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ग्रामीण विकास का बजट क्या उम्मीदों पर खरा उतरेगा?

कोविड-19 महामारी से पैदा हुए ग्रामीण संकट को कम करने के लिए ख़र्च में वृद्धि होनी चाहिए थी, लेकिन महामारी के बाद के बजट में प्रचलित प्रवृत्ति इस अपेक्षा के मामले में खरा नहीं उतरती है।
ग्रामीण विकास का बजट क्या उम्मीदों पर खरा उतरेगा?

कोविड-19 महामारी और उसके परिणामस्वरूप लागू किए जा रहे नियमों के कारण रोज़गार और आजीविका को प्रभाव पड़ रहा है। मार्च 2020 में पहले लॉकडाउन की घोषणा के बाद शुरू हुए रिवर्स माइग्रेशन के परिणामस्वरूप, लाखों श्रमिक (मुख्य रूप से शहरी अनौपचारिक क्षेत्रों में काम करने वाले श्रमिक) अपने ग्रामीण क्षेत्रों में लौट गए, जिसने पहले से ही चरमरा रही ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अतिरिक्त श्रम का बोझ बढ़ा दिया। ग्रामीण क्षेत्र अभी भी बेरोज़गारी, आय में गिरावट और भयंकर गरीबी को झेल रहे हैं। इस स्थिति से निपटने के लिए, सरकार को 2020-21 और 2021-22 के दौरान कोविड-19 और उसके बाद के लॉकडाउन के कारण हुए नुकसान की भरपाई के लिए और समग्र अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए ग्रामीण क्षेत्र को मजबूत करने के लिए अतिरिक्त व्यय को बढ़ाने की तत्काल जरूरत थी।

ग्रामीण विकास विभाग के बजट में 2019-20 के मुक़ाबले कुल केंद्रीय बजट को 4.60 प्रतिशत से बढ़ाकर 2020-21 में 5.63 प्रतिशत किया गया था। ग्रामीण क्षेत्र की बढ़ती जरूरत को पूरा करने के लिए वृद्धि जारी रहने की उम्मीद थी, लेकिन 2021-22 के संशोधित अनुमानों (आरई) में इसमें गिरावट देखी गई है। यह और नीचे आ गया है और इस बजट को 3.50 प्रतिशत कर दिया गया है। ग्रामीण संकट को कम करने के लिए व्यय में वृद्धि करनी चाहिए थी, लेकिन प्रवृत्ति इस अपेक्षा को खारिज करने की दिखी है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के अनुपात में विभाग के खर्च में भी गिरावट आई है। 2022-23 के बीई में यह 0.54 प्रतिशत था, जो कि 2019-20 के बाद सबसे काफी कम है।

ग्रामीण रोज़गार के सतत पुनरुद्धार की जरूरत 

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा), जोकि मांग आधारित कार्यक्रम है, और यह अकुशल ग्रामीण मजदूरों को कम से कम सौ दिनों के वेतन संबंधित रोजगार की गारंटी देता है। 2020-21 के दौरान योजना के तहत काम के लिए आवेदन करने वाले 13.32 करोड़ लोगों में से 13.29 करोड़ को काम दिया गया था। 2021-22 में जनवरी के पहले सप्ताह तक 11.30 करोड़ लोगों ने काम के लिए आवेदन किया था, जिसमें से 11.22 करोड़ को काम दिया गया। योजना के तहत काम की मांग में रुझान को देखते हुए इस वित्तीय वर्ष के अंत तक काम की मांग करने वालों की संख्या में इजाफा होगा। योजना के लिए आवंटन पिछले वित्त वर्ष की तरह ही 73,000 करोड़ रुपये है। वित्त वर्ष 2021-22 में, जैसा कि प्रारंभिक आवंटन वर्ष के बीच में ही बजट खर्च हो गया था, तो अनुपूरक बजट के माध्यम से अतिरिक्त धनराशि प्रदान की गई थी, जिससे इसका बजट 98,000 करोड़ रुपये हो गया था। वर्तमान आवंटन 2021-22 के संशोधित अनुमान से 25.5 प्रतिशत कम है, भले ही मनरेगा के तहत दिया गया अनुदान हर साल काम की अधिक मांग, सामग्री और प्रशासनिक घटकों की लंबित देनदारियों और अकुशल श्रमिकों के वेतन के बकाया के कारण अपर्याप्त रह जाता है। दिसंबर 2021 तक वेतन बिलों की लंबित देनदारियां 3,655 करोड़ रुपए थी। एक तरफ जहां मनरेगा के तहत काम की मांग सबसे ज्यादा हो रही है, वहीं दूसरी तरफ आवंटन में कमी हो रही है।

सेंटर फॉर इकोनॉमिक डेटा एंड एनालिसिस, अशोका विश्वविद्यालय के एक हालिया अध्ययन से पता चलता है कि 100 दिनों के काम की गारंटी के बजाय, 2020 में अखिल भारतीय आधार पर पंजीकृत परिवारों को 2020-21 में औसतन सिर्फ 22 दिनों का रोजगार (राष्ट्रीय औसत) मिला था; जबकि सरकार का दावा है कि 2020-21 में योजना के तहत औसतन 51.52 दिन का काम दिया गया था। दिए गए काम के दिनों की संख्या की गणना में यह अंतर अलग मेथालोजिकल  अंतर के कारण है। पूर्व गणना मनरेगा के तहत पंजीकृत परिवारों के आधार पर की गई थी। इसके विपरीत, सरकार के उच्च दिनों के काम का दावा केवल उन परिवारों को ध्यान में रखते हुए किया जाता है, जिन्हे कम से कम एक दिन भी रोजगार मिला था। योजना के तहत मांग और आपूर्ति का यह बेमेल यह भी दर्शाता है कि योजना के तहत गारंटी के अनुसार 100 दिनों का काम प्रदान करने के लिए मनरेगा के तहत अधिक संसाधनों की जरूरत है।

यद्यपि योजना के प्रावधानों का पालन करते हुए केंद्र सरकार ने उपभोक्ता मूल्य सूचकांक-कृषि मजदूरों (सीपीआई-एएल) के आधार पर मनरेगा कार्य के लिए मजदूरी दरों को संशोधित किया था, फिर भी अकुशल श्रमिकों के लिए कानूनी न्यूनतम मजदूरी मनरेगा के तहत मजदूरी दर से काफी अधिक पाई जाती है। अधिकांश राज्यों में, अकुशल श्रमिकों के लिए कानूनी रूप से निर्धारित न्यूनतम मजदूरी मनरेगा मजदूरी से अधिक रही है, जबकि 12 राज्यों में, कानूनी न्यूनतम मजदूरी मनरेगा मजदूरी से 50-75 प्रतिशत अधिक थी।

मनरेगा में महिलाओं के लिए असंगत बजट

मनरेगा के तहत कुल सक्रिय श्रमिकों में से, महिला श्रमिकों की भागीदारी 2018-19 में 54.59 प्रतिशत थी, 2019-20 में यह 54.78 प्रतिशत थी और 2020-21 में यह 53.07 प्रतिशत थी। हालांकि, जेंडर बजट के विवरण 13 के भाग बी में 2022-23 के बीई में महिलाओं के लिए मनरेगा के तहत बजट का केवल 33 प्रतिशत  ही बताया गया है। मनरेगा के तहत महिलाओं के लिए आवंटन 26,000 करोड़ रुपये है, जबकि 2021-22 के आरई में यह 32,666.6 करोड़ रुयापे था। मनरेगा के काम में महिलाओं की अधिक भागीदारी को देखते हुए, जेंडर बजट विवरण में बताए गए आवंटन को बढ़ाने की जरूरत थी। 

ग्रामीण कनेक्टिविटी पर बढ़ा हुआ व्यय

प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना (पीएमजीएसवाई) के लिए बजट आवंटन 2021-22 के संशोधित अनुमान में 14,000 करोड़ रुपये से बढ़कर 2022-23 के बजट अनुमान में 19,000 करोड़ रुपये हो गया है, जो लगभग 35.7 प्रतिशत की वृद्धि है। बजट में यह विस्तार निस्संदेह ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामीण कनेक्टिविटी और रोजगार सृजन को बढ़ावा देगा। हालांकि, पीएमजीएसवाई कार्यक्रम नियमित रूप से काम में देरी का गवाह बनता जा रहा है जिससे रोजगार और आय सृजन और ग्रामीण कनेक्टिविटी में बाधा उत्पन्न होती है।

एक महत्वपूर्ण चिंता योजना के तहत उपलब्ध धन के पूर्ण इस्तेमाल से संबधित है। कई राज्य उपलब्ध कराए गए पीएमजीएसवाई बजट का इस्तेमाल नहीं कर सके हैं। हालांकि पीएमजीएसवाई एक नियमित चलाने वाला कार्यक्रम है, 15 जुलाई, 2021 तक पीएमजीएसवाई पहले चरण के तहत, आवंटन का लगभग 12.25 प्रतिशत बिना ख़र्च के रहा; दूसरे चरण में यह 26.5 प्रतिशत बिना ख़र्च के रहा; और तीसरे चरण में,यह  85.5 प्रतिशत बिना ख़र्च के रहा। प्रमुख राज्यों के बीच पीएमजीएसवाई के तहत निधि के इस्तेमाल में अंतरराज्यीय भिन्नता के संबंध में, पंजाब एकमात्र ऐसा राज्य था जिसने आवंटन का 80 प्रतिशत से अधिक का इस्तेमाल किया था। इसके विपरीत, आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, गुजरात, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल ने 2016-17 से 2021-22 की अवधि तक आवंटित धन का 60 प्रतिशत से भी कम इस्तेमाल किया। शेष प्रमुख राज्य आवंटित धन राशि का 60 प्रतिशत से 80 प्रतिशत तक ही इस्तेमाल कर पाए। 

ग्रामीण आवास

संसद में उठे एक प्रश्न के उत्तर में, कहा गया कि प्रधानमंत्री आवास योजना-ग्रामीण के तहत 2022 तक ग्रामीण भारत में कुल 2.95 करोड़ पक्के घरों के निर्माण का लक्ष्य रखा गया था। हालांकि, 2 दिसंबर, 2021 तक, इस लक्ष्य को हासिल करने में सिर्फ एक साल बचा है, जबकि अब तक 1.65 करोड़ घरों का ही निर्माण पूरा हुआ है। प्रधानमंत्री आवास योजना-ग्रामीण के तहत 2022-23 में अनुमानित बजट 20,000 करोड़ रुपये है, जो 2021-22 के संशोधित अनुमान से थोड़ा सा कम है। इस योजना को लागू करने के मामले में कुछ चिंताएं हैं जिसमें निर्माण की खराब गुणवत्ता और गलत तरीके से लाभार्थियों का बहिष्करण और उनको शामिल करना है। ऑडिट रिपोर्ट में बताया गया था कि आवास सॉफ्ट पोर्टल कुछ मामलों में निर्माण पूरा होने को दर्शाता है, लेकिन जब भौतिक निरीक्षण किया गया तो जमीन पर ऐसा नहीं मिलता है। 

पिछले दो वर्षों में, ग्रामीण अर्थव्यवस्था को अचानक मजदूरों, रोजगार और आय के नुकसान का सामना करना पड़ा है। अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए इन कार्यक्रमों के लिए राजकोषीय सहायता को बढ़ाने की आवश्यकता है। यह आगे चलकर रोजगार और आय को बढ़ावा देगा जो ग्रामीण आबादी की खपत और क्रय शक्ति को बढ़ा सकता है। बढ़ी हुई क्रय शक्ति से मध्यम और लघु उद्योगों द्वारा निर्मित प्राथमिक वस्तुओं और वस्तुओं की अधिक खपत होगी जिसके परिणामस्वरूप उच्च रोजगार और आय का सृजन होगा। इससे आर्थिक रिकवरी की राह पर चलने में मदद मिल सकती है।

संतोष वर्मा और अनीशा अनुस्तुपा सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस एकाउंटेबिलिटी के साथ काम करते हैं। उनके विचार निजी हैं।
 

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