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ग्रामीण भारत में कोरोना:2 : ‘मुझे कोकून को 500 की जगह 150 रुपए किलो बेचना पड़ा’

बाज़ार की अफ़रातफ़री और गिरती मांग ने सभी तरह की आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित कर दिया है। कर्नाटक के मांड्या शहर के अलबुजनाहल्ली गाँव और कोलार के सींदसारा गाँव में रेशम के कीड़ों के पोषण और डेयरी का व्यापार भी प्रभावित हुआ है।
ग्रामीण भारत
प्रतीकात्मक तस्वीर

यह इस श्रृंखला की पहली रिपोर्ट है जो ग्रामीण भारत के जन-जीवन पर कोविड-19 से संबंधित नीतियों के प्रभाव की झलक दिखाती है। सोसाइटी फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा कमीशन की गई इस श्रृंखला में विभिन्न स्कोलर्स की रिपोर्ट शामिल हैं, जो भारत के विभिन्न हिस्सों में गाँव के भीतर  अध्ययन का संचालन कर रहे हैं। रिपोर्ट उनके अध्ययन वाले गांवों में प्रमुख सूचना देने वालों के साथ टेलीफोनिक साक्षात्कार के आधार पर तैयार की गई है। यह लेख 31 मार्च और 1 अप्रैल को किए गए टेलिफोनिक साक्षात्कार के आधार पर 24 मार्च के घोषित लॉकडाउन के परिणामस्वरूप कर्नाटक में अलबुजनाहल्ली और सीरसंदारा के गांवों पर आर्थिक गतिविधि में आई गिरावट पर केंद्रित है।

अलबुजनाहल्ली कर्नाटक के मांड्या ज़िले में स्थित एक गाँव है और यहाँ उगाई जाने वाली प्रमुख फ़सलों में चावल, गन्ना, रागी और पशुओं का चारा हैं। चावल यानी खरीफ़ की फसल (जून से अक्टूबर) को  गहन सिंचाई की आवश्यकता होती है, और इस दौरान किसान बड़े पैमाने पर चावल की रोपाई और कटाई करने के लिए मज़दूरों को काम पर रखते हैं। खरीफ़ से पहले चावल की खेती आमतौर पर छोटे किसानों द्वारा फ़रवरी से मई के बीच कम सिंचाई सुविधाओं के साथ की जाती है। गाँव में यह समय कृषि मज़दूरी के मामले में बहुत कम रोज़गार पैदा करने वाला होता है।

सीरसंडारा गाँव कोलार जिले में है। यहां, किसान अक्टूबर और फरवरी के बीच सब्ज़ियाँ और रागी की खेती करते हैं। सब्ज़ी की खेती बड़े काश्तकारों द्वारा की जाती है, जबकि रागी को गाँव में सभी लोग घर में इस्तेमाल के लिए उगाते हैं।

कृषि के अलावा, डेयरी और रेशम के कीड़ों के पोषण को दोनों गांवों की महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि माना जाता हैं और यह मुख्य रूप से महिलाओं की मेहनत और मज़दूरी पर निर्भर होता हैं। रेशम के कीड़ों के पोषण में, कीड़े को पत्तियां खिलाने और कोकून को खिलाने का काम ज्यादातर महिलाओं द्वारा किया जाता है। पशुओं से जुड़े अधिकांश कामों के लिए महिलाएं ही ज़िम्मेदार होती हैं, जिनमें पशु शेड की सफाई, दूध दुहना और उसे जमा करना शामिल होता है।

24 मार्च की तालाबंदी के बाद से, सीरसंडारा गाँव में किसान परिवहन सेवाओं के ठप्प होने और बाजार की ख़रीद में बाधा पड़ने से खासे प्रभावित हुए हैं। बागवानी की फसलें तबाह हो गई और लों उन्हे इकट्ठा नहीं किया जा सका क्योंकि गाँव में कटाई के बाद फसल को रखने के लिए उचित भंडारण की सुविधा नहीं हैं। इससे अपनी फसलों को बाजार में न ले जाने के कारण किसानों को बड़ी मात्रा में फूलगोभी, टमाटर, तुरई, और सेम की फली की हानि हुई है।

इन फसलों की कटाई फरवरी के अंतिम सप्ताह में शुरू हुई थी, और मार्च के पहले सप्ताह तक जारी रही, फिर उसके बाद किसानों को अपनी उपज बेचना मुश्किल हो गया।

सीरसंदारा में मज़दूरी मिलना कोई बड़ी बाधा नहीं है, क्योंकि अधिकतर मज़दूरों को गाँव के भीतर से ही काम पर रखा जाता हैं। "हम कटाई के लिए मज़दूरों को बुलाते हैं, अगर हम अपनी फसल ही नहीं बेच पाएंगे तो हम उन्हें मज़दूरी कैसे देंगे, हैं?" उक्त बातें आरसी ने बताई जो गांव के बड़े किसान है, और उन्हौने लगभग आठ एकड़ खेत में टमाटर, तुरई और सेम की फली की खेती की थी।

एक अन्य किसान एसयू ने भी इसी तरह की चिंता जताई, क्योंकि वह भी दो एकड़ में लगी अपनी फूलगोभी की फसल को बाजार में ले जाने में असमर्थ रहा। अगर वह कोलार शहर की पहले दर्जे की मंडी में परिवहन के माध्यम से फसल ले भी जाता, तो एसयू इसे बेच नहीं पाता क्योंकि कीमतों में भारी गिरावट आ गई थी, जिससे बड़े और मध्यम किसानों में घबराहट पैदा हो गई थी।

ये दोनों ही किसान, गृह मंत्रालय द्वारा हाल ही में कृषि गतिविधियों को खोलने संबंधी दी गई छूट से बिलकुल अनजान थे। स्थिति और भी गंभीर हो गई है क्योंकि कैंटीन और रेस्तरां बंद होने से पड़ोसी शहरों में सब्जियों की मांग गिर गई है। पड़ोसी राज्यों के बाजारों में फसल को बेचने का रास्ता भी बंद हो गया है।

अलबुजनाहल्ली में, गन्ने की कटाई और रोपाई से पहले खरीफ़ के पहले चावल की फसल की रोपाई की जा रही थी। चूंकि इस काम को स्थानीय महिला श्रमिकों द्वारा किया जाता है, इसलिए काम बिना किसी रुकावट के पूरा हो गया है।

हालाँकि, गन्ने की खेती करने वालों को समस्याओं का सामना करना पड़ा, क्योंकि उन्हे मज़दूरी के लिए मज़दूरों में कमी को लेकर कारखाने के साथ श्रम अनुबंधों को हस्ताक्षर करना पड़ता है,, और मंड्या जिले में चीनी कारखानेदार, कटाई के लिए प्रवासी मज़दूरों को गन्ने की कटाई के लिए बेल्लारी से अनुबंध पर भेजते हैं। इनमें से लगभग 60 प्रतिशत प्रवासी मज़दूरों को उनके द्वारा किए गए काम के बदले भुगतान कर वापस भेज दिया गया।

शेष 40 प्रतिशत मज़दूरों को को गाँव में ही रहने की जगह दी गई है और किसानों/काश्तकारों ने उनके लिए पके हुए भोजन की व्यवस्था कर दी है। कारखाने को 4 अप्रैल, 2020 तक गन्ने की ख़रीद जारी रखने की अनुमति है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि कारखाने के बंद होने से पहले गन्ना किसानों को उनके पैसे का भुगतान किया जाएगा या नहीं। और बाकी बचे प्रवासी श्रमिकों के लिए क्या व्यवस्था की गई है, यदि कोई है, तो इस पर भी स्पष्टता नहीं है।

इन दोनों गांवों में लोगों की आय और आजीविका का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रेशम के कीड़ों का पोषण करना भी है, और कर्नाटक एशिया का दूसरा सबसे बड़ा कोकून बाजार (रामनगर) है।

"मेरे पास बाज़ार में बेचने के लिए 300 किलोग्राम कोकून था, लेकिन लॉकडाउन से कोकून का  बाज़ार भी बंद हो गया। मैंने कोकून को गाँव के भीतर ही कम कीमत पर बेचने की पेशकश की है, लेकिन हर कोई इस काम को शुरू करने से डरता है क्योंकि गाँव में स्थिति खराब है," एसयू ने उक्त बातें टीम को बताई।

अलबुजनाहल्ली के एक किसान ने इसी तरह की चिंता जताते हुए कहा कि "मैं अपनी फसल नहीं बेच सकता क्योंकि बाजार अस्थायी रूप से बंद है। मैंने कुछ कोकून का उत्पाद अनौपचारिक चैनल के माध्यम से 150 रुपये प्रति किलोग्राम पर बेचा है, जबकि इसकी कीमत 500 रुपये प्रति किलोग्राम है।"

कोकून की ख़रीद बंद हो गई है क्योंकि निर्यात को भी अस्थायी रूप से निलंबित कर दिया गया है, जिसने रेशम के कीड़ों की खेती में लगे लोगों की जीविका पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है। कर्नाटक राज्य सरकार ने कहा था कि वह संकट को कम करने के लिए खास उपायों की घोषणा करेगी।

डेयरी मार्केट पर भी नकारात्मक असर पड़ा है। कोमुल (कोलार-चिक्काबल्लापुर कोऑपरेटिव मिल्क प्रोड्यूसर्स यूनियन लिमिटेड) डेयरी के एक फैक्ट्री कर्मचारी ने कहा कि दूध का कारखाना केवल दूध को उबालने और ठंडा करने तथा दही बनाने के लिए खुलता है। दूध के उत्पाद से जुड़ी अन्य गतिविधियां जैसे कि मिठाई बनाना आदि लॉकडाउन की घोषणा के बाद बंद हो गई है। वर्तमान में कारखाने 50 प्रतिशत से कम कर्मचारियों के साथ काम कर रहे हैं; जिनमें से अधिकांश आस-पास के गांवों से आते हैं और उन्हे महीने भर का भुगतान कर दिया गया है। पिछले कुछ दिनों से दूध की बिक्री में भी गिरावट आई है क्योंकि आसपास के शहरों में सड़क पर चाय की दुकानें, रेस्तरां और कार्यालय की कैंटीन भी बंद हो गई हैं।

हालांकि, सिरसंदरा में पशुओं के मालिकों ने ख़रीद केंद्र में दूध को जमा करना जारी रखा हुआ है, लेकिन उन्हे डर है कि दूध की मांग में गिरावट आने से ख़रीद को निलंबित न कर दिया जाए। अलबुजनाहल्ली गाँव भी इसी तरह के मुद्दों का सामना कर रहे हैं। एक किसान ने कहा कि, "डेयरी से मिलने वाला पैसा नियमित नकदी का एकमात्र स्रोत है। पंद्रह दिनों में डेयरी केंद्र द्वारा किया जाने वाला भुगतान हमें महीने का गुजर बसर और अन्य खर्च चलाने में मदद करता है। अब डेयरी ने सूचना दी है कि मांग के गिर जाने के कारण दो दिनों तक ख़रीद बंद रहेगी। यदि ऐसा होता है, तो हमारे लिए यह एक बड़ा झटका है।"

दूध की बिक्री में व्यवधान विशेष रूप से छोटे और मध्यम किसानों को ही नुकसान पहुंचाएगा ऐसे किसान जिनके लिए डेयरी की आय एक महत्वपूर्ण कमाई है। किसान पशुओं चारे के लिए पहले से रखे स्टॉक का इस्तेमाल कर रहे हैं, लेकिन वे इस बात से अनिश्चित हैं कि वे आगे चारे की भरपाई कैसे करेंगे। मुर्गे और मांस की खपत से फैलने वाली अफवाहों के कारण पोल्ट्री किसानों के लिए भी मांग में अचानक गिरावट आ गई और उन्हे आय का भारी नुकसान हुआ है।

भूमिहीन श्रमिकों पर मार सबसे अधिक है

भूमिहीन मैनुअल मज़दूर लॉकडाउन की वजह से सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं। जबकि किसानों के पास रागी का कुछ स्टॉक हैं, भूमिहीन श्रमिकों के पास तो कुछ भी नहीं है, और पिछले दो हफ्तों में उन्हें रोज़गार का नुकसान भी हुआ है जो उनकी खाद्य सुरक्षा से समझौता को खतरे में डाल सकता है (कुछ ने नवंबर और दिसंबर में भूमि के छोटे हिस्से पर रागी बोई थी; और इस फसल को फरवरी में काटा गया था)।

गाँव के भीतर फसलों की कटाई और रेशम के कीड़ों की फसल के लिए काम करने वाली महिला मज़दूरों ने महसूस किया कि काम की माँग में काफी कमी आ गई है, यहाँ तक कि वे खेत में भी काम करने के लिए तैयार हैं। सब्जियों की खड़ी फसलों की कटाई करने वाले मज़दूरों को नकद के बदले अन्य वस्तुओं में भुगतान किया गया।

"हमें मज़दूरी के रूप में आलू, तुरई और टमाटर मिल रहे हैं जो हमारा पेट अगले 10 दिनों तक भर सकते हैं, लेकिन इसके खत्म होने के बाद गाँव में भोजन की उपलब्धता के मामले में कोई  गारंटी नहीं हैं। हमारे पास हमारे पास धेला नहीं है।" उक्त बातें 48 वर्षीय एक महिला वाईए ने कही,, जो सीरसंडारा में दिहाड़ी मज़दूर है। उनके पति वीटी, जो एक ट्रैक्टर चालक हैं, ने कहा कि वे पिछले 15 दिनों से बेरोज़गार हैं। जब उनसे मुफ्त राशन के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा कि 31 मार्च, 2020 को गाँव में चार किलो चावल और एक किलो अरहर की दाल मिली थी थी। उन्हें राशन की कुल मात्रा के वादे की जानकारी नहीं थी। मैनुअल श्रमिक परिवारों के पास जन धन खाते हैं,  लेकिन अभी तक इनमें एक भी पैसा जमा नहीं किया गया है।

आर्थिक गतिविधि के मामले में दुबले सीज़न के वक़्त गैर-कृषि कामों के बंद होने से  कठिनाइयां अधिक बढ़ गई है। अलबुजनाहल्ली में मज़दूरों को अक्सर भवन निर्माण स्थलों पर रोज़गार मिल जाता था। कुछ ने मैसूरु-बेंगलुरु राजमार्ग पर नारियल बेचने का काम शुरू किया है। लॉकडाउन के कारण इनमें से कोई भी अवसर सुलभ नहीं है।

"आम तौर पर इस मौसम में, कोई खेती से जुड़ा काम नहीं होता हैं। फरवरी में चावल की रोपाई खत्म हो जाती है। जून महीने तक, हमारे लिए गाँव में बहुत अधिक काम नहीं रहता है। ऐसे में परिवार के पुरुष काम के लिए शहर चले जाते हैं ताकि भवन, सड़क निर्माण स्थलों पर कुछ काम किया जा सके। इन हालत में तो वह भी संभव नहीं है। हमारे पास खाना पकाने और खाने के लिए कुछ अनाज बाकी हैं, लेकिन स्थिति बेहद चिंताजनक है "अलबुजनाहल्ली के एक मज़दूर ने कहा।

मज़दूरी करने वाले मज़दूरों के लिए रोज़गार के अवसर में कमी आई हैं, क्योंकि काम पर रखने वाले श्रमिकों को भुगतान करने में नकदी की कमी है। किसान परिवार की मज़दूरी पर भरोसा कर रहे हैं, जिसमें किसान परिवारों की महिलाएं सब्जियों की कटाई कर रही हैं।

मनरेगा का कम होता काम

दोनों गांवों में, मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना) के तहत बहुत कम काम उपलब्ध है। पिछले साल बहुत ही कम संख्या में श्रमिकों को काम मिला था, लेकिन काम के दिन 30 से भी कम थे। 28 मार्च से 31 मार्च, 2020 के बीच उनकी बकाया राशि को मंजूरी दी गई थी।

सेवा उद्योग में छाई मुरदई ने गाँव के कुछ लोगों की आजीविका को प्रभावित किया है। गाँव के कुछ युवा, जिन्होंने टैक्सी ड्राइवर, स्ट्रीट वेंडर और प्लंबर के रूप में काम करना शुरू किया था, उन्हें उनके एग्रीगेटर्स या ठेकेदारों से पैसा नहीं मिला है। उनमें से अधिकतर युवा आज बेरोज़गार हैं और अपने घरों में उदास बैठा हैं।

कुछ किसानों/मज़दूरों को टेलीविजन पर राज्य सरकार द्वारा की गई कुछ घोषणाओं के बारे में पता था; हालांकि, वे घोषित योजनाओं के कार्यान्वयन के बारे में आश्वस्त बिलकुल नहीं हैं। लाभार्थियों को मुफ्त खाद्यान्न को तुरंत पहुंचाने के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गई है। किसी भी घर ने मध्याह्न भोजन की निरंतरता या पके हुए भोजन के बजाय अनाज के प्रावधान पर कोई सूचना नहीं है।

बड़े किसानों को फसल ऋण योजनाओं के बारे में पता था, लेकिन उन्हे पुनर्भुगतान की शर्तों के  मौजूदा संकट के निहितार्थ के बारे में सूचित नहीं किया गया था कि क्या कोई छूट मिलेगी या ब्याज को कम किया जाएगा। पेंशन और अन्य भुगतान जिनका कि सरकार ने आश्वासन दिया था वे उन्हें अभी तक खातों में जमा नहीं किया गया है।

स्व-सहायता समूहों (एसएचजी) की महिला सदस्यों को यकीन है कि उनके भुगतान को तीन महीने के लिए स्थगित करने की संभावना है। वे केंद्र सरकार द्वारा घोषित बिना किसी संपत्ति को गिरवी रखे कर्ज़ लेने के विकल्पों का आकलन करने की प्रक्रिया में हैं।

कोविड-19 पर एक सामान्य जागरूकता के मामले में, सभी लोग घरों में संक्रमण के प्रसार से अनजान थे। बाजारों में जगह-जगह सख्त नियम लागू हैं, जिनमें प्रत्येक गाँव के लिए समय तय किया गया है और सामाजिक दूरी की प्रोटोकॉल को लागू किया गया है। उत्तरदाताओं को लगा कि शहरों में बीमारी का प्रभाव अधिक है, क्योंकि उनका मानना है कि ग्रामीण क्षेत्र इस संक्रमण से अछूते हैं।

अन्य स्थानों से इन गांवों में मज़दूरी करने वाले लोगों की वापसी नहीं हुई है। दोनों गांवों से 2-4 किलोमीटर की दूरी पर एक एटीएम है, लेकिन कोई भी ग्रामीण पैसे निकालने वहाँ नहीं जाता है। आशा (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) कर्मियों ने दोनों गांवों में श्रमिकों से नियमित रूप से हाथ धोने और सामाजिक दूरी बनाए रखने की आवश्यकता पर लोगों को शिक्षित किया है।

लॉकडाउन से खड़े हुए संकट का असर गाँवों वासियों पर अधिक पड़ा है। गाँवों में किसान परिवारों के पास रागी और चावल है, लेकिन बागवानी की फसल और दूध की ख़रीद में रुकावटों से उसके भंडारण से परेशान है। छोटे किसान जो नियमित रूप से डेयरी से कमाई पर निर्भर हैं वे अब चिंतित हैं कि क्या यह सब आगे भी जारी रहेगा; इसके अलावा किसानों को सब्जियों और दूध की कम मांग के कारण बाजार की ख़रीद में उतार-चढ़ाव और कीमतों में उतार-चढ़ाव का सामना करना पड़ रहा है (इसके विपरीत, इनकी आपूर्ति को लेकर चिंताएं बेंगलुरु और मैसूरु जैसे शहरों में भी बढ़ रही हैं - यह एक अनोखी स्थिति है जहां ग्रामीण, मांग की कमी का सामना कर रहे हैं, वहीं शहरी परिवार एक संभावित आपूर्ति संकट के बारे में चिंतित हैं)।

दैनिक मज़दूरों की स्थिति काफी खराब हो सकती है यदि कैश ट्रांसफर और अन्य सामाजिक सुरक्षा उपाय जल्दी उन तक नहीं पहुंचते हैं। खाद्य सुरक्षा इस वर्ग के परिवारों के लिए एक चिंता का विषय है क्योंकि उन्हें मौसमी बेरोज़गारी और कमाई के विकल्पों की कमी का सामना करना पड़ रहा है। कुछ उत्तरदाताओं को उम्मीद है कि गांव में सामाजिक/सामुदायिक सहायता शहरों की तुलना में बेहतर है और अधिक संपन्न किसान उन्हें अनाज और सब्ज़ियाँ जरुए देंगे। वे खाद्य आपूर्ति और रोज़गार के अवसरों (मनरेगा के काम) के मामले में राज्य से समर्थन की उम्मीद रखते हैं।

इस लेख का पहला हिस्सा आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

लेखक रिसर्च स्कॉलर्स हैं और इकोनॉमिक एनालिसिस यूनिट, भारतीय स्टेटिस्कल इंस्टीट्यूट, बैंगलोर में शोध करते हैं।

अंग्रेजी में लिखे गए मूल आलेख को आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं

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