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निजीकरण को लेकर 10 लाख बैंक कर्मियों की आज से दो दिवसीय देशव्यापी हड़ताल

बैंक कर्मियों की इस हड़ताल का समर्थन बीमा कर्मचारियों ने भी किया है। किसान आंदोलन की सफलता के बाद अब श्रमिक संगठनों को भी उम्मीद जगी है।
bank strike
फ़ोटो साभार: सोशल मीडिया

लोकसभा (2014) में भाजपा के बहुमत हासिल करने से राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक परिदृश्य में प्रतिकूल परिवर्तन हुए हैं। बढ़ती महंगाई, अर्थव्यवस्था की बदहाली और जीडीपी की वृद्धि दर का न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाना, हंगर इंडेक्स में भारत की स्थिति में गिरावट और गरीबी-बेरोजगारी में जबरदस्त वृद्धि और इसके समांतर कॉरपोरेट क्षेत्र की हैरत अंगेज उन्नति, नागरिकों की आर्थिक दुर्दशा को दर्शाते हैं। लोकतांत्रिक मूल्यों, संसदीय परंपराओं और प्रजातांत्रिक संस्थाओं जैसे चुनाव आयोग, प्रवर्तन निदेशालय व सीबीआई की स्वायत्तता का क्षरण यह सब जनता के सामने हैं।

वे परेशानियां जो आम लोगों को भुगतनी पड़ रही हैं, इनमें कोरोना के कारण पलायन, किसानों की समस्या, बेरोजगारी में जबरदस्त इजाफा और स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली जनता में असंतोष के अनेक वजहों में कुछ हैं। किसानों के बाद एक और एक बड़ी समस्या उभर कर आ रही है, वह है श्रमिकों का।

कर्मचारी और असंगठित मजदूरों की ओर से केंद्र सरकार और भाजपा की नीतियों के खिलाफ नया मोर्चा खुलने का संकेत दिखने लगा है। अलग-अलग मांगों को लेकर देश के अलग-अलग हिस्सों में हाल के दिनों में जबरदस्त विरोध प्रदर्शन हुआ है। अब निजीकरण के खिलाफ देशभर में तमाम सरकारी बैंकों के कर्मचारी 16 और 17 दिसंबर को देशव्यापी हड़ताल पर हैं।

किसानों ने अपने साल भर के आंदोलन के बाद सरकार से अपनी मांगों को मनवाकर मजदूर संगठनों को भी राह दिखा दी है। जबसे सरकार ने तीनों कृषि कानून वापस लिए हैं, तबसे मजदूर संगठन भी आक्रामक दिखने लगे हैं। और अब किसान-मजदूर गठबंधन भी बनने के संकेत हैं। सरकार और बीजेपी के लिए यह गठबंधन सबसे चिंताजनक हो सकता है। जानकारों के अनुसार, भाजपा को अब विपक्षी दलों के गठबंधन से ज्यादा इस गठबंधन की चिंता सताने लगी है।

श्रम कानूनों पर रस्साकशी 

दरअसल, कोविड के बाद आर्थिक दिक्कतों के बीच इस तरह की नाराजगी और आंदोलन तमाम देशों में देखे जा रहे हैं। मजदूर संगठनों को सरकार के नए लेबर कोड से दिक्कतें हैं। लेबर कानून भी कोविड की पहली लहर में आर्थिक पैकेज के तहत कृषि कानून की तरह ही केंद्र सरकार ने बनाया था। इसके तहत पहले के 29 लेबर कानूनों को समेटकर और उसमें कुछ महत्वपूर्ण संशोधन कर चार लेबर कोड में बदल दिया गया। श्रम संगठन इन चार में दो लेबर रिफॉर्म से तो सहमत हैं, लेकिन बाकी दो के प्रति उनकी बहुत सारी चिंताएं हैं।

नए कानून के तहत मजदूरों के हड़ताल पर जाने को लेकर तमाम तरह की बंदिशें हैं। इसमें एक अहम बदलाव यह भी है कि कई तरह की फैक्ट्रियों को आवश्यक सेवा में डाल दिया गया, जिससे मजदूरों पर कंपनी के प्रबंधकों का अधिक नियंत्रण आ गया है। एक और बड़े बदलाव के तहत यह व्यवस्था की गई है कि जिन कंपनियों में 300 से कम कर्मचारी हैं, उन्हें बंद करने के लिए सरकार से किसी तरह की पूर्व अनुमति नहीं लेनी होगी। पहले यह सीमा 100 कर्मचारियों तक थी।

मजदूर संगठनों का कहना है कि इन दो कानूनों की आड़ में न सिर्फ उनके हितों को मारा जाएगा, बल्कि उनकी नौकरी भी हमेशा असुरक्षित रहेगी। दिलचस्प बात है कि आरएसएस समर्थित भारतीय मजदूर संघ भी इस कानून का विरोध कर रहा है। इस संगठन ने भी सरकार से इस रिफॉर्म पर जल्दबाजी में आगे न बढ़ने का अनुरोध किया है। वहीं मजदूर संगठनों ने संकेत दिया है कि वे आने वाले महीनों में अपना देशव्यापी आंदोलन को आगे बढ़ाएँगे। विपक्षी दल भी इन्हें समर्थन दे रहे हैं। ऐसे में अगर आम चुनाव से पहले किसान-मजदूर मिलकर आंदोलन का रास्ता पकड़ लेंगे तो सरकार को दिक्कत हो सकती है। यही कारण है कि किसान आंदोलन से सीख लेते हुए सरकार समय रहते चीजों को ठीक करने में जुटी है। सूत्रों के अनुसार लेबर रिफॉर्म पर भी अब सरकार आक्रामक रूप से आगे बढ़ने की हड़बड़ी नहीं दिखाएगी।

इसके अलावा बैंकों और बीमा कंपनियों के निजीकरण को लेकर भी मजदूर संगठन आंदोलित हैं। अखिल भारतीय बीमा कर्मचारी संगठन के संयुक्त सचिव धर्मराज आर महापात्र बताते हैं कि असल में 16 और 17 दिसम्बर 2021 का यह देशव्यापी हड़ताल बैंकों और बीमा कंपनियों के निजीकरण को लेकर है। इस दो दिवसीय हड़ताल से अकेले छत्तीसगढ़ राज्य में 500 करोड़ से अधिक लेनदेन प्रभावित होगा। हड़ताल क्यों जरूरी है, पर उन्होंने कहा, कि सार्वजनिक बैंकों का निजीकरण न केवल राष्ट्र के विकास के खिलाफ होगा, बल्कि यह जनता की बेशकीमती और मेहनत से अर्जित कमाई को निजी कॉर्पोरेट क्षेत्र को सौंपे जाने का रास्ता होगा।

लोगों का पैसा लोगों के काम आए। निजीकरण होने से कोई एक मालिक होगा, जो यह तय करेगा कि लोगों को जमा पूंजी का कितना ब्याज देना है। कितने कर्मचारी काम करेंगे। लोगों के पैसों से पूंजीपति अपना कारोबार करेंगे। यानी मजदूरों का शोषण होगा। संगठन लगातार निजीकरण के खिलाफ आवाज उठाकर लोगों को जागरूक करने का काम कर रहा है। लोगों को जागरूक करने के लिए सोषल मीडिया के सारे प्लेटफार्म का इस्तेमाल किया जा रहा हैं। उन्होंने कहा असल में यह दरबारी पूंजीवाद का नमूना है। इसका विरोध होना चाहिए, लगातार होना चाहिए। महापात्र ने कहा इसके बाद 23 व 24 फरवरी 2022 को भी सारे ट्रेड यूनियन, देश भर के  फेडरेशन, सारे पब्लिक सेक्टरों के कर्मचारी संगठन हड़ताल करने जा रहे हैं। निजीकरण के खिलाफ हड़ताल का यह सिलसिला चलता रहेगा।

भोपाल डिवीजन इंश्योरेंस एम्पलाइज यूनियन के महामंत्री मुकेश भदौरिया कहते हैं, कि यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियंस (यूएफबीयू) के बैनर तले दस लाख बैंक कर्मचारियों और अधिकारियों का यह देशव्यापी हड़ताल सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के प्रस्तावित निजीकरण, बैंकिंग कानून (संशोधन) विधेयक 2021 को लेकर है। हमारी मांग है सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को मजबूत किया जाये। ऑल इंडिया इंश्योरेंस एंप्लाइज एसोसिएशन (एआईआईईए) इन मांगों को पूरी तरह से उचित मानता है और देश व जनता के हित में बैंक कर्मचारियों और अधिकारियों की इस हड़ताल कार्रवाई का समर्थन करता है।


     
उन्होंने कहा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक भारतीय अर्थव्यवस्था की जीवन रेखा हैं। 1969 और उसके बाद 1980 में राष्ट्रीयकरण के बाद से बैंकिंग क्षेत्र ने जबरदस्त प्रगति दर्ज की है। भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में कुल जमा राशि 1969 के मात्र 5000 करोड़ रुपए से बढ़कर 2021 में 157 लाख करोड़ रुपए हो गया है। इसी तरह बैंक शाखाओं की कुल संख्या 1969 के मात्र 8000 से बढ़कर 2021 में 1,18,000 हो गई है। अर्थव्यवस्था के प्राथमिकता वाले क्षेत्र जैसे कृषि, ग्रामीण विकास, लघु व मध्यम स्तर के उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य, बुनियादी ढांचे आदि को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के चलते अत्यधिक लाभ हुआ है।

निजीकरण के पक्षधरों ने अपने कदमों को सही ठहराने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के खिलाफ बदनामी के एक सुनियोजित अभियान को खुला छोड़ दिया है। यह आरोप कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक घाटे में चल रहे हैं, यह सही नहीं है। पिछले वित्तीय वर्ष में ही सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों ने 1,97,374 करोड़ रुपए का परिचालन लाभ कमाया है। पिछले बारह वर्षों की अवधि के दौरान भारत के सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा किया गया कुल परिचालन लाभ 16,55,215 करोड़ रुपए है। यूएफबीयू के बैनर तले बैंक कर्मचारी आंदोलन ने एकदम उचित रूप से बैंकों के पर्याप्त पूंजीकरण करने, जानबूझकर पैसा न चुकाने वालों से डूबे कर्ज की वसूली के लिए कड़े कानून बनाने और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण की विनाशकारी नीति पर तत्काल रोक लगाने की मांग की है।

वर्तमान में मजदूरों की परेशानी पर बात करते हुए इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल रिसर्च एण्ड डेवलपमेंट की मैनेजर फातिमा बताती है, कि केंद्र सरकार ने ई श्रम मजदूर कार्ड योजना लागू कर असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को लाभ पहुंचाने की बात की। लेकिन हकीकत यह है कि हमारी संस्था ने भोपाल के करीब 40 वार्डों में 15 हजार से अधिक मजदूरों का पंजीयन करवाया। अफसोस होता है यह कहते हुए कि इनमें से एक को भी काम नहीं मिला। कंस्ट्रक्शन मजदूरों की हालत यह है कि उनका पंजीकरण ही बंद है। इसलिए वे असुरक्षित हैं। कहीं काम करते हैं, तो पैसा कम दिया जाता है। छुट्टी के पैसे काट लिये जाते है। उनके साथ गैर बराबरी वाला व्यवहार किया जाता है। इसके अलावा दुकान लगाने, ठेला लगाने वालों का सामान नगर निगम उठा ले जाते हैं। फातिमा ने कहा, इस समय बेरोजगारी एक बहुत बड़ा मुद्दा है , उसे सुलझाने के बजाय सरकार बेरोजगारी को और बढ़ाने पर तुली हुई है। केंद्र सरकार का जनधन योजना भी मजदूरों के लिए किसी काम का नहीं रहा। इसी तरह भेल वर्क्स कांट्रैक्ट श्रमिक एकता यूनियन भोपाल के अध्यक्ष प्रशांत पाठक बताते हैं कि निजीकरण का विरोध इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि कंपनियां श्रमिकों की नियुक्ति संविदा पर करते हैं और आजीवन वे संविदाकर्मी ही बनकर रह जाते हैं। उन्हें भुगतान भी मनमाने ढंग से किया जाता है। सरकार की इन मजदूर विरोधी व तानाशाही रवैये की विभिन्न मोर्चों पर विरोध होना चाहिए। तभी राजनीति के माहिर पीएम मोदी को किसान-मजदूर गठबंधन के असर का अंदाजा होगा।   

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