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कोविड और सरकार: वैज्ञानिकों का दुरुपयोग, विज्ञान के साथ मज़ाक

खेद का विषय है कि इस सरकार के कदमों का बचाव करने तथा उन्हें सही ठहराने के लिए इन वैज्ञानिकों द्वारा दिए गए तर्क भी ज्यादातर अवैज्ञानिक हैं, उपलब्ध जानकारियों के खिलाफ जाते हैं।
कोविड
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

भारत में कोविड महामारी को संभालने में अपनी गलतियों की तीखी और बढ़ती आलोचनाओं के सामने, सरकार ने अपनी नीतियों तथा हरकतों के बचाव की एक पूरी तरह से सुनियोजित मुहिम छेड़ दी लगती है। यह महत्वपूर्ण है कि इस जवाबी मुहिम को छेडऩे की जिम्मेदारी देश के शीर्ष विज्ञान प्रशासकों को सौंपी गयी है। इनमें, भारत सरकार के मुख्य विज्ञान सलाहकार (पीएसए) के अलावा, भारत सरकार के विज्ञान व प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) और जैव प्रौद्योगिकी विभाग (डीबीटी) के सचिवगण शामिल हैं। इस मुहिम के हिस्से के तौर पर इन सभी ने पिछले ही दिनों देश के प्रमुख अखबारों को काफी विस्तृत साक्षात्कार दिए हैं।

इस अभियान के लिए इन्हें ही चुने जाने के शायद दो कारण हैं। पहला तो यही कि वे ही इस सरकार की कोविड संबंधी नीतियों का बचाव करने के लिए सबसे उपयुक्त तथा सबसे बेहतर स्थिति में हैं। याद रहे कि सारी दुनिया तो यही उम्मीद करती है कि ये नीतियां, विज्ञान से संचालित होंगी। इनके चुनाव का दूसरा कारण यह है कि सरकार, अपने बचाव के लिए वैज्ञानिकों की साख का दोहन करना चाहती है। यह भारत के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक है जहां वैज्ञानिकों की राय की काफी कद्र की जाती है और कम से कम राजनीतिज्ञों तथा नौकरशाहों की तुलना में तो वैज्ञानिकों की राय की काफी ज्यादा कद्र की ही जाती है।

हुक्म की तामील

लेकिन, दुर्भाग्य से ये साक्षात्कार, सत्ताधारियों के हुक्म की तामील किए जाने का ही मामला लगते हैं, जिनके जरिए इस सरकार के खिलाफ देश-विदेश में सामने आयी आलोचनाओं की काट करने की कोशिश की गयी है। खेद का विषय है कि इस सरकार के कदमों का बचाव करने तथा उन्हें सही ठहराने के लिए इन वैज्ञानिकों द्वारा दिए गए तर्क भी ज्यादातर अवैज्ञानिक हैं, उपलब्ध जानकारियों के खिलाफ जाते हैं और साक्ष्य-आधारित तर्क-सारणी पर चलने के बजाय, जो कि विज्ञान का प्राण है, सरकार के प्रचार को ही प्रतिध्वनित करते नजर आते हैं। वे बहुत ही हल्के शब्दों में अगर किसी कदम के गलत होने की बात स्वीकार भी करते हैं, तो उसके बाद फौरन उसका बचाव करने में लग जाते हैं।

लेकिन, अगर इस सरकार का सारा ध्यान, तमाम आलोचनाओं का खंडन करने पर ही है न कि पिछली गलतियों से सीखने पर, तो आज भी और भविष्य के लिए भी, उसकी कारगुजारियों में सुधार हो ही कैसे सकता है?

इतना तो खैर समझ में आता है कि सरकार से जुड़े होने के चलते, इन वैज्ञानिकों के लिए सरकार की आधिकारिक राय से, खुले आम असहमति जताना मुश्किल होगा। फिर भी, यह देखकर बहुत ही निराशा होती है कि किस तरह देश के शीर्षस्थ विज्ञान प्रशासक, सरकार के स्वार्थपूर्ण दावों को सही साबित करने में अपनी जान भिड़ाए हुए हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि विज्ञान में तो, जितनी शिक्षा सफलताओं से मिलती है, उतनी ही विफलताओं से भी मिलती है। शर्त यह है कि साक्ष्यों को खुले दिमाग से दर्ज किया जाए और उनका सही तरीके से विश्लेषण किया जाए।

लेकिन, इस सरकार ने तो इन वैज्ञानिकों को अपनी नीतियों के लिए ढाल बनने के लिए मजबूर किया है, जबकि इनमें से अनेक नीतियां तय करने में इन वैज्ञानिकों का तो शायद कोई हाथ भी नहीं रहा होगा। यह वैज्ञानिकों का दुरुपयोग है। और इन वैज्ञानिकों का, सरकार के गलत-सलत दावों को प्रतिध्वनित करने के लिए, अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा का इस्तेमाल होने देना, विज्ञान के साथ मजाक है।

ऐसी गंभीर दूसरी लहर का अनुमान नहीं था

इन साक्षात्कारों में पेश किया गया एक केंद्रीय तर्क तो यही है कि दूसरी लहर के इस पैमाने तथा ऐसी तीव्रता का पूर्वानुमान तो किसी भी वैज्ञानिक, मॉडल या अध्ययन से नहीं मिला था। इनमें कहा जा रहा था कि सरकार ने, पिछली बार के शिखर की तरह, प्रतिदिन एक लाख केसों के लिए तो तैयारी की थी। लेकिन, इस साल जिस तरह का जबर्दस्त उछाल सामने आया है, उसकी कोई पूर्व-चेतावनी ही नहीं थी। इस लहर ने तो औचक घेर लिया और इसके चलते समुचित कदम उठाए ही नहीं जा सके। लेकिन, यह दलील कई-कई स्तरों पर समस्यापूर्ण है।

जाहिर है कि सरकार इसके इंतजार में तो बैठी नहीं रही होगी कि कोई और उसे दूसरी लहर की ऐसी भीषणता की चेतावनी देगा। डीएसटी के अपने गणितीय ‘‘सुपर मॉडल’’ ने मार्च के महीने में ही दूसरी लहर की ‘अनौपचारिक चेतावनी’ दे दी थी। उस समय केसों की दैनिक संख्या, एक लाख से ऊपर निकल चुकी थी। और नीति आयोग में, वी के पॉल के साथ एक बैठक में, 2021 के अप्रैल के दूसरे या तीसरे सप्ताह तक एक लाख प्रतिदिन से कम के शिखर तक पहुंचने का पूर्वानुमान पेश किया गया था। यह हैरान करने वाली बात है कि सरकार अब भी इसी ‘‘सुपरमॉडल’’ का भरोसा किए बैठी है, जबकि पहली लहर के दौरान पहले ही उसका खराब रिकार्ड साबित हो चुका है। इसके खराब रिकार्ड की वजह यह भी है कि यह तो शुद्ध रूप से गणितीय मॉडल है, जिसमें महामारी संबंधी रुझानों का कोई दखल ही नहीं है।

इन साक्षात्कारों में यह तो स्वीकार किया गया है कि भारत के और दूसरे देशों के भी वैज्ञानिक, दूसरी लहर की चेतावनी दे रहे थे और कुछ महीने पहले से यूके में और यूरोप में अन्यत्र दूसरी लहर के संबंध में जानकारियां उपलब्ध थीं। चूंकि ये बहुत ज्यादा तीव्रता की लहरें थीं, जिनके पीछे वायरस के नये वैरिएंट थे, इससे भारत में वैज्ञानिकों तथा नीति निर्माताओं को चेतावनी मिल जानी चाहिए थी कि शायद हमारे यहां भी ऐसा ही होने जा रहा था। सीरो सर्वेक्षणों ने आबादी के खासे बड़े हिस्से के वेध्य बने रहने को दिखाया था और ऐसे वैरिएंटों का उदय दर्ज किया जा चुका था, जिनकी संक्रामकता ज्यादा थी।

इन साक्षात्कारों में, लगभग सभी पहलुओं के मामले में वैज्ञानिक निश्चितता के न होने की ही रट लगायी गयी है, जबकि वास्तव में ऐसे काफी साक्ष्य मौजूद थे जिनके आधार पर कार्रवाई की जा सकती थी। विशेष रूप से महामारी जैसे जटिल तथा अति-परिवर्तनीय संदर्भों में नीति निर्धारण, और ज्यादा डाटा की तथा पूर्वानुमानों की पुष्टि की प्रतीक्षा करते-करते भी, उपलब्ध साक्ष्यों की बेहतरीन व्याख्याओं के आधार पर रुझानों का पूर्वानुमान करने के आधार पर किया जा सकता है और किया ही जाना चाहिए। इसके लिए, एकदम मुकम्मल जानकारियों तथा अचूक निर्णयों की प्रतीक्षा में बैठे नहीं रहा जा सकता है।

तैयारी नहीं की--कर ही नहीं सकते थे?

इन साक्षात्कारों में इस पर जोर दिया गया है कि अगर तैयारी बढ़ा भी दी गयी होती तथा तेज भी कर दी गयी होती, तब भी इस लहर के उछाल के पैमाने तथा तीव्रता को देखते हुए, तैयारियों को हर हाल में कम तो पडऩा ही था। यह भी दलील दी गयी है कि इतने थोड़े से अर्से में आवश्यक स्तर तक व्यवस्थाओं को बढ़ाना तो संभव ही नहीं था। ‘आप 20-50 फीसद अतिरिक्त क्षमता तो जुटा सकते हैं...(लेकिन) क्षमता में पांच गुना बढ़ोतरी, एक साल में तो की नहीं जा सकती है।’ लेकिन, कम से कम अधिकतम संभव हद तक तो अतिरिक्त क्षमताओं का निर्माण किया ही जा सकता था और उसने भी अनगिनत जानें बचायी होतीं। क्या पहली लहर के कुछ सबक से, इसमें मदद नहीं ली जा सकती थी?

इन साक्षात्कारों में पहली लहर के दौरान तथा उसके बाद, अस्पताल की सुविधाओं और ऑक्सीजन समेत, अन्य बुनियादी सुविधाओं के बढ़ाए जाने को रेखांकित किया गया है और इसका इशारा किया गया है कि इस समय और ज्यादा किए जाने की तथा भविष्य के लिए तैयारी किए जाने की भी जरूरत है। इसके बावजूद, इनमें इसका कोई जिक्र ही नहीं है कि पीपीई, वेंटीलेटर तथा टेस्ट किट हासिल करने में, असाधारण देरी क्यों हुई? इन्हें केसों की संख्या बहुत बढ़ जाने के बाद ही हासिल किया जा सका और क्यों ऑक्सीजन उत्पादन संयंत्रों का आर्डर देने में तथा उन्हें लगाने में, करीब आठ महीने की देरी हो गयी। इन संयंत्रों को 2021 के अप्रैल-मई के दौरान ही लगाया जा सका, जब देश का दम ऑक्सीजन की कमी से घुट रहा था। नाकाफी ही सही, इन कदमों से मदद जरूर मिली होती, लेकिन उन्हें नहीं उठाया गया। इसी प्रकार, दिल्ली में तथा दूसरी जगहों पर भी, आक्सीजन युक्त बैडों वाले जो विशाल अस्थायी अस्पताल बनाए गए थे, उन्हें भी पहली लहर का जोर घटने के साथ समेट दिया गया। सरकार के कोरोना पर फतेह पा लेने के दावों का ऐसा ही असर था। और पूरा देश ही टीकों की जैसी बहुत भारी कमी को आज देख रहा है, साफ तौर पर आगे की योजना बनाकर चलने के मामले में दरिद्रता को दिखाता है। यह इन साक्षात्कारों में भारत-निर्मित टीकों को लेकर जताए गए भरोसे को भी झुठलाता है।

यह गौरतलब है कि प्रशंसनीय दूरदृष्टि के साथ, मुंबई नगर निगम ने अपनी अस्थायी जम्बो कोविड सुविधाओं को कायम रखा था और ऑक्सीजन का अच्छा-खासा बफर स्टॉक भी निर्मित कर लिया था, जो अब 2021 के अप्रैल-मई के दौरान खूब काम आया है। यह साफ तौर पर दिखाता है कि इस तरह का पूर्वानुमान कर के तैयारियां करना वाकई संभव था।

वैरिएंट का मुद्दा

इन साक्षात्कारों में कुछ हिचकिचाहट के साथ यह स्वीकार किया गया है कि वायरस के म्यूटेशन, मौजूदा दूसरी लहर को प्रभावित कर रहे विभिन्न कारकों में से, कम से कम एक तो हो ही सकते हैं। वैसे इसे स्वीकार करते हुए भी, इसके आगे वैज्ञानिक अनिश्चितताओं को लेकर तरह-तरह के किंतु-परंतु जोड़ दिए गए हैं। इसके अलावा, इसे लेकर काफी मीन-मेख निकाले गए हैं कि कब तथाकथित भारतीय, ‘‘डबल म्यूटेंट’’ वायरस, बी.1.617 की औपचारिक रूप से पहचान की गयी थी; संक्रामकता तथा बीमारी की गंभीरता के संबंध में इसकी विशेषताएं क्या हैं; और कैसे इससे कदमों का रूपाकार तय हो सकता है। ये साक्षात्कार हमें बताते हैं कि वैसे तो ये म्यूटेंट स्ट्रेन, कहीं ज्यादा संक्रामक लगते हैं, फिर भी इसके लिए ‘पर्याप्त नमूनों की सीक्वेंसिंग नहीं की गयी है और उन्हें महामारी विज्ञानी डाटा से नहीं जोड़ा गया है, जिससे कोई पुख्ता अंतर्संबंध कायम किया जा सके’ उसके साथ तथा केसों में तेजी से बढ़ोतरी के साथ। अभी और ज्यादा अध्ययनों की जरूरत है। तंजिया लहजे में यह भी कहा गया है कि इन वैरिएंटों का प्रभाव अनिश्चित है क्योंकि, ‘जीनोम सीक्वेंसिंग में हमारे पास ऐसी कोई एल्गोरिद्म तो है नहीं, जो हमें तीव्रता के संबंध में जानकारी दे दे’, जो विभिन्न वैरिएंटों से जुड़ी है। साफ तौर पर यहां वैरिएंटों के महत्व को कम कर के दिखाने की और इसके सभी संभव आरोपों की काट करने की ही कोशिश की गयी है कि इस पहलू को लेकर, कहीं स्वस्थ्य प्रतिक्रिया देखने को मिली होती, तो इस लहर की तीव्रता को कम किया जा सकता था।

बहरहाल, तकनीकी अचूकता को अगर छोड़ भी दिया जाए तो, जीन सीक्वेंसिंग के मामले में और भारत में विभिन्न म्यूटेंट वायरसों के बढ़ते मामलों का समुचित प्रत्युत्तर देने में, भारत की शुरुआत ही सुस्त रही थी। बेशक, भारतीय सार्स-सीओवी-2 जीनोमिक्स कंसोर्शियम (आइएनएससीओजी) का गठन किया गया था ताकि  विभिन्न लैबोरेटरियों को, रोग निगरानी प्रणाली के साथ नैटवर्क किया जाए, जिससे विभिन्न वैरिएंटों पर नजर रखी जा सके, टीका संबंधी शोध के लिए जीन सीक्वेंसिंग की जाए और कोविड के मामले में जवाबी कदमों का दिशानिर्देशन किया जा सके। लेकिन, जहां लक्ष्य था पॉजिटिव केसों में 5 फीसद के मामले में जीन सीक्वेंसिंग किए जाने का, अब तक एक फीसद से भी कम मामलों में ही सीक्वेंसिंग की जा सकी है।

इसके मुकाबले यूके, योरपीय यूनियन तथा अमरीका जैसे अन्य देशों में, नियमत: बड़ी संख्या में केसों की जीन सीक्वेंसिंग की जाती रहती है। वास्तव में इसी तरह से तो नये-नये वैरिएंटों की सबसे पहले पहचान की जाती रही है। मिसाल के तौर पर 2,14,158 केसों को जीन सीक्वेंसिंग के लिए सामान्य रूप से नमूना बनाया गया, इनमें से 11 मामलों में दक्षिण पश्चिमी इंग्लेंड में यूके का नया ‘केंट वैरिएंट’ पाया गया, जिसे आगे चलकर बी.1.1.7 का नाम दिया गया और इसके 43 मामले अन्यत्र पाए गए। दिसंबर के आरंभ तक आते-आते इस वैरिएंट को एक ‘चिंताजनक वैरिएंट’ करार दिया जा चुका था और दिसंबर के मध्य तक यूके की सरकार लंदन में तथा दक्षिण पश्चिम इंग्लेंड में नये तथा और ज्यादा कड़े लॉकडाउन प्रतिबंध लगा चुकी। इससे वह यूके के अन्य हिस्सों में इस वैरिएंट से जुड़े केसों की संख्या को कम रखने में कामयाब भी रही।

भारत में हवाई अड्डों ने 20 दिसंबर 2020 से ही यूके से आने वालों को बी.1.1.7 वैरिएंट के लिए चेक करना शुरू कर दिया था। लेकिन, जैसा कि पहली लहर के मामले में हुआ था, कांटैक्ट ट्रेसिंग तथा केसों की ट्रैकिंग का काम मुस्तैदी से नहीं किया जा सका। ‘यूके’ वैरिएंट तथा ‘भारतीय’ वैरिएंट, दोनों के मामले उल्लेखनीय तरीके से फैलने लगे। बी.1.1.7 पंजाब तथा दिल्ली में ज्यादा पाया गया, जबकि बी.1.615 महाराष्ट्र में ज्यादा पाया जा रहा था। इसका सबूत इस साल मार्च के आखिर तक जीन सीक्वेंसिंग से गुजर चुके कुल 19,092 नमूने दे रहे थे।

आइएनएसएसीओजी के सदस्य तक आधिकारिक रूप से यह बात कह चुके हैं कि उन्होंने सरकार को मार्च के शुरू में ही इसकी चेतावनी दे दी थी कि ये वैरिएंट ज्यादा भीषण हैं और इनके और फैलने को रोकने के लिए, बड़ी संख्या में लोगों के जमावड़ों से बचने की जरूरत पर जोर भी दे दिया था। उनका कहना है कि सरकार ने इन चेतावनियों को कम कर के आंका था। बहरहाल, इन साक्षात्कारों में ‘चेतावनी’ शब्द के अर्थ पर ही, वैरिएंटों के संबंध में वैज्ञानिक अनिश्चितताओं की दुहाई देने के जरिए, सवाल उठाए गए हैं।

बहरहाल, यहां असली नुक्ता यह है कि नये वैरिएंटों को पर्याप्त गंभीरता से नहीं लिया गया, कि भारत में जीन सीक्वेंसिंग बहुत ही कम तथा धीमी रही है और महामारी के प्रत्युत्तर के सरकार के कदमों के दिशानिर्देशन के लिए, एक दिशादर्शक के रूप में उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। वैज्ञानिकों को इसका फैसला करना चाहिए कि किसी खास समय पर, आवश्यक कदम उठाने के लिए किस हद तक निश्चितता को पर्याप्त माना जाएगा। इसके बजाय, जीन सीक्वेंसिंग की अपर्याप्तता को बहाना बनाकर, नीतिगत प्रत्युत्तरों से बचते रहना या उन्हें टालते रहना मंजूर नहीं किया जा सकता है।

मुख्य विज्ञान सलाहकार के साक्षात्कार के एक खटकने वाले सुर का उल्लेख करना जरूरी है। जीन सीक्वेंसिंग की धीमी रफ्तार के संदर्भ में उन्होंने टिप्पणी की थी कि किसी महामारी में, ‘राष्ट्रीय स्वास्थ्य एजेंसियों के पास नैटवर्क तथा कार्मिक तो होते हैं, लेकिन ऐसी कसरत के महत्व तथा अर्जेंसी को समझने के लिए, बुनियादी विज्ञान अंतर्दृष्टि का अभाव होता है।’ यह कहना मुश्किल है कि क्या यह वाकई सच है, हालांकि एसीडीसी तथा डीजीएचएस को भी इस संबंध में कुछ कहना हो सकता है। लेकिन, सुप्रतिष्ठित वैज्ञानिक गणों ने आगे बढक़र इस मामले में हस्तक्षेप क्यों नहीं किया और बुनियादी विज्ञान अंतर्दृष्टि क्यों मुहैया नहीं करायी और ऐसा कोई तालमेलपूर्ण कार्यक्रम क्यों नहीं चलाया गया, जो तमाम ज्ञान तथा क्षमताओं का सही तरह से उपयोग किया जाना सुनिश्चित करता।

जो संदेश दिए गए

इन साक्षात्कारों में बार-बार इस पर जोर दिया गया है कि स्वास्थ्य व्यवस्था की तैयारियों के सिलसिले में कुछ भी क्यों न किया जाए, इनमें वक्त लगने जा रहा है और इसलिए, यह जरूरी है कि मास्क लगाने तथा देह से दूरी रखने की बुनियादी कोविड उपयुक्त आदतों को बराबर बनाए रखा जाए। यह भी कहा गया कि इसका पालन कराना या इसे लागू कराना मुश्किल रहा है और यह इसके बावजूद है कि, ‘अनगिनत टीवी तथा मीडिया चर्चाओं तथा ब्रीफिंगों में...हर कोई इस पर जोर देता आया है कि जब तक ज्यादातर लोगों का टीकाकरण नहीं हो जाता है, हमें कोविड-अनुकूल आचारों का पालन करना चाहिए।’ लेकिन, सरकार में शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व से तो बिल्कुल दूसरा ही संदेश दिया जा रहा था। प्रधानमंत्री ने जनवरी के आखिर में घोषित कर दिया था कि भारत ने, ‘कोरोना पर कारगर तरीके से अंकुश लगाकर मानवता को एक बड़ी आपदा से बचा लिया है।’ और 7 मार्च 2021 को, जब भारत में 18 हजार से ज्यादा केस आए थे और चार्ट ऊपर जा रहा था, स्वास्थ्य मंत्री ने एलान कर दिया था कि भारत पहले ही, ‘कोविड महामारी के अंत पर पहुंच गया है।’ हालांकि, प्रधानमंत्री ने 17 मार्च 2021 को मुख्यमंत्रियों के साथ एक वर्चुअल बैठक में एक ‘उभरते हुए दूसरे शिखर’ की आगही की थी, लेकिन मास्क लगाने तथा माइक्रो-कंटेनमेंट जोनों के संबंध में उनकी अधिकांश सिफारिशें, राज्यों व स्थानीय प्रशासनों को ही संबोधित थीं, जैसे केंद्र तो कोई भूमिका अदा ही नहीं कर सकता हो। इतना ही नहीं उन्होंने स्वास्थ्य व्यवस्था को मजबूत करने की किसी जरूरत को स्वीकार ही नहीं किया था। इस आगही के बावजूद, केंद्र सरकार ने बिना किसी अंकुश या चेतावनी के, विशाल चुनाव रैलियों तथा विराट कुंभ मेला का आयोजन होने गया था, जिनमें दसियों लाख लोग शामिल हुए थे। ये घनी भीड़ें थीं जिनमें न तो कोई मास्क लगाए जा रहे थे और न ही कोविड संबंधी अन्य सावधानियों का पालन किया जा रहा था। बहरहाल, साक्षात्कार देने वाले इन वैज्ञानिकों में से एक का कहना था कि चुनाव रैलियां (तथा कुंभ) ने ‘एक छोटा सा अंश जोड़ा तो हो सकता है...(ऐसा)’ केसों में, लेकिन इस तरह का आचरण व्यापक रूप से फैल गया था।

नीति निर्धारण में वैज्ञानिकों की भूमिका

निष्कर्ष यह कि नीति-निर्धारण में और कोविड-19 महामारी के संदर्भ में सरकार के प्रत्युत्तर को गढऩे में, इन तथा अन्य वैज्ञानिकों और विज्ञान प्रशासकों द्वारा अदा की गयी वास्तविक भूमिका के संबंध में हमें शायद ही कुछ पता है। हां! मीडिया में बड़ी संख्या में ऐसी खबरें आती रही हैं, जिनमें नीति निर्धारक या परामर्शदायक पदों पर बैठे वैज्ञानिकों को, बिना नाम के या नाम के साथ उद्यृत करते हुए, बताया जाता रहा है कि कैसे उनकी तथा वे जिन परामर्शदायी निकायों में हैं उनकी रायों को अनदेखा किया जाता है, नकारा जाता है या उनकी राय ली ही नहीं जाती है। इसका भी पता नहीं है कि क्या इन एजेंसियों द्वारा दी जाने वाली वैज्ञानिक राय कभी सरकार में शीर्ष निर्णयकारी हलकों तक पहुंचती भी है या नहीं। इनमें से कोई भी साक्षात्कार इस पहलू पर कोई रौशनी नहीं डालता है और इस तरह ये साक्षात्कार कोविड-संबंधित नीति निर्धारण में वैज्ञानिकों की भूमिका के संबंध में, जनता को अंधेरे में ही छोड़ देते हैं।

बहरहाल, एक इशारा जरूर है, जो सब कुछ बयान कर देता है। मुख्य विज्ञान सलाहकार ने हिम्मत कर के 5 मई की अपनी प्रैस कान्फ्रेंस में यह टिप्पणी कर दी थी कि तीसरी लहर का आना अपरिहार्य है। यह टिप्पणी इस उचित तर्क के आधार पर की गयी थी कि टीकाकरण अब भी बहुत ही थोड़ा बना हुआ है और अब भी देश में वेध्य आबादी का बहुत बड़ा दायरा बना हुआ है और हालात अब भी वायरस के बढ़ने के अनुकूल बने हुए हैं। लेकिन, दो दिन में ही उन्हें अपना उक्त बयान यह कहते हुए वापस लेना पड़ा कि तीसरी लहर नहीं भी आ सकती है, ‘अगर मजबूत कदम उठाए जाते हैं।’ हम गलत होने के किसी जोखिम के बिना ही यह अंदाजा लगा सकते हैं कि उन्हें अपना बयान वापस लेने के लिए कहा गया होगा क्योंकि उनकी उक्त राय सरकार के दावों के अनुकूल नहीं पड़ती है और इस सरकार के दावों को तो हमेशा ही, विज्ञान तथा यथार्थ के ऊपर रखना होता है।

(लेखक डी रघुनंदन दिल्ली साइंस फोरम और ऑल इंडिया पीपुल्स साइंस नेटवर्क के साथ जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

COVID Mishandling: Misuse of Scientists, Abuse of Science

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