ख़बरों के आगे-पीछे: अब हादसे की पुष्टि प्रधानमंत्री ही करेंगे!

नए भारत में राजनीति और प्रशासन का एक नया अघोषित प्रोटोकॉल विकसित हो रहा है, जिसके मुताबिक देश में कहीं भी बड़ी दुर्घटना होगी तो उसे तभी स्वीकार किया जाएगा, जब प्रधानमंत्री उसकी पुष्टि कर देंगे। अगर उस दुर्घटना में लोग मरते हैं तो उन्हें तब तक मरा हुआ नहीं माना जाएगा, जब तक प्रधानमंत्री सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर उनको श्रद्धाजंलि नहीं दे देंगे।
एक दूसरा प्रोटोकॉल यह भी दिख रहा है, जो विभाग या व्यक्ति सीधे तौर पर दुर्घटना के लिए जिम्मेदार होगा वह अंतिम समय तक उसके बारे में या तो झूठ बोलेगा या आधी-अधूरी बात करके अपने को बचाने का प्रयास करेगा।
15 फरवरी की रात को नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ और उससे पहले प्रयागराज कुंभ में 29 जनवरी की रात को हुई भगदड़ को लेकर भी यही प्रोटोकॉल अपनाया गया।
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भगदड़ की घटना 15 फरवरी की रात 9.55 मिनट पर रिपोर्ट हुई, लेकिन रात 12.56 पर जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया में मृतकों को श्रद्धांजलि दी, उसके बाद ही रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने रात को 1.09 मिनट पर सोशल मीडिया में पोस्ट करके नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर दुर्घटना में लोगों के मरने की बात मानी। उससे पहले रेल मंत्री ने रात 11.36 एक्स पर सिर्फ भगदड मचने की बात लिखी थी। जबकि हकीकत यह है कि तब तक कई लोगों की मौत हो चुकी थी। प्रयागराज की घटना में भी घटना के 12 घंटे बाद प्रधानमंत्री ने मृतकों को श्रद्धाजंलि दी। उसके छह घंटे बाद मुख्यमंत्री ने इसकी पुष्टि की। उससे पहले तक लोगों के घायल होने की ही बात कही जा रही थी।
ग़लती नहीं मानने की ज़िद
केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनने के बाद घोषित या अघोषित रूप से यह नियम स्थापित किया गया कि यह सरकार कोई गलती नहीं करती है। गलती चाहे जितनी बड़ी हो, हादसा चाहे जितना बड़ा हो, उसमें नुकसान चाहे जितना बड़ा हुआ हो लेकिन मानना नहीं है कि सरकार या सिस्टम की गलती है। हर बार कोई न कोई नया बहाना या नया बलि का बकरा खोजा जाता है। पिछले 10 वर्षों में बड़ी मेहनत से यह धारणा बनाई गई है कि पूरी कायनात मोदीजी के पीछे पड़ी है और उसको अच्छा नहीं लग रहा है कि मोदीजी के नेतृत्व में भारत इतनी तरक्की कर रहा है।
इसीलिए जैसे ही कोई हादसा होता है इस नैरेटिव के तहत लोगों को बताया जाता है कि साजिश हुई है। अगर ऐसी किसी कथित साजिश में कोई अल्पसंख्यक पकड़ लिया जाए तब तो लोग भी मान लेते हैं कि साजिश हुई है। तभी नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर भगदड़ मची और कई लोगों की मौत हो गई तो रेल मंत्री ने कहा कि साजिश के पहलू से जांच होगी।
दरअसल रेल मंत्री के मुंह में साजिश की थ्योरी का खून लग गया है। ओडिशा के बालासोर में हुए भीषण हादसे के समय से वे हर छोटी बड़ी रेल दुर्घटना को साजिश बताते रहे है। इसी सिद्धांत के तहत कुंभ की भगदड़ और उसमें बड़ी संख्या में लोगों के मरने को भी साजिश बताया गया। लेकिन अब देश के लोग भी इसे समझने लगे हैं। इसलिए नई दिल्ली की घटना में साजिश का सिद्धांत काम नहीं कर रहा है। जो कुछ भी हुआ वह विशुद्ध रूप से रेलवे के निकम्मेपन और लापरवाही की वजह से हुआ है। इसलिए तरह तरह के कारण बता कर सुनियोजित तरीके से भ्रम फैलाया जा रहा है।
ट्रंप और मस्क मज़ाक उड़ा रहे हैं भारत का
इधर भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समर्थक इस बात पर लहालोट हो रहे हैं कि अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने मोदी को महान नेता व अपना दोस्त बताया और उनके लिए कुर्सी सीधी की। लेकिन दूसरी ओर ट्रंप ने अवैध भारतीय प्रवासियों को बेहद अपमानजनक तरीके से भारत वापस भेजने का सिलसिला जारी रखा हुआ है और उसका वीडियो शेयर करके मजाक बना रहे हैं।
सवाल है कि अमेरिकी राष्ट्रपति क्यों भारत का अपमान करके और उसे उदाहरण बना कर पूरी दुनिया को दिखाना चाहते हैं? अगर ऐसा नहीं होता तो सीधे व्हाइट हाउस से प्रवासी भारतीयों के वीडियो नहीं जारी होते। पहला वीडियो जारी होने पर जब भारत में इसकी आलोचना हुई तो विदेश मंत्रालय ने कहा कि उसने इस बारे में अमेरिका से बात की है और अब ऐसा नहीं होगा। लेकिन उसके बाद दो जहाज और आए, जिनमें कुछ नहीं बदला।
अब 41 सेकेंड का एक वीडियो व्हाइट हाउस ने जारी किया है, जिसमें भारत सहित दूसरे कई देशों के प्रवासी हथकड़ी और बेड़ी में दिख रहे हैं। इस वीडियो में राष्ट्रपति ट्रंप और उनके करीबी सहयोगी इलॉन मस्क हंसते हुए दिख रहे हैं और मस्क कह रहा है कि मजा आ गया। वही मस्क जो अपनी 21 लाख की कार 36 लाख में बेचने भारत में आ रहा है। गौरतलब यह भी है कि रूस और चीन के तीन-तीन लाख अवैध प्रवासी अमेरिका में हैं, लेकिन उन्हें उस तरह से नहीं निकाला जा रहा है, जैसे भारतीयों को निकाला जा रहा है।
गौरव गोगोई से घबरा रहे हैं हिमंता
उग्रवादी संगठन यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) से अपनी राजनीति की शुरुआत करने के बाद लंबे समय तक कांग्रेस में रहे असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा को भाजपा में जाने के बाद सांप्रदायिक नफरत और विभाजनकारी राजनीति के अलावा कुछ समझ में नहीं आ रहा है। चार महीने पहले झारखंड में इसी राजनीति में बुरी तरह से पिटने के बावजूद वे अपने राज्य असम में इसी राजनीति के रास्ते पर आगे बढ़ रहे हैं।
गौरतलब है कि असम में अगले साल मई में चुनाव हैं। उससे पहले उन्होंने कांग्रेस सांसद गौरव गोगोई को उनकी ब्रिटिश पत्नी एलिजाबेथ के बहाने निशाना बनाया है। करीब नौ साल तक सरकार में रहने के बाद अब हिमंता बिस्वा सरमा को यह मुद्दा मिला है। इससे पहले करीब 11 साल की केंद्र सरकार और नौ साल की राज्य सरकार ने यह मुद्दा नहीं उठाया। अब उन्होंने कहना शुरू किया है कि गौरव गोगोई की पत्नी का संबंध पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई से है। ऐसा इसलिए है क्योंकि शादी से पहले बतौर ब्रिटिश नागरिक उन्होंने पाकिस्तान में जलवायु परिवर्तन से जुड़े कुछ काम किए थे और उस दौरान वे जिस पाकिस्तानी व्यक्ति के साथ काम करती थीं उसका नाम अली तौकीर शेख है। असम पुलिस ने उसके खिलाफ यूएपीए के तहत मुकदमा दर्ज किया है। ऐसा लग रहा है कि हिमंत बिस्वा सरमा को अगले चुनाव में गौरव गोगोई से बड़ी चुनौती मिलती दिख रही है। इसलिए वे घबराहट में इस तरह के कदम उठा रहे हैं। गौरव गोगोई पहले कोलियाबोर सीट से सांसद थे। यह मुस्लिम बहुल सीट थी। लेकिन बाद में परिसीमन के जरिए सीट की संरचना बदल दी गई है। इसलिए इस बार गौरव गोगोई हिंदू बहुल जोरहाट सीट से चुनाव लड़े। इस सीट पर गौरव गोगोई 54 फीसदी से ज्यादा वोट लेकर जीते। इसी नतीजे ने हिमंत बिस्वा सरमा की चिंता बढ़ाई है।
कहां गया भाजपा का अनुशासन?
कैडर आधारित पार्टियां अपेक्षाकृत ज्यादा अनुशासित मानी जाती हैं। हालांकि भाजपा में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी या नितिन गडकरी और राजनाथ सिंह की भाजपा के समय नेताओं को अपनी पसंद से बयान देने और कुछ फैसले करने की आजादी थी। परंतु नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा में सौ फीसदी अनुशासन सुनिश्चित किया गया है। सबको वही कहना और करना पड़ता है, जो ऊपर से कहा जाता है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से लेकर एकदम नीचे पंचायत स्तर तक सब कुछ एक तरीके से होता है। लेकिन पिछले कुछ दिनों से पार्टी में अनुशासन भंग की खबरें लगातार आ रही हैं।
राजस्थान और हरियाणा से लेकर कर्नाटक और मणिपुर तक नेता मनमाने बयान दे रहे हैं और मनमाने तरीके से काम भी कर रहे हैं, जिसका पार्टी को राजनीतिक नुकसान भी हो रहा है।
बताया जा रहा है कि कर्नाटक में पार्टी के अंदर जो घमासान मचा है उसमे कही न कही पार्टी के संगठन महामंत्री की भूमिका है। पता नहीं उनकी कितनी भूमिका है लेकिन यह तो तय है कि पार्टी के आधा दर्जन मजबूत नेताओं ने प्रदेश अध्यक्ष बीवाई विजयेंद्र के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। खुलेआम उन्हें हटाने की मांग कर रहे हैं। ऐसे ही हरियाणा मे वरिष्ठ नेता अनिल विज ने मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी के खिलाफ और राजस्थान मे वरिष्ठ नेता किरोड़ीलाल मीणा ने राज्य में अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। मणिपुर के नेताओं ने तो दिल्ली दरबार में भागदौड़ करके मुख्यमंत्री का इस्तीफा भी करा दिया है।
दिल्ली में पुराने भाजपा नेताओं का पत्ता कटा
भाजपा 27 साल तक दिल्ली की सत्ता से बाहर रही। इस दौरान दिल्ली में भाजपा को संभालने और उसे बचाने के लिए जितने लोगों ने अपने को खपाया, उन सभी को किनारे कर दिया गया है। ऐसे सभी नेता मुख्यमंत्री या मंत्री बनने की आस लगाए हुए थे। कुछ तो चुनाव जीत कर विधायक भी बन गए। इनमें वे भी हैं, जो 2015 में सबसे संकट के समय भी जीते थे। लेकिन उन्हें भी मौका नहीं मिला। विजेंद्र गुप्ता लगातार चौथा चुनाव जीते हैं। संकट के समय पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। लेकिन वैश्य समुदाय की रेखा गुप्ता के मुख्यमंत्री बनने से उनका पत्ता कट गया।
ऐसे ही मुस्तफाबाद सीट से जीते छह बार के विधायक मोहन सिंह बिष्ट भी रह गए। ब्राह्मण समुदाय से मंत्री बनना था तो आम आदमी पार्टी से आए कपिल मिश्रा को मौका मिला। आम आदमी पार्टी में रहते उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर जैसी अभद्र और अश्लील टिप्पणियां की थीं, वैसी किसी ने नहीं की होंगी। लेकिन भड़काऊ भाषण देने की अपनी योग्यता के दम पर वे मंत्री बन गए और बरसों से झंडा ढोने वाले पवन शर्मा और सतीश उपाध्याय देखते रह गए।
चार बार से विश्वासनगर सीट से जीत रहे ओमप्रकाश शर्मा भी मंत्री नहीं बन सके। ऐसे ही अकाली दल से जुड़े रहे मनजिंदर सिंह सिरसा को भी मौका मिल गया। पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिह वर्मा के बेटे परवेश वर्मा को तो मौका मिल गया है लेकिन मदनलाल खुराना के बेटे हरीश खुराना रह गए।
महिला नेताओं के उत्तराधिकारियों की समस्या
भारत की महिला नेताओं ने जब भी मौका मिला, अपने अपने हिसाब से शासन किया। लेकिन एक समस्या सबके साथ रही। किसी ने अपने जीवनकाल में अपना उत्तराधिकारी तय नहीं किया। इंदिरा गांधी अपवाद हैं, जिन्होंने पहले संजय गांधी और उनके निधन के बाद राजीव गांधी को राजनीति में उतार कर उत्तराधिकार का संकेत दे दिया था। परंतु उसके बाद कम से कम कोई प्रादेशिक महिला नेता अपना उत्तराधिकारी नहीं तय कर पाई और किया भी तो वह चल नहीं पाया। जैसे जयललिता के लिए माना जाता था कि उनकी सहेली वीके शशिकला उनकी जगह लेंगी या शशिकला के भतीजे टीटीवी दिनाकरण उनके उत्तराधिकारी होंगे। लेकिन जब वे जेल गईं तो पहली बार ओ. पनीरसेल्वम को और दूसरी बार में ई. पलानीस्वामी को मुख्यमंत्री बनाया। अब स्थिति यह है कि पनीरसेल्वम, पलानीस्वामी और दिनाकरण तीनों आपस में लड़ रहे हैं।
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को उत्तराधिकारी बनाया। लेकिन पहली बार यह हुआ कि किसी को उत्तराधिकारी पद से हटाया गया। मायावती ने आकाश को उत्तराधिकारी पद से हटाया और फिर बाद में बहाल किया। अब उन्होंने आकाश के ससुर अशोक सिद्धार्थ को पार्टी से निकाल दिया है। उधर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तय नहीं कर पा रही हैं कि उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी को कब सत्ता सौंपनी है। वे उनके उत्तराधिकारी हैं लेकिन ममता को हमेशा उनकी लगाम खींच कर रखनी होती है और वे बीच-बीच में उन्हें भी झटका देती रहती हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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