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“ग़रीबों को मिले रोटी तो मेरी जान सस्ती है”: चंद्रशेखर आज़ाद की दो स्वरचित कविताएं

आज चंद्रशेखर आज़ाद के जन्मदिवस के सन्दर्भ में हम यहाँ उनकी दो स्वरचित कविताएं पहली बार पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं, जो सही मायनों में इतिहास के पन्नों में दबी पड़ी थीं।
Chandra Shekhar Azad

संघर्षशील जनता कविताओं के माध्यम से अपने दुःख-दर्द और आकांक्षाओं को अनंतकाल से व्यक्त करती आ रही है। कविता वह माध्यम है जो लड़ने की हिम्मत देता है और मुश्किल राहों को आसान करता है। भारत के स्वाधीनता संग्राम में कवियों और लेखकों ने जन-जागृति में एक अहम भूमिका निभाई, जिनमें क्रांतिकारियों द्वारा रची गयी कविताओं और नज़्मों का एक महत्वपूर्ण स्थान है। रामप्रसाद बिस्मिल द्वारा रचित 'सरफरोशी की तमन्ना' आज भी जन संघर्षों का अभिन्न नारा है। अशफ़ाक़उल्ला खान द्वारा लिखी गई नज़्में हम आज भी गाते हैं और उनसे प्रेरणा लेते हैं। 

कविता पढ़ना और लिखना भारतीय क्रन्तिकारी आंदोलन का एक अभिन्न अंग रहा। भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त और विजय कुमार सिन्हा को शेरो-शायरी में अत्यधिक रुचि थी। अपने साथियों का कविता प्रेम देख कर राजगुरु ने भी एक बार कविता लेखन पर हाथ आजमाइश की जिसका परिणाम निम्न पंक्तियाँ थी; "अब तक नहीं मालूम था, इश्क़ क्या चीज है, रोजे को देखकर मेरे इश्क़ ने बलवा किया।" इन पंक्तियों को सुनने के बाद भगत सिंह ने अपना रिवाल्वर राजगुरु को देते हुए कहा था, 'ले जाओ मार दो गोली मुझे या फिर वादा करो कि आज से फिर शेरो-शायरी का नाम न लूँगा'। (हा हा हा)

इस परिपेक्ष्य में चंद्रशेखर आज़ाद भी कविता प्रेम से दूर न रह सके। उनके साथी और जीवनीकार विश्वनाथ वैश्यंपायन के अनुसार आज़ाद गाना तो नहीं जानते थे लेकिन काव्य प्रेमी थे और अक्सर इधर-उधर की पंक्तियाँ गुनगुनाते थे। आज़ाद को प्रेम रस या मधुर भाव की कविताएं नहीं भाती थीं। इस सन्दर्भ में आज़ाद के एक साथी भगवानदास माहौर एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखते हैं- किसी बात पर मैं अपना एक प्रेम-गीत सुना रहा था-

"ह्रदय लागी, 

प्रेम ही की बात निराली,

मन्मथशर हो..."

इन पंक्तियों को सुनकर आज़ाद को गुस्सा आ गया और उन्होंने कहा, "क्या प्रेम-प्रेम पिनपिनाता रहता है। क्यों अपना और दूसरों का मन खराब करता रहता है। कहाँ मिलेगा इस जिन्दगी में प्रेम-व्रेम का अवसर? कल कहीं सड़क के किनारे पुलिस की गोली खाकर लुढ़कते नजर आएंगे। मन्मथशर-कनमथशर!... अरे कुछ 'बम फटकर, पिस्तौल झटककर, ऐसा कुछ गा। देख मैं गाऊँ अपनी एक कविता जिसे जिन्दगी में कर जाने के लिए ही जिन्दा हूँ'।" आज़ाद ने तब अपनी वह पंक्तियाँ गा कर सुनाई जिससे उनकी आज पहचान होती है; "दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, आज़ाद ही रहे हैं आज़ाद ही रहेंगे।"

कहना न होगा कि आज़ाद ने भी कविता लेखन पर हाथ आजमाइश की थी। आज चंद्रशेखर आज़ाद के जन्मदिवस के सन्दर्भ में हम यहाँ उनकी दो स्वरचित कविताएं पहली बार पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं, जो सही मायनों में इतिहास के पन्नों में दबी पड़ी थीं। यह दोनों कविताएं बनारस से बलदेव प्रसाद शर्मा द्वारा सम्पादित पुस्तक 'श्री चंद्रशेखर आजाद की जीवनी' से ली गई हैं जो राष्टीय अभिलेखागार के प्रतिबंधित साहित्य अनुभाग में सुरक्षित है।

कविता-1

“वही शाहे शहीदां है, वही है रौनके आलम । 

वतन पर देके जां जो जंग के मैंदा में सोता है ।। 

उसीका नाम रोशन हैं, उसीका नाम बाक़ी है । 

कि जिसकी मौत पर दुनियाँ का हर इंसान रोता है ।। 

ज़रा बेदार हो, अब ख़वाबे ग़फ़लत से जवानो तुम । 

कि जिसमें जोरें बाजू है, वही "आज़ाद" होता है ।। 

यही दुनियाँ से अब इस सुरमा की रूह कहती है । 

गरीबों को मिले रोटी तो मेरी जान सस्ती है ।।” 

कविता-2

“हम दिखायेंगे तुम्हें वह कुव्वते फ़रियाद की । 

बेसीदा होगी नहीं ज़ंजीर है आज़ाद की ।। 

कौन कहता है कि मेरा रायगां खूँ जायगा । 

मरने वालों ने जब एक दुनियाँ नई आबाद की ।।  

किस तरह से जंग करते हैं वतन के वास्ते । 

किस तरह से जान देते हैं वतन के वास्ते ।। 

फ़क़त दुनियाँ में तुम्हें थे यह बताने आये हम।  

खुश रहो अहले वतन चलते हैं वन्देमातरम् ।।”

इन दोनों कविताओं में हमें चंद्रशेखर आज़ाद और वृहद् क्रांतिकारी आंदोलन के सोच-विचारों की एक झलक मिलती है। दोनों ही कविताएं, युवाओं को देश की स्वतन्त्रता हेतु लड़ने के लिए प्रेरित करने के भाव से लिखी गई हैं । साथ ही साथ एक क्रांतिकारी अपनी भूमिका को वर्तमान और भविष्य में कैसे देखता है उसकी झलक भी मिलती है। दोनों कविताओं में हमें रामप्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ुल्ला खान का प्रभाव भी दिखता है जिन्होंने शहादत से पहले कुछ इन्हीं भाव की कविताओं और नज़्मों की रचना की थी।  

पहली कविता की आखिरी पंक्ति में आज़ाद ने एक क्रांतिकारी की जान की कीमत, ग़रीब की थाली की रोटी से कम बताई है। इससे साफ़ जाहिर है कि आज़ाद के लिए क्रांतिकारी होने का मतलब सिर्फ सत्ता परिवर्तन या भगत सिंह की भाषा में कहें तो ‘गोरे अँग्रेज़ों’ की जगह ‘भूरे अँग्रेज़ों’ की सत्ता स्थापित करना नहीं, अपितु गरीबी हटाना भी था। आज़ाद की समाजवादी विचारधारा की यही झलक हमें इस गीत में भी दिखती है जिसको वो अक्सर गुनगुनाया करते - 

"जोहि दिन होइहैं सूरजवा 

अरहर के दलीय, धान के भतुआ 

खूब कचरके खैबेना 

अरे जोहि दिन होइहैं सूरजवा।"      

(सूरजवा अर्थात स्वराज)

इन पंक्तियों में आज़ाद भारत को ले कर चंद्रशेखर आज़ाद का वह सपना दिखता है जिसके लिए उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत से लोहा लेते हुए अपने प्राणों की आहुति दी। आजादी के पचहत्तर साल बाद भी चंद्रशेखर आज़ाद का यह सपना अधूरा है।    

"गरीबों को मिले रोटी तो मेरी जान सस्ती है”; यह पंक्तियां, यह नारा और कथनी आपने कई बार सुना होगा। आम तौर पर इस कथनी का इस्तेमाल देश के समाजवादी और साम्यवादी आंदोलन में लम्बे समय से होता आ रहा है, लेकिन शायद किसी को यह नहीं पता की इस नारे की शुरुवात कहाँ से और किसने की थी। चंद्रशेखर आज़ाद द्वारा रचित कविता को पढ़ कर आज हमें इस नारे के इतिहास का अनुमान लगा सकते हैं।

आज़ादी की लड़ाई का एक शेर है, "शहीदों की मज़ारों पर लगेंगे हर बरस मेले/ वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा"। आज़ाद मज़ाक या तंज़ में कभी-कभी इस शेर को बदल कर ऐसे पढ़ते थे, "शहीदों की चिताओ पर पड़ेंगे खाक के ढेले। वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशां होगा"

आज के दौर में शहीदों की मज़ार पर साल में दो बार मेले तो जरूर लगते हैं, उनकी तस्वीरों के आगे फूल और मालाएं चढ़ाई तो जाती हैं, लेकिन मात्र उनकी बहादुरी को पूजने के लिए। वो शहीद क्या सोचते थे, किस तरह के भारत का सपना ले कर लड़े और मृत्यु को खुशी-खुशी गले लगाया उसकी चर्चा न के बराबर ही है। 

आज के नव-उदारवादी दौर में जहाँ गरीबों के पेट पर सरकार और पूंजीपतियों का चौतरफा हमला है, गरीबों की थाली से रोटी-दाल छीनकर पूंजीपतियों की तिजोरियों को भरा जा रहा है, उस समय में आज़ाद की रचनाएँ और भी प्रासंगिक हो उठती हैं। आज की इस भीषण शोषणकारी व्यवस्था में आज़ाद को मात्र एक रिवाल्वर थामे मूँछों पर ताव देते व्यक्ति के तौर पर याद करना यक़ीनन उनकी चिता पर ढेले मारने जैसा ही होगा जिसकी कल्पना आज़ाद ने कभी दुःखी मन से की थी।

(तीनों लेखक जेएनयू में शोधार्थी हैं।) 

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