्षावृत्ति पर न्योछावर कर देते हैं। बहुत से भिखारी कमाई तो बहुत करते हैं, लेकिन सारा पैसा जुआ-शराब जैसी बुरी आदतों में लुटा देते हैं। नतीजा यह निकलता है कि भीख मांगने का धंधा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है।"

डा. लेनिन यह भी कहते हैं, "बनारस में भिक्षावृत्ति के तमाम रूप हमारे सामने हैं। यह बात न तो किसी समाज सुधारक को अखर रही है और न ही किसी नेता को। हमारे समाज के गठन में आखिर ऐसी कौन सी खराबी है जिसके कारण नौटंकीबाज भिखारियों और वीभत्स कोढ़ियों की जमात बढ़ती जा रही है और इस अहम सवाल का जवाब ढूंढने के लिए कोशिश नहीं की जा रही है। ऐसा नहीं है कि सारे भिखारी एक जैसे हैं। इनमें 20-25 फीसदी गरीब और खाने के लिए मोहताज हैं। कुछ शारीरिक और मानसिक रूप से अस्वस्थ हैं, जिनमें कुछ गूंगे, बहरे, अंधे, कोढ़ी या फिर मानसिक बाधा से ग्रस्त हैं। भीख मांगने की प्रवृत्ति से भारतीय समाज की छवि धूमिल होती है और इंसान के आत्मसम्मान पर भी चोट करती है।"  

पुण्य का बाजार

बनारस में संकटमोचन मंदिर के पास है काशी कुष्ठ रोगी सेवा आश्रम। यहां पुण्य का एक बड़ा बाजार भी लगता है। इस बाजार में भिखारी तय करते हैं कि दानदाताओं को किस तरह का और कितना बड़ा पुण्य चाहिए। पुण्य का मतलब यहां भिखारियों को अच्छा पकवान खिलाने से है। यहां भिखारी विधिवत मीनू देते हैं और समय व दिन भी वही तय करते हैं। काशी कुष्ठ रोगी सेवा आश्रम में 26 परिवारों का बसेरा है। यहां 52 भिखारी ऐसे हैं जो कुष्ठ रोग से पीड़ित हैं और इनकी आजीविका का मुख्य जरिया भिक्षावृत्ति है। यहां ज्यादातर भिखारियों के पास टीवी, फ्रिज और कीमती बाइकें भी हैं। पुण्य कमाने के इच्छुक लोग पैसा देते हैं और बदले में इन्हें सामूहिक रूप से भोजन कराया जाता है। खाना बनाने का काम शंभू कालिंद, मोहनदास और बानी के जिम्मे है। पुण्य के बाजार के मुखिया हैं लक्खी कांत देव। इनके साथ अर्जुन शर्मा, विनोद राय और उदयराम पुण्य कमाने की इच्छा रखने वालों के लिए भोजन का मीनू वगैरह तय करते हैं।

काशी कुष्ठ सेवा आश्रम में आराम फरमातीं महिलाएं.

लक्खीकांत बताते हैं, "बारह साल की उम्र में उन्हें कुष्ठ रोग हुआ तो हर जगह दुत्कार मिलने लगी। चालीस साल पहले वह धनबाद से भागकर बनारस आ गए। संकटमोचन मंदिर और दशाश्वमेध घाट के सामने भीख मांगने लगे। बाद में कुष्ठ रोगी पत्नी से शादी कर ली। अब जीवन खुशहाल है। दो बच्चे भी हैं। पुण्य कमाने वालों के पैसे से उनकी जिंदगी मजे से कट रही है।" बातचीत के दौरान बीएचयू के एक प्रोफेसर अपनी पत्नी के साथ काशी कुष्ठ रोगी सेवा आश्रम में पहुंचे। पुण्य के लिए भोजन खिलाने की बात कही तो इन्हें डेढ़ हफ्ते बाद का समय मिल पाया। इन्हें मीनू बताया गया और उस पर होने वाली खर्च की राशि की जानकारी भी दे दी गई। लक्खीकांत ने बताया, "जो लोग यहां दान-पुण्य के लिए आते हैं वो खाना खिलाने के साथ नकदी भी दान करते हैं। तभी उनका दान फलीभूत हो पाता है।"

काशी कुष्ठ सेवा आश्रम में भिखारियों के लिए बनता है सामूहिक भोजन

अंधविश्वास का दंश

बनारस के ज्यादातर भिखारी अंधविश्वास में फंसे हैं, जिसके चलते अच्छा पैसा कमाने के बावजूद वह अपने परिवार की परवरिश ठीक से नहीं कर पा रहे हैं। दशाश्वमेध रोड पर मिली रेखा तो अपना दुखड़ा सुनाने लग गईं। कहा, "देखिए हम बहुत मुश्किल में हैं। देवर-देवरानी ने मिलकर हमारे बच्चों पर जादू-टोना और भूत करा दिया था। कुलदेवी और घर के देवताओं ने हम सभी को बचाया। उसी समय हमने पांच जीवों की बलि देने के लिए मनौती मानी थी। नवरात्र में अपनी कुलदेवी और देवताओं को बकरा, भेड़, सुअर, मुर्गी आदि की बलि देनी है। पचास हजार रुपये खर्च होगा। घर में कमाने वाले सिर्फ पति हैं, वह दशाश्वमेध रोड पर और मां कुंती दशाश्वमेध घाट पर भीख मांगती हैं। बच्चे पढ़ रहे हैं। बेटी की शादी करनी है। लेकिन उससे पहले जादू-टोना और भूतों से मुक्ति दिलाने वाले देवताओं को बलि देकर मनौती पूरी करनी है।" 

रेखा, मूलतः मिर्जापुर के लालगंज की रहने वाली हैं। पहले इनकी शादी राधेश्याम नामक युवक से हुई थी, लेकिन वह शराबी निकला। बाद में दूसरे पति मिजाजी ने उनके चार बच्चों के परवरिश की जिम्मेदारी ओढ़ी तो वह उसके साथ रहने लगीं। रेखा बताती हैं, "हमें भले ही कर्ज लेना पड़े, लेकिन नवरात्र में कुलदेवी की मनौती जरूर पूरी करूंगी। भिक्षाटन से परिवार चलता है। भूत-प्रेत व जादू-टोना करने और कराने वाले हमारे लोग नहीं मान रहे हैं। आखिर भीख से हम कितना कमाएं कि भूतों से छुटकारा पाएं और अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई व परवरिश आसानी से कर सकें।"

दूसरा काम नहीं कर सकते

बनारस में सामने घाट पुल के नीचे रहता है भिखारियों का एक बड़ा जखेड़ा। यहां 60 परिवारों के करीब तीन सौ लोग झुग्गी बनाकर रहते हैं। महिलाएं और बच्चे भीख मांगते हैं। युवक मोबाइल पर गाने सुनते हैं। ताश और जुआ भी खेलते हैं। भिखारियों का यह समूह सोनभद्र जिले के चोपन, दुद्धी, बीजपुर, महुली आदि इलाकों से आकर यहां अवैध रूप से बस गया है। यहां मिले राजेंद्र, विनोद, सूरज ने सफाई पेश करते हुए कहा, " हमारे पास काम नहीं। इसलिए भीख मांगना मजबूरी है।" इनके बच्चों को एक निजी संस्था तालीम देती है, लेकिन लालच देकर। इन्हीं में से एक हैं इंद्रमति। तीन साल पहले इनके पति राम दुलारे का पैर कट गया था। तभी से वह भीख मांगकर किसी तरह गुजारा कर रही हैं। कहती हैं, "दूसरे काम से अच्छा है भीख मांगना। थोड़ी याचना करनी पड़ती है और परिवार पालने के लिए आसानी से पैसा मिल जाता है।"    

बनारस के सामने घाट पुल के नीचे बैठे ये लोग ही चलाते हैं भिखमंगों का गिरोह

दशाश्वमेध घाट पर सत्येंद्र के बच्चे चंदन का टीका लगाकर पर्यटकों से धन उगाही करते मिले। इनके साथ कई और छोटे बच्चे शिव के भेष में टूरिस्टों से वसूली करते दिखे। राजेंद्र ने बताया, "इस धंधे में वह करीब एक दशक से हैं। यहां कमाई ठीक-ठाक हो जाती है। हालांकि उसने यह बताने से मना कर दिया कि वह किसके लिए काम करता है। उसने कहा, "हम लोगों के हफ्तेवार चौराहे बंधे होते हैं। किसी एक जगह पर टिकना मना है। मुझे यही ठीक लगता है, मैं किसी और काम में जाना नहीं चाहता हूं।"

संकटमोचन मंदिर के सामने बैठकर भिक्षा मांगने वाले हीरो हजारा भी इस धंधे में 20 साल से है। वह विकलांग है। उसने कहा कि सरकार की कोई भी योजना उसके लिए ठीक नहीं है। उसकी एक दिन की कमाई लगभग 1500 रुपये है। नगर निगम की योजना की जानकारी देने पर उसने कहा, "हम कूड़ा कलेक्शन से कितना पा जाएंगे? हम दो बार भिक्षुक कर्मशाला जा चुके हैं, लेकिन वहां पर काम ज्यादा है। भूखे भी रहना पड़ता है। यहां पर बैठे-ठाले भरपेट भोजन भी मिल जाता है। काम करने से आसान है भीख मांगना।"

बुजुर्ग भिखारी दुलारे करीब 40 साल से इस पेशे में हैं। वह रामनगर से रोजाना अस्सी घाट पर आते हैं। उन्होंने कहा, "नगर-निगम की योजनाएं हमारे लिए ठीक नहीं है। हम यहीं पर ज्यादा अच्छा महसूस करते हैं। शनिवार और मंगलवार को दान ज्यादा मिलता है। बड़े लोगों के आने पर अच्छा पैसा और खाना मिल जाता है। इसीलिए हम कहीं और जाने वाले नहीं हैं।"

बढ़ रही बाल भिखारियों की फौज

बीएचयू में समाजशास्त्र विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर प्रतिमा गोंड कहती हैं, "बनारस में कटोरा लिए, मैले-कुचैले अधनंगे शरीरों वाले, नंग-धड़ंग अधमरे से बच्चे को बगल में दबाये भीख मांगती औरतें कहीं भी देखी जा सकती हैं। बहुत बेशर्मी से हाथों में भीख का कटोरा लिए ये महिलाएं कब अपनी नन्हीं बच्चियों को भिखमंगी औरतें बना देती हैं पता ही नहीं चलता। चेहरे पर भिनभिनाती मक्खियां, मुट्ठियों में दबे सिक्के, कुंठित, काफी ढीठ, आवारा, नशेड़ी लड़के भीख मांगते-मांगते कब अपराधी, अवांछित, निष्प्रयोज्य और खतरा बन जाते हैं, इसका भान भी किसी को नहीं हो पाता।"

भीख मांगने वाली महिलाऐं 

प्रो. प्रतिमा यह भी कहती हैं, "भीख मांगने वाले बच्चे अपने बचपन के अनमोल सुखद पलों को हमेशा के लिए खो देते हैं। साथ ही मानव संसाधन के रूप में पूरी तरह अनुत्पादक और बोझ बन जाते हैं। बाद में वो समाज के लिए एक बड़ा खतरा बनकर उभरते हैं। भिक्षावृत्ति देश की जीडीपी ग्रोथ का उपहास उड़ाती है। काम का स्कोप न होने की वजह से यह समस्या भारतीय समाज पर हंसती है। जब तक हम धर्म की सही व्याख्या नहीं करेंगे, तब तक भिखारी खत्म नहीं होंगे। धर्म के नाम पर दान देते समय भी अहंकार में हम गरीबों के स्वाभिमान को मार देते हैं, तभी पैदा होते हैं बाल भिखारी।"

"बच्चों से भीख मंगवाने पर छह माह से दो साल तक की सजा और दो हजार रुपये जुर्माने का प्रावधान है। बनारस में बाल भिखारियों की तादाद तीन हजार से अधिक है, जिन्हें इस दलदल से निकलाने के लिए शासन-प्रशासन कतई तैयार नहीं है। भिखारियों के पास अद्भुत क्षमता होती है, लेकिन हम इन्हें अपने पैर पर खड़ा होने की ताकत नहीं देते हैं।"

अफसरों को नहीं दिखते भिखारी

भिक्षावृत्ति की समस्या से शहर को निजात दिलाने के लिए न तो समाज कल्याण विभाग गंभीर है और न ही नगर निगम। भिखारियों को भीड़-भाड़ वाले इलाकों से दूर हटाकर स्वरोजगार वाले उपक्रमों में प्रशिक्षित करने के लिए सारनाथ में भिक्षुक कर्मशाला बनाई गई है, लेकिन वहां कोई भिखारी नहीं है। वाराणसी में भिखारियों के लिए न ही कोई भिक्षुक गृह है, न ही कोई प्लान। अरसे से भिखारियों का सर्वे भी बंद है। भिखारियों को नियंत्रित करने के लिए सरकार की ओर से न कोई बजट जारी हो रहा है, न इनकी कोई सुध लेने वाला है। सारनाथ भिक्षुक कर्मशाला में बकायदा तीन कर्मचारी भी तैनात हैं। समाज कल्याण विभाग के अधीन तैनात ये सरकारी कर्मचारी वेतन भी उठा रहे हैं, लेकिन इनके पास भिखारियों के उन्मूलन की कोई योजना नहीं है।

हाल ही में दिल्ली हाईकोर्ट ने एक जनहित याचिका पर अहम फैसला देते हुए कहा था कि भीख मांगने को अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। भीख मांगना लाचारी और विवशता है। वाराणसी में भिखारियों के लिए पहले बकायदा स्थान तय था। वीवीआईपी के दौरे के समय पुलिस धरपकड़ कर भिक्षुकों को चौकाघाट स्थित भिक्षुक गृह के हवाले किया करती थी। इस भूमि पर जब सांस्कृतिक संकुल का निर्माण हुआ तो भिक्षुक कर्मशाला सारनाथ में ट्रांसफर कर दी गई। साल 2002-03 तक सब कुछ ठीक ठाक चला। साल 2005-06 के बाद से भिखारियों के सर्वे का काम बंद है। भिक्षुक गृह में कार्य न होने के कारण इसे छात्रावास से अटैच कर दिया गया है।

हट्टे-कट्टे हैं पर काम करने से परहेज

यूपी में कहां-कहां भिखारी राज

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश के बरेली में साढ़े सात हजार भिखारियों का सालाना टर्नओवर करोड़ों में है। मेरठ में तीन सौ भिखारियों का संगठित गिरोह सालाना 36 करोड़ रुपये कमा रहा है। आगरा में ऑर्गनाइज्ड तरीके से आबू उल्लाह दरगाह के पास एक महिला किराये पर दुधमुंहे बच्चों के साथ भिखारियों की सप्लाई करती है।

इलाहाबाद रेलवे स्टेशन स्थित मजार के पास भीख मांगने के लिए किराये पर बच्चे उपलब्ध कराए जाते हैं। गोरखपुर के सरकारी रिकार्ड में दर्ज 165 भिखारियों की रकम में रेलवे जंक्शन की पुलिस को भी हिस्सा मिलता है।

कानपुर में भिखारियों का कॉरपोरेट घराना है, जिसे पंडिताइन चाची नाम से मशहूर एक विधवा वृद्धा चलाती है। इसकी गैंग के भिखारी लूटपाट भी करते रहते हैं। यह भीख के रूपय़े ब्याज पर चलाती है। यूपी के ही सीतापुर में भिखारियों के गैंग का सरगना व्यवस्थित बिजनेस के रूप में ट्रेनों में बच्चों से भीख मंगवाता है। वाराणसी में भीख के लिए घाटों की बोली लगती है।

भिखारियों के बच्चों के लिए स्कूल

भिक्षावृत्ति से जुड़े लोगों का जीवन संवारने वाली संस्था बेगर्स फाउंडेशन के मुखिया चंद्र मिश्रा कहते हैं, "बनारस में उन्होंने भिखारी पुनर्वास अभियान शुरू किया है। समाज की मुख्य धारा में शामिल करने के लिए इन्हें दूसरे धंधे से जोड़ पाना आसान नहीं है। भिखारियों को बिना काम किए खासा पैसा मिल जाता है, इस वजह से दूसरे काम में इनका मन नहीं लगता है। भिखारियों का समूचा परिवेश बदलने के लिए हमने इनके बच्चों के लिए गंगा तट पर स्कूल खोला है। सिलाई-बुनाई की ट्रेनिंग भी दी जा रही है। भिखारियों से खूबसूरत बैग आदि और सजावट के सामान तैयार कराए जा रहे हैं। भिखारियों को नशे से मुक्ति दिलाने के लिए बेगर्स फाउंडेशन हर संभव प्रयास कर रहा है।"

फोकट में रुपये जुटा लेने वाले भिखारी क्या कोई दूसरा काम कर सकेंगे? इस सवाल पर चंद्र मिश्रा कहते हैं, "सोचिए जो इंसान धूप, बारिश और ठंड के थपेड़ों को सहते हुए घूमकर अथवा बैठकर भीख मांगने का जोखिम उठा सकता है, वह कोई दूसरा काम क्यों नहीं कर सकता? भिखारियों को कोई भी काम करने में लज्जा महसूस नहीं होती। इन्हें बाजार में कुछ भी बेचने और खरीदने की तकनीक भी पता होती है। ये किसी की जेब से अपनी चालाकियों से आसानी से सिक्के निकलवा लेते हैं। अगर इनके पास कुछ नहीं है तो सेल्फ कांफिडेंस। भिखारियों के व्यवहार और इच्छाशक्ति में बदलाव करने के लिए सरकार को पुरजोर मुहिम चलाने की जरूरत है।"  

चंद्र मिश्रा बताते हैं, " बनारस में हर भिखारी के पुनर्वास पर कम से कम एक लाख रुपये की जरूरत होगी। धनराशि से हम उनके लिए भोजन, आवास और ट्रेनिंग का इंतजाम करेंगे। इस स्मार्ट सिटी को भिखारी मुक्त बनाने के लिए शुरुआती दौर में 1.81 करोड़ रुपये चाहिए। जब तक सरकार के पास इच्छा शक्ति नहीं होगी, तब तक बनारस भिखारियों से मुक्त नहीं हो सकेगा।" 

वाराणसी के नगर आयुक्त प्रणय सिंह कहते हैं, "भिक्षावृत्ति के पेशे में बदलाव करना आसान नहीं है, पर कोशिश करने में क्या हर्ज है। इसको सभी अधिकारी अभियान के रूप लेंगे तो निश्चित तौर पर सफलता मिलेगी।" विश्वनाथ मंदिर के मुख्य कार्यपालक अधिकारी डा.सुनील वर्मा भिखारियों के मामले में हास्यास्पद बयान देते हैं। वह कहते हैं, "विश्वनाथ मंदिर इलाका बेगर फ्री जोन है। यहां कोई भिखारी है ही नहीं।"  इनके दावों से उलट विश्वनाथ मंदिर गली के दशाश्वमेध रोड स्थित गेट पर भिखारियों की बड़ी फौज अफसरों की नीति और नीयत पर सवालिया निशान लगाती है। साथ ही सरकार को मुंह भी चिढ़ाती है।

"गांव के लोग" पत्रिका की संपादक अपर्णा कहती हैं, "बनारस के भिखारी व्यवस्था के जरूरी प्रोडक्ट हो गए हैं। शहर में इनका बड़ा गिरोह है, जिसके खिलाफ कार्रवाई करने में सरकार की इच्छा शक्ति है ही नहीं। जब तक पूरी अर्थव्यवस्था नहीं बदलेगी और हर हाथ को काम और काम के बराबर दाम नहीं मिलेगा, तब तक भिखारियों की समस्या हल नहीं होगी।"

साहित्यकार रामजी कहते हैं, "धर्म ने ही भिखारियों का प्रसव किया है। चाहे मंदिर हो, मस्जिद हो या फिर गुरुद्वारा, जहां भिखारियों का जमघट देखा जा सकता है। दरअसल, धर्म स्थानों के ईर्द-गिर्द भिखारियों का जत्था संगठित गिरोह के रूप में काम करता है। जिस देश में जितने अधिक भिखारी होंगे, वह देश नैतिक रूप से उतना ही लुंज-पुंज होगा। धार्मिक शहर होने के कारण यह सांस्कृतिक नगरी भिखारियों की शरणगाह है। जो लोग पूजा स्थलों के आगे नतमस्तक होते हैं, वही लोग भिखारियों को पैसे देकर लालची और कामचोर बनाते हैं।"

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, विचार निजी हैं) 

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