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COP26 के एलानों पर ताली बजाने से पहले जलवायु संकट की कहानी जान लीजिए!

अगर भारत सहित अफ्रीका के देशों पर बड़ा बोझ लादा जा रहा है, तो इसका मतलब है कि जलवायु संकट से लड़ने के लिए दुनिया के देशों के साथ न्याय नहीं किया जा रहा है।
COP26

दुनिया के 190 देशों के प्रतिनिधि और जलवायु क्षेत्र से जुड़े तमाम कार्यकर्ता जलवायु संकट से जूझने के लिए स्कॉटलैंड के ग्लासगो में इकट्ठे हुए हैं। यहां पर जलवायु संकट से जूझने के लिए हर साल आयोजित होने वाली कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज की 26 वी बैठक (COP26) चल रही है। यह बैठक 31 अक्टूबर से लेकर 12 नवंबर तक चलेगी।

इस बैठक में भारत के प्रधानमंत्री ने कहा है कि भारत साल 2070 तक नेट जीरो कार्बन उत्सर्जन का टारगेट हासिल कर लेगा। साल 2030 तक भारत की 50% ऊर्जा नवीनीकरण ऊर्जा के स्रोतों से पूरी होने लगेगी। साल 2030 तक अनुमानित कार्बन उत्सर्जन से भारत एक बिलियन टन कम कार्बन उत्सर्जन करेगा। इन वादों को महज खबरों की हेडलाइंस समझना बहुत कठिन है। तो चलिए इन वादों को ढंग से समझने के लिए पहले जलवायु संकट की संक्षिप्त कहानी समझी जाए।

जलवायु संकट की कहानी का सबसे प्रमुख किरदार कार्बन डाइऑक्साइड है। कोयला, तेल, प्राकृतिक गैस जैसे जीवाश्म ईंधनों के दम पर दुनिया का विकास टिका हुआ है। लेकिन इन जीवाश्म ईंधन से कार्बन डाइऑक्साइड गैस निकलती है। दुनिया के तापमान में बढ़ोतरी के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार गैस कार्बन डाइऑक्साइड है।

दुनिया के तापमान में बढ़ोतरी यानी ग्लोबल वार्मिंग का मतलब है जलवायु के संतुलन को बिगाड़ कर दुनिया को बर्बादी के कगार पर पहुंचाते रहने का काम करते रहना। एक बार वातावरण में उत्सर्जित हुई कार्बन डाइऑक्साइड गैस तकरीबन डेढ़ सौ से लेकर दो सौ सालों तक बनी रहती है। यानी 200 साल पहले जो कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में उत्सर्जित हुआ था, वह आज दुनिया का तापमान बढ़ाने के लिए जिम्मेदार है और जो कार्बन डाइऑक्साइड आज उत्सर्जित हो रहा है, वह आने वाले 150 से लेकर 200 साल तक दुनिया का तापमान बढ़ाने के लिए जिम्मेदार होगा।

इसलिए जलवायु संकट से जूझने के लिए कोई भी कदम एक या दो दिन का सोचकर नहीं उठाया जा सकता। बल्कि वैसे कदम की जरूरत होती है, जहां दशकों और सदियों का सफर सोच कर काम किया जा सके। किताबों, रिपोर्टों और सम्मेलनों में ऐसे कदम का बखान तो कर दिया जाता है जो लंबा समय का सोचकर जलवायु संकट से जूझने का काम करें, लेकिन देशों की भीतरी और आपसी राजनीति, सत्ता की होड़ में लगे रहने की वजह से, व्यावहारिक तौर पर कभी भी लंबा सोचकर कदम नहीं उठाती। यही जलवायु संकट की भयावहता से लड़ने के लिए दुनिया की सभी देशों की सबसे बड़ी कमजोरी है।

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इस कमजोरी से निजात पाने के लिए क्लाइमेट क्राइसिस से लड़ने के लिए क्लाइमेट जस्टिस की बात कही जाती है। कहा जाता है कि जिन देशों ने कार्बन डाइऑक्साइड का सबसे अधिक उत्सर्जन किया है, उन देशों को ग्लोबल वार्मिंग से लड़ने की जिम्मेदारी सबसे अधिक जिम्मेदारी उठानी चाहिए। जलवायु सम्मेलन में सबसे बड़ा मुद्दा यही होता है कि दुनिया के अमीर देश जलवायु संकट से लड़ने के लिए किस तरह के कदम उठाने की पेशकश कर रहे हैं।
 
आंकड़े कहते हैं कि

- साल 2019 में सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश चीन था। दुनिया का कुल कार्बन उत्सर्जन तकरीबन 36 गीगा टन  हुआ था। जिसमें से तकरीबन 10 गीगा टन उत्सर्जन चीन ने किया था। तकरीबन 5 गीगा टन उत्सर्जन अमेरिका ने किया था। तीसरे नंबर पर भारत था जिसका कुल उत्सर्जन महज 2.62 गीगा टन था।

- जितना कार्बन उत्सर्जन अमेरिका का एक व्यक्ति करता है उतना ही कार्बन उत्सर्जन इथोपिया के 109 लोग करते हैं, उतना ही कार्बन उत्सर्जन भारत के 9 लोग करते हैं और उतना ही कार्बन उत्सर्जन चीन के 2 लोग करते हैं।

- प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के लिहाज से देखें तो सबसे ऊपर 16.2 टन प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के साथ ऑस्ट्रेलिया पहले नंबर पर है। उसके बाद अमेरिका 16.1 टन प्रति व्यक्ति, कनाडा 15.3 टन प्रति व्यक्ति, रूस 11.6 टन प्रति व्यक्ति जैसे देश खड़े है। सातवें नंबर पर चीन है जहां 7.3 टन प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन होता है। 11वें नंबर पर भारत है जहां प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन 0.9 टन के करीब है।

- इन आंकड़ों को मिलाकर देखा जाए, तो बात यह है कि आबादी के लिहाज से भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। जहां पर तीसरा सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन होता है। लेकिन प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के लिहाज से देखा जाए तो भारती 11वें नंबर पर है। जो दुनिया के दूसरे देशों के मुकाबले बहुत कम है।

- साल 1870 से लेकर साल 2019 के बीच कार्बन उत्सर्जन को देखा जाए, तो सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाले देश अब भी विकसित देश ही हैं। अमेरिका, कनाडा, यूरोपियन यूनियन, ऑस्ट्रेलिया, रूस की भागीदारी 60 फ़ीसदी की है। उसके बाद चीन का नंबर आता है, जिसकी हिस्सेदारी तब से लेकर अब तक की अवधि में 13 फ़ीसदी के आसपास है।

इन सभी को जोड़कर पढ़ा जाए, तो निष्कर्ष यह निकलेगा कि जलवायु संकट की परेशानी से लड़ने के लिए दुनिया के सभी मुल्कों की जिम्मेदारी एक समान नहीं हो सकती है। जितनी बड़ी जिम्मेदारी अमेरिका सहित चीन को उठानी है, उतनी ही बड़ी जिम्मेदारी भारत और अफ्रीका के देश नहीं उठा सकते हैं। अगर भारत सहित अफ्रीका के देशों पर बड़ा बोझ लादा जा रहा है, तो इसका मतलब है कि जलवायु संकट से लड़ने के लिए दुनिया के देशों के साथ न्याय नहीं किया जा रहा है।
 
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साल 1992 में जब पहला जलवायु सम्मेलन हुआ तो नियम यही बना कि जलवायु संकट से लड़ने के लिए अमीर देशों की जिम्मेदारी अधिक होगी। वह कार्बन उत्सर्जन कम करेंगे और गरीब देशों को तकनीक मुहैया कराएंगे, ताकि वह कार्बन उत्सर्जन की कमी में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी ले। लेकिन यह सब लिखा ही रह गया और इस पर कोई अमल नहीं हुआ। अमीर देशों के कार्बन उत्सर्जन में कोई बहुत बड़ी कमी नहीं आई। साल 2015 के पेरिस सम्मेलन मे तो अमीर देशों ने सबसे बड़ा खेल खेल दिया। यह कह दिया कि जलवायु संकट से लड़ने के लिए किस देश की कितनी जिम्मेदारी होगी इसका निर्धारण ऐतिहासिक तौर पर नहीं किया जाएगा। जो देश जितना कार्बन उत्सर्जन कम करना चाहता है, खुद ही उतना लक्ष्य रखकर उसे हासिल करने की तरफ बढ़ सकता है। इसे ही नेशनल डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन कहा जाता है। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि जलवायु संकट से लड़ने की लड़ाई में पूरी दुनिया बहुत पीछे खड़ी है।

2015 के पेरिस सम्मेलन में यह तय किया गया था कि दुनिया को जलवायु संकट से बचाने के लिए साल 2030 तक दुनिया के तापमान में 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक की बढ़ोतरी नहीं होनी चाहिए। लेकिन जिस तरह से दुनिया के तमाम मुल्क नेशनल डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन के तहत जलवायु संकट से लड़ने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं, उस तरह से दुनिया का तापमान साल 2030 तक 3 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक बढ़ जाएगा। भविष्य में जलवायु संकट को लेकर की गई सारी प्लानिंग धरी की धरी रह जाएगी। अब तक के जलवायु सम्मेलनों का निचोड़ यही रहा है कि दुनिया के अमीर देशों के जलवायु संकट की लड़ाई से भागने की वजह से जलवायु संकट की परेशानी बहुत बीहड़ बन चुकी है। जिस से लड़ना आसान नहीं।

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ऐसे में अमेरिका ने नेट जीरो कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य साल 2050 तय किया है। भारत के प्रधानमंत्री ने नेट जीरो कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य साल 2070 तय किया है। भारत की बात फिर भी समझ में आती है कि वह विकास के पैमाने पर बहुत पीछे हैं इसलिए उसने साल 2070 का टारगेट तय किया है। लेकिन अमेरिका के टारगेट को कैसे ठीक-ठाक टारगेट कहा जाए जब उसकीजिम्मेदारी बहुत बड़ी है।

भारत ने साल 2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा के क्षेत्र में जो टारगेट रखा है और एक बिलियन टन कम कार्बन उत्सर्जन की बात कही है, विशेषज्ञों के मुताबिक वह सारी बातें सराहनीय है। भारत ने सही पांसा फेंका है। न्यूज़क्लिक पर जलवायु मुद्दे पर डॉ रघुनंदन लिखते रहते हैं कि उनका भी मानना है कि भारत ने ठीक पहल की है।

डिप्लोमेटिक तौर पर देखा जाए तो जलवायु के मुद्दे पर भारत का बढ़िया डिप्लोमेटिक कदम है। लेकिन सब कुछ डिप्लोमेटिक तो नहीं? यही असली सवाल है। क्योंकि अभी तक वह रोड मैप नहीं आया है जिसके तहत पता चले कि साफ तौर पर भारत ने क्या कहा है?

क्या भारत ने यह कहा है कि वाह साल 2030 तक 50% बिजली का उत्पादन नवीकरणीय स्रोतों से करेगा या उसका यह कहना है कि नवीकरणीय स्रोतों की क्षमता 50% बिजली उत्पादन की बन जाएगी? क्या भारत तभी जलवायु संकट से लड़ने के उपाय करेगा जब विकसित देशों से पैसे मिलेंगे या बिना पैसे के भी कोई पहलकदमी करेगा? क्योंकि विकसित देशों ने वादा किया था कि वह विकासशील और गरीब देशों को जलवायु संकट से लड़ने के लिए 100 बिलियन डॉलर देंगे। लेकिन उन्होंने नहीं दिया। इस मसले पर वह बहुत पीछे खड़े हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ग्लासगो में कहा कि विकसित देशों को 1  ट्रिलियन का क्लाइमेट फंड बनाना चाहिए।

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ऐसी तमाम तरह की जानकारियां किसी औपचारिक डॉक्यूमेंट में मिलती है। लेकिन अभी तक यह औपचारिक डॉक्यूमेंट नहीं मिला है। यह साफ तौर पर बताता है कि भारत की मौजूदा सरकार जलवायु संकट को लेकर कितनी गंभीर है?

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के नवरोज देशमुख हिंदुस्तान टाइम्स में लिखते हैं कि नेट जीरो कार्बन एमिशन की बात एक तरह की डिप्लोमेटिक चाल बन गई है। जिसे सभी देश चल देते हैं। लेकिन जिस तरह से वह अपना काम करते हैं उससे लगता नहीं है कि वह अपने ही तय समय के मुताबिक नेट जीरो कार्बन एमिशन तक पहुंच पाएंगे?

अमेरिका और पश्चिम के विकसित देश साल 1992 से लेकर अब तक फेल होते आए हैं। अपने हिसाब से नियम कानून बदलते आए हैं। भारत कह रहा है कि 2030 तक 50 फ़ीसदी बिजली नवीकरणीय ऊर्जा से बनेगी। इसका मतलब है कि 50 फ़ीसदी बिजली के लिए कोयले और प्राकृतिक गैस पर निर्भर होना पड़ेगा। लेकिन साल 2020 तक कोयले की जरूरत को लेकर जिस तरह के सरकारी अनुमान पेश किए जाते हैं,उससे तो यही लगता है कि उसने कोयले से 50 फ़ीसदी से अधिक की बिजली की पैदावार की प्लानिंग जुड़ी हुई है। इसका क्या मतलब हुआ?

इन सबके अलावा सबसे बड़ी बात यह है कि दुनिया के चंद मुट्ठी भर लोगों के सिवाय दुनिया की बहुत बड़ी आबादी जीवन के बुनियादी संभावनाओं को तराशने से पीछे रह जाती है। अफ्रीका जैसे देशों का जलवायु संकट की परेशानी में कुछ भी योगदान नहीं है। लेकिन उन्हें भी लड़ना पड़ रहा है। भारत के बड़े शहरों को छोड़ दिया जाए तो गांव देहात जिला के में बुनियादी सुविधाओं की घनघोर कमी है। लोग बहुत अधिक पिछड़े हैं। इन्हें आगे बढ़ाने के लिए विकास की जरूरत है। यह विकास अगर जीवाश्म ईंधन के दम पर आएगा तो जलवायु बर्बाद करेगा? इसलिए सबसे बड़ा प्रश्न तो यही है कि भारत सहित दुनिया विकास की पूरी रणनीति, विकास का पूरा मॉडल बदलने को तैयार है या नहीं? पूंजीवादी विकास के मॉडल पर दुनिया का जलवायु संकट से लड़ना नामुमकिन है। सम्मेलन महज थोथा बनकर रह जाएंगे। दिवाली में पटाखा जमकर छोड़ा जाएगा। हवाएं जहरीली बनती रहेंगी। पूंजीवादी विकास के मॉडल में लोगों को पता तक नहीं चलेगा कि जलवायु संकट से लड़ना क्या होता है?

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