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हेट स्पीच मामले में केंद्र सरकार को फटकार, क्या सुप्रीम कोर्ट करेगा इंसाफ़

अदालत ने नफरती टीवी डिबेट और हेट स्पीच से निपटने के लिए एक ठोस सिस्टम की ज़रूरत के साथ ही सरकार की भूमिका पर भी सवाल उठाया है। साथ ही राजनीति और पत्रकारिता के घालमेल को लेकर सख्त टिप्पणियां की हैं।
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"राजनीतिक दल आएंगे-जाएंगे, लेकिन इसका असर असल में पूरा देश झेलता है। देश की संस्थाएं झेलती हैं। पूरी तरह से स्वतंत्र प्रेस के बिना, कोई भी देश आगे नहीं बढ़ सकता। और, हेट स्पीच इस साख को ही दूषित कर देती है... इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती!”

सुप्रीम कोर्ट की ये सख्त हेट स्पीच से जुड़ी याचिकाओं पर चल रही सुनवाई के दौरान आई। अदालत तथाकथित 'धर्म संसद' की बैठकों में दिए गए नफरती भाषण, सुदर्शन न्यूज़ पर प्रसारित 'यूपीएससी जिहाद' कार्यक्रम सहित कुल 11 रिट पेटिशन्स पर सुनवाई कर रही है। जिसे लेकर बुधवार, 21 सितंबर को जस्टिस के एम जोसेफ और जस्टिस ऋषिकेश रॉय की बेंच ने हेट स्पीच से निपटने के लिए एक ठोस सिस्टम की ज़रूरत के साथ ही सरकार की भूमिका पर भी सवाल उठाते हुए पूछा कि इस मामले में सरकार मूक दर्शक बनकर क्यों बैठी है? और, क्या सरकार इस पर अंकुश लगाने के लिए कोई क़ानून बनाने का इरादा रखती भी है?

बता दें कि कोर्ट ने इस मामले में केंद्र सरकार से दो सप्ताह के भीतर एक रिपोर्ट पेश करने को कहा है, जो नफरती भाषण की घटनाओं से निपटने में की गई कार्रवाई पर, केंद्र को 14 राज्यों से मिले जवाबों पर आधारित होगी। हेट स्पीच से निपटने के लिए भारत के विधि आयोग ने 2017 में एक रिपोर्ट पेश की थी। अदालत ने सरकार से ये स्पष्ट करने को कहा है कि वो विधि आयोग की सिफ़ारिशों पर कार्रवाई करने के बारे में क्या सोचती है। मामले की अगली सुनवाई 23 नवंबर को होगी।

क्या है पूरा मामला?

आज क़रीब-क़रीब हर दिन टीवी न्यूज़ चैनलों के स्टूडियो में कुछ तिलक-त्रिपुंडधारी और कुछ दाढ़ी और जालीदार गोल टोपीवाले मौलानाओं के साथ भारी-भरकम पैनल दिखता है, जो देश के सारे अहम मसलों को छोड़ कर हिन्दू-मुस्लिम मामलों पर डिबेट करते-करते हेट स्पीच की शक्ल अख्तियार कर लेते हैं। टीवी चैनलों पर जो बहस की नौटंकी है, वह सिर्फ़ भावनाएँ भड़कानेवाली है, जो देश में नफरती रोटियां सेकने वालों की दुकान चलाने के साथ ही सामाजिक रिश्तों में भी ज़हर घोल रही है। इन्हीं सब मुद्दों को चिंता जताते हुए हेट स्पीच मामले में सुप्रीम कोर्ट में रिट याचिकाएं दाखिल हैं। इन पर बुधवार को कोर्ट में सुनवाई हुई जिसमें कोर्ट ने हिन्दू मुस्लिम नफरती डिबेट पर सख्त टिप्पणी की।

लाइव लॉ में छपी रिपोर्ट के मुताबिक़, जस्टिस केएम जोसेफ ने कहा कि सबसे ज्यादा हेट स्पीच मीडिया और सोशल मीडिया पर है। हमारा देश किधर जा रहा है? उन्होंने केवल न्यूज़ चैनलों के डिबेट पर टिप्पणी नहीं की है बल्कि यह भी कहा है कि राजनीतिक दल इससे पूंजी बनाते हैं और टीवी चैनल एक मंच के रूप में काम कर रहे हैं। सबसे ज्यादा नफरत भरे भाषण टीवी, सोशल मीडिया पर हो रहे हैं, दुर्भाग्य से हमारे पास टीवी के संबंध में कोई नियामक तंत्र नहीं है।

जस्टिस केएम जोसेफ के मुताबिक, "मुख्यधारा मीडिया और सोशल मीडिया पर इस्तेमाल हो रही भाषा बेलगाम है। जहां तक मुख्यधारा के टीवी चैनलों का सवाल है, वहां ऐंकर की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। जिस वक़्त ऐंकर किसी को नफ़रती भाषण देते देखता है, ये उसका कर्तव्य है कि वो उस व्यक्ति को आगे कुछ भी बोलने से रोके।"

उन्होंने आगे कहा, "हमारे यहां अमेरिका की तरह प्रेस की स्वतंत्रता के लिए अलग से क़ानून नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि खुली बहस होनी चाहिए। प्रेस की स्वतंत्रता ज़रूरी है, लेकिन हमें पता होना चाहिए कि लाइन कहां खींचनी है। यूके में एक चैनल पर भारी जुर्माना लगा था, ऐसा यहां नहीं है। उनके साथ कड़ाई से पेश नहीं आया जा रहा है। उनके ऊपर जुर्माना लगाया जा सकता है, ऑफ एयर किया जा सकता है।"

केंद्र सरकार को फटकार

कोर्ट ने केंद्र सरकार को भी फटकार लगाते हुए कहा कि सरकार को इस मामले में प्रतिकूल रुख नहीं अपनाना चाहिए। बल्कि अदालत की मदद करनी चाहिए। साथ ही ये भी पूछा कि क्या सरकार के लिए ये एक मामूली मुद्दा है? बेंच ने ये भी संकेत दिया कि किसी विशिष्ट क़ानून की अनुपस्थिति में, नफरती भाषा की रूपरेखा को परिभाषित करने के लिए, वो गाइडलाइन्स निर्धारित कर सकती है- जैसा कि विशाखा फैसले में हुआ था, जिसमें कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न की घटनाओं से निपटने के लिए एक क्रियाप्रणाली तैयार की गई थी। कोर्ट ने कहा कि गाइडलाइन्स से एक ऐसा संस्थागत तंत्र स्थापित किया जाएगा, जिससे नफरती भाषा की शिकायतों से निपटा जा सकेगा।

जस्टिस जोज़फ ने ज़ोर देते हुए कहा कि एक ऐसी व्यवस्था स्थापित होनी चाहिए, जिसमें ‘प्रेस को वास्तविक आज़ादी हो’, और साथ ही ‘सुनने वाले’ के पास भी आज़ादी हो, जिससे कि वो पथभ्रष्ट न हो जाए। जब राष्ट्रीय ब्रॉडकास्टिंग एसोसिएशन (एनबीए) के वकील ने कोर्ट को बताया कि उसके पास नियम तोड़ने वालों को दंडित करने की व्यवस्था है, तो कोर्ट ने टिप्पणी की: ‘लेकिन समस्या फिर भी बरक़रार है। आपने 4,000 आदेश दिए होंगे, लेकिन ऐसे आदेशों का असर क्या है?’ इस पर जस्टिस ऋषिकेश रॉय ने कहा कि जब तक नियम तोड़ने वाले उल्लंघन के कठोर नतीजे नहीं भुगतेंगे, तब तक संदेश कैसे जाएगा? चिल्लर जैसी ये पेनल्टी किसी काम की नहीं है, इससे उनकी जेबों पर ज़रा भी फर्क़ नहीं पड़ेगा।

नफ़रत भरी बातें अपराध हैं, जो आप रोज़ टीवी पर देखते हैं!

गौरतलब है कि हेट स्पीच यानी भड़काऊ या नफ़रत भरी बातें अपराध हैं और बीते कुछ सालों में इन पर सरकार की इच्छा के आधार पर कार्रवाई होती देखी गई है। अगर सरकारों को राजनीतिक रूप से उचित लगता है तो वे इस तरह के मामलों में कार्रवाइयां करती हैं और अगर उन्हें सूट न करे तो नहीं करतीं। सुदर्शन न्यूज़ के जिस कार्यक्रम को लेकर विवाद था उसमें 'नौकरशाही में एक ख़ास समुदाय की बढ़ती घुसपैठ के पीछे कोई षड्यंत्र होने' का दावा किया गया था।

दिल्ली हाई कोर्ट ने इस कार्यक्रम पर रोक लगा दी थी। जामिया मिल्लिया इस्लामिया यूनिवर्सिटी के छात्रों की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट के न्यायाधीश नवीन चावला ने इस कार्यक्रम के प्रसारण के ख़िलाफ़ स्टे ऑर्डर जारी किया था। मगर केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने चैनल को ये कार्यक्रम प्रसारित करने की इजाज़त दे दी। हाई कोर्ट में सुनवाई के दौरान केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने कहा था कि उन्हें सुदर्शन न्यूज़ के इस प्रोग्राम के ख़िलाफ़ कई शिकायतें मिली हैं और मंत्रालय ने न्यूज़ चैनल को नोटिस जारी कर इस पर जवाब माँगा है। मंत्रालय ने ये भी कहा था कि कार्यक्रम प्रसारित होने से पहले कार्यक्रम की स्क्रिप्ट नहीं माँगी जा सकती और ना ही उसके प्रसारण पर रोक लगायी जा सकती है।

जाहिर है हज़ारों करोड़ के विज्ञापन और दिन रात के निवेश से चल रहे मीडिया संस्थानों के स्वामित्व और जवाबदेही पर भी बीते लंबे समय से बहस जारी है। हज़ारों करोड़ों के विज्ञापनों से लैस तथाकथित जनता की आवाज़ उठाने वाला मीडिया और पत्रकारिता इन दिनों स्टूडियो ऐंकरों के मोहताज़ बन कर रह गए हैं। देश में राजनीति और पत्रकारिता का ये घालमेल बीते कुछ सालों से जनता नाम की हस्ती को मिटा देने का हथियार बन गए हैं। इन डिबेट्स के जरिए माहौल पैदा किया जाने लगा है। जिसे आप सत्ताधारी पार्टी के ऐजेंडे से अलग नहीं देख सकते। प्रधानंमत्री से लेकर गृह मंत्री और अन्य मंत्रियों के कई बयान मिल जाएंगे तो परोक्ष रुप से एक समुदाय को अक्सर निशाना बनाते हैं। ये जाने-अनजाने एक तरह से एक ख़तरनाक कंडीशनिंग कर रहे हैं, जो समाज को विभाजित कर हाशिए पर खड़े लोगों को मुख्यधारा से अलग-थलग करने का षयंत्र लगता है। बहरहाल, अब हम सभी के ये समझना होगा कि तथ्यहीन और बेहूदा तर्कों, गाली-गलौज से उपजी झूठी धारणाएँ किसी सामाजिक सुधार के बजाय समाज में एक-दूसरे के प्रति सिर्फ़ वैमनस्य ही बढ़ाती हैं।

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