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कोविड-19 : महामारी का इस्तेमाल सारी ताक़त को हड़पने के लिए हो रहा है

पहले से ही मौजूद केंद्रीकृत प्रणाली मोदी के अधीन काम कर रही थी लेकिन अब यह लगभग एकिक और अधिक शक्तिशाली हो गई है, जो राज्य और स्थानीय सरकारों पर अपनी हुकूमत जता रही है।
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Image Courtesy: narendramodi.in

चुपचाप और बिना किसी सुगबुगाहट के, भारत में राजनीतिक शक्ति अब गृह मंत्रालय और वर्तमान प्रधान मंत्री कार्यालय के इर्द-गिर्द केंद्रित हो गई है। यह कोविड-19 महामारी से लड़ने के नाम पर हुआ है और इसलिए इस पर ज्यादा टिप्पणी नहीं की जा रही है। इसका मतलब न केवल अन्य केंद्रीय मंत्रालयों के अधिकारों और जिम्मेदारियों में कमी का आना है, बल्कि इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि राज्य सरकारों और प्रशासन के भीतर भी इस कमी को महसूस किया जा सकता है। इसने भारत जैसे विविध देश में सबको एक ही डंडे से हाँकने की रणनीति को लागू करने से महामारी के खिलाफ लड़ाई को कमज़ोर कर दिया है। कुछ जिलों में कोविड -19 संक्रमण के कुछ या बिलकुल न के बराबर मामले है और कुछ जिलों में सेंकड़ों मामले हैं, लेकिन मोदी सरकार ने सभी में एक ही तरह का सख्त लॉकडाउन थोप दिया गया है। आवश्यक व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (पीपीई) और अन्य उपकरणों की खरीद अधर में लटकी हुई है। और, सबसे खराब जो बात है वह यह की  एक अस्पष्ट और बिना सोची समझी रणनीति ’पूरे देश की नौकरशाही के लिए एक मानक संचालन प्रक्रिया बन गई है।

क़ानूनी मंज़ूरी : शुरूआती गड़बड़ी

पहला मामला जनवरी के अंत में पाए जाने के बाद के शुरुआती हफ्तों में, कुछ राज्यों ने बढ़ते संकट से निपटने के लिए ब्रिटिश युग में बने ‘महामारी रोग अधिनियम (1897) को लागू कर दिया, साथ ही बिना इज़ाजत के इकट्ठा होने पर आपराधिक प्रक्रिया संहिता के सामान्य प्रावधानों के तहत भी प्रतिबंध लगा दिया। मोदी सरकार ने खुद इस कानून को लागू करने की सलाह दी थी। कुछ विशेषज्ञों ने इस अधिनियम को एक औपनिवेशिक शासन द्वारा पारित और सबसे कठोर कानूनों में से एक बताया है। इस कानून के केवल चार खंड हैं, और यदि आप उन्हें पढ़ते हैं तो आप समझ जाएंगे कि क्यों; यह कानून राज्य सरकारों को महामारी से निपटने के  नाम पर असीम ताक़त देता है। इस कानून में लोगों को गिरफ्तार करना, उन्हें अलग-थलग करना, अपनी इच्छा के मुताबिक बल का प्रयोग करना, संपत्ति को नष्ट करना जैसी निरंकुश शक्तियां शामिल हैं। राज्यों द्वारा इस अधिनियम के तहत बनाए गए रेगुलेशन जारी किए गए थे और किस बात की अनुमति है किसकी नहीं है के मामले में कई कदम आगे निकल गए।

हालांकि, राज्य स्तर के ये शुरवाती कदम अंधेरे में कुछ टटोलने जैसे थे। मोदी सरकार ने भी डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट (2005) को लागू कर दिया था, लेकिन जादू की छड़ी को केंद्रित करने वाली शक्ति के रूप में इसकी क्षमता की शायद यह शुरुवात थी। इसे तब एक सच्चा ब्रह्मास्त्र (अंतिम हथियार) बताया गया, जब मोदी ने 24 मार्च को अपनी विशिष्ट शैली और नाटकीय अंदाज़ (नोटबंदी और सर्जिकल स्ट्राइक याद रखें) में देशव्यापी तालाबंदी की घोषणा की थी। देश के 130 करोड़ की आबादी को केवल चार घंटे का नोटिस देते हुए, भारत को एक बड़ी जेल बना दिया गया, जिसमें केवल आवश्यक सेवाओं की अनुमति थी, और सामाजिक दूरी इस धरती का नया कानून बन गया।

डिज़ास्टर मैनेजमेंट एक्ट

इस अधिनियम को, हालांकि पहले मोदी सरकार द्वारा लागू किया गया था, लेकिन यह 24 मार्च के बाद सबसे आगे आ गया, केंद्र सरकार ने सभी राज्य सरकारों और स्थानीय निकायों को आदेश जारी किया कि वे इस कानून द्वारा लॉकडाउन के निर्देशों का पालन करने के लिए बाध्य हैं। एक ही झटके में, महामारी से निपटने की सभी शक्तियां खिसककर एक ही संस्था के पास चली गईं जो राष्ट्रीय आपदाओं से निबटने की शक्ति रखता है – यानी गृह मंत्रालय।

इस अधिनियम की मूल उत्पत्ति ग्रे ज़ोन में है यानि अंधकारमयी हैं। संविधान में 'आपदा प्रबंधन' के मामले में कोई प्रविष्टि नहीं है। लेकिन 2004 में आई एशियाई सुनामी के बाद, तत्कालीन यूपीए 1 सरकार ने इस कानून को "सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक बीमा" की समवर्ती सूची प्रविष्टि (# 23) के रूप में स्वीकार करते हुए विवादास्पद रूप से केंद्रीय कानून के रूप में पारित कर दिया था। इस बारे में इतनी अस्पष्टता थी कि 2006 में, दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग को यह इशारा करना पड़ा कि इस अधिनियम को कानूनी रूप देने के लिए, इसे संविधान की सातवीं अनुसूची में आपदा प्रबंधन के मामले में एक प्रविष्टि की जानी चाहिए। यह कहने की जरूरत नहीं है कि किसी ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया और वही अधिनियम आज लागू है। कोविड-19 महामारी के चलते, मोदी सरकार ने इसे बड़ी सतर्कता और दृढ़ता के साथ लागू किया है।

यहां डीएमए एक्ट के कुछ प्रमुख प्रावधान दिए गए हैं। यह एक्ट प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) स्थापित करने का रास्ता देता है। और इस तरह से निकाय इस अधिनियम के तहत विभिन्न नीतियों को लागू करने के लिए सर्वोच्च संस्था बन जाता है। सभी व्यापक शक्तियां केंद्र सरकार और एनडीएमए को दे दी जाती है। धारा 35, 62,  और 72 किसी भी कानून की परवाह किए बगैर इसे असीम शक्ति देती है (जो किसी पर भी अपनी शक्ति का उपयोग करने की शक्ति देती है), जिसके तहत केंद्र सरकार भारत में कहीं भी किसी भी प्राधिकरण को आपदा प्रबंधन की सुविधा या सहायता के लिए कोई भी निर्देश जारी कर सकती है। विभिन्न अन्य खंड (18, 24, 36, 38, 39) यह निर्देश देते हैं कि केंद्र सरकार और एनडीएमए द्वारा जारी किए गए ऐसे सभी निर्देशों का सभी केंद्रीय मंत्रालयों, राज्य सरकारों और राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरणों को आवश्यक रूप से पालन करना होगा।

याद रखें, कि संपूर्ण शक्ति गृह मंत्रालय के अधीन है क्योंकि उसका सभी ’आपदा प्रबंधन’ पर प्रशासनिक नियंत्रण है। और, इसका [Sec 6 (3)] खंड यह भी प्रदान करता है कि प्रधानमंत्री एनडीएमए की सभी शक्तियों का प्रयोग कर सकता है। इसलिए, पीएम मोदी और गृह मंत्री अमित शाह, अब कानूनी रूप से पूरे देश को चलाने के लिए अधिकृत हैं - और जो भी कोई सवाल उठाता है, उसे धिक्कारा जाता है।

एक क़दम आगे…एक क़दम पीछे 

लॉकडाउन 1.0 को एनडीएमए के आदेश के तहत 24-03-2020 को लागू किया गया था ताकि सामाजिक दूरी को सुनिश्चित करने के उपाय किए जा सकें और कोविड-19 के प्रसार को रोका जा सके। इस बाबत विस्तृत दिशानिर्देश उसी दिन गृह मंत्रालय द्वारा जारी किए गए थे।

तब से, गृह मंत्रालय ने लगभग 80 आदेश जारी किए हैं। ये विभिन्न तरह की नीरस सलाहों से लेकर एक दर्जन से अधिक स्पष्टीकरण हैं, जिन्हे अधिकतर लॉकडाउन में छूट के संबंध में जारी किया गया है। उदाहरण के लिए, 27 मार्च के स्पष्टीकरण में कृषि कार्यों को लॉकडाउन से मुक्त कर दिया था। ऐसा इसलिए करना पड़ा क्योंकि रबी की बहुमूल्य फसल (गेहूं, सरसों आदि) आदि खेतों में पक कर तैयार खड़ी थी। इसी तरह, मछली पकड़ने आदि की अन्य छूट जारी की गई थी। इस सब पर ध्यान देने की बात है क्योंकि इसमें एक खास पैटर्न का पालन किया जा रहा है कि कैसे एक व्यापक रूप से केन्द्रित रणनीति तब ठोकर खाती है अगर वह अन्य हितधारकों ( जैसे राज्य सरकारों, अन्य मंत्रालयों, स्थानीय निकायों) को अपने साथ लेकर नहीं चलती है। यह विचित्र लगता है, लेकिन फिर भी यह सच है कि शाह और मोदी के मार्गदर्शन में आदेशों की धज्जियां उड़ाने वाले नौकरशाहों को इस बात की जानकारी नहीं थी कि: रबी फसलों की कटाई की जरूरत है; लाखों प्रवासी मजदूर अधर में फंसे होंगे और उन्हे घर वापस भेजने की जरूरत हैं; लेकिन बिना परवाह किए उन्होंने एक झटके और खौफनाक अंदाज में सबकुछ बंद कर दिया, वह भी कदम दर कदम पीछे हटने के लिए।

राज्यों पर दबाव

राज्य सरकारें इन केंद्रीकृत नीतियों और खुद के अधिकारों के कम होने से अनआवश्यक दबाव को महसूस कर रही हैं। लॉकडाउन के दौरान शराब के उत्पादन और बिक्री पर प्रतिबंध लगाकर, मोदी सरकार ने प्रभावी रूप से 30-40 प्रतिशत राजस्व में कटौती की, जो राज्यों को उत्पाद शुल्क के रूप में मिलता था। राज्यों से इस बारे में कोई परामर्श नहीं किया गया था, और हाल ही में राज्य सरकारों ने एक बैठक में अपने स्वयं के करों से राजस्व के कम होने का मुद्दा उठाया था। रिपोर्टों से पता चलता है कि राज्यों का राजस्व करीब 80-90 प्रतिशत तक गिर गया है, जो महामारी से लड़ने के उनके प्रयासों को गंभीर रूप से नुकसान पहुँचा रहा है। उन्हें कर्ज़ लेने की अनुमति नहीं दी जा रही है, और यहां तक कि तेल के मूल्य निर्धारण के माध्यम से कुछ राजस्व जुटाने की संभावना को केंद्र सरकार ने जल्दबाजी में ड्यूटी बढ़ोतरी की घोषणा कर, राज्यों से वह हक़ भी छिन लिया है।

ऐसे मामले सामने आए हैं - विशेष रूप से केरल के भीतर - जहां केंद्र सरकार ने राज्य को लिखे एक पत्र में पूछा है कि राज्य सरकार लॉकडाउन प्रक्रियाओं का पालन क्यों नहीं कर रही है। यह, देश का एकमात्र राज्य है जिसने सफलतापूर्वक महामारी का मुक़ाबला किया है!

लेकिन राज्यों के अधिकारों पर सबसे बड़ा हमला जीएसटी उपकर के मुआवजे को रोकना है जो राज्य सरकारों को दिया जाना था। मोदी सरकार ने इसे खुद बिगड़ते हालात से निबटने की कोशिश में रखा हुआ है और इसे राज्यों को अदा करने में लगातार देरी की जा रही है, क्योंकि वे खुद स्वयं के  संसाधनों में कमी का सामना कर रहे हैं। वास्तव में, केंद्र ने महामारी से लड़ने के मामले में कुछ दाने ही खर्च किए है, जिसमें 1.7 लाख करोड़ के राहत पैकेज का अधिकांश हिस्सा तथाकथित रूप से पिछली प्रतिबद्धताओं से भरपूर है। फिर भी, उन्होंने राज्यों के साथ चुस्त-दुरुस्त होकर धन की शक्ति का दुरुपयोग किया है, जो पहले से ही बड़े पैमाने पर राजकोषीय संकट का सामना कर रहे हैं। यह एक प्रमुख उदाहरण है कि कैसे व्यापक केंद्रीकृत (ओवर-सेंट्रलाइज्ड) कामकाज या रणनीति समान लोगों में से कुछ को भिखारी बना सकती है।

ये सभी घटनाक्रम भारत के संघीय और लोकतांत्रिक सिद्धांतों के मामले में खराब भविष्य की तरफ इशारा करते हैं, जिसका अर्थ साफ है कि ये सामान्य रूप से लोगों के कई अधिकारों को नुकसान पहुंचाएंगे और उन्हे नष्ट करेंगे, और दुखदायी आर्थिक स्थिति को भी पैदा करेंगे। लेकिन, वर्तमान समय में इसका सबसे बड़ा नुकसान उस महामारी के ख़िलाफ़ लड़ाई को होगा जो देश में जड़ें जमा रही है।

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख आप नीचे लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

COVID-19: How the Pandemic Was Used to Grab All Power

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