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खेतिहर मज़दूरों का दर्द; बोले- मनरेगा में काम नहीं, अगर किसानों के घर भी खाने के लाले पड़े तो कहां जाएंगे!

“मज़दूर भी समझ रहे हैं कि यदि किसान के पास ही पैसा नहीं रहेगा तो उसके पास कहां से आएगा। इसीलिए, मज़दूर दिल्ली बार्डर स्थित किसानों के धरना-स्थलों पर हों या न हों, वह जहां-जहां संगठित हैं वहां-वहां नए कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसान आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं।”
छत्तीसगढ़ के राजसमंद ज़िले में कार्य करते हुए मनरेगा मज़दूर। फोटो प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए। साभार : शिरीष खरे 
छत्तीसगढ़ के राजसमंद ज़िले में कार्य करते हुए मनरेगा मज़दूर। फोटो प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए। साभार : शिरीष खरे 

"मनरेगा में हमें यह सरकार अब मुश्किल से बीस दिन ही काम दे रही है। जब हमने मनरेगा में काम करना शुरू किया था तो किसी साल पचास-साठ तो किसी साल अस्सी दिनों तक हमें अपने गांव में ही काम मिल जाता था। पर, हमें तो अपना गुज़ारा करने के लिए साल के सभी दिन काम चाहिए न! इसलिए, कुछ दिन हम अपने खेत और कुछ दिन बड़े किसानों के खेतों में मजूरी करते हैं। फिर भी पूरे साल काम नहीं मिलने से हमारा हाथ तंग ही रहता है। एक तो सरकार आजकल मनरेगा में काम दे नहीं रही है, वहीं अगर खेत मजूरी से भी पड़ता (आमदनी) न पड़े तो जीना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि, हम अपनी थोड़ी-सी ज़मीन पर थोड़ा-बहुत अन्न उगाते हैं। बाकी कुछ दिन बड़े किसानों के यहां खेत मजूरी करके खा-कमा लेते हैं। पर, कई बड़े किसान अब कह रहे हैं कि सरकार ने जो कानून बनाए हैं उनसे उन्हें ही खाने-कमाने के लाले पड़ जाएंगे। तो फिर हम कहां जाएंगे!"

यह चिंता है 'छत्तीसगढ़ श्रमिक मंच' से जुड़ीं दुर्ग जिले के झोला गांव की महिला मज़दूर रीना देशमुख की। पिछले दिनों दुर्ग में मज़दूरों का प्रांतीय प्रतिनिधि सम्मेलन आयोजित हुआ था। इसमें मांग की गई थी कि केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार मनरेगा के तहत सभी पंजीकृत मज़दूरों को सौ दिनों के काम की गारंटी सुनिश्चित करें। छत्तीसगढ़ में मनरेगा के अंतर्गत बीस लाख से अधिक पंजीकृत मज़दूर हैं। लेकिन, केंद्र द्वारा पिछले साल से इनके लिए पांच हज़ार करोड़ रुपए का बजट आबंटित नहीं हुआ है।

छत्तीसगढ़ के गरियाबंद ज़िले में एक खेतिहर मज़दूर परिवार। फोटो प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए। साभार : त्रिलोचन मानिकपुरी

देखा जाए तो यह केवल छत्तीसगढ़ के लाखों मज़दूरों की समस्या भर नहीं है। इस बारे में 'मनरेगा कल्याण संघ' के नेता राजकुमार गुप्ता बताते हैं, "पूरे देश के ग्रामीण मज़दूरों का यही हाल है। भारत में करोड़ों मज़दूर हैं जो खेतों में भी काम करते हैं और खेतों के साथ-साथ मनरेगा के तहत भी मज़दूरी करते हैं। इसमें एक से दो एकड़ वाले ऐसे छोटे किसानों की संख्या सबसे ज्यादा है जिन्हें मूलत: खेतिहर मज़दूर कहना ठीक रहेगा। क्योंकि, इन परिवारों को सालाना अपनी ज़रूरत पूरा करने के लिए आज की तारीख़ में कम-से-कम दो से सवा दो लाख रुपए तो चाहिए ही। तो यह न सिर्फ मनरेगा और न सिर्फ खेती से संभव है, बल्कि दोनों में पर्याप्त काम करते हुए संभव है। लेकिन, अब मनरेगा से मज़दूरी मिल नहीं पा रही है इसलिए मज़दूर भी समझ रहे हैं कि यदि किसान के पास ही पैसा नहीं रहेगा तो उसके पास कहां से आएगा। इसीलिए, मज़दूर दिल्ली बार्डर स्थित किसानों के धरना-स्थलों पर हों या न हों, वह जहां-जहां संगठित हैं वहां-वहां नए कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसान आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं।"

जाहिर है कि भारत जैसे कृषि-प्रधान देश में किसानों की सम्पन्नता और विपन्नता से ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था निर्धारित होती है। लिहाज़ा, खेतिहर मज़दूरों के अलावा बढ़ई, लुहार, कुंभार, दर्जी और पशुपालक परिवारों के भी आर्थिक हित किसानों की आमदनी से जुड़े हैं। यदि खेती से गांवों के किसानों को उनकी उपज का न्यूनतम मूल्य भी मिला तो परोक्ष रुप से इसका लाभ पूरे समुदाय को मिलेगा। इससे उलट यदि किसान को उसकी उपज का न्यूनतम मूल्य भी नसीब नहीं हुआ तो परोक्ष रूप से पूरे गांव के अन्य परिवारों की माली हालत तंग होगी।

यही वजह है कि 'मनरेगा कल्याण संघ' की तरह देश भर में कई मज़दूर संगठन किसानों द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी को क़ानूनी ज़ामा पहनाने की मांग का समर्थन कर रहे हैं। क्योंकि, इन संगठनों को लगता है कि यदि ऐसा हुआ तो इसका लाभ उस एक एकड़ वाले छोटे किसान को भी मिलेगा जो बड़े किसानों के खेतों में मज़दूरी करता है। लेकिन, प्रश्न है कि क्या बड़े किसानों की आमदनी बढ़ेगी तो खेती मज़दूरों की मज़दूरी बढ़ेगी? इस बारे में राजकुमार गुप्ता कहते हैं, "छत्तीसगढ़ में तो किसानों की आमदनी बढ़ने से मज़दूरी भी बढ़ी है। यहां कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार ने किसानों का क़र्ज़ माफ़ किया, राजीव गांधी किसान न्याय योजना के तहत सालाना दस हज़ार रुपए की प्रोत्साहन राशि दी और ढाई हज़ार रुपए न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बड़े पैमाने पर धान खरीदी की। इससे किसानों के पास काफी पैसा आया तो मज़दूरों की मज़दूरी भी 110-120 रुपए दिन से बढ़कर 150-160 रुपए दिन तक हो चुकी है।" लेकिन, इसके विपरीत यदि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम पर अपनी उपज बेचनी पड़ी तो खेतिहर मज़दूर और छोटे किसानों को नुकसान होगा। क्योंकि, उनके पास तो उपज रखने की ज़गह नहीं होती इसलिए औने-पौने दाम पर वे खुले बाज़ार में व्यापरियों को तुरंत अपनी उपज बेच देंगे। इस दौरान यदि उन्हें हज़ार से पांच सौ रुपए तक का नुकसान उठाना पड़ा तो एक खेतिहर मज़दूर या छोटे किसान के लिए यह बहुत बड़ी रकम होगी।

वहीं, कुछ जानकारों का मानना है कि खेतीबाड़ी पर जब संकट अत्याधिक गहराता है तो उसका सबसे बुरा असर छोटे किसान या खेतिहर मज़दूरों पर ही पड़ता है। इसका कारण यह है कि ऐसी स्थिति में बड़ा किसान तो किसी तरह अपना घाटा सहन कर लेता है, लेकिन घाटे से उभरने के मामले में कई बार एक या आधे एकड़ के छोटे किसानों को अपनी जमीन तक बेचनी पड़ती है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में करीब साढ़े 14 करोड़ खेतिहर मज़दूर हैं।

इस बारे में 'अखिल भारतीय किसान सभा' के नेता बादल सरोज बताते हैं कि यदि कृषि क़ानून लागू हुए तो छोटे किसानों पर इसकी मार पड़ने से वे अपनी ज़मीन बेचने के लिए और भी अधिक मज़बूर हो सकते हैं। वे कहते हैं, "नए क़ानून में इमरजेंसी को छोड़कर कॉर्पोरेट को उनकी अपनी गोदामों में असीमित अनाज़ रखने की छूट दी गई है। इसका मतलब यह है कि कॉर्पोरेट के गोदामों में भरपूर माल रहेगा। यानी जब उसके पास माल की कमी ही नहीं रहेगी तो स्पष्ट है कि किसानों से उपज खरीदने के मामले में कॉर्पोरेट की डीलिंग पॉवर भी काफी अधिक रहेगी। दूसरी तरफ़, अपनी फ़सल की सौदेबाज़ी के मामले में किसानों को डीलिंग पॉवर बेहद कम हो जाएगी। इस हाल हमें मालूम है कि बड़े और ज्यादातर छोटे किसान (खेतिहर मज़दूर) अपना माल कहीं रख नहीं रख पाते हैं। इसलिए, वे तुरंत बहुत सस्ती दर पर कॉर्पोरेट को अपना माल बेचने के लिए मज़बूर होंगे।"

इसी तरह, कुछ जानकार आंदोलन में बड़े किसानों के साथ मज़दूरों के समर्थन के पीछे नए कृषि क़ानूनों के स्वरूप को भी एक कारण के तौर पर देख रहे हैं। इसकी वजह यह है कि नए क़ानूनों से बड़े, मझौले और छोटे किसान से लेकर खेतिहर मज़दूर तक सभी कहीं-कहीं सीधे-सीधे प्रभावित होंगे। इस बारे में कृषि नीतियों की अच्छी समझ रखने वाले विनीत तिवारी बताते हैं कि ठेका आधारित खेती के मामले में तो किसान चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, डीलिंग के मामले में कोर्पोरेट से तो बड़ा नहीं हो सकता है। वे कहते हैं, "मान लीजिए किसी भी कारण से कॉर्पोरेट ने किसान के मांगे दाम पर उसका अनाज़ खरीदने से मना कर दिया तो हर श्रेणी के किसान के लिए कॉर्पोरेट लॉबी के ख़िलाफ़ कानूनी लड़ाई लड़ना आसान नहीं रह जाएगा। कहने का मतलब यह है कि नए क़ानून छोटे किसान या खेतिहर मज़दूरों को भी कहीं से राहत नहीं दे रहे हैं। इसलिए ख़ासकर किसी संगठन से जुड़े मज़दूरों में इस लंबे आंदोलन के कारण यह चेतना आ रही है कि केंद्र सरकार के इन तीन क़ानूनों के मुद्दे पर उसे बड़े किसानों के साथ क्यों खड़ा होना चाहिए।"

हालांकि, एक राजनीतिक तबका ऐसा भी है जो किसान आंदोलन में बड़े किसानों के विरुद्ध खेतिहर मज़दूरों को खड़ा कर रहा है। ऐसे लोगों की यह दलील है कि बड़े किसान और खेतिहर मज़दूर परस्पर एक-दूसरे के विरुद्ध होते हैं और कई बार बड़ा किसान खेतिहर मज़दूर का शोषण करता है। लेकिन, यदि इस दलील को ठेका आधारित कृषि के परिपेक्ष्य में देखें तो स्थिति कहीं बदतर दिखाई देती है। इस बारे में 'अखिल भारतीय खेतिहर मज़दूर संघ' से जुड़े विक्रम सिंह कहते हैं, "जब सरकार ने क़ानून बनाया है तो वह चाहेगी कि इसे अच्छी तरह से लागू भी कराया जाए। ऐसे में सरकार ठेका अनुबंध आधारित कृषि को बढ़ावा देने के लिए बीज, खाद-उर्वरक और बिजली पर मुहैया सहायता राशि में और अधिक कटौती करती जाएगी। ऐसे में जब किसान के लिए खेती और अधिक मंहगी होगी तो छोटे से छोटा किसान मजबूर होकर कॉर्पोरेट के साथ अनुबंध करेगा। अब हर कॉर्पोरेट चाहेगा कि खेती में अधिकतम लाभ अर्जित हो। तब वह भारी-भरकम मशीनों का भी इस्तेमाल करेगा। ऐसी स्थिति में बड़ी संख्या में खेतिहर मज़दूर खाली हाथ हो जाएंगे।"

स्पष्ट है कि ठेका आधारित कृषि कार्यों में जब मशीनीकरण को बढ़ावा मिलेगा तो यह कहना मुश्किल होगा कि किसी मज़दूर को साल में कितने दिन काम मिलेगा। खेत में फ़सल की सिंचाई से लेकर कटाई तक जब विशालकाय मशीनों का चलन शुरू होगा तो खेती का सीजन होने पर भी मज़दूरों के लिए मज़दूरी का टोटा पड़ जाएगा। क्योंकि, ख़ासकर फ़सलों की रुपाई और कटाई के समय खेतिहर मज़दूर को सबसे ज्यादा मज़दूरी मिलती है। लेकिन, कॉर्पोरेट के साथ अनुबंध होने पर ठेका आधारित कृषि में यह कहना मुश्किल है कि आखिर खेतिहर मज़दूरों की मज़दूरी कितनी रह जाएगी। इस बारे में विनीत तिवारी कहते हैं, "रुपाई के समय तो बिहार और झारखंड से खासी तादाद में खेतिहर मज़दूर पंजाब तथा हरियाणा में मज़दूरी करने आते हैं। लेकिन, यदि निकट भविष्य में कार्पोरेट द्वारा रुपाई के लिए तक भारत में मशीनें आयतित हुईं तो कई राज्यों से पलायन करने वाले खेतिहर मज़दूरों का क्या होगा? दरअसल, अपने यहां छोटा किसान भी खेतिहर मज़दूर है जो बड़े किसानों के खेतों में काम करने के लिए पंजाब और हरियाणा जैसे अनाज के सरप्लस उत्पादन वाले क्षेत्रों में हर साल पलायन करता है। यहां सीजन के समय उसे 400 से 600 रुपए दिन तक अच्छी मज़दूरी मिलती है। यही वजह है कि पूरे किसान आंदोलन में भले ही आपको बड़े किसान नज़र आएं लेकिन खेतीबाड़ी की मौजूदा प्रणाली में छोटे किसानों से लेकर खेतिहर मज़दूरों का पूरा कारवां जुड़ा है।"

दूसरी तरफ़, विक्रम सिंह भी यह मानते हैं कि ठेका आधारित कृषि में खेतिहर मजदूरों के लिए मज़दूरी के दिन कम हो जाएंगे। वे कहते हैं, "कॉर्पोरेट तो ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़ा कमाने के लिए उन फ़सलों को उगाने पर जोर दे सकता है जिसमें उसे न्यूनतम मज़दूरी देनी पड़े। उदाहरण के लिए, यदि धान उगाने में उसे ज्यादा मज़दूरों को मज़दूरी देनी पड़ेगी तो वह धान की बजाय दूसरी फ़सल बोना चाहेगा।"

(शिरीष खरे स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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