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बंटवारे की याद दिलाकर पीएम मोदी हिंदुस्तान के सामाजिक ताने-बाने को नष्ट करने पर आमादा दिखते हैं!

हमें बंटवारे की बुरी यादों को याद रखने की ज़रूरत है। हमें ख़ुद को यह याद दिलाने की ज़रूरत है कि सैकड़ों सालों में सहिष्णुता की हिंदुस्तानी संस्कृति का निर्माण हुआ है। इसे नष्ट करने की कोशिशों को भारत ने कभी कामयाब नहीं होने दिया।
 पीएम मोदी

स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो कहा, अगर वे उसे अभी से दो साल बाद कहते तो उनके कटु आलोचक भी ये मानते कि उन्होंने 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए भाजपा के चुनाव प्रचार अभियान का आगाज कर दिया है। लेकिन उन्होंने ये बातें तब कहीं जब उनके कार्यकाल का आधा वक्त भी नहीं गुजरा। इसके बावजूद अगर उन्होंने ये भाषण दिया तो समझा जा सकता है कि उन्हें पता है कि वे और उनकी पार्टी मुश्किल स्थिति में हैं।

जो आर्थिक वादे उन्होंने किए थे, वे पूरे नहीं हुए। उनकी सरकार ने जल्दबाजी में जो आर्थिक सुधार करने की कोशिश की, उनमें बहुतों का उलटा असर हुआ। उन्होंने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढ़ाने से कभी परहेज नहीं किया। नागरिक प्रतिरोधों को कुचला गया और नागरिकों की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों को तार—तार किया गया। इन उपायों से वे सात सालों तक अपनी सुपरमैन की छवि बनाने और उसे मजबूत बनाने की लगातार कोशिश में लगे रहे।

इंडिया टुडे ने 'मूड ऑफ दि नेशन 2021' (देश की मनोदशा 2021) पोल में बताया है कि पिछले एक साल में बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पसंद करने वालों की संख्या 66 प्रतिशत से घटकर 24 प्रतिशत रह गई है।

लेकिन मोदी एक योद्धा हैं और वे आसानी से हार मानने को तैयार नहीं हैं। यही संदेश उन्होंने देश को दिया जब उन्होंने स्वतंत्रता दिवस के दिन 14 अगस्त को 'विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस' मनाने को कहा। यह घोषणा आश्चर्यजनक है। 1947 में मैं आठ वर्ष का था। 15 अगस्त जो मेरी सबसे अच्छी याद हो सकती थी, वह हत्याओं और विस्थापन की वजह से एक ऐसी याद बन गई जिसे याद करने से मैं पूरी जिंदगी अपने को बचाता रहा। फिर मोदी मुझे क्यों ये वापस याद दिला रहे हैं?

सरकार ने इस अधिसूचना के समर्थन में इतना ही कहा है कि देश को विभाजन की पीड़ा और हिंसा को याद रखना जरूरी है। लेकिन भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने इस बारे में अधिक स्पष्टता दिखाई। नड्डा ने कहा, 'विभाजन से उत्पन्न परिस्थितियों ने तुष्टिकरण की राजनीति और नकारात्मक शक्तियों को हावी होने का मौका दिया।'

नड्डा की बातों से मोदी के मकसद से भी ज्यादा जानकारी मिलती है। इससे हमें उस बुरी सोच का पता चलता है जिसमें बातचीत को कायरता समझ लिया जाता है और समझौते को आत्मसमर्पण। इससे हमें यह भी पता चलता है कि मोदी इन दोनों से बचने के लिए प्रतिबद्ध है और ऐसे में अगले तीन साल का उनकी सरकार का कार्यकाल कितना भयावह होने वाला है।

बंटवारे ने भारत की स्वतंत्रता को एक ऐसी घटना में बदल दिया जिसकी यादें सिर्फ डराने वाली ही हैं। ऐसा इसलिए नहीं हुआ था कि महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू ने कोई कमजोरी दिखाई थी या किसी का तुष्टिकरण किया था। इसके उलट सच यह है कि उन्हें इस तरह की राजनीति का कोई अनुभव नहीं था। कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों निर्णय लेने से बचते रहे और दोनों ने एक—दूसरे से छोटी लड़ाइयां लड़ीं। लेकिन जब सही समझौतों का अवसर आया तो सत्ता के लोभ से काम करने वाले लोगों ने इन अवसरों का फायदा उठाया।

भारत के पिछले दो प्रधानमंत्रियों अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह ने यह समझा था कि बंटवारे ने पूरे उपमहाद्वीप में जो दर्द पैदा किया है, उसे कम करने की जरूरत है। इन दोनों ने इस दिशा में काम भी किए। लेकिन पिछले सात सालों में मोदी ने वह सब करने का काम किया है, जिससे इन दोनों प्रधानमंत्रियों के किए—धरे पर पानी फिर जाए। आज जब अफगानिस्तान की सत्ता में तालिबान की वापसी हो गई है और चीन तथा पाकिस्तान से संबंध सबसे बुरे दौर में है। ऐसे में कहा जा सकता है कि बंटवारे के बाद जो भारत हमें मिला था, आज उस पर भी खतरा है।

फिर क्या करना चाहिए। मुझे भी लगता है कि 'विभाजन की विभीषिका' को एक बार फिर से याद करें ताकि हमें यह समझ में आ जाए कि फिर से कभी इसे याद नहीं करना है।

पहली गलतफहमी तो यही है कि भारत के मुसलमान अपने लिए एक अलग देश बनाने की मांग कर रहे थे। दरअसल, बंटवारा मुस्लिम लीग का मूल मकसद नहीं था। जिस दिन से जिन्ना 1916 में नए बने मुस्लिम लीग के अध्यक्ष बनने के लिए राजी हुए थे, उस दिन से ही उनका लक्ष्य यह था कि उन्हें अल्पसंख्यकों के अधिकारों की गारंटी दी जाए। सभी विधायिकाओं में मुस्लिमों को एक—तिहाई सीटें मिलें और यह आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों पर आधारित हों। यही वजह थी कि मुस्लिम लीग के अध्यक्ष चुने जाने के बाद भी वे कांग्रेस के सदस्य बने रहे।

24 साल बाद उनकी पार्टी ने मार्च, 1940 में लाहौर प्रस्ताव पारित किया। उसी प्रस्ताव को हर कोई 'विभाजन प्रस्ताव' मानता है। इसमें भी यही बात कही गई थी कि बड़े भारतीय फेडरेशन के अंदर ही आंशिक स्वतंत्र मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र बने।

ऐसा न सिर्फ जिन्ना चाहते थे बल्कि उस वक्त दिल्ली तक अपना विस्तार रखने वाला प्रांत पंजाब और बंगाल प्रांत की भी यही इच्छा थी।

पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी की सरकार थी। यह पार्टी अकालियों और कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार चला रही थी। इसका नेतृत्व अपनी आखिरी सांस तक सर सिकंदर हयात खान करते रहे। वे लगातार बंटवारे का विरोध करते थे। क्योंकि उन्हें लगता था कि इससे पंजाब और यूनियनिस्ट पार्टी में खलल पड़ता और वे इसे स्वीकार करने को नहीं तैयार थे। हालांकि, मुस्लिमों के लिए आरक्षित क्षेत्रों में मुस्लिम लीग ने अपना विस्तार किया था लेकिन पूरे प्रांत की मुख्य पार्टी यूनियनिस्ट ही बनी रही।

बंगाल में बंटवारे का और तेज विरोध हो रहा था। इसके प्रधानमंत्री एच.एस. सुहारवर्दी मुस्लिम लीग के बड़े नेता थे। वे जिन्ना की उस सोच के समर्थक थे जिसमें भारत ऐसा कंफेडरेशन बनता जिसमें पंजाब और बंगाल मुस्लिम प्रशासित क्षेत्रों का बड़ा हिस्सा होता। जब लॉर्ड माउंटबेटन ने अप्रैल, 1947 में बंटवारे की अंतरिम योजना पेश की तो उसमें पंजाब और बंगाल दोनों को बांटने की बात की गई थी। सुहारवर्दी ने इसका कड़ा विरोध किया और उन्होंने स्वतंत्र एकीकृत बंगाल के गठन का प्रस्ताव दिया। 27 अप्रैल को दिल्ली में उन्होंने एक जोरदार भाषण दिया, उसमें उन्होंने कहा:

'एक पल के लिए ठहरकर हमें यह विचार करना चाहिए कि क्या होगा अगर बंगाल अविभाजित रहेगा। यह एक महान देश होगा। वास्तव में सबसे अमीर और भारत में सबसे समृद्ध। यह अपने लोगों को उच्च स्तर का जीवन देने में सक्षम होगा, जहां के अधिकांश लोग अपना पूरा विकास कर पाएंगे।'

उनकी बातों में 'भारत में सबसे समृद्ध' सबसे महत्वपूर्ण बात है।

अगर उनकी जुबान नहीं फिसली तो सुहारवर्दी ने अलग बंगाल के गठन का प्रस्ताव नहीं दिया। वे एक अविभाजित बंगाल चाहते थे जो उस समय तक अपरिभाषित भारतीय फेडरेशन का हिस्सा हो। इसमें एक और महत्पूर्ण बात यह है कि उनके प्रस्ताव की आलोचना कांग्रेस में भी नहीं हुई। बंगाल में शरत चंद्र बोस और किरन शंकर रॉय जैसे कांग्रेसी नेताओं को इस प्रस्ताव में दम दिखा। कांग्रेस ने इसकी आलोचना तब शुरू की जब बंगाल के गवर्नर सर फ्रेडरिक बरो ने इसकी व्याख्या यह कहते हुए की कि इसमें बंगाल को एक अलग डोमिनियन के रूप में गठित करने की बात है और अंग्रेजों के जाने के बाद भारत के तीन हिस्से होंगे।

तो फिर ऐसा क्या हुआ जिसकी वजह से हिंसा की शुरुआत हुई?

संक्षेप में इसका उत्तर है 'डायरेक्ट एक्शन' यानी सीधी कार्रवाई की बात। इसके तहत नस्ली आधार पर हत्याओं का दौर शुरू हुआ। पाकिस्तान बनाने के लिए इसकी शुरुआत पूरी तरह से कट्टर हो चुकी मुस्लिम लीग ने की। इसके लिए इसने मुस्लिम लीग नेशनल गार्ड को अपना औजार बनाया। इसकी शुरुआत लीग के युवा विंग के तौर पर 1931 में हुई थी। लेकिन दूसरे जानलेवा लक्ष्यों को पूरा करने के लिए इसमें 1946 में लीग की 'कमिटि ऑफ एक्शन' बैठक से नई जान फूंकी गई।

16 अगस्त, 1946 को इसने कलकत्ता में योजना बनाकर हिंदुओं की हत्या शुरू की। उस वक्त इसे 'मुस्लिम गार्ड' कहा जाने लगा था। इसके 22,000 सदस्य थे। कलकत्ता में 'डायरेक्ट एक्शन' ने कट्टरपंथियों के कार्यों को पूरा किया और इससे हिंदुओं में भी गुस्सा बढ़ा और हिंदुओं की तरफ से बदले की शुरुआत हो गई। 4,000 से अधिक लोगों की जान गई। एक साल बाद जो होने वाला था, उसकी बानगी दिख गई थी। हिंदू और मुस्लिम दोनों शहर के सुरक्षित क्षेत्रों में पलायन करने लगे।

इसके बाद के महीनों में 'डायरेक्ट एक्शन' का फैलाव एनडब्ल्यूएफपी और पंजाब में हो गया। इसका परिणाम यह हुआ कि रावलपिंडी में सिखों का संगठित नरसंहार हुआ। दिसंबर तक इसने एनडब्ल्यूएफपी और उत्तरी पंजाब के सभी हिंदू और सिख कारोबारियों और भू—स्वामियों को पूर्वी पंजाब, दिल्ली और कश्मीर के मुजफ्फराबाद भागने को मजबूर कर दिया था। अक्टूबर, 1946 तक 'डायरेक्ट एक्शन' बंगाल के नोआखली तक फैल गया और दिसंबर तक पंजाब के बचे हुए हिस्से तक यह पहुंच गया।

कानून—व्यवस्था खत्म हो जाने की वजह से पुलिस और निचले स्तर की नौकरशाही में सांप्रदायिकता बढ़ गई। इसकी वजह से उस वक्त की यूनियनिस्ट—अकाली—कांग्रेस सरकार को मार्च, 1947 में मजबूर होकर इस्तीफा देना पड़ा। इस सरकार का नेतृत्व उस वक्त सर सिकंदर हयात खान के बेटे खिज्र हयात खान कर रहे थे। कुछ हफ्तों के बाद, 'डायरेक्ट एक्शन' ने अपना लक्ष्य तब हासिल कर लिया जब कांग्रेस ने अनिच्छा से ही सही भारत के बंटवारे के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। कांग्रेस ने इसे स्वीकार करते हुए यह कहा था कि वह ऐसा इसलिए कर रही है ताकि 'सांप्रदायिकता का जहर देश के बचे हुए हिस्से में न फैले और देश का सामाजिक ताना—बाना बिखर न जाए।'

इसलिए यह कहने की पर्याप्त वजहें हैं कि सांप्रदायिक हिंसा शुरू करने के लिए मुस्लिम लीग को जिम्मेदार माना जा सकता है, जिसकी वजह से अगले 12 महीने में भारत तार—तार हो गया। लेकिन इसके लिए आम मुसलमानों को जिम्मेदार मानने की कोई वजह नहीं दिखती। 'डायरेक्ट एक्शन' का मकसद यह था कि कांग्रेस को मुसलमानों का जो समर्थन हासिल था, उसे तोड़ा जा सका।

ऐसा करने के लिए लीग के अंदर के कट्टरपंथियों ने इंसानी फितरत की दो खामियों लालच और वासना को बढ़ावा देने का काम किया।

बंगाल का नोआखली एकमात्र ऐसा जिला था जिसने पंजाब की तरह हिंदुओं की संगठित हत्याओं का दौर देखा। इसकी शुरुआत एक विधायक गुलाम सरवर हुसैनी ने की थी। उनका परिवार एक ऐसे तीर्थस्थल की देखरेख करता था जहां पूजा करने हिंदू और मुस्लिम दोनों आते थे। हुसैनी मुस्लिम लीग में नहीं थे और जनवरी, 1946 में लीग के उम्मीदवार से ही हारे थे। उन्होंने इस उम्मीदवार को पछाड़ने के लिए अतिवादिता का रास्ता चुना ताकि लोगों का समर्थन उन्हें मिले। इसलिए उन्होंने कलकत्ता में 'डायरेक्ट एक्शन डे' के दिन मुस्लिमों की हत्या का बदला लेने की बात कही। उन्होंने लोगों को यह लालच दिया कि ऐसा करके वे जमीन और दुकानों पर 'कब्जा' जमा सकेंगे और उन्हें औरतें भी मिलेंगी। इस क्षेत्र की अधिकांश दुकानें और जमीन हिंदुओं के पास थीं।

पंजाब में भी बंटवारे के वक्त हिंसा की मुख्य वजह लालच थी। लेकिन इसे बढ़ाने का काम तेज गुस्से ने भी किया था। यह गुस्सा मुख्य तौर पर सिखों में था। उन्हें लगता था कि जिन पड़ोसियों के साथ उन्होंने जिंदगी गुजारी है, उन्होंने उनके साथ धोखा किया है।

इसके लिए अंग्रेज सरकार काफी हद तक जिम्मेदार थी। लंदन में गुपचुप तरीके से लिए गए उसके निर्णय की वजह से ही बंटवारे को स्वीकार करना मजबूरी बन गया था और रावी नदी के साथ—साथ सीमा तय करने की बात सामने आई थी।

जब पंजाब के गवर्नर सर इवान जेनकिंस को इस निर्णय के बारे में बताया गया तो उन्होंने वायसराय को गुस्से से भरा एक पत्र लिखा। उन्होंने इस बात की भीख मांगी कि लंदन अपना निर्णय बदले और सीमा चेनाब के साथ तय की जाए। उन्होंने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि रावी के साथ सीमा तय करने से पंजाब के 50 प्रतिशत सिख पाकिस्तान में चले जाएंगे। जबकि अकालियों ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वे भारत में रहना चाहते हैं।

इससे लाखों की संख्या में सिख अपनी धरती छोड़ने को मजबूर होंगे और पूर्वी पंजाब में शरणार्थी के तौर पर पलायन करने को मजबूर हो जाएंगे। सिख एक लड़ाका समाज रहा है। जिसका साम्राज्य एक सदी पहले तक दिल्ली से लेकर खैबर पास तक फैला हुआ था। ऐसे में यह स्वाभाविक ही है कि वे इस निर्णय के खिलाफ बगावत करेंगे। उन्होंने यह भी बताया कि इसके बाद जो हिंसा होगी, उसे काबू करना नई सरकार के वश में नहीं होगा।

वहीं चेनाब के साथ सीमा तय करने पर 90 प्रतिशत सिख भारत में ही रहेंगे। इससे विस्थापन काफी कम होगा और सेना के साथ पुलिस के लिए यह संभव होगा कि वे किसी गड़बड़ को काबू में कर सकें। लेकिन एटली की हाल ही में चुनी गई सरकार कॉमनवेल्थ रिलेशंस ऑफिस के इशारे पर काम कर रही थी और चाहती थी कि पूरा पंजाब पाकिस्तान में रहे। यही वजह थी कि वे पंजाब का कम से कम हिस्सा भारत को देना चाह रहे थे और वे रावी के साथ को ही सीमा बनाने पर अड़े रहे।

जेनकिंस की चेतावनी बिल्कुल सही साबित हुई। 1947 में अविभाजित पंजाब की कुल आबादी में सिखों की हिस्सेदारी 18 प्रतिशत थी। लेकिन उनके पास 38 प्रतिशत जमीन थी और कुल भूमि राजस्व का 50 प्रतिशत वे ही देते थे। 1857 में उन्होंने अंग्रेजी सरकार को दिल्ली को वापस पाने में मदद की थी। 1914 और 1940 में उन्होंने अपने बेटों को ब्रिटेन की तरफ से जर्मनी के खिलाफ लड़ने को भेजा था। ऐसे में यह अंदाज लगााया जा सकता है कि जब उन्हें बंटवारे की इस योजना का पता चला होगा तो उन्होंने कितना ठगा हुआ महसूस किया होगा।

अकालियों ने जिन्ना की हत्या करने की साजिश जल्दबाजी में की। इसका पर्दाफाश पुलिस ने तुरंत ही कर दिया। मास्टर तारा सिंह, गियानी करतार सिंह और अधिकांश अकाली नेता जेल भेज दिए गए। इसकी वजह से सिख समाज, जिसमें अधिकांश किसान थे, उनके पास कोई नेता नहीं रहा और उनका गुस्सा बढ़ता गया।

ऐसे में जब उन्हें यह खबर मिली कि उनके मुस्लिम पड़ोसी उनकी जमीन के टुकड़ों को आपस में यह मानकर बंटवारा कर रहे हैं कि सिख या तो मारे जाएंगे या भाग जाएंगे, तो उनका गुस्सा और बढ़ गया। इसके बाद हत्याओं का दौर शुरू हो गया।

लगातार दो सरकारों ने पंजाब में हिंसा रोकने की कोशिश में पूरी आबादी की अदला—बदली की योजना बनाई। लेकिन इससे उत्तराधिकार को लेकर संकट न सिर्फ सिखों में पैदा हुआ बल्कि मुस्लिमों में भी हुआ।

इनमें से अधिकांश अपनी इच्छा से गए। उदाहरण के तौर 1980 और 1990 के दशक में पाकिस्तान के मशहूर गायक रहे तुफैल नियाजी का परिवार अमृतसर के हरमंदिर साहिब में कीर्तन गाया करता था। वे पीढ़ियों से ये काम कर रहे थे और कहीं जाना नहीं चाहते थे। लेकन आबादी की अदला—बदली के निर्णय के बाद उनके पास यहां रहने के लिए हिंदू या सिख बनने का ही विकल्प बचा। जो उन्होंने नहीं किया और मजबूरी में उन्हें भारत छोड़कर जाना पड़ा।

वे अकेले पीड़ित नहीं थे। उदाहरण के तौर पर करनाल में मुस्लिम राजपूतों की बड़ी आबादी थी। यहां कई मस्जिद और मदरसे थे और इस्लामिक छात्रवृत्ति की परंपरा थी। आज यह कहीं स्मृति में नहीं है। कुछ टूटी मस्जिद दिखती हैं। जिनके मकसद को भी भूला दिया गया है।

पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस को 'विभाजन विभीषिका दिवस' के तौर पर मनाने पर जितना मैं विचार करता हूं, उतना ही मुझे लगता है कि इसे याद करने की जरूरत नहीं है। ताकि हम अतीत की गलतियों को फिर से नहीं दोहरा सकें। हमें न तो इसमें भागीदार बनना है और न ही ऐसा होने देना है। भारत ने तीन सहस्राब्दियों में विभिन्न धर्मों को अपनाते हुए सहिष्णु संस्कृति बनाई है और इसमें नए आए लोगों, विचारों और मान्यताओं के साथ रहने की सुविधा है।

सबके साथ सामंजस्य बनाकर चलने वाली हमारी सभ्यता घायल जरूर हुई है लेकिन मोदी इसे बर्बाद करने का कोई अवसर नही छोड़ रहे। उन्हें सफल नहीं होने देना है।

(दिल्ली में रहने वाले प्रेम शंकर झा वरिष्ठ पत्रकार हैं और संपादक रहे हैं। उनका यह लेख पहले दि वायर में मूल रूप से अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ था। लेखक की अनुमति से हिंदी के पाठकों के लिए यह लेख यहां प्रकाशित किया जा रहा है।)


अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख का  लिंक

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