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बंगाल : बोरो की खेती को मुकुटमणिपुर जलाशय से 11 साल से है पानी का इंतजार

इस सिंचाई योजना को छह दशक पहले शुरू किया गया था। इसका उद्देश्य बांकुरा, अविभाजित मिदनापुर और हुगली ज़िलों में खेती की भूमि के एक बड़े हिस्से को सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध कराना था।
Mukutmonipur

मुकुटमणिपुर (पश्चिम बंगाल) : एशिया के सबसे बड़े मिट्टी के बांध मुकुटमणिपुर सिंचाई जलाशय को देखते ही लखींदर महतो की आह निकलती है। वे इस सिंचाई परियोजना के समीपवर्ती इलाके, सुरुलिया गांव के रहने वाले हैं। अन्य वर्षों की तरह उनकी भूमि को बोरो (धान की एक किस्म) की खेती के लिए पानी नहीं मिला। और जमीन बिना खेती के रह गई। 

नहरों के जीर्णोद्धार और सिंचाई के विस्तार पर सालाना करीब 50 करोड़ रुपए खर्च किए जाते हैं। बावजूद इसके पिछले 11 सालों से किसानों को मुकुटमणिपुर सिंचाई जलाशय से बोरो खेती की सिंचाई के लिए पानी नहीं मिला है। सिंचाई योजना छह दशक पहले शुरू की गई थी। इसका उद्देश्य बांकुरा, अविभाजित मिदनापुर और हुगली जिलों में खेती की भूमि के एक बड़े हिस्से को सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध कराना था।

सिंदूरपुर रानीबांध के एक छोटे किसान, मधु सूदन महतो ने इस पत्रकार को बताया कि, "पिछले 10 सालों से इन इलाकों में नाममात्र का पानी पहुंचा है। हालांकि कंगसबोती प्राधिकरण ने इसका उल्लेख किया है लेकिन फिर भी बोरो की खेती के लिए पानी किसानों की जमीन तक नहीं पहुंचा है।"

किसान सवाल उठाट हैं हैं कि सरकार की नजर में क्या मुकुटमिणपुर अब सिर्फ पर्यटन केंद्र रह गया है। यह स्थान कोलकाता से लगभग 250 किमी की दूरी पर है।

पहाड़ियों और जंगल से घिरे मुकुटमणिपुर जलाशय की उभरती कोमल लहरें और इसका नीला पानी, इलाके की सुंदरता में चार चांद लगा देते हैं। यह अलगा बात है कि पर्यटक नहीं जान पाएंगे कि जलाशय को बनाने के लिए कई परिवारों को बेदखल होना पड़ा और उस पार के किसान किस किस्म की दुर्दशा झेल रहे हैं।

1957 में, पुरुलिया से बहने वाली कंसाई और कुमारी नदियों के संगम पर जलाशय का निर्माण शुरू हुआ था। उस समय योजना आयोग ने सिंचाई परियोजना के लिए 25.26 करोड़ रुपये मंजूर किए थे। बांकुड़ा और पुरुलिया जिलों से 372 मौज़ा (या गांवों) को मकुटमणिपुर परियोजना में शामिल किया गया था। निर्माण शुरू होने के बाद इसे कंगसाबोती सिंचाई योजना का नाम दिया गया था। हजारों गांवों की जमीनें इसमें चली गईं थी। और जलाशय के अंतर्गत आने वाले इलाकों के अधिकांश गांव इतिहास के पन्नों में खो गए। 

उदाहरण के लिए, रानीबांध प्रखंड में पुद्दी ग्राम पंचायत है; हालाँकि, कोई पुद्दी गाँव नहीं है। बसंतोपुर, धतकिदिही, घोलकुरी, बोनपुकुरिया, सेरेंगगढ़, गोन्साईडीही, भालुचेरा, और बृक्रोमदिही जैसे गांवों का भी यही हश्र हुआ है।

"जब बांध का निर्माण शुरू हुआ, तो हम चाहते थे कि हमारी सूखी ज़मीन को भी सिंचाई का अपानी मिले। पुरुलिया और बांकुड़ा जिलों के लोगों ने परियोजना का समर्थन किया। हमने मुआवजे की मांग के लिए एक आंदोलन भी शुरू किया था, और मांग की गई कि पानी में डूब गए गांवों के लोगों का पुनर्वास किया जाए और उन्हें वित्तीय मुआवजा दिया जाए। सरकार ने इसे स्वीकार नहीं किया। हमारी इरादे मजबूत थे क्योंकि इस परियोजना ने इन दो जिलों के हजारों लोगों को प्रभावित किया था," कंगसाबौती आंदोलन में सक्रिय 85 वर्षीय स्थानीय बिजॉयलक्ष्मी महतो ने उक्त बातें पत्रकार को बताई।

बिजॉयलक्ष्मी महतो, जो कंगसबोती आंदोलन की सक्रिय कार्यकर्ता थीं।

वे बताते हैं कि, "मुआवजा की मांग को लेकर, अविभाजित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI) के आह्वान पर एक जन आंदोलन शुरू किया गया था। आंदोलन का नेतृत्व मोतीलाल महतो, जलेश्वर हंसदा, मृत्युंजय बनर्जी, गुनाधर चौधरी, बांकुड़ा के नकुल महतो आदि ने किया था। हमने जलाशय का काम देखने आए तत्कालीन पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बिधान चंद्र रे की कार को घेरा भी था। पुलिस को कुछ समझ नहीं आया। मुख्यमंत्री को मजबूर होकर तुरंत इलाके से जाना पड़ा। पुलिस ने इस घटना में कई लोगों को बेतरतीब ढंग से गिरफ्तार किया।" 

बिजॉयलक्ष्मी महतो को गर्भवती होने के बावजूद उनके पति मोतीलाल महतो के साथ गिरफ्तार किया गया और कई महीनों तक जेल में रखा गया। बिजॉयलक्ष्मी ने जेल में ही एक बच्चे को जन्म दिया। उन्होंने आगे उल्लेख किया कि कैसे रे ने आखिरकार हमारी मांगे मानी और लोगों को मुआवजे के रूप में इन दो जिलों के विभिन्न हिस्सों में आवासीय और खेती की जमीनें मिलीं।

पुरुलिया से कंसई और कुमारी नदियों के पानी को मोड़कर सिंचाई योजना का निर्माण किया गया है। यह एक कंक्रीट सैडल स्पिलवे के साथ एक मिट्टी का गुरुत्वाकर्षण बांध है। इस जलाशय का किनारा पिरामिड के रूप में लुढ़कती हुई मिट्टी से बना है और इसकी सुरक्षा के लिए इसके ऊपर शिलाखंड रखे गए हैं। इसलिए इसे एशिया का सबसे बड़ा मिट्टी का बांध कहा जाता है। यह बांकुड़ा, पश्चिमी मिदनापुर, झारग्राम और हुगली जिलों में 3,48,477 हेक्टेयर सिंचाई की क्षमता रखता है। परियोजना मूल रूप से खरीफ मौसम के लिए बनाई गई थी), लेकिन तत्कालीन वाम मोर्चा सरकार ने मुख्य नहर का विस्तार किया, जिससे बोरो की खेती के लिए सिंचाई का पानी उपलब्ध हो गया था।

खटरा, बांकुरा में बोरो सीजन में पड़ी खाली नहर का नज़ारा 

कंगसाबोती सिंचाई विभाग के एक सेवानिवृत्त कार्य सहायक एसके इजरायल ने इस लेखक को बताया कि,"वाममोर्चा सरकार के भूमि सुधार कार्यक्रम ने भूमिहीन लोगों को भूमि के अधिकार पत्र दिए थे। इसके अलावा, ऊंची उपज वाले बीज बाजार में आए, जिससे इन तीन जिलों में बड़े पैमाने पर खेती हुई। किसानों के लिए कांगसाबोती सिंचाई जरूरी हो गई।"

उन्होंने कहा कि, "वाम मोर्चा सरकार के सामने सिंचाई के पानी की कोई मजबूत मांग नहीं आई थी। फिर भी 1977 के बाद नहरों की मरम्मत की गई और खरीफ और रबी के साथ-साथ बोरो फसलों को भी सिंचाई का पानी मिलने लगा था।"

बांकुरा के जिला परिषद के पूर्व प्रमुख पार्थ मजूमदार ने इस पत्रकार को बताया कि "बोरो की खेती के लिए सिंचाई का पानी कब तक उपलब्ध होगा इसकी जानकारी देने के लिए तीन जिलों के प्रमुखों, कंगसाबोती के अधीक्षक अभियंता और सरकारी अधिकारियों ने चर्चा की और कंगसाबोती सिंचाई क्षेत्र के लोगों को सूचित करने के लिए सर्कुलर बांटे गए।"

इस पत्रकार से बात करने वाले कई ग्रामीणों ने शिकायत की कि 2011 में पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के सत्ता में आने के बाद से बोरो की खेती के लिए पानी मिलना बंद हो गया है। हालांकि, वे सिंचाई के लिए जल-टैक्स का भुगतान कर रहे हैं। अधिक चौंकाने वाली बात यह है कि जलग्रहण इलाके में वर्षा की कमी के कारण यथास्थिति बरकरार नहीं हुई है। जलाशय में 440 फीट तक पानी रह सकता है। 

"पहले, पानी को 410 फीट तक पहुंचने पर छोड़ा जाता था। केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) इसकी देखभाल करता था। हालांकि, पिछले कुछ वर्षों में परियोजना की देखभाल करने वाले मजदूरों की संख्या में कमी आई है। पिछले 11 साल में, कार्यबल को घटाकर 20-25 प्रतिशत कर दिया गया है। इससे जलाशय की निगरानी प्रभावित हुई है। नाम न छापने की शर्त पर एक सब-इंजीनियर ने कहा कि, कौन जोखिम उठाना चाहेगा?" 

उन्होंने कहा, "निगरानी न होने के कारण, जलाशय का पानी 380 फीट तक पहुंचने पर छोड़ दिया जाता है। यह खतरे की रेखा से नीचे है।"

इलाके के किसानों का आरोप है कि रेत माफिया और सत्ता पक्ष से जुड़े खास ठेकेदारों के लिए जलाशय से पानी छोड़ा जाता है। जैसे ही पानी छोड़ा जाता है, रेत कुछ स्थानों पर जमा हो जाती है, जहां से रेत माफिया इसे उठाते हैं। उनका आगे आरोप है कि नवीनीकरण पर लगभग 50 करोड़ रुपये खर्च किए जाते हैं और पिछले 11 वर्षों में हजारों करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं।

कंगसाबोती जलाशय का पानी अनावश्यक रूप से नदी में छोड़ा जा रहा है

उन्होंने कहा कि, "इस दौरान, सिंचाई वाली नहरों का भी विस्तारित नहीं किया गया।  किसानों को पहले खरीफ की खेती के दौरान पानी मिलता था। हालांकि, कई जगहों पर यह भी प्रभावित हुआ है।"

किसानों ने आगे बताया कि कैसे पूरी चीज तय होती है। उन्होने बताया कि जलाशय खाली होने के बाद कैसे नहर में केवल गाँजा/घास ही रह जाती है, जिसकी अगले वर्ष के मानसून से पहले मुरम्मत करनी होगी और इससे ठेकेदारों का काम सुनिश्चित हो जाता है।

कांगसाबौती प्रखंड एक के अधीक्षक अभियंता भास्कर सूर्य मंडल ने बतया कि, 'पानी की कमी के कारण इस साल भी बोरो किसानों को पानी नहीं मिलेगा.'

यह पूछने पर कि जलाशय के भरे होने के बावजूद पानी क्यों नहीं रोका गया, अधिकारी से कोई जवाब नहीं मिला।

लेखक, पश्चिम बंगाल में गणशक्ति अखबार के लिए बांकुरा क्षेत्र को कवर करते हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Bengal: 11-Year Wait for Water for Boro Cultivation From Mukutmanipur Reservoir Continues

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