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बेबाक: रूपेश कुमार सिंह की गिरफ़्तारी निडर मीडिया पर हमला है

कल हेमंत सोरेन रूपेश की पत्रकारिता के समर्थन में खड़े थे। लेकिन आज स्थिति बदल चुकी है, कठघरे में वे खुद और उनकी आदिवासी जनविरोधी नीतियां हैं।
Rupesh Kumar
पत्रकार रूपेश कुमार सिंह को उनके घर से गिरफ़्तार करके ले जाती पुलिस।

जाने माने इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने 17 जुलाई को प्रकाशित एक लेख में लिखा है कि 'भारी मत प्रतिशत के साथ ब्रिटेन की सत्ता में आए बोरिस जॉनसन को अपने कार्यकाल के बीच में ही इस्तीफा देना पड़ा, क्योंकि लोकतंत्र के लिए काम कर रहे संस्थानों, जैसे प्रेस, ने उनके कार्यों के लिए  उन्हें जवाबदेह ठहराया और उन्हें कठघरे में खड़ा किया।'

लेकिन भारत में स्थिति अलग है। सरकार को कठघरे में खड़ा करने से सरकारें इस्तीफा नहीं देतीं, बल्कि सरकार को कठघरे में खड़ा करने वाले पत्रकार को जेल भेज दिया जाता है। जिस दिन सुबह लोग रामचंद्र गुहा का यह लेख पढ़ रहे होंगे उसी समय झारखंड के नामी पत्रकार रूपेश कुमार सिंह का घर पुलिस से घिरा और भरा हुआ था। दोपहर तक उनकी गिरफ्तारी भी कर ली गई। पुलिस के लोगों ने गिरफ्तारी का वारंट तो दिखाया, लेकिन उस मुकदमे के बारे में कुछ भी नही बता सके। जाहिर है, यह एक प्रायोजित हमला था, जो इस कारण किया गया, क्योंकि रूपेश सत्ता पर निगरानी रखते हैं और अपने लेखों से उसे कठघरे में खड़ा करते रहते हैं।

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उन्होंने झारखंड में कॉरपोरेट की लूट, जमीन की लूट, इस पर सरकारी सहमति, आदिवासियों के दमन पर तमाम लेख लिखे हैं। उनके लेखों से सच्चाई उजागर होने के बाद किसी मंत्री या सरकार के नुमाइंदे ने तो कभी इस्तीफा नहीं दिया, लेकिन रूपेश कुमार को जेल में डाला गया, उनके फोन में कुख्यात पेगासस डाल कर उनकी जासूसी भी कराई गई। और आज उन्हें  एक साल पुराने एक ऐसे मुकदमे में गिरफ्तार कर लिया गया, जिसकी नोटिस उनके पास कभी नहीं आई थी, न ही कभी उन्हें इस संबंध में पूछताछ के लिए बुलाया ही गया था। वो भी तब, जबकि धाराएं UAPA की भी लगी हों। यह भारत का लोकतंत्र है।

रूपेश कुमार सिंह स्वतंत्र पत्रकार हैं, वे झारखंड के मुद्दों पर फोकस करके रिपोर्टिंग करते हैं, जो कई पत्रिकाओं और प्रतिष्ठित वेबपोर्टलों पर प्रकाशित होते रहते हैं। उनका एक यू ट्यूब चैनल भी है, जो उनकी रिपोर्टिंग का विस्तार है। गिरफ्तारी के दो दिन पहले 15 जुलाई को उनकी एक रिपोर्ट "जनचौक" पर प्रकाशित हुई है, जिसमें उन्होंने गिरिडीह की प्रदूषण फैलाने वाली तमाम फैक्ट्रियों और उसके असर की जानकारी देने वाली शानदार रिपोर्टिंग की है। रूपेश कुमार सिंह झारखंड के रामगढ़ में रहते हैं, लेकिन पूरा झारखंड उनका रिपोर्टिंग क्षेत्र है।

17 जुलाई की सुबह 5.30 बजे जब रूपेश और घर के सभी लोग सो रहे थे सरायकेला खरसावां के कांड्रा थाने की पुलिस टीम 7 बोलेरो गाड़ी में भरकर उनके घर पहुंच गई। फिर वहां जो जो घटित हुआ, उससे साफ लगता है कि पुलिस की कहानी पहले से तैयार थी। वे लिखी हुई स्क्रिप्ट पर काम करते रहे। उन्होंने रूपेश कुमार को बताया कि उनके पास सर्च वारंट है और वे घर की तलाशी लेंगे। वारंट और मजिस्ट्रेट साथ होने के कारण रूपेश और घर के लोगों ने तलाशी में सहयोग दिया। सर्च के नाम पर घर का हर सामान उलट पुलट दिया गया। लैपटॉप और मोबाइल की घंटों जांच की गई, लेकिन कुछ भी "आपत्तिजनक" बरामदगी नहीं हुई। फिर भी लैपटाप, दो फोन जब्त कर लिए गए साथ में एक बेडशीट भी। अगर आपको यह लग रहा हो, कि यह बेडशीट जब्त सामान बांधने के लिए लिया गया, तो आप गलत है, यह बेडशीट बस यूंही ले लिया गया है, जिसकी कहानी बाद में सामने आएगी, जैसे वे बता सकते हैं कि "इस चद्दर में हथियार छुपा कर रखा था" या इस चादर में इतना हजार/लाख/करोड़ पैसा बांध कर रखा था! एफआईआर में ये दोनों आरोप दर्ज हैं, जो उन्होंने अब तक किसी को नहीं दिखाई थी।

पूरे घर की तलाशी करने के बाद अंत में गिरफ्तारी वारंट जेब से निकाला गया, और रूपेश को गिरफ्तार कर लिया। लिखी हुई स्क्रिप्ट का हर सीन खेला जा चुका था। 7 घंटे तक गिरफ्तारी वारंट को छिपा कर रखा गया, ताकि रूपेश कुमार और उसके परिजन कोई कानूनी तैयारी न कर सकें। यह अपने आप में एक गैरकानूनी प्रक्रिया है। यह किसी भी आरोपी को कानूनी प्रक्रिया की मदद लेने से रोकने का अपराध है, जबकि उनके ऊपर यूएपीए जैसी संगीन धाराएं भी लगाई गई हैं।

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मुकदमा संख्या 61/21 की इस पुरानी  एफआईआर में रूपेश पर आईपीसी की धारा 420, 467, 468, 471,(सभी जालसाजी संबंधी)17CLA (झारखंड की खास माओवादी होने के लिए लगाई जाने वाली धारा) और UAPA की धारा 14 और 17 (अवैध वस्तु रखना और आतंकवादी कामों के लिए फंड इकट्ठा करना) लगाई है।

गौरतलब है कि रूपेश क्योंकि एक्टिविस्ट पत्रकार हैं, इसलिए 15 जुलाई को प्रकाशित रिपोर्टिंग के दौरान प्रदूषण से बुरी तरह पीड़ित एक बच्ची के इलाज के लिए वे फंड इकट्ठा करने की पहल ले चुके थे। पुलिस ने घर वालों को यह भी नहीं बताया कि वे उन्हें कहां लेकर जा रहे हैं।

गिरफ्तारी के बाद एक वीडियो बयान में उनकी पत्नी ईप्सा शताक्षी ने यह भी बताया कि जब्ती का फर्द बनाते वक्त उनके पास बाहर से एक फोन आया और फिर उन्होंने घर के सभी सदस्यों को बाहर कर दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। वे 15-20 मिनट अंदर रहे। परिवार वालों को डर है कि इस बीच उन्होंने जब्ती के सामान में कुछ शामिल किया है। यह डर सही होने की पूरी संभावना है।

रूपेश कुमार सिंह पहले भी सरकार और पुलिस के निशाने पर रहे हैं। इसके पहले 2019 में भी उन्हें 6 जून को झारखंड से गिरफ्तार किया गया, और बिहार की जेल में 6 महीना रखा गया। उस समय भी उनके ऊपर UAPA लगाया गया था।

जेल जाने के पहले आदिवासी मोतीलाल बास्के के फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने के तथ्य पर उन्होंने जमकर रिपोर्टिंग की थी और झारखंड की तत्कालीन रघुबर सरकार और पुलिस को कटघरे में खड़ा किया था। उस वक्त मौजूदा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन इस मुद्दे पर रूपेश की पत्रकारिता के समर्थन में खड़े थे। लेकिन आज स्थिति बदल चुकी है, कठघरे में वे खुद और उनकी आदिवासी जनविरोधी नीतियां हैं। रूपेश जैसे पत्रकार इसीलिए हर सरकार में निशाने पर होते हैं।  बहरहाल उस मुकदमे में चार्ज शीट समय से न दाखिल कर पाने के कारण वे डिफॉल्ट बेल पर उसी साल दिसंबर में बाहर आ गए थे।

उसके बाद इस तथ्य ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया कि सरकार पेगासस मैलवेयर के जरिए देश के कुछ पत्रकारों की जासूसी कर रही है, रूपेश भी जासूसी का शिकार लोगों में शामिल थे। उनका ही नहीं उनकी पत्नी ईप्सा शताक्षी का फोन भी जासूसी का शिकार था। रूपेश ने इसके खिलाफ एक वाद सुप्रीम कोर्ट में डाला हुआ है, जिस पर फैसला आना बाकी है। इस गिरफ्तारी को इससे जोड़ कर देखा जा सकता है। 

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इस देश के लिए यह कोई नई या अजूबी बात नहीं रह गई है कि न्याय मांगने वालों को जेल भेजा जा रहा है। तीस्ता सेतलवाड़ और हिमांशु कुमार इसका ताज़ा उदाहरण हैं। रूपेश की गिरफ्तारी एक गढ़ी हुई कहानी के आधार पर की गई है, यह सबके सामने आ चुका है।

रूपेश कुमार सिंह भारत के उन गिनती के पत्रकारों में हैं, जो सत्ता को कठघरे में खड़ा कर लोकतंत्र को मजबूत करने की कोशिश में लगे हैं। गिरफ्तारी देते हुए भी उन्होंने लोकतंत्र को मजबूत करने वाले पत्रकारों को रिहा करने का ही नारा लगाया। उनके समर्थन में खड़ा होना दरअसल लोकतंत्र के समर्थन में खड़ा होना है। लोकतंत्र को बचाने वाली पत्रकारिता के समर्थन में खड़ा होना जरूरी है।

(लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता और “दस्तक नये समय की” पत्रिका की संपादक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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