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क्या भारतीय लोकतंत्र को बचाया जा सकता है?

यह पहली बार नहीं है जब भारत का लोकतंत्र संकट में आया है। हालांकि अब सन् 1975 से बहुत अलग और बुरे हालात हैं। फिर भी उम्मीद कायम है। विपक्ष की पटना बैठक ने भी यही दिखाया है। एक विश्लेषण
Narendra modi
फ़ोटो साभार: ट्विटर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को अमेरिकी कांग्रेस के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए 14 बार 'लोकतंत्र' शब्द का उच्चारण किया। उन्होंने अमेरिकी सांसदों को यह समझाने की कोशिश की कि भारत में लोकतंत्र को कोई खतरा नहीं है जैसा कि आरोप लगाया जा रहा है। पीएम ने कहा कि 'लोकतंत्र हमारे पवित्र और साझा मूल्यों में से एक है।' मोदी यह बताने की कोशिश कर रहे थे कि लोकतांत्रिक मानदंडों का पालन किसी विशेष पार्टी की विशेषता के बजाय एक सभ्यतागत प्रतिबद्धता है।

जब से मोदी ने 2014 में पदभार संभाला है, और विशेष रूप से 2019 में दोबारा चुनाव जीतने के बाद, उन्होंने व्यवस्थित रूप से भारतीय लोकतंत्र की मुख्य संस्थाओं पर हमला किया है। प्रधानमंत्री की सरकार ने चुनाव आयोग की आज़ाद छवि को धक्का पहुंचाया है, न्यायालयों द्वारा खुद के पक्ष में फैसला देने के लिए हेरफेर किया है, अपने असंतुष्टों, विपक्षी नेताओं और प्रेस के खिलाफ कानून प्रवर्तन निदेशालय का इस्तेमाल किया है, और मुख्यधारा के भारतीय मीडिया पर अपना नियंत्रण बढ़ाया है।

कुछ ऐसे तथ्य हैं जिनपर गौर करने से पता चलता है कि भारतीय लोकतंत्र कैसे बौना होता जा रहा है। प्रधानमंत्री पर एक हल्का सा तंज़ कसने पर विपक्ष के नेता राहुल गांधी को गुजरात के एक कोर्ट ने दो साल की सज़ा सुना दी और तुरंत ही उनकी लोकसभा की सदस्यता को बर्खास्त कर दिया गया। अपने एक अरबपति सहयोगी के माध्यम से स्वतंत्र टेलीविजन पर कब्ज़ा जमा लिया गया। सरकार की आलोचना करने वाले सोशल मीडिया पोस्ट को हटाने के लिए एक आधिकारिक पैनल को अधिकृत किया गया। इसके साथ ही कई वेब पोर्टल मीडिया के दफ्तरों में ईडी और आकार विभाग के छापे लगवाए गए। कम से कम 44 बार ईडी और आईटी तथा अन्य विभागों ने मीडिया पर छापे मारे हैं। ये मीडिया आउटलेट केवल वे थे जो मोदी के आलोचक थे और सत्ता से सवाल करते थे।

इसमें कोई शक नहीं कि लोकतंत्र पर इस किस्म का हमला एक वैचारिक परियोजना है। जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के निर्देशन में भाजपा अंजाम दे रही है, जो एक कट्टरपंथी हिंदू राष्ट्रवादी संगठन है, जिससे मोदी अपने युवाकाल से जुड़े हुए हैं।

देश में लोकतंत्र के मुख्य स्तंभ मीडिया और न्यायालय जो एक-एक करके ढहते जा रहे हैं और जो सत्ता से सवाल करता है उन्हे ईडी, सीबीआई और आयकर विभाग के छापों का सामना कर पड़ रहा है। जनसंख्या के हिसाब से एक बड़े देश में लोकतंत्र पर इस किस्म के फासीवादी हमले राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय आक्रोश का कारण बनते हैं? राष्ट्रीय और अंतर-राष्ट्रीय स्तर पर यह आक्रोश अब दिखाई दे रहा है। मोदी के दौरे के दौरान अमेरिका के भीतर ही हजारों की तादाद में लोग सड़कों पर आए और मोदी की जनतंत्र विरोधी नीतियों और हमलों पर सवाल खड़े किए गए जिसे गोदी मीडिया दिखाने को तैयार नहीं है। ये विरोध प्रदर्शन ठीक व्हाइट हाउस के सामने हुए जहां मोदी का भव्य स्वागत किया जा रहा था। व्हाइट हाउस के सामने आयोजित विरोध सभा में खोजी पत्रकार निरंजन टाकले ने कहा कि “मैंने 25 साल खोजी पत्रकारिता की है लेकिन मेरी पत्रकारिका का अंत तब हुआ जब मैंने जज लोया की ‘हत्या’ पर लेख लिखा और नतीजतन मुझे सत्ता के दबाव में नौकरी ने निकाल दिया गया, प्रेस की भारत में यह दशा है”।

इस पूरे अभियान में अल्पसंख्यकों पर हमले, दलितों और आदिवासियों के खिलाफ बढ़ते ज़ुल्म, सत्ता के आलोचकों और मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को क़ैद में रखने पर मोदी से सवाल पुछे गए हैं। व्हाइट हाउस के भीतर वाल स्ट्रीट जर्नल की जर्नलिस्ट सबरीना सिद्दीक ने मोदी से सवाल पूछा कि “कई मानव अधिकार संगठनों का कहना है कि आपकी सरकार ने धार्मिक अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव किया है। आलोचकों को चुप कराया जा रहा है। आप यहां व्हाइट हाउस में हैं जहां विश्व के कई नेताओं ने लोकतंत्र की रक्षा को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दोहराई है। आप और आपकी सरकार मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के हकों को बेहतर करने और अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा करने के लिए क्या कोई क़दम उठाने जा रहे है”? मोदी ने कहा कि भारत में भेदभाव के लिए बिल्कुल कोई जगह नहीं है,'' इस बेबाक प्रश्न के कारण सोशल मीडिया पर हंगामा मच गया और वाल स्ट्रीट जर्नल की पत्रकार सबरीना सिद्दिक को निशाना बनाया गया, मोदी समर्थकों ने उन पर हमले किए।

भारतीय लोकतंत्र के मौजूदा संकट को समझने के लिए, आपको आरएसएस में भाजपा की जड़ों को समझने की जरूरत है। यह एक ऐसा संगठन है जो आज़ादी के आंदोलन के समय से ही हिंदूराष्ट्र के मक़सद को लेकर काम कर रहा था। कांग्रेस और अन्य दलों के विपरीत जो आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे थे, और जो धर्मनिरपेक्ष उदार लोकतंत्र में विश्वास रखते थे, आरएसएस ने एक ऐसे भारतीय राष्ट्र की वकालत की, जिसका मक़सद "हिंदू राष्ट्र" था और विचारधारा हिंदुत्व की थी।

1939 में, आरएसएस विचारक एम.एस. गोलवलकर ने वी, ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित की थी, जिसमें इस सोच को विशेष रूप से स्पष्ट शब्दों में संहिताबद्ध किया गया कि "हिंदुस्थान में विदेशी जातियों खासतौर पर मुसलमानों को... हिंदू जाति में विलय करना होगा और खुद का अलग अस्तित्व खोना होगा, या वे देश में तब रह सकते हैं, जब पूरी तरह से हिंदू राष्ट्र के अधीन हों, वे किसी भी चीज़ का दावा नहीं कर सकेंगे और वे किसी भी विशेषाधिकार के पात्र नहीं होंगे, उन्हें कोई तरजीह नहीं दी जाएगी, यहाँ तक कि उन्हें हिंदुओं के समान नागरिक अधिकार भी नहीं दिए जाएंगे।” एक अन्य अध्याय में गोलवलकर नाज़ियों द्वारा यहूदियों के साथ किए गए ज़ुल्म को एक मॉडल के रूप में पेश करते हैं।

2002 में, जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तो राज्य के मुस्लिम बहुल गोधरा में हिंदू तीर्थयात्रियों को ले जा रही एक ट्रेन में आग लग गई थी, जिसमें 59 लोग मारे गए थे। इस घटना के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराया गया, जिससे बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे, मुख्य रूप से हिंदू भीड़ ने मुस्लिम अल्पसंख्यकों का नरसंहार किया। जबकि तत्कालीन भारत सरकार की जांच में यह साबित नहीं हुआ कि आग एक दुर्घटना की जगह एक हमला थी। मानवाधिकार समूहों के मुताबिक इस नरसंहार में करीब दो हज़ार लोग मारे गए थे। हमले की क्रूरता रोंगटे खड़े कर देने वाली थी। एमनेस्टी इंटरनेशनल की रिपोर्ट में दर्ज है कि हिंसा के दौरान 250 से 330 मुस्लिम लड़कियों और महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया और हिसंक हमले व अत्याचार किए गए; उनमें से अधिकांश को बाद में भीड़ ने मार दिया था।

मोदी ने कथित तौर पर इन मुस्लिम विरोधी दंगाइयों के पक्ष में व्यक्तिगत रूप से हस्तक्षेप किया, पुलिस मुकदर्शक बनी रही और हिंदू भीड़ को बिना किसी डर के मुस्लिम-बहुल इलाकों में हिंसा करने दी गई। दंगों के कारण मोदी की छवि इतनी खराब हो गई थी कि इसी अमेरिका ने (जो आज रेड कार्पेट पर मोदी का स्वागत कर रहा है) 2005 में, "धार्मिक स्वतंत्रता के गंभीर उल्लंघन" के आधार पर वीजा देने से इनकार कर दिया था। यह प्रतिबंध 2014 में हटा जब भाजपा संसदीय चुनाव जीत गई थी और मोदी प्रधानमंत्री बन गए थे।

हाइपर-नेशनलिज़्म का एजेंडा

भाजपा और आरएसएस का अति-राष्ट्रवाद का एजेंडा काम कर रहा है और ऐसी दुष्ट शक्तियों का निर्माण कर रहा है जो कहती हैं कि हर किसी से नफरत करनी चाहिए। राष्ट्रवाद, जिसका आम जनता से कोई सीधा जुड़ाव नहीं है वह समाज और संविधान के लोकाचार के लिए हानिकारक है। इसलिए, धर्म पर आक्रामक निर्भरता सभी प्रमुख मोर्चों पर सत्तारूढ़ भाजपा की घोर विफलता तथा मुद्रास्फीति और रोजगार से संबंधित मुद्दों को हल करने में असमर्थता को दर्शाती है।

मोदी का एजेंडा

9 साल के मोदी काल के विश्लेषण से पता चलता है कि मोदी और आरएसएस दो एजेंडों पर काम कर रही हैं, पहला एजेंडा, हिंदुत्व विचारधारा को फैलाने और मतदाताओं को हिंदू बनाम मुस्लिम आधार पर ध्रुवीकृत करने के लिए प्रधानमंत्री दफ्तर की शक्तियों का इस्तेमाल करना और दूसरा, अपने हाथों में सत्ता को केन्द्रित करना और न्यायपालिका, जांच आयोगों, स्वतंत्र प्रेस और विपक्षी दलों सहित जन-असंतोष को कमजोर या बदनाम करना।

मोदी के सत्तासीन होने के बाद से हिंदुत्व नैरेटिव पार्टी की चुनावी सफलता कहानी का सिर्फ एकमात्र हिस्सा नहीं है, बल्कि यह एक अनिवार्य हिस्सा रही है। मोदी और राज्य-स्तरीय भाजपा नेताओं ने अपने भाषणों में लगातार हिंदुत्व विषयों पर जोर दिया है और मुस्लिम अधिकारों को कमजोर करने वाली और मुस्लिम और मुस्लिम पड़ोसियों के बारे में हिंदू चिंताओं को भड़काने वाली नीतियां अपनाई हैं। इसका असर मुख्य रूप से हिन्दी राज्यों में व्यापक रहा और जो बंगाल तक गया।

लोकतंत्र पर व्यापक हमले

सत्ता को अपने हाथों में केन्द्रित करने और डबल इंजन की सरकारों की सफलताओं का ढोल पीटने के बाद मोदी सरकार ने लोकतंत्र को कमजोर बनाने के लिए विपक्षियों पार्टियों और उनके नेताओं के पीछे ईडी/सीबीआई को छोड़ दिया। एक विश्लेषण के मुताबिक ईडी/सीबीआई के 95 प्रतिशत मुक़दमे/छापे विपक्षी पार्टियों के खिलाफ किए गए हैं। मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ आंदोलन करने वालों को जेलों डाला गया। इसका सबसे बड़ा उदहारण नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ उठा आंदोलन था जिसे दबाने के लिए आन्दोलकारियों पर झूठे मुक़दमे लगाए गए और उमर खालिद जैसे छात्र नेता को जेल में रहते हुए आज 1000 दिन से भी अधिक हो गए हैं।

इसमें कोई शक़ नहीं है कि मोदी का एजेंडा कट्टर है, इस अर्थ में कि इसमें मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों की कीमत पर हिंदुत्व की राजनीति को आगे बढ़ाना है। मोदी हमेशा इस बात का इशारा करते रहे हैं कि वे केवल बहुमत के नेता हैं और इसलिए हर उद्घाटन के कार्यक्रम को हिन्दू धर्म के धार्मिक रीति-रिवाजों के माध्यम से करते हैं। वे दावा करते हैं कि वे और उनकी सरकार भारत को "लोकतंत्र की जननी" के रूप में भारत की ऐतिहासिक स्थिति का सम्मान दिला रहे हैं।

क्या भारतीय लोकतंत्र को बचाया जा सकता है?

यह पहली बार नहीं है जब भारत का लोकतंत्र संकट में आया है। जून 1975 में, इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल की घोषणा के बाद भी लोकतंत्र संकट में आ गया था। विपक्षी नेताओं, पार्टियों तथा जनता के बुनियादी अधिकारों और स्वतंत्रता को निलंबित कर दिया गया था। आपातकाल के दो साल बाद जब 1977 में चुनाव हुए तो कांग्रेस पार्टी चुनाव हार गई और बिना किसी राजनीतिक ड्रामे के जनता पार्टी की सरकार बनी थी।

लेकिन इंदिरा गांधी के आपातकाल और आज की स्थिति में ज़मीन-आसमान का फर्क है। आज अघोषित आपातकाल है जिसे समाज में वैचारिक समर्थन हासिल है। पूरे चुनाव को या तो हिन्दू-मुस्लिम या फिर पाकिस्तान-हिंदुस्तान की बहस में तब्दील कर दिया जाता है, खासकर हिन्दी पट्टी में जहां भाजपा की हिन्दुत्व की राजनीति का असर व्यापक है। उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़ दिल्ली और हरियाणा इस राजनीति के प्रमुख केंद्र हैं।

विपक्षी दलों के नेता, आगामी लोकसभा चुनावों में शक्तिशाली भाजपा से मुकाबला करने के लिए एक मजबूत एकता बनाने की कोशिश कर रहे हैं। जदयू नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पहल पर हाल ही में पटना में आयोजित विपक्ष शिखर सम्मेलन भाजपा को हराने के लिए कुछ आशा की किरण दिखा रहा है।

आर्थिक मुद्दे

पिछले 9 सालों में देश की अर्थव्यवस्था न सिर्फ गिरावट पर है बल्कि इसका असर जीवन के हर पहलू पर पड़ा है. महंगाई, बेरोजगारी से आम जनता में आक्रोश है। फसल पर एमएसपी नहीं मिलने से किसान आक्रोशित हो रहे हैं। उच्च स्तर के भ्रष्टाचार ने शासन में जड़ें जमा ली हैं और इसके परिणामस्वरूप निजी क्षेत्र में रोजगार बढ़ाने के नाम पर सार्वजनिक धन को बड़े कॉरपोरेट्स को हस्तांतरित किया जा रहा है, जो देश में कोविड-19 महामारी की चपेट में आने के बाद से रोजगार पैदा करना तो दूर की बात है साधारण निवेश भी नहीं कर पाया है।

अभी भी सबकुछ नहीं खोया है

यहां उस सवाल का जवाब दिया जा रहा है जो सवाल राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान उठा था कि क्या भारत में लोकतंत्र को बचाया जा सकता है? कर्नाटक चुनाव से यह साबित हो गया है कि भाजपा को चुनाव में हराया जा सकता है, और देश के भीतर लोकतंत्र को मजबूत किया जा सकता है। एक और बात जो स्टिक है वह यह कि राष्ट्रीय स्तर पर भी, विपक्षी दल अभी भी अपना संदेश पहुंचाने की कुछ क्षमता रखते हैं।

सितंबर 2022 और जनवरी 2023 के बीच, राहुल गांधी की 2,200 मील लंबी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ ने भाजपा खेमे में बेचैनी पैदा कर दी थी और इसका पहला असर हिमाचल और कर्नाटक के चुनावों में देखने को मिला। त्रिपुरा में भी भाजपा करीब-करीब हार गई थी लेकिन तिपरा-मोथा के मत-विभाजन से भाजपा को फायदा हुआ और भाजपा चुनाव हारते-हारते रह गई। लेकिन सीट के मामले में उसे बड़ा नुकसान हुआ है। इसमें कोई शक़ नहीं कि कांग्रेस मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में काफी जोश और आत्मविश्वास में भरी नज़र आ रही है। और भाजपा के लिए यह चिंता का विषय है।

इसमें कोई शक़ नहीं कि लोकसभा चुनाव में बीजेपी की हार में क्षेत्रीय पार्टियों की अहम भूमिका होगी। यदि कांग्रेस को उपरोक्त राज्यों में चुनाव जीतना है तो उसे क्षेत्रीय दलों को पर्याप्त जगह देनी होगी जो आने वाले चुनावों में भाजपा को केंद्र से हटाने के लिए मुख्य ताकत बनेंगी। यूपी, बिहार, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और तेलंगाना जैसे बड़े राज्यों में क्षेत्रीय दल बीजेपी के खिलाफ लड़ाई में सबसे आगे हैं, इसलिए कांग्रेस पार्टी का कर्तव्य है कि वह क्षेत्रीय दलों को अपने-अपने राज्यों में विपक्षी एकता का नेतृत्व करने की अनुमति दे। यदि सभी दलों और उनकी राजनीतिक ताकत का सम्मान करने की रणनीति सुनिश्चित की गई तो 2024 का राष्ट्रीय चुनाव भारत के भविष्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो जाएगा और विपक्ष सत्ता का पक्का दावेदार बन जाएगा।

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