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ग्रामीण भारत में करोना-20: त्रिपुरा में ज़िंदगी थम सी गई

सत्ता पर काबिज़ भारतीय जनता पार्टी-इंडिजेनस पीपल्स फ्रंट ऑफ़ त्रिपुरा (बीजेपी-आईपीएफटी) की नीतियों की वजह से यहां पर कृषि इनपुट के तौर पर इस्तेमाल की जाने वाली आवश्यक वस्तुओं में बेहद कमी का सामना करना पड़ रहा है।
ग्रामीण भारत

यह इस श्रृंखला की 20वीं रिपोर्ट है जो ग्रामीण भारत के जीवन पर कोविड-19 से संबंधित नीतियों से पड़ने वाले प्रभावों की तस्वीर पेश करती है। सोसाइटी फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा जारी की गई इस श्रृंखला में विभिन्न विद्वानों की रिपोर्टों को शामिल किया गया है, जो भारत के विभिन्न गांवों का अध्ययन कर रहे हैं। रिपोर्ट उनके अध्ययन में शामिल गांवों में मौजूद लोगों के साथ हुई टेलीफोनिक साक्षात्कार के आधार पर तैयार की गई है। लॉकडाउन के चलते पूरे त्रिपुरा के लोगों के जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव को इस रिपोर्ट में शामिल किया गया है।

लैंड-लॉक्ड और गैर-औद्योगिक राज्य त्रिपुरा में भी अन्य राज्यों की तरह ही कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के लिए उठाए गए क़दमों के चलते खेती-बाड़ी से जुड़े सभी कार्य बुरी तरह प्रभावित हैं। 15 फरवरी से 15 मई तक की अवधि खेती से जुड़े तीन अलग-अलग कार्यों के लिए आम तौर पर काफी महत्वपूर्ण होता है। सबसे पहले तो यह सब्जियों और आलू, टमाटर, दाल, मिर्च, अदरक, कद्दू, गोभी, फूलगोभी और तरबूज जैसी नक़दी फसलों की कटाई के लिए पीक सीजन होता है, जिन्हें साल में एक ही बार उगाया जाता है और इस दौरान ही इन्हें खेतों से निकाला जाता है। इन फसलों की कटाई के बाद अगली फसल की तैयारी के लिए मानसून से पहले-पहले खेतों को तैयार कर लिया जाता है।

दूसरा, इस सीजन में खरीफ से पहले उगाये जाने वाले (औश) धान की रोपनी की जाती है। राइस इंटेंसिफिकेशन सिस्टम (एसआरआई) चावल की उत्पादकता को बढाने के लिए पौधों, मिट्टी, पानी और पोषक तत्वों के प्रबंधन में बदलाव लाकर कम से कम मात्रा में कृषि इनपुट का इस्तेमाल की जाने वाली वह कृषि-पारिस्थितिक पद्धति है जो आजकल त्रिपुरा में व्यापक तौर पर प्रचलन में है। एसआरआई प्रणाली को 2002 में वाम मोर्चे की सरकार के दौरान चलन में लाया गया था और इसने राज्य में धान के उत्पादन में काफी हद तक बढ़ोतरी कराने में अपना योगदान दिया। और तीसरा, इस दौरान पहाड़ी क्षेत्रों में मानसून की शुरुआत से पहले मिट्टी को 'झूम' खेती या एक जगह से दूसरी जगह पर खेती करने के लिए तैयार किया जाता है।

उपरोक्त सभी काम लॉकडाउन की घोषणा के बाद से अचानक ठप पड़ चुके हैं। अनुमान है कि जो भी सब्ज़ियों की पैदावार हुई थी उसका क़रीब-क़रीब एक-तिहाई हिस्सा बर्बाद हो चुका है, जिससे विशेष तौर पर छोटी जोत वाले किसानों पर इसका बेहद बुरा असर पड़ता है। इसी तरह धान की बुआई में देरी से इसके उत्पादन सहित ख़र्चे पर असर पड़ने की संभावना है। और जो झूम की खेती करने वाले लोग हैं वे इससे सबसे अधिक प्रभावित होने वाले हैं जो त्रिपुरा की कुल आदिवासी आबादी के 10-15% हैं। झूम की खेती अपने टाइमिंग को लेकर अति संवेदनशील मानी जाती है: खेती योग्य ज़मीन को मार्च के अंत तक तैयार करना पड़ता है और बुआई का काम अप्रैल के मध्य तक मानसून से पहले-पहल समाप्त कर देना होता है, जिसकी शुरुआत यहां पर आमतौर पर अप्रैल के मध्य में हो जाती है। लेकिन ज़्यादातर झूम खेती करने वाले लोग लॉकडाउन के कारण बुआई का काम पूरा नहीं कर सके हैं। ऐसी स्थिति में लगता है कि साल के अंत तक राज्य में खाद्यान्न की भारी कमी हो सकती है।

इसके अलावा यहां पर भारतीय जनता पार्टी-इंडिजेनस पीपल्स फ्रंट ऑफ़ त्रिपुरा (बीजेपी-आईपीएफटी) सरकार की नीतियों के चलते कृषि संबंधी वस्तुओं में भी अभूतपूर्व कमी देखने को मिल रही है। वर्तमान सरकार ने लगभग सभी राज्य-स्तरीय सब्सिडी और अनुदानों को एक-एक कर ख़त्म कर डाला है जो पिछली वाम मोर्चा सरकार के कार्यकाल के दौरान कृषि इनपुट और मशीनरी के लिए उपलब्ध थे।

रबर उद्योग पर पड़ता प्रभाव

त्रिपुरा देश का दूसरा सबसे बड़ा रबर उत्पादक प्रदेश है और राज्य की अर्थव्यवस्था में रबड़ की खेती का योगदान बेहद अहम है। हालांकि प्राकृतिक रबर की क़ीमतों में गिरावट पिछले सात-आठ सालों से बना हुआ है, लेकिन इसके बावजूद कहीं न कहीं यह फसल अन्य बागवानी या खेती की फसलों की तुलना में अधिक लाभ देने वाली मानी जाती है। त्रिपुरा के लगभग 35-40% ग्रामीण परिवार और 50-55% आदिवासी परिवार रबर के उत्पादन पर ही निर्भर हैं। इसके अलावा 40,000 से अधिक मज़दूर हैं जो रबर निकालने वाले या रबर संबंधी अन्य कार्यों से जुड़े हुए हैं। काफी समय से केंद्र सरकार द्वारा रबर क्षेत्र को उपेक्षित किया गया है, उसके ऊपर अब इस लॉकडाउन ने रबर उत्पादन के व्यवसाय को बुरी तरह से नुकसान पहुंचाने का काम किया है और त्रिपुरा में कच्चे रबर की रिटेल ख़रीद पर काफी बुरा असर पड़ा है। इस स्थिति ने अचानक से इस उद्योग में शामिल हज़ारों छोटे रबर उत्पादकों और श्रमिकों के जीवन को प्रभावित किया है।

मनरेगा की उपेक्षा

बीजेपी-आईपीएफटी सरकार के पिछले दो वर्षों के कार्यकाल के दौरान मनरेगा योजना में पहले से कम के आवंटन, दिशानिर्देशों का पूरी तरह से उल्लंघन, अनियमितताएं और भुगतान में देरी देखने को मिली है। साल में औसतन 40 से 45 दिन का ही काम हो सका है। यह उन दिनों के ठीक विपरीत है जब यह राज्य समूचे देश में मनरेगा के तहत सबसे अधिक कार्य दिवस सृजित करने के लिए जाना जाता था और इसके ज़रिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बेहतरी लाने में मदद करने के लिए इस योजना का सफलतापूर्वक उपयोग किया जा सका। अब चूंकि लॉकडाउन की घोषणा की जा चुकी है तो इस दौरान एक भी कार्य-दिवस का सृजन नहीं हो पाया है। उल्टे साल 2019 के दिसम्बर और जनवरी महीनों में जिन्होंने सात से बारह दिन (औसतन) काम किया उन्हें मज़दूरी तक का भुगतान आज तक नहीं किया गया है।

नक़दी का अभाव

त्रिपुरा के ग्रामीण क्षेत्र में बैंकिंग सेवाएं मुख्य रूप से सार्वजनिक क्षेत्र और सहकारी बैंकों की शाखाओं द्वारा मुहैया की जाती है, जबकि पहाड़ी क्षेत्रों में शाखाएं काफी कम हैं। आवागमन पर लगे प्रतिबंधों और सार्वजनिक परिवहन की कमी के चलते लोगों के पास नक़द पैसा हासिल नहीं कर पा रहे हैं। ऐसी स्थिति में जो पेंशन धारक या अन्य सरकारी योजनाओं के लाभार्थी हैं वे अपने खातों से पैसे निकालने के लिए कम से कम 15 से 25 किमी तक की पैदल यात्रा करने को मजबूर हैं।

अर्थव्यस्था पर पड़ता नकारात्मक प्रभाव

इस वैश्विक महामारी के साथ ही बीजेपी-आईपीएफटी सरकार के कुशासन ने त्रिपुरा की अर्थव्यवस्था को बड़े संकट में धकेल दिया है। पहले से ही खेती में निवेश का अभाव रहा है, मनरेगा के कार्यान्वयन को लगभग मृतप्राय बना दिया गया है और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने का कोई अन्य वैकल्पिक कार्यक्रम पेश नहीं किया जा सका है। नतीजे के तौर पर राज्य में पिछले दो सालों के दौरान गंभीर घटनाएं देखने को मिली हैं, जिसमें भुखमरी से होने वाली मौतों से लेकर आत्महत्या करने, ग़रीबी के चलते माता-पिता द्वारा अपने नवजात शिशुओं की बिक्री से लेकर राशन कार्डों को गिरवी रखने जैसी कई अन्य घटनाएं देखने को मिली हैं। नौकरी की तलाश में बड़ी संख्या में मज़दूरों का राज्य से पलायन जिसमें युवा और महिलाएं शामिल हैं। ये राज्य के बदले हालात बयां करने के लिए काफी हैं। देश भर में कोरोनावायरस के प्रकोप को रोकने के मद्देनजर लागू किए गए लॉकडाउन ने पहले से ही बिगड़े हुए हालात को और बदतर कर दिया है।

सरकार, स्थानीय निकायों और एनजीओ/नागरिक समाज की ओर से दख़ल

जिस दिन से लॉकडाउन की घोषणा हुई है तब से राज्य सरकार की ओर से कई राहत कार्यों की घोषणाएं की गई हैं। इनमें ग़रीबी रेखा से नीचे के लोगों (बीपीएल) और अंत्योदय कार्ड धारकों के लिए एक महीने के खाद्यान्न (आम तौर पर इसमें सिर्फ चावल और आटा है) की क़ीमत को पूरी तरह से माफ करना, प्रत्येक बीपीएल परिवार को 500 रुपये (कुछ ब्लॉकों में) और दो महीने के एडवांस के तौर पर सामाजिक पेंशन का भुगतान शामिल है। अपनी ओर से कुछ एनजीओ और सिविल सोसाइटी समूह चावल, दाल, सब्ज़ियां, खाना पकाने का तेल और साबुन जैसी आवश्यक वस्तुएं बांट रहे हैं। हालांकि जिस तरह खाद्य संकट गहराया हुआ है, ये दान उसे पूरा कर पाने में अपर्याप्त हैं।

इस संबंध में अखिल भारतीय किसान सभा, गण मुक्ति परिषद और अखिल भारतीय कृषि श्रमिक संघ के नेताओं के एक प्रतिनिधिमंडल ने राज्य के मुख्य सचिव से मुलाक़ात की है और सरकार से अनुरोध किया है कि इस संकट के समाधान के लिए तत्काल क़दम उठाये। उनके सुझावों में निम्न बिंदु शामिल हैं:

- सभी वैध राशन कार्ड धारकों को (वो चाहे बीपीएल हों या एपीएल) तीन महीने तक के लिए मुफ़्त खाद्यान्न की आपूर्ति की जाए

- सभी बीपीएल परिवारों को 5000 रुपये का अनुदान दिया जाए

- एडीसी क्षेत्रों में जो भी राशन कार्ड बंधक के तौर पर रखे गए हैं उन्हें वापस कराया जाए

- सभी परिवारों की गणना का अभियान जल्द से जल्द चलाया जाए ताकि जिनके पास राशन कार्ड नहीं हैं, उन्हें मुफ़्त राशन दिया जा सके

- जो भी प्रवासी श्रमिक वर्तमान समय में राज्य में फंसे हुए हैं, उन्हें दोनों वक़्त का भोजन, शरण और उचित चिकित्सा सेवा प्रदान की जाए

- मनरेगा के तहत पंजीकृत सभी परिवारों को एक महीने की अग्रिम मज़दूरी का भुगतान किया जाए

- कृषि और झूम खेती को आवश्यक सेवाओं के रूप में चिन्हित किया जाए ताकि किसान अपनी फसल काट सकें और उत्पाद बेच सकें

- कोविड-19 रोगियों के उपचार में लगे सभी चिकित्सा कर्मियों को पर्याप्त बीमा कवरेज के साथ मानक PPE और N-95 मास्क आदि प्रदान किए जाएं।

मध्य चम्पामुरा गांव (पश्चिम त्रिपुरा ज़िला), उत्तर चारिलाम गांव (सेपाहीजला ज़िला) और अगरतला की रिपोर्ट

मध्य चंपामुरा ग्राम पंचायत पश्चिम त्रिपुरा ज़िले में ओल्ड अगरतला (खैरपुर) ब्लॉक में स्थित है। मध्य चम्पामुरा गांव के (पश्चिम त्रिपुरा ज़िले) चार लोगों के परिवार में एकमात्र कमाने वाले इंसान नारायण शील जैसे कृषि श्रमिकों के लिए वर्तमान स्थिति वाकई बेहद गंभीर है। नारायण साल में करीब छह या सात महीने ही काम कर पाते थे और उन्हें दैनिक मज़दूरी के रूप में लगभग 500 रुपये कमा पाते थे। लेकिन लॉकडाउन के चलते खेती से जुड़े सभी कार्य बंद पड़े हैं और इस प्रकार अब उनके पास आय का कोई स्रोत नहीं बचा है।

मनरेगा स्कीम के तहत भी काम रुका हुआ है। अब चूंकि नारायण के पास बीपीएल वाला राशन कार्ड भी नहीं है, इसलिए सरकार की ओर से बीपीएल धारकों के लिए जो घोषणा की गई है, उन्हें वह राहत नहीं मिल सकती। इसके अलावा किसी भी एनजीओ/सिविल सोसाइटी समूह या राजनीतिक दल की ओर से भी कोई मदद नहीं मिल सका है। उनके पास में जो जमापूंजी थी वो तेज़ी से ख़त्म हो रही है और उन्हें अपने परिवार का भरण-पोषण का कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा है। जिंदा रहने के लिए वे इलाक़े के दुकानदार से उधार पर ज़रुरी चीजें ख़रीद रहे थे।

लॉकडाउन के दौरान मनरेगा का काम रोक दिए जाने के कारण उत्तर चारिलाम गांव (सेपाहीजला ज़िला) की ताप्ती घोष जैसी महिला मज़दूरों पर इसका बेहद बुरा प्रभाव पड़ा है। हालांकि उनके पास बीपीएल राशन कार्ड है, लेकिन हक़ीक़त ये है कि सरकार इसके ज़रिए सिर्फ चावल बांट रही है और इससे कोई ख़ास मदद नहीं हो पा रही है। सरकार के अलावा किसी अन्य संगठन की ओर से भी कोई मदद उनके इलाके में नहीं पहुंची है।

खेतिहर मज़दूरों और दिहाड़ी मज़दूरों के अलावा राज्य की राजधानी अगरतला में रह रहे मज़दूरों का भविष्य भी अधर में लटका पड़ा है। बिशु साहा जो कि अगरतला में टाटा मोटर्स के डीलर के पास मैकेनिक के रूप में काम करते हैं और इसके ज़रिए चार लोगों का परिवार चलाते हैं। हालांकि उन्हें मार्च महीने का पूरा वेतन मिल चुका था, लेकिन वे तय नहीं कर पा रहे हैं कि अप्रैल में क्या होगा। हालांकि वे राशन पाने के हक़दार हैं, लेकिन अपने घर की आवश्यक वस्तुओं की ख़रीद के लिए उन्हें सरकार द्वारा मुहैय्या कराए गए राशन के अलावा भी बाज़ार से मोल लेना पड़ता है।

धलाई जिले के दुम्बुरनगर ब्लॉक के गंडाचेर्रा और रतन नगर गांव की रिपोर्ट

लॉकडाउन के कारण राज्य में धलाई ज़िले के दुम्बुरनगर ब्लॉक के गंडाचेर्रा और रतन नगर गांव जैसे अंदरूनी क्षेत्रों में रह रहे आदिवासी समुदायों की तकलीफ़ कहीं ज़्यादा हैं। धलाई ज़िले का अधिकांश हिस्सा पहाड़ी है और यहां पर लोग अपनी आजीविका के लिए झूम खेती पर निर्भर हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार ज़िले की कुल 3.6 लाख आबादी में से लगभग 90% लोग ग्रामीण क्षेत्रों में हैं और जनजातीय समूह ज़िले की कुल आबादी का लगभग 56% हैं। दुम्बुरनगर ब्लॉक की ग्रामीण आबादी 60,000 के क़रीब है और इसमें से 81% लोग आदिवासी समुदाय के हैं।

दुम्बुनगर ब्लॉक के आदिवासी समुदाय के लिए झूम (शिफ्टिंग) खेती उनका प्रमुख व्यवसाय है और आम तौर पर फरवरी से लेकर अप्रैल तक का सीजन इस खेती के लिए उपयुक्त माना जाता है। इस प्रकार की खेती में गांव के सभी परिवार मिलकर किसी एक ज़मीन के टुकड़े पर साथ-साथ काम करते हैं। लेकिन लॉकडाउन के कारण पुलिस ने लोगों को बाहर निकलने और काम करने से रोक दिया है।

रतन नगर गांव की कुल आबादी 1,600 (लगभग 90% आदिवासी) है। लॉकडाउन के कारण झूम खेती के साथ-साथ यहां मनरेगा का काम भी ठप पड़ा है। कुछ दिनों पहले सरकारी कर्मचारियों का एक दल गांव के दौरे पर पहुंचा था और उसने पाया कि ज़्यादातर घर में चावल सहित अन्य खाने-पीने की आवश्यक वस्तुएं नहीं बची थीं। इन इलाक़ों में आस पास कोई बाज़ार भी नहीं है और सबसे निकटतम बाजार यहां से 15-16 किमी दूर गंडाचेर्रा है। यहां के लोग बांस के अंकुर, आलू, केले के तने जैसे अन्य चीज़ों पर किसी तरह ज़िंदा थे, जिसे परिवार के बड़े लोग जंगल से निकाल कर ला रहे थे। उनकी यह हालत देखकर तब उन सरकारी कर्मचारियों की टीम ने आपस में पैसे इकट्ठे कर इन परिवारों के लिए राशन ख़रीदकर दिया था।

जो रिपोर्टें प्राप्त हुई हैं उनसे पता चलता है कि जितनी मात्रा में सरकार द्वारा राशन उपलब्ध कराया जा रहा है, वह पर्याप्त नहीं है, जबकि कई इलाक़े तो ऐसे भी थे जहां कोई राशन नहीं पहुंचा था। जिस दिन लॉकडाउन शुरू हुआ उसके एक दिन बाद ही सरकार ने घोषणा कर दी थी कि उसकी ओर से अगले तीन महीनों के लिए पीएम ग़रीब कल्याण योजना के तहत प्रति व्यक्ति पांच किलो अनाज और प्रति परिवार के हिसाब से एक किलो दाल दिया जायेगा। लेकिन जितना अनाज दिया जा रहा है वो पर्याप्त नहीं है। इसके साथ ही ऐसा लगता है कि राज्य के कई हिस्सों में केवल चावल ही दिया जा रहा है, जबकि राज्य के कुछ हिस्से तो ऐसे भी हैं जहां चावल तक नहीं दिया जा सका है।

ये रिपोर्ट मध्य चंपामुरा गांव में नारायण शील, उत्तर चारिलाम गांव में ताप्ती घोष, अगरतला में बिशु साहा, गंडाचेर्रा और रतन नगर में काबिल हुसैन और अगरतला में जितेंद्र चौधरी के साथ हुई बातचीत पर आधारित है।


लेखक मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टीआईएसएस) में पीएचडी स्कॉलर हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।

COVID-19 in Rural India-XX: Life on Hold in Tripura

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