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ग्लासगो जलवायु शिखर सम्मेलन अभिजात देशों का एक स्वांग है

जलवायु शिखर सम्मेलन की सफलता काफ़ी हद तक वित्तीय सहायता के मुद्दे पर निर्भर करेगी।
Glasgow Climate Summit is an Elite Farce
जलवायु परिवर्तन पर ग्लासगो शिखर सम्मेलन के दौरान प्रदर्शन करते प्रदर्शनकारी

जलवायु परिवर्तन पर ग्लासगो शिखर सम्मेलन मीडिया के लिए असाधारण कार्यक्रम रहा है। सभी महाद्वीपों के अभिजात शासक वर्ग जो उग्र महामारी के कारण अपनी राष्ट्रीय राजधानियों में फंसे पड़े थे, अंततः उन्हें अपने नेतृत्व के गुणों को प्रदर्शित करने का मौका मिल गया और अपने मास्क उतारते हुए वे सब "ग्लोबल ब्रिटेन" के लिए अपने निजी जेट विमानों के जरिए वहां पहुंचे।

बेशक कुछ अपवाद भी हैं - जैसे कि किरिबाती, मार्शल आइलैंड्स, तुवालु आदि, जो मुख्य रूप से निचले स्तर के प्रवालद्वीप हैं, जो समुद्री लहरों से सिर्फ कुछ मीटर ऊपर हैं, जो जलवायु परिवर्तन पर दुनिया की नैतिक चेतना हैं। लेकिन ग्लासगो में दो दिवसीय आयोजन की घिनौनी नुमाइशी उसकी मुख्य विशेषता थी। वे पार्टी में आए, एक-दूसरे की पीठ थपथपाई, खुशी मनाई और अपने देश के लोगों को प्रभावित करने को ध्यान में रखते हुए जताया कि उनकी व्यक्तिगत राजनीति उनके देशों के लिए लाभ का काम करेगी।

बेशक, इस शिखर सम्मेलन के जो दो स्टार कलाकार थे, वे ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन थे। जॉनसन के लिए, लगभग 100 विश्व नेताओं की प्रभावशाली उपस्थिति में यह घोषणा करने का काम किया कि ब्रिटेन राष्ट्रों की पहली लीग में वापस आ गया है, जो सफलतापूर्वक ब्रेक्सिट से बच गया है।

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के लिए, यह कुछ अधिक जटिल कहानी रही है। बाइडेन के सामने चुनौती ये रही कि दुनिया का नेतृत्व करने में अमेरिका की क्षमता को फिर से स्थापित करने के साथ-साथ राजनीतिक रूप से खुद को स्थापित करने का यह दोहरा मिशन था, क्योंकि 2020 में डेमोक्रेट्स को सत्ता में लाने और खुद को राष्ट्रपति पद के चुनने के लिए जिस गठबंधन या एजेंडों ने मदद की थी लगता है कि वह ढह गया है और पार्टी के भीतर आम चर्चा है कि डेमोक्राट्स के एजेंडे को लागू करने की उनकी क्षमता के बारे में संदेह बढ़ रहा है।

ग्लासगो शिखर सम्मेलन में विश्व के नेताओं के बीच इस बात पर सहमति की कमी देखी गई कि जलवायु परिवर्तन पर विश्व को कैसे आगे बढ़ना है। उन्होंने प्रतिस्पर्धी विचार प्रस्तुत किए लेकिन मुख्य मुद्दों पर कोई आम सहमति नहीं बनी - जैसे कि अमीर देशों ने गरीब देशों को जीवाश्म ईंधन से दूर करने में मदद करने की अपनी प्रतिज्ञा को दोहराया भर है।

कोपेनहेगन में, 2009 में COP15 में, ये देश एक साथ आए और कहा था कि वे प्रति वर्ष 100 बिलियन डॉलर देंगे और 2020 तक उस लक्ष्य तक पहुंच जाएंगे। लेकिन वे लक्ष्य को पूरा करने में असफल रहे। यकीनन, कई मायनों में ग्लासगो शिखर सम्मेलन की सफलता वित्तीय सहायता के मुद्दे पर निर्भर करेगी।

ग्लासगो में एकमात्र ठोस परिणाम मिथेन गैस उत्सर्जन को कम करने और दुनिया के जंगलों की रक्षा के लिए दो समझौते हुए हैं। ये कम नतीजे वाले समझौते हैं लेकिन फिर भी सार्वजनिक स्वास्थ्य और कृषि उत्पादकता में सुधार सहित सह-लाभ पैदा करते हुए वार्मिंग यानि गर्मी को 1.5˚सेल्सियस तक सीमित रखने के लक्ष्य को बनाए रखने के लिए दो सबसे प्रभावी रणनीतियां हैं।

वैश्विक मिथेन गैस उत्सर्जन का 40 प्रतिशत से अधिक पैदा करने वाले 100 से अधिक देश और वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद के दो तिहाई से अधिक देश एक साथ आए हैं और ग्लोबल मिथेन प्लेज मंगलवार को ग्लासगो में लॉन्च की गई, जो 2030 तक 2020 के स्तर से वैश्विक मिथेन उत्सर्जन को कम से कम 30 प्रतिशत कम करने का एक सामूहिक प्रयास होगा और जो 2050 तक 0.2˚C से अधिक वार्मिंग को कम कर सकता है।

हालांकि, हस्ताक्षर करने वाले देशों में कुछ बड़े देश अनुपस्थित थे, जिनमें चीन, रूस, ऑस्ट्रेलिया और भारत जैसे कुछ प्रमुख मिथेन प्रदूषक देश शामिल हैं।

फिर से, 100 से अधिक देशों ने मंगलवार को 2030 तक वनों की कटाई को समाप्त करने का संकल्प लिया है, दुनिया के लगभग 85 प्रतिशत जंगलों की रक्षा करने के उद्देश्य से एक व्यापक समझौते पर सहमति व्यक्त की गई है। इस बात में कोई दम नहीं है कि समझौता कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने और वैश्विक तापमान में वृद्धि को धीमा करने के लिए महत्वपूर्ण है।

फिर से, भारत उन देशों में शामिल है जो वनों की कटाई पर अंकुश लगाने के समझौते से अलग हो गया है।

लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने बयान में कुछ सनसनीखेज घोषणाएं कीं हैं। मोदी ने जो पांच वादे किए, वे ये हैं कि भारत:

  • गैर-जीवाश्म ऊर्जा क्षमता को 2030 तक 500 गीगावाट तक बढ़ाएगा;
  • 2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा से 50 प्रतिशत ऊर्जा जरूरतों को पूरा करेगा;
  • कुल अनुमानित कार्बन उत्सर्जन को अब से 2030 तक एक अरब टन कम करेगा;
  • 2030 तक अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता में 45 प्रतिशत की कमी लाई जाएगी (35 प्रतिशत के पिछले लक्ष्य से); तथा,
  • 2070 तक शून्य लक्ष्य प्राप्त कर लिया जाएगा।

कुल मिलाकर, अगले आठ साल की अवधि के दौरान भारत की जलवायु प्रतिबद्धता में यह एक विशाल बदलाव होगा, लेकिन इसमें संसाधनों का भारी संग्रहण शामिल होगा। जलवायु परिवर्तन पर विख्यात विशेषज्ञ सुनीता नारायण ने अनुमान लगाने के लिए उपयुक्त रूपक का इस्तेमाल किया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने "न केवल बात कहने बल्कि इसे निभाने" की एक असंभव चुनौती को मान लिया है।

फरवरी में इंडिया एनर्जी आउटलुक 2021 शीर्षक से एक अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी की रिपोर्ट का अनुमान है कि देश को स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों को अपनाने और अगले बीस वर्षों में एक स्थायी प्रक्षेपवक्र पर रहने के लिए अतिरिक्त 1.4 ट्रिलियन डॉलर खर्च करने की जरूरत होगी। यह निवेश सरकार की परिकल्पना से लगभग 70 प्रतिशत अधिक है। रिपोर्ट में कहा गया है कि इस परिवर्तन के लिए नवाचार, मजबूत भागीदारी और बड़ी मात्रा में पूंजी की जरूरत होगी।

केवल कुछ ही देशों ने अपनी कार्बन कटौती को निकट भविष्य में इस तरह से रखने की हिम्मत की है, जैसा कि मोदी ने किया है। निश्चित रूप से, औद्योगीकृत दुनिया के किसी भी देश ने ऐसा नहीं किया है! क्या हम चीन से ऊपर दिखाने की चाह में खुद के पैर पर हमला कर रहे हैं? हम किसे प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं? इसका कोई आसान जवाब नहीं हैं।

इसके अलावा, जैसा कि नारायण ने कहा, मोदी की घोषणा का सबसे बेहतर अर्थ यह है कि भारत कोयला उद्योग में भविष्य के विकास को सीमित कर रहा है। “बड़ा मुद्दा यह सुनिश्चित करना होगा कि विकास समान हो और गरीबों को इस ऊर्जा भविष्य में विकास के उनके अधिकार से वंचित न किया जाए। ”नारायण लिखती है कि, जैसा कि हमने प्रदूषण के बिना खुद के आगे बढ़ने का लक्ष्य निर्धारित किया है, हमें गरीबों के लिए तेजी से स्वच्छ, लेकिन सस्ती, ऊर्जा पर काम करना चाहिए।“

अंत में, 2070 तक शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य रखा गया है। दिलचस्प बात यह है कि हाल ही में 28 अक्टूबर को भारत ने शून्य कार्बन उत्सर्जन लक्ष्य की घोषणा करने के आहवान को खारिज कर दिया था और कहा था कि इस तरह के उत्सर्जन को कम करने के लिए दुनिया का एक रास्ता चुनना अधिक महत्वपूर्ण है।

पर्यावरण सचिव आरपी गुप्ता ने दिल्ली में संवाददाताओं से कहा," शून्य उत्सर्जन पर पहुंचने से पहले आप वातावरण में कितना कार्बन डालने जा रहे हैं, यह अधिक महत्वपूर्ण है।"

लेकिन 1 नवंबर तक, भारत ने ग्लासगो में इस घोषणा को करने के लिए एक असाधारण उलटफेर किया कि भारत शून्य कार्बन उत्सर्जन तक पहुंचने का लक्ष्य 2070 रखा है। दुनिया के कुलीन लोगों के सामने नाटकीय घोषणाएं करने का उत्साह शायद हमारे निर्णय से बेहतर हो गया है।

जलवायु मुद्दों पर रूसी राष्ट्रपति के दूत रुस्लान एडेलगेरीयेव ने ग्लासगो शिखर सम्मेलन को "महत्वाकांक्षाओं की दौड़" के रूप में वर्णित किया। उन्होंने तास समाचार एजेंसी को बताया कि कुछ देशों के महत्वाकांक्षी लक्ष्य "(स्पष्ट) रोडमैप और वैज्ञानिक डेटा पर आधारित नहीं हैं" और "नई प्रौद्योगिकियों के उद्भव में अनुचित आशाओं" पर आधारित हैं।

रूस ने हाल ही में "वैज्ञानिक साक्ष्य और गणना" के आधार पर निर्णय लिया और 2060 को शून्य लक्ष्य के रूप में तय किया है। लेकिन एडेलगेरीयेव ने कहा कि 2060 से पहले भी शून्य लक्ष्य तक पहुंचना संभव है, बशर्ते "अनुकूल घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय वातावरण" उपलब्ध हो। उन्होंने रूसी राष्ट्र के स्वामित्व वाले निगमों के खिलाफ पश्चिमी प्रतिबंधों का हवाला दिया है। इसके अलावा, परमाणु ऊर्जा को ऊर्जा के निम्न कार्बन स्रोत के रूप में घोषित करने के विरोध जैसी बाधाएं भी शामिल हैं।

रूस में वैश्विक वनों के कुल क्षेत्रफल का लगभग 20 प्रतिशत हिस्सा है और इस प्रकार यह वनों और भूमि उपयोग पर ग्लासगो घोषणा का पूरी तरह से समर्थन करता है। लेकिन रूस CO2 या कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए वनों को वैध "हरित परियोजनाओं" के रूप में मान्यता देना पसंद करेगा।

एम॰ के॰ भद्रकुमार पूर्व राजनयिक हैं। वे उज्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत रह चुके हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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