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"ससुराल वाले दूर रह कर भी करते हैं बहू पर अत्याचार तो दर्ज हो सकता है मामला”

बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच ने महिला उत्पीड़न के एक मामले में साफ़ किया कि आईपीसी की धारा 498ए के तहत ससुराल वाले साथ रहते हों या नहीं लेकिन अगर लड़की प्रताड़ित है और वो जिनके भी नाम लेती है उन सब पर मामला चलाया जा सकता है।
Bombay High Court
Image courtesy : DH

"सबसे पहले तो क़ानून में ऐसा कोई अनुमान नहीं है कि दूर रहने वाला रिश्तेदार हमेशा निर्दोष होता है। जब तक कि ये साबित न हो कि वो निर्दोष है, तब तक कुछ भी पुख़्ता तरीके से नहीं कहा जा सकता। कई मामलों में पति और पत्नी से दूर रहने वाले रिश्तेदारों ने विवाहित जोड़े के मामलों में दखल दिया है।"

ये अहम टिप्पणी बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच की है। कोर्ट ने महिला प्रताड़ना के एक मामले में पति और पति के रिश्तेदारों द्वारा दायर एक याचिका की सुनवाई के दौरान कहा कि ससुराल वाले दूर रह रहे हैं इसका मतलब ये नहीं कि बहू को परेशान नहीं कर सकते हैं। जब तक कुछ भी साबित नहीं हो जाता, सब शक के घेरे में हैं। इस मामले में एफआईआर खारिज करने की याचिका को खारिज करते हुए हाईकोर्ट ने कहा कि अक्सर पति-पत्नी के बीच विवाद के दौरान दूर के रिश्तेदारों का हस्तक्षेप काफी ज्यादा रहता है और वे पत्नी को प्रताड़ित करते हैं। इसी वजह से ऐसे मामलों में आईपीसी की धारा 498ए के तहत पति से दूर रहने वाले रिश्तेदारों के खिलाफ भी मामला दर्ज किया जा सकता है।

बता दें कि बॉम्बे हाई कोर्ट का ये फैसला ऐसे समय में आया है जब हाल ही में राजस्थान के दूदू इलाके में तीन सगी बहनों के अपने बच्चों सहित कथित तौर पर ससुरालवालों के शोषण और उत्पीड़न के चलते सामूहिक आत्महत्या का मामला मीडिया में छाया हुआ है। वैसे घरेलू हिंसा और महिला प्रताड़ना की खबरें दुनियाभर से आती हैं और इससे निपटने के लिए तरह-तरह के कानून और अलग-अलग तरीके खोजे जा रहे हैं लेकिन कई बार सबूतों के अभाव में हिंसा करने वाले को सज़ा नहीं हो पाती और पीड़िता को न्याय नहीं मिल पाता।

क्या है पूरा मामला?

बार एंड बेंच की खबर के मुताबिक बॉम्बे हाईकोर्ट के जज सुनील शुक्रे और गोविंद सानप की बेंच ने एक परिवार द्वारा दायर की गई याचिका पर सुनवाई की थी। ये केस मुंबई की एक महिला के प्रताड़ना से जुड़ा हुआ था। महिला ने अपने पति और ससुराल वालों के खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाया था, जिसके खिलाफ ससुराल वाले अदालत पहुंचे थे।

खबर के अनुसार इस जोड़े की शादी 2007में हुई थी और अब उनके तीन बच्चे हैं। 2017 में पत्नी को पता चला कि कथित तौर पर पति का एक्स्ट्रा मैरिटल अफ़ेयर चल रहा है। आरोप है कि पूछने पर पति ने महिला के साथ मारपीट की। जिसके बाद महिला ने मामले की एफआईआर दर्ज करवाई। अपनी एफआईआर में महिला ने आरोप लगाया कि जब उसने अपने पति के माता-पिता और भाई-बहनों को उसके अफ़ेयर के बारे में बताया, तो उन्होंने उसके साथ बात करने के बजाय महिला के साथ ही ग़लत व्यवहार किया। शिकायत के मुताबिक़, ससुराल वालों ने दहेज के लिए 50 हज़ार रुपये की मांग भी की थी।

बदस्तूर जारी है दहेज प्रथा

मालूम हो कि बीते साल विश्व बैंक का एक अध्ययन सामने आया था जिसमें पिछले कुछ दशकों में, भारत के गांवों में दहेज प्रथा काफ़ी हद तक स्थिर रही, लेकिन अभी भी ये प्रथा बदस्तूर जारी है। शोधकर्ताओं ने अध्ययन में पाया कि 95% शादियों में दहेज दिया गया, जबकि 1961 से भारत में इसे ग़ैर-क़ानूनी घोषित किया जा चुका है। दहेज के कारण कई बार महिलओं को हाशिए पर धकेल दिया जाता है, उनके साथ घरेलू हिंसा होती है और कई बार तो मौत भी हो जाती है।

खैर, केस की बात करें तो, महिला द्वारा मुकदमा दायर करवाने के बाद केस से संबंधित पति के रिश्तेदारों ने कोर्ट में एक याचिका दायर की। याचिका में ये तर्क दिया कि (आरोपी) पति अकेला उक्त ज़िले में रहता था, माता-पिता और एक विवाहित बहन अमरावती जिले में रहते हैं और छोटा भाई पुणे शहर का रहने वाला है और इसलिए, उनके ख़िलाफ़ लगाए गए आरोप सही नहीं हैं। इस पर 8 जून को बॉम्बे हाई कोर्ट की नागपुर बेंच ने रिश्तेदारों की याचिका खारिज़ करते हुए उनके तर्क को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।

हर 25 मिनट में एक आत्महत्या

अदालत ने प्राथमिकी की दलीलों को ध्यान में रखते हुए ये हाइलाइट किया कि मामले में सभी आरोपियों के ख़िलाफ़ कोई अस्पष्ट बयान नहीं दिया गया है। मामले की जांच अभी भी जारी है और इसमें और बातें सामने आ सकती हैं। बेंच ने कहा कि पत्नी ने याचिकाकर्ताओं (रिश्तेदारों) पर जो आरोप लगाए हैं, वो बहुत स्पेसिफ़िक हैं। ऐसे में इस स्टेज पर यह नहीं कहा जा सकता है कि ससुराल वालों के ख़िलाफ़ लगाए गए आरोप किसी भी अपराध का खुलासा नहीं करते हैं।

गौरतलब है कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक बीते साल 22,372 गृहिणियों ने आत्महत्या की थी। इसके अनुसार हर दिन 61 और हर 25 मिनट में एक आत्महत्या हुई है। देश में 2020 में हुईं कुल 153,052 आत्महत्याओं में से गृहिणियों की संख्या 14.6 प्रतिशत है और आत्महत्या करने वाली महिलाओं की संख्या 50 प्रतिशत से ज़्यादा है।

ये स्थिति केवल पिछली साल की नहीं है। 1997 में जब से एनसीआरबी ने पेशे के आधार पर आत्महत्या के आंकड़े एकत्रित करने शुरू किए हैं तब से हर साल 20 हज़ार से ज़्यादा गृहणियों की आत्महत्या का आंकड़ा सामने आ रहा है। साल 2009 में ये आंकड़ा 25,092 तक पहुंच गया था। रिपोर्ट में इन आत्महत्याओं के लिए "पारिवारिक समस्याओं" या "शादी से जुड़े मसलों" को ज़िम्मेदार बताया गया है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का भी कहना है कि इसका एक प्रमुख कारण बड़े पैमाने पर घरेलू हिंसा है। हाल ही में हुए एक सरकारी सर्वे में 30 प्रतिशत महिलाओं ने बताया था कि उनके साथ उनके पतियों ने घरेलू हिंसा की है। रोज़ की ये तकलीफ़ें शादियों को दमनकारी बनाती हैं और घरों में महिलाओं का दम घुटता है।

घरेलू हिंसा और 498ए का प्रावधान

वैसे शादी के बाद पत्नी के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी पति की तय की गई है। घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 में शारीरिक, आर्थिक, भावनात्मक और मानसिक हिंसा के ख़िलाफ़ क़ानून बनाया गया है इसके तहत केवल महिला ही शिकायत कर सकती है। साथ ही घरेलू हिंसा के मामलों में सबसे पहले ये देखा जाता है कि क्या जो हिंसा हुई है वो एक ही घर या एक ही छत के नीचे हुई है। अगर पति-पत्नी और सास-ससुर एक ही घर या एक ही छत के नीचे नहीं रहते हैं तो मामले को घरेलू हिंसा के तहत नहीं मान सकते। घरेलू हिंसा क़ानून के तहत आने के बाद ही किसी अन्य की ज़िम्मेदारी तय होती है। हालांकि, 498ए में ऐसा नहीं होता। इसमें आप साथ रहते हों या नहीं लेकिन अगर लड़की प्रताड़ित है और वो जिनके भी नाम लेती है उन सब पर मामला चलाया जाता है।

क़ानून अच्छे, अनुपालन बुरा

हमारे देश में महिलाओं के लिए क़ानून तो अच्छे हैं। महिला अधिकारों की लंबी लड़ाई के बाद ये क़ानून आए हैं लेकिन इनका अनुपालन उतने बेहतर तरीके से नहीं हो पाता। जैसे अदालत से भरण-पोषण का आदेश मिलने के बाद भी जब पति देखरेख की रकम देने से इनकार करता है तो पत्नी को कोर्ट के कई चक्कर लगाने पड़ते हैं। उदाहरण के तौर पर घरेलू हिंसा क़ानून में कहा गया है कि तीन दिनों के अंदर मामले की सुनवाई होगी और 60 दिनों के अंदर अंतिम आदेश आएगा। लेकिन, ज्यादातर मामलों में तो पहली सुनवाई के लिए ही महीनों लग जाते हैं। अंतिम आदेश आने में सालों निकल जाते हैं।

आज क़ानून के स्तर पर ज़िम्मेदारियां तय होने के बाद भी महिलाएं संघर्ष कर रही हैं। उन्हें मेडिकल टेस्ट की जानकारी नहीं होती, वो समय रहते टेस्ट नहीं करातीं तो हिंसा के सबूत ही नहीं मिल पाते। मुकदमे लंबे चलते हैं इसलिए वो थककर पीछे ही हट जाती हैं। इसलिए क़ानून को तो पुख़्ता बनाया ही जाना चाहिए लेकिन उसके अनुपालन पर भी ध्यान देना चाहिए। तभी सही मायनों में ये कानून महिलाओं के हित को साध सकेंगे।

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