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"आउशवित्ज़ एक प्रेम कथा": वैश्विकता को धारण करती रचनात्मकता

समीक्षा: इस प्रेम-कथा और इतिहास की युद्ध कथा कहने में, कथा को बांधें रखने में, कथाक्रम को साधने में गरिमा जी की काल-क्रमिकता कहीं भी खंडित नहीं होती है।
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गरिमा श्रीवास्तव अपने वैचारिक एवं आलोचनात्मक साहित्य व दृष्टि के लिए पहचानी जाती रही हैं। उनका अभी तक का लेखन स्त्री-लेखन के इतिहास को निर्मित करने एवं स्थापित करने को लेकर है। वे एक अनुसंधानकर्ता की तरह कोने-कतरे में छुपे स्त्री लेखन को सामने लाने का काम करती रही हैं। स्त्री-लेखन के साथ ही अल्पसंख्यक स्त्री, दलित स्त्री के साहित्य को भी उन्होंने मुख्य पटल पर रखकर देखने की कोशिश की है।

लेकिन उनकी डायरी 'देह ही देश' ने इस दायरे को तोड़कर उनके लेखन को वैश्विक पटल से जोड़ दिया।

एक स्त्री के देखे में और एक पुरुष के देखे में क्या फ़र्क़ होता है, इसे डायरी पढ़ने वाले समझ ही गए होंगे।

अब उनका यह उपन्यास-"आउशवित्ज़ एक प्रेम कथा " पढ़कर मैं कह सकती हूँ कि वैश्विकता को धारण करने में सक्षम है उनकी रचनात्मकता।

उनके पास वह हुनर है और ज्ञान तो है ही कि वे विश्व की परिघटनाओं को सीधे ही रचनात्मक साहित्य के द्वारा हिंदी भाषा और हिंदी समाज में जोड़ सकती हैं।

गरिमा श्रीवास्तव का यह उपन्यास ऐसे ही शुरू हो सकता था। उपन्यास को भारत भूमि से निकालकर विदेश ले जाने का क्या रास्ता होता उनके पास ? यदि वे स्वयं भी एक अनुसंधानकर्ता नहीं होतीं।

इस उपन्यास में कई और रास्ते हैं जो उपन्यास को द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका तक, 'आउशवित्ज़' तक ले जाने के लिए विश्वसनीय बनाते हैं।

यद्यपि नायिका उड़कर ही गयी होगी लेकिन उपन्यास में कोई उड़ान नहीं है, कि जिससे दृश्य छूट गए हों, तर्क छूट गए हों, संबंध छूट गए हों। जैसे इतना लंबा रास्ता चलकर ही तय किया गया हो।

उपन्यास की नायिका डॉ. प्रतीति सेन का सेमिनार, उपन्यास की कथा को भारत भूमि से निकालकर पोलैंड ले जाने का एक विश्वनीय माध्यम बनता है। तो कुछ अन्य रास्ते भी हैं जो उस कार्य-करण संबंध को पुष्ट करते हैं।

उपन्यास कि नायिका डॉ. प्रतीति सेन, सबीना से भारत में एक सेमिनार में मिलती है और फिर सबीना लौट जाती है अपने देश पोलैंड। सबीना की दोस्ती और सबीना के भीतर की वह अँधेरी-अधूरी दुनिया, जिसे प्रतीति सेन ने समझ लिया था, जिसे और समझना चाहती थीं। क्योंकि प्रतीति सेन और सबीना में बहुत कुछ 'कॉमन' है।

इधर प्रतीति सेन का टूटा हुआ प्रेम संबंध, उस टूटे संबंध से निकलने की कोशिश, छटपटाहट और न निकल पाने की घुटन। जिसके लिए जरूरी है कि वे उस जगह को कुछ दिन के लिए छोड़ दें। जिससे कि वे यादें जो दुःख, पीड़ा, निराशा, अकेलापन जाने क्या-क्या देती हैं, उससे निकल सकें। फिर उनके सुपरवाइजर शान्तनु पाल मित्रा का 'कॉन्फ़िलक्ट जोन' में काम करने की रुचि। यही सब तो वे रास्ते हैं जो उपन्यास को तर्क और विश्वसनीयता प्रदान करते हैं।

इस प्रेम-कथा और इतिहास की युद्ध कथा कहने में, कथा को बाँधें रखने में, कथाक्रम को साधने में गरिमा जी की काल-क्रमिकता कहीं भी खंडित नहीं होती है।

नायिका के निज के प्रेम, जीवन परिस्थितियों एवं उसके अतीत को कहने में, सबीना के प्रेम और जीवन परिस्थितियों को उचित एवं उपयुक्त स्थान देने में व अन्य पात्रों एवं घटनाओं को उपन्यास में उचित स्थान-क्रम देने में गरिमा श्रीवास्तव की शैली-भाषा तथा संवेदना ने पूरा साथ और सहयोग दिया है।

या कह सकते हैं कि इस उपन्यास में सबकी कहानी कहने भर का उचित स्थान है। सबकी कहानी कहने की संवेदना है। न अति, न अतिशय। न कम, न कमतर। सर्वांग और सम्पूर्ण है यह प्रेम कथा। जो इतिहास कथा कहने का जरिया बनती है।

गरिमा जी ने लगभग प्रत्येक वाक्य को या तो प्रश्न से ख़त्म किया है या प्रश्न से शुरू किया है। तब मुझे लगता है कि प्रश्नवाचकता इस उपन्यास की शैलीगत एक प्रमुख पहचान व विशेषता हो सकती है। जो अपने समय- समाज-सत्ता और हर सम्भव स्वयं से भी प्रश्न पूछती रहती है।

कथा आउशवित्ज़ पहुँचे कि उसके पहले ही सबीना अपने और अपने पति रेनाटा के ठंडे संबंध के बारे में और फिर उसके कारणों के बारे में बात करती है। वह कहती है- "रेनाटा के पास अपने परिवार का लहूलुहान इतिहास है, जिसके पन्ने उनके लिए कभी पुराने नहीं पड़े। अतीत को काँधे पर लादे हुए वर्तमान की राह पर हम झुकी पीठ और बोझिल कमर के साथ ही चल सकते हैं भविष्य की ओर दौड़ नहीं सकते।"

वह इतिहास है नाजियों द्वारा यहूदियों का जन संहार, जन-जन के संहार का इतिहास। जिसे पश्चिम के ताकतवर, सुपीरियर नस्लों, समुदायों व देशों द्वारा 'प्रपोगेंडा' कह कर उस महाविनाश और महाअपराध पर मिट्टी डालने की पूरी कोशिश की गई है। जिसके सबूत को मिटाने की कोशिश की गई है।

उपन्यास में प्रेम और युद्ध को ऐसे बुना गया है कि कौन-सी कथा कहना उपन्यासकार के लिए प्राथमिक है कौन-सी द्वितीयक, क़यास लगाना कठिन है।

शायद जो नायिका के भीतर का द्वन्द युद्ध है, वही बाहर के युद्ध की विभीषिका को कहने का साहस-संवेदना और दृष्टि देता है। या भीतर के तूफान से बचने की कोशिश में वह बाहर के एक भयानक तूफ़ान, जो कि गुज़र चुका है लेकिन उसके अवशेष ही इतने विनाशकारी हैं कि उसे अपने तूफान से निकलने का साहस मिलता है।

वे लिखती हैं- जीवन भर कितने ही शिकवे-शिकायतें चले आते हैं, पर उसका कोई अर्थ है घुटने मोड़कर अपने पूर्वजों के अकथ-अनंत दुःखों की स्मृति में प्रार्थना करते आउशवित्ज़ के सैकड़ों लोंगो के सामने? दर्द की राख से ही हमें दृष्टि मिलती है जब हम खुद को दर्द के सामने खड़ा कर डालते हैं-कभी न्यायाधीश नहीं बनते।"

अपने सुख के सम्मुख अन्य के सुख की बड़ी लकीर दुःख देती है। लेकिन अपने दुःख के सम्मुख बड़े दुःखों (जिसे सभ्यतागत कह सकते हैं) की लकीर उस दुःख को कम कर देती है। प्रतीति सेन ने अपने दुःखों के विरेचन के लिए यही पद्धति अपनायी है।

मैंने पहले ही कहा कि एक स्त्री के देखे में एक पुरुष के देखे में जो फ़र्क होता है (जो कि होता है) उसे गरिमा जी की इस रचना में भी देखा जा सकता है। युद्ध ने, घृणा ने, हिंसा ने, सांप्रदायिकता ने यदि सबसे अधिक किसी को रौंदा है वह है स्त्री की देह-आत्मा और अस्तित्व। पुरुषों के, देशों के घाव भर जाते हैं,नहीं भरते हैं तो केवल स्त्रियों के घाव।

उपन्यास में बिराजित सेन लौट जाता है अपनी पुरानी दुनिया में। नहीं लौट पाती तो द्रौपदी देवी, जो जीवन रक्षा के लिए बन जाती है रहमाना खातून। नहीं लौट पाती तो फातमा। अपने से अलग कर दी जाती है टिया।

उपन्यास में जगह-जगह बांग्ला भाषा के प्रयोग ने स्थानीयता को लादा नहीं है। न वैश्विकता ने स्थानीयता को दबाया है कहीं। दोनों ही संवेदनाएं और भाषाएं अपने-अपने को सहज भाव से व्यक्त करती हैं।

यद्यपि एक स्थान पर रहमाना खातून के मेल जब प्रतीति सेन पढ़ती हैं तो लगता है कि गरिमा जी के भीतर की वैचारिक स्त्री अपने को रोक नहीं पायी है लेकिन मैं कह सकती हूँ कि गरिमा श्रीवास्तव की भाषा में एक दृष्टिपूर्ण तरलता और सहजता है।

इस किताब को वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है और पेपरबैक संस्करण का मूल्य है 399 रुपये।

मुझे उनकी पाठक के बतौर पूरी उम्मीद है कि भारत, एशिया और वैश्विकता को गरिमा जी हिंदी में अधिक से अधिक दर्ज करेंगी।

(लेखिका एक कवि और संस्कृतिकर्मी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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