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बिहार : ग्रामीण रोज़गार में आए भयंकर ठहराव से मनरेगा मज़दूर त्रस्त

बिहार का ग्रामीण मज़दूर राज्य में मज़दूरी में देरी या उसका वक़्त पर  भुगतान न होने और राज्य के बाहर नौकरियों की कमी के बीच पिस रहा है।
Bihar’s MGNREGA
जागेश्वरी देवी, मनरेगा मज़दूर, महंत मनियारी गाँव, कुरहनी ब्लॉक मुज़फ़्फ़रपुर ज़िला।

महीनों के अंतराल के बाद, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) के मज़दूर, वार्ड नं॰ 7 जो मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले के कुरहनी ब्लॉक के अंतर्गत महंत मनियारी गाँव में रतौली पंचायत के तहत आता है, वहाँ के मज़दूरों को फिर से 100 दिन का काम वापस मिल गया हैं। लेकिन उनमें से कई ऐसे हैं जो अभी भी अपने पिछले वेतन का इंतज़ार कर रहे हैं।

गाँव की 58 वर्षीय जागेश्वरी देवी ने सिर पर ईंटें ढोते हुए बताया: “हम मनरेगा के तहत इस उम्मीद में काम कर रहे हैं ताकि हमारा पिछला वेतन जल्द या कुछ वक़्त बाद शायद हमें मिल जाए। पांच महीने से  हम अपने वेतन/मज़दूरी का इंतजार कर रहे हैं, लेकिन सिर्फ़ आश्वासन मिलता है, कोई राहत नहीं।”

एक ग़ैर राजनीतिक संगठन, नरेगा वॉच जिसके संयोजक संजय साहनी हैं, के अनुसार, काम में इतने बड़े अंतराल का कारण मज़दूरी का भुगतान नहीं होना है, जिसका भुगतान ज़िला प्रशासन और सरकार द्वारा किया जाना है।

साहनी ने न्यूज़क्लिक को बताया कि इसमें तीन श्रेणी के मज़दूर हैं, एक वे जो लंबे समय से अपनी मज़दूरी पाने का इंतज़ार कर रहे हैं। इनमें से कुछ की मज़दूरी तीन से छह महीने तक लंबित है, लेकिन उनमें से कई ऐसे भी हैं जो अपनी वार्षिक मज़दूरी पाने के लिए बेताब हैं।

मनरेगा के क़ानूनी प्रावधान के तहत हर वित्तीय वर्ष में हर उस घर को कम से कम 100 दिन का गारंटीशुदा काम प्रदान करना है, जो व्यक्ति उस ग्रामीण परिवार में वयस्क सदस्य है और स्वैच्छिक कार्य करने के लिए तैयार हैं। इसके मुख्य उद्देश्यों में अकुशल मैनुअल काम भी 100 दिनों से कम का नहीं होना चाहिए, जो की मांग के अनुसार प्रत्येक ग्रामीण परिवार को वित्तीय वर्ष में रोज़गार की गारंटी देता है, जिसके परिणामस्वरूप निर्धारित गुणवत्ता और स्थिर उत्पादक संपत्ति का निर्माण होता है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह ग़रीबों के लिए आजीविका के संसाधन को मज़बूत करता है। लेकिन ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना की कहानी इसके निर्धारित सिद्धांतों के विपरीत जा रही है।

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बिहार में मनरेगा मज़दूर बिना मज़दूरी के काम कर रहे हैं।

लंबे समय से मज़दूरी न मिलने और उसमें आई कमी और समान काम की मांग को लेते हुए, नरेगा वॉच, कुरहनी और आस-पास के ब्लॉकों के श्रमिकों को एकजुट कर मुज़फ़्फ़रपुर कलेक्ट्रेट पर विरोध प्रदर्शन करने की योजना बना रही है। विरोध का निर्णय सकरा, गायघाट, बांद्रा, कुरहनी, मारवान, मुसहरी, मरौल, बोचहां, सरैया, और कांटी ब्लॉकों के श्रमिकों के मद्देनज़र लिया गया है। नरेगा वॉच के सूत्रों ने बताया है कि प्रख्यात विकास अर्थशास्त्री ज्यौं द्रेज़ और मज़दूर किसान शक्ति संगठन के सह-संस्थापक निखिल डे प्रस्तावित विरोध में हिस्सा लेंगे।

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मज़दूरी के भुगतान न होने के विरोध में नरेगा वॉच द्वारा डीएम मुज़फ़्फ़रपुर को लिखा पत्र

पिछले साल भी मनरेगा में व्याप्त भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ मज़दूरों ने विरोध किया था।

मनरेगा की धारा 3(3) के अनुसार, मज़दूर किए गए काम के एवज़ में साप्ताहिक आधार पर भुगतान पाने का हक़दार है, और किसी भी स्थिति में उस तारीख़ के पखवाड़े के भीतर जिस पखवाड़े में उससे काम लिया गया था। राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम, 2005 कहता है कि भुगतान में देरी के मामले में, श्रमिकों को प्रति दिन 0.05 प्रतिशत की दर से मुआवज़ा दिया जाना चाहिए। हालांकि, प्रशासन इस खंड को गंभीरता से नहीं लेता है और मज़दूरों को मज़दूरी में की गई देरी के लिए कभी भी मुआवज़ा नहीं दिया जाता है।

अधिनियम में इस तरह के प्रावधानों के बावजूद मज़दूरों को मामूली 171 रुपये प्रति दिन अल्प राशि के वेतन का भुगतान भी नहीं किया जाता है, जो अकुशल मैनुअल मज़दूरों को दिए जाने वाली राज्य-वार राशि है या उसकी दर है, जिसका भुगतान किए गए काम के माप के आधार पर किया जाता है।

 

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नरेगा वॉच के संयोजक संजय साहनी के साथ एक प्रवासी मजदूर अनिल राम (दाएं)।

गांव महंत मनियारी के एक प्रवासी मज़दूर अनिल राम कहते हैं कि अगर मनरेगा मज़दूरी थोड़ी अधिक होती यानी कम से कम 400 रुपये प्रति दिन, तो उनके जैसे लोगों को आंध्र प्रदेश के विशाखापट्टनम में काम करने के लिए धक्के नहीं खाने पड़ते।

“हम में से कम से कम 100 लोग असम, गुजरात जैसे राज्यों में चले गए हैं, और वहाँ जाने का एकमात्र कारण यहाँ की बेहद कम मज़दूरी है। हम 171 रुपए प्रति दिन पर चार लोगों का परिवार कैसे पाल सकते हैं?” उन्होंने बड़े ही मायूस लहजे में सवाल उठाया।

अनिल राम कहते हैं कि मूल समस्या काम के अवसरों की कमी का होना है। बिहार के मनरेगा मज़दूरों के सामने यह शैतान और गहरे समुद्र के बीच का विकल्प चुनने जैसा है। जबकि बिहार में कम मज़दूरी उन्हें पलायन करने के लिए मजबूर करती है, राज्य के बाहर अवसरों की कमी उन्हें कम मज़दूरी या यहां तक कि महीनों तक मज़दूरी नहीं कर घर वापस धकेल देती है।

न्यूज़क्लिक के साथ फ़ोन पर बात करते हुए, बिहार चैप्टर के नेशनल एलायंस ऑफ़ पीपल्स मूवमेंट (एनएपीएम) के सचिव आशीष रंजन ने बताया कि राज्य में मनरेगा के तहत फ़ंड की भारी कमी है। बिहार के अररिया जिले में मनरेगा मज़दूरों के साथ वर्तमान में काम करने वाले आशीष कहते हैं कि ''मनरेगा मज़दूरों के भुगतान को छह महीने से रोका हुआ है।

जब मजदूरी के भुगतान की बात आती है तो फंड जारी करने की ग़लत तारीखों की घोषणा की जाती है। उन्होंने कहा कि सरकार ऐसा कर मनरेगा के मज़दूरों को गुमराह करती है। उन्होंने कहा, "यह सरकार एमआईएस (प्रबंधन सूचना प्रणाली) पर काम करने वालों को इस तरह से गुमराह करती है।"

मनरेगा मज़दूरी बढ़ाने के मामले में बिहार सरकार की मंशा लंबे समय से संदिग्ध रही है, वह कहते हैं वर्ष 2015 में बिहार सरकार ने न्यूनतम मज़दूरी को घटाकर 138 रुपये प्रति दिन कर दिया था, जब सामाजिक कार्यकर्ता ने पटना उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की तो सरकार को झुकना पड़ा और इसे वापस लेना पड़ा। 

बिहार सरकार के पास अधिनियम की धारा 32 (1) के तहत मनरेगा मज़दूरों की आजीविका को मज़बूत करने की भरपूर ताक़त है, जिसमें कहा गया है कि सरकार अधिसूचना के माध्यम से, मनरेगा के काम में स्थिरता लाने की शर्तों के तहत अधिनियम के प्रावधानों को पूरा करने के लिए नियम बना सकती है और वे नियम केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए नियम के समरूप होने चाहिए।

मनरेगा जो एक नीचे से ऊपर और जन केंद्रित, मांग-संचालित, स्व-चयन और अधिकार-आधारित कार्यक्रम है जो विशेष रूप से ग्रामीण आबादी को रोज़गार सुनिश्चित करता है, लगता है जानबूझकर ग्रामीण आबादी को चोट पहुंचाने के लिए सरकार ने इसे ग़ैर-कार्यात्मक योजना में बदल दिया है। 

संक्षेप में, राज्य और केंद्र सरकार के बीच फंड क्रंच (फ़ंड की कमी) को लेकर कैटफाइट और दोषपूर्ण खेल सीधे तौर पर ग्रामीण मज़दूरों को ग्रामीण ठहराव की तरफ़ धकेल रहा है, जो आगे चलकर सबसे ख़राब हालत और गंभीर संकट को पैदा करेगा।

(लेखक बिहार स्थित एक स्वतंत्र शोधकर्ता हैं।)

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Bihar’s MGNREGA Workers Stare at Deeper Rural Stagnation

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