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ग्रामीण भारत में कोरोना-18 : बिहार के भर्री गांव के श्रमिकों पर पड़ता गंभीर प्रभाव

ऐसा हो सकता है कि खेती से जुड़ी सामग्रियों के इस्तेमाल में कमी के चलते मक्के के साथ-साथ गरमा धान की पैदावार भी इस गाँव में और आस-पास के गाँवों में भी कम ही देखने को मिले।
ग्रामीण भारत में कोरोना-18

यह इस श्रृंखला की 18वीं रिपोर्ट है जो ग्रामीण भारत के जीवन पर कोविड-19 से संबंधित नीतियों से पड़ रहे प्रभाव की तस्वीर पेश करती है। सोसाइटी फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा जारी की गई इस श्रृंखला में विभिन्न विद्वानों की रिपोर्टें शामिल की गई हैं, जो भारत के विभिन्न गांवों पर अध्ययन कर रहे हैं। यह रिपोर्ट उनके अध्ययन में शामिल गांवों में मौजूद लोगों के साथ की गई टेलीफोनिक साक्षात्कार के आधार पर तैयार की गई है। यह रिपोर्ट बिहार के कटिहार ज़िले के भर्री गांव में मक्के की फसल के साथ साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर लॉकडाउन के पड़ते प्रभाव के बारे में जानकारी देती है।

भर्री गांव बिहार के कटिहार ज़िले में स्थित है। यह पूर्णिया और कटिहार दो ज़िला केंद्रों से लगभग समान दूरी पर है और इन दोनों केंद्रों से काफी अच्छी तरह से कनेक्टेड है। यह गांव बारसोई उपखंड में पड़ता है, और महानंदा नदी के जलभराव वाले इलाके में स्थित है, जो इस सबडिवीज़न को पश्चिम बंगाल से अलग भी करता है। इस जलभराव क्षेत्र में तटबंध के कारण मानसून के सीजन में लंबे समय तक यह गांव करीब-करीब हर साल बाढ़ का खतरा झेलता रहता है।

समय और विस्तार के मामले में बाढ़ के काफी ज्यादा अनियमित पैटर्न के चलते इस क्षेत्र में पिछले कुछ दशकों से फसलों की बुआई के पैटर्न में भी काफी कुछ बदलाव देखने को मिले हैं। क्षेत्र की उपयुक्तता के चलते खरीफ धान इस इलाके में कई दशकों तक सबसे प्रमुख उपज हुआ करती थी, लेकिन इस गांव के किसान अब धीरे-धीरे रबी की फसलों जैसे मक्का और सरसों के साथ-साथ गरमा धान का फसल उगाने लगे हैं। कटिहार को अक्सर मक्के के उत्पादन की राजधानी कहा जाता था लेकिन आज भर्री ने लगभग एक दशक से राज्य में नियमित तौर पर सबसे अधिक मक्के की पैदावार हासिल करने का ख़िताब जीत लिया है। रबी के सीजन के दौरान यहां पर 80% से अधिक खेतों में मक्का बोया जाता है। पिछले तीन वर्षों में गांव में फसल की उत्पादकता बढ़ी है। खेती योग्य भूमि में अब दोहरी फसल उगाई जाती है – रबी के सीजन में मक्के की खेती के बाद खरीफ में धान की फसल का सीजन आता है।

इस गांव के अधिकांश लोगों का प्रधान व्यवसाय खेती-बाड़ी है। भूमि वितरण बेहद असमान है और गांव में कई छोटे और सीमांत किसान हैं। गांव में एक परिवार के पास तो तकरीबन 250 एकड़ और एक अन्य परिवार के पास लगभग 75 एकड़ की मिल्कियत है। जबकि दूसरी ओर भारी संख्या ऐसे परिवारों की भी है जिनके पास सिर्फ अपने घर भर बना सकने लायक आवासीय भूमि है। ज़्यादातर परिवारों के पास आधे एकड़ से भी कम ज़मीन हैं और इन खेतों के बड़े हिस्से में पट्टे पर मक्के की खेती की जाती है। पट्टे पर ज़मीन लेने की लागत (मक्के की खेती के लिए) ़मीन की गुणवत्ता के आधार पर 13,000 रुपये से लेकर 18,000 रुपये प्रति एकड़ तक होती है।

गांव में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो ग़ैर-कृषि व्यवसायों से जुड़े स्व-रोज़गार में लगे हैं। इन इलाक़ों में छोटी-मोटी दुकानें चलाना (गांव के बीचो-बीच छोटे से चौक में 20-30 दुकानें हैं, इसके साथ ही बड़े खाद डिस्ट्रीब्यूटर की दुकान भी शामिल है, जो लगभग पांच गांवों को यहां से माल सप्लाई करता है), या ऑटो रिक्शा या छोटी माल ढुलाई वाले वाहन (आमतौर पर इन वाहनों के मालिक उन्हीं ड्राइवरों के परिवार वाले होते हैं) चलाना शामिल है।

खेती-बाड़ी पर पड़ता असर

चूंकि इस क्षेत्र में मक्के की खेती की महत्ता को देखते हुए यह अनुमान लगाना बेहद सहज है कि यदि मक्के की खेती पर कोई विपरीत प्रभाव पड़ा तो इसका असर सारे गांव की अर्थव्यवस्था पर पड़ना लाजिमी है। मक्के की खेती में समय-समय पर खाद और सिंचाई की आवश्यकता पड़ती रहती है, क्योंकि बेहतर उत्पादकता के लिए ये दो कारक बेहद अहम भूमिका निभाते हैं। लॉकडाउन ने इसमें रुकावट पैदा कर दिया है। उदाहरण के लिए कई काश्तकारों ने बताया कि लॉकडाउन की घोषणा के करीब 10 दिन बाद जाकर गांव में उर्वरकों की सप्लाई हो सकी है। और यह सब उस दौरान हुआ जब मक्के की फसल में खाद का छिड़काव करना बेहद आवश्यक था। लॉकडाउन के पहले 10 दिनों के दौरान डीजल की उपलब्धता भी एक चिंता का विषय बनी हुई थी। इसके अलावा लॉकडाउन के दौरान स्थानीय स्तर पर डीजल की क़ीमतों में भी काफी तेज़ी (15% से अधिक) देखने को मिली थी। डीजल की क़ीमतों में अचानक से आई इस बढ़ोतरी ने भी गरमा धान की खेती की लागत को बढ़ाने में अपना योगदान दिया है।

यह गंभीर परिस्थिति तब और ख़तरनाक हो गई जब खाद, डीजल और अन्य वस्तुओं की समय पर ख़रीद के लिए नकद नारायण हाथ में ना के बराबर रह गया था। इसके चलते गांव में खाद के इस्तेमाल में तेजी से गिरावट साफ़-साफ़ देखने को मिली है। ये सब उर्वरक वितरकों द्वारा मुहैया कराई गई बिकवाली की रिपोर्ट से पता चलता है। पिछले साल जब सीजन चरम पर था तो खाद की बिक्री प्रति दिन के हिसाब से 1 लाख रुपये को पार कर रही थी (कम से कम उस 15 दिन की अवधि के दौरान), लेकिन इस वर्ष इसी अवधि के दौरान औसत रोज़ाना बिक्री 10,000 रुपये से कम की रही है। इस गिरावट के कारणों के बारे में एक व्यक्ति का मानना था कि लॉकडाउन के चलते दो वजह से इसमें गिरावट आई: एक तो नक़दी की असमर्थता और दूसरा आवागमन में रुकावट। आसपास के गांवों को भी काफी नुकसान पहुंचा है क्योंकि वे लोग भी भर्री के खाद डिस्ट्रीब्यूटर पर निर्भर हैं। ऐसा लगता है कि खेती में इस्तेमाल होने वाले इस ज़रुरी सामग्रियों के कम उपयोग का प्रभाव इस गांव में मक्का की कम पैदावार के साथ-साथ गरमा धान और आस-पास के गाँवों में भी देखने को नज़र आए।

इस समय तो किसानों को अपने अनाज को बेच पाना भी मुश्किल हो रहा है। गांव में एक सहकारी संस्था है जो आमतौर पर किसानों से धान की ख़रीद किया करती है, लेकिन लॉकडाउन के दौरान यह ख़रीद नहीं हो रही है। एक किसान ने बताया कि हाल ही में खरीफ के सीजन में गांव में धान की पैदावार काफी अच्छी हुई थी और दिसंबर में इसकी कटाई के बाद उन्होंने फैसला किया कि वह तुरंत अपनी उपज नहीं बेचेगा, क्योंकि बाद के दिनों में इसके अच्छे दाम मिल सकते हैं। उसने सोचा था कि इसे बेचकर जो पैसे मिलेंगे उससे मक्के की फसल के लिए नक़द खाद ख़रीद पाएगा। लेकिन लॉकडाउन के दौरान धान की क़ीमत 1,600 रुपये प्रति क्विंटल से गिरकर 1,200 रुपये से कम तक पहुंच चुकी है और ऊपर से कोई ख़रीदार तक नहीं है। आय का कोई और स्रोत न होने के कारण किसान ने खाद की ख़रीद के लिए स्थानीय साहूकार से 6% प्रति माह के हिसाब से (72% वार्षिक ब्याज दर) पर उधार लिया है। जितने क्षेत्र के लिए उसने पिछले साल खाद की ख़रीद की थी, इस साल उसका आधा खाद ही ख़रीद सका है। गेहूं की खेती से जुड़े किसानों को भी कुछ इसी तरह की मुश्किलों से दो चार होना पड़ा है, ऐसी सूचना मिली है कि लॉकडाउन से पहले जो दाम लगभग 1,800 रूपये के आस-पास था वह इस दौरान भारी गिरावट के साथ 1,100 रुपये तक पहुंच चुका है।

ज़्यादातर किसान लॉकडाउन को और आगे बढ़ा दिए जाने के कारण बेहद चिंतित थे क्योंकि इसका बेहद ख़राब नतीजा उनकी उपज की बिक्री पर पड़ने वाला है। एक व्यक्ति के अनुसार लॉकडाउन ने अभी तक उनके काम-काज पर असर नहीं डाला था, क्योंकि इस दौरान धान की फसल पूरी हो चुकी थी और मक्के की फसल अभी भी पूरी तरह से पक कर तैयार नहीं हुई है। आशा है कि मक्के की फसल की कटाई अप्रैल के आख़िरी हफ़्ते से लेकर मई के मध्य के बीच में पूरी हो जाए। लेकिन लॉकडाउन को आगे बढ़ा देने से यह इस काम को प्रभावित कर सकता है। मक्के की कटाई और कटाई के बाद की गतिविधियों के लिए मज़दूरों की ज़रूरत पड़ेगी। इसके अलावा भर्री के अधिकतर किसान फसल की कटाई के तुरंत बाद ही देश के विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले बाहरी ख़रीदारों को फसल बेच दिया करते थे। लेकिन लॉकडाउन के कारण न तो माल ही मंडी तक पहुंचाया जा सकेगा और ना ही संभावित ख़रीदार ही गांव में आ सकेंगे। इनमें से अधिकांश किसानों के पास फसल भंडारण की पर्याप्त व्यवस्था तक नहीं है और ना ही जेब में उतना पैसा है कि अपनी फसल की बिक्री को रोक कर रख सकें।

बैंकों तक पहुंच

स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया की निकटतम शाखा भर्री से पांच किलोमीटर की दूरी पर है, जो पूरे ब्लॉक के जन धन योजना के काम को संभालती है। जानकारी देने वाले सभी लोग इस बैंक से पैसे निकाल पाने में होने वाली कठनाइयों के बारे में एकमत थे। सुबह 5 बजे से लाइन में खड़े रहने के बावजूद औसतन मात्र एक-तिहाई लोगों के ही ज़रुरी धनराशि निकाल पाने की ख़बर है। एक व्यक्ति का तो इस बारे में कहना था कि उनके साथ ऐसा दो बार हो चुका है कि दिन भर लाइन में खड़े रहने के बावजूद भी उन्हें सफलता हाथ नहीं लगी। नक़दी प्राप्त करने का एक दूसरा वैकल्पिक माध्यम भर्री चौक पर मौजूद ग्राहक सेवा केंद्र (सीएसपी) है। हालांकि सीएसपी इसकी अधिक क़ीमत वसूलता है –आमतौर पर एक हज़ार रूपये पर 10 रुपये और कभी-कभी तो इससे भी अधिक चुकता करना पड़ता है। इसके अलावा आमतौर पर पर्याप्त नक़दी का भी अभाव रहता है जिससे कि बाहर लगी लंबी क़तार की ज़रूरत भर की नक़दी का स्टॉक बीच में ही समाप्त हो जाता है।

पशुधन से संबंधित मुद्दे

भर्री गांव में आय के विभिन्न स्रोतों में प्रमुख स्रोत पशुपालन भी महत्वपूर्ण है। दुर्भाग्यवश लॉकडाउन के दौरान पशुधन मालिकों को मवेशियों के लिए चारा तक को ख़रीद पाना मुश्किल बना हुआ है। गेहूं से निकलने वाले भूसे की क़ीमत क़रीब दोगुनी हो चुकी है और ये क़ीमत अब 1,000 रुपये प्रति क्विंटल से अधिक तक पहुंच चुकी है। एक व्यक्ति के अनुसार जिनके पास एक भैंस है उन्होंने बताया है कि शुरू में तो वे अपने खुद के खेत से निकले चारा का इस्तेमाल कर रहे थे जो कि अब पूरी तरह से ख़त्म हो चुका है। लॉकडाउन आगे बढा तो दो कारणों से उनके पास चारे की व्यवस्था कर पाना मुश्किल था: एक तो वे अपनी भैंस को सार्वजनिक चरागाहों पर नहीं ले जा सकते और ना ही चारा ख़रीद सकते क्योंकि गांवों में चारे की भारी कमी बनी हुई है। किसान ने अपनी भैंस को बेच डालने का फैसला किया लेकिन कोई ख़रीदार ही नहीं मिल सका। इसके अलावा गांव में मौजूद मज़दूरों की आय में होने वाली तेज़ गिरावट ने भी दूध की मांग में काफी गिरावट ला दी है। साथ ही दूसरे गांवों से आने वाले दुग्ध विक्रेता भी आवागमन की सुविधा न होने के चलते दूध ख़रीदने नहीं आ रहे हैं।

श्रमिकों पर पड़ता असर

इस गांव में शायद ही शारीरिक श्रम वाला कोई कार्य उपलब्ध है, और साथ ही किसी को भी काम के सिलसिले में बाहर निकलने की अनुमति नहीं है। इससे गांव के श्रमिकों पर काफी बुरा असर पड़ रहा है। अधिकांश लोगों ने बताया कि उनकी जमा पूंजी क़रीब-़रीब समाप्त हो चुकी है और वे अधिक ब्याज दरों पर भी क़र्ज़ हासिल कर पाने में असमर्थ हैं। मनरेगा का काम पूरी तरह से बंद पड़ा है और इन लोगों के पास अपने परिवार के भरण-पोषण कर सकने के लिए आय का कोई स्रोत नहीं बचा है। जिन परिवारों में सभी सदस्य शारीरिक श्रम करते थे, खासतौर पर ऐसे परिवारों की स्थिति बेहद ख़राब हो चुकी है। कुछ श्रमिक परिवारों एक या दो सदस्य मज़दूर के तौर पर बाहर काम करते थे और उन्हीं की आय पर परिवार के अन्य सदस्य निर्भर रहते थे। लेकिन लॉकडाउन ने इन प्रवासी मज़दूरों की स्थिति गांव से भी बदतर कर दी है। एक व्यक्ति का कहना था कि गाज़ियाबाद में काम करने वाले उनके बेटे ने दो महीने पहले उन्हें 5,000 रुपये भेजे थे लेकिन अब कोई काम-धाम न होने के कारण भोजन और आवश्यक वस्तुओं की ख़रीद के लिए बेटे ने अब उल्टे पिता से कम से कम 2,000 रुपये भेजने के लिए कहा है। कटिहार में एक कांच की दुकान में श्रमिक के रूप में काम कर रहे एक प्रवासी मज़दूर ने बताया कि लॉकडाउन शुरु होने के बाद से ही उसकी नौकरी चली गई है। उसके मालिक ने उसे 2,000 रुपये दिए थे लेकिन वह तो कुछ ही दिन में ख़त्म हो गया और अब उसका जीवन संकट में पड़ गया है। जिन लोगों के परिवार से लोग प्रवासी मज़दूर के तौर पर राज्य से बाहर हैं, उन्होंने कहा है कि वे लोग कुछ भी नहीं कमा पा रहे हैं, इसके उलट गांव से ही उनके लिए पैसे का इंतज़ाम करना पड़ रहा है। जबकि कुछ प्रवासी कामगार होली के लिए गांव लौटे थे और यहां पर रुके हुए हैं, जबकि उनके पास भी कोई काम नहीं है। हाल के वर्षों में गांवों से भारी संख्या में पुरुषों के पलायन कर जाने के कारण गांव में महिलाएं काम करने लगी थीं। कृषि कार्य न होने के चलते अपने पारिवारिक आय में महत्वपूर्ण योगदान करने वाली महिला श्रमिक भी अपने परिवार को मदद नहीं कर पा रही हैं।

खाद्य पदार्थों की उपलब्धता पर पड़ता असर

लॉकडाउन शुरू होने के तुरंत बाद से ही खाद्य पदार्थों की क़ीमतों में तेज़ी आई है। स्थानीय प्रशासन के हस्तक्षेप के बाद से क़ीमतें कुछ कम हुई हैं, लेकिन अभी भी लॉकडाउन से पहले की तुलना में 50% अधिक हैं। भर्री चौक बंद पड़ा है और निकटतम दुकानें यहां से लगभग साढ़े तीन किलोमीटर की दूरी पर हैं। यातायात की सुविधा न होने और ऩक़दी की कमी के चलते ग्रामीणों की स्थिति दिन प्रतिदिन बेहद दयनीय होती जा रही है, कई लोग तो सिर्फ मसूर की दाल और साग पर ज़िंदगी गुज़ार रहे हैं। कुछ लोगों का तो कहना था कि खाने में एक सब्ज़ी भी मिल जाए तो उसे लग्ज़री समझा जा रहा है। वहीँ एक अन्य व्यक्ति का कहना था कि उनके परिवार के पास सब्ज़ियों का स्टॉक तेज़ी से ख़त्म होता जा रहा है और लंबे समय तक अधिक क़ीमत पर बाहर से मोल ले पाना उनके वश में नहीं है।

ग़ैर-कृषि रोज़गार के क्षेत्र पर असर

भौगोलिक दृष्टि से अहम लोकेशन होने के कारण भर्री गांव के कुछ परिवार व्यवसाय में विविधता लाते हुए परिवहन व्यवसाय से भी जुड़े हुये हैं। ऑटो-रिक्शा, माल ढुलाई वाहन और अन्य वाहनों की ख़रीद के लिए इन्होंने क़र्ज़ ले रखा है। वाहनों की क़ीमतों के अनुरूप इनकी मासिक किश्तें 13,000 रुपये प्रति माह से लेकर 20,000 रुपये प्रति माह तक की है। जब से लॉकडाउन शुरु हुआ है ये वाहन उपयोग में नहीं लाये जा सके हैं और इनसे कोई आय भी नहीं हो पा रही है। जो परिवार इनकी आय पर निर्भर थे उनकी बचत डांवाडोल हो चुकी है, लेकिन उन लोगों की स्थिति काफी गंभीर है जो पूरी तरह से इन्हीं स्रोतों पर निर्भर थे, उनके लिए तो अपने अस्तित्व को बचाए रखने के सवाल के साथ ही क़र्ज़ चुकाने की भी गंभीर चुनौती आन पड़ी है। यहां तक कि कुछ लोग जो नियमित वेतनभोगी थे, उन्होंने भी बताया है कि उनकी तनख्वाह में देरी हुई है।

सरकारी/नागरिक समाज और अन्य बाहरी सहायता की स्थिति

हालांकि राहत पैकेज की घोषणा कर दी गई लेकिन भर्री में प्रभावित लोगों को ये लाभ अभी हासिल नहीं हो पाया है। लोगों ने बताया कि उन्हें अपने एलपीजी सिलेंडर की रिफिलिंग के लिए 800 रुपये मिल चुके थे। वहीं कुछ परिवारों को वित्तीय सहायता के तौर पर 500 रुपये भी प्राप्त हो चुके थे। वहीँ उनमें से कुछ को लगा कि ये राशि उन्हें दिया जलाने के एवज में मिला था, जैसा कि प्रधानमंत्री ने अनुरोध किया था। कुछ किसानों को किसान सम्मान योजना के तहत 2000 रुपये भी प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार की सरकारी पहल के अलावा, नागरिक समाज, ग्राम पंचायत या अन्य संगठनों की ओर से ग्रामीणों को किसी भी प्रकार की सहायता मुहैय्या किये जाने की कोई सूचना प्राप्त नहीं हुई है।

ग्रामीण लोगों को विशेषकर भर्री में छोटे किसानों और मज़दूरों को गंभीर आर्थिक और सामाजिक संकट का सामना करना पड़ रहा है। ऐसी संभावना है कि 3 मई 2020 तक लॉकडाउन को बढाये जाने से स्थिति और ख़राब होने वाली है। जहां एक ओर इस वैश्विक महामारी से निपटने के लिए लॉकडाउन को लागू करना आवश्यक है, वहीँ इसकी वजह से हाशिये पर खड़े लोगों का जीवन कहीं और अधिक ख़तरे में पड़ चुका है। समय की मांग है कि सरकार के साथ-साथ नागरिक समाज का सक्रिय समर्थन इन तबक़ों को तत्काल मुहैय्या हो।

लेखक ओ पी जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

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