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चंद्रशेखर आज़ाद: एक क्रांतिकारी जो समाजवाद की लड़ाई लड़ते-लड़ते शहीद हो गया

आज़ाद जयंती पर विशेष: सोशल मीडिया के जमाने में चंद्रशेखर आज़ाद को मात्र एक मूछों को ताव देने वाले, जनेऊ पहने, बलिष्ठ भुजाओं वाले व्यक्ति की तौर याद किया जाने लगा है जिसकी वजह से उनके विचार पीछे छूटते जा रहे हैं। 
चंद्रशेखर आज़ाद

27 फरवरी 1931 का दिन है। इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में चारों तरफ से गोलियां चल रही हैं! एक व्यक्ति पेड़ की आड़ में अंग्रेजी सरकार के गुर्गों से अकेले ही लोहा ले रहा है। इस व्यक्ति ने करीबन नौ साल पहले प्रतिज्ञा ली होती है कि वो जीते जी अंग्रेजों के हाथ नहीं आएगा।  अपनी इस प्रतिज्ञा पर कायम रहते हुए वह व्यक्ति आख़िरी दम तक अंग्रेजी सरकार के गुर्गों से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त होता है और भारतीय जनमानस में हमेशा हमेशा के लिए अमर हो जाता है। हम बात कर रहे हैं भारत के महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आज़ाद की।

चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को अलीराजपुर रियासत के भावरा गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम सीताराम तिवारी था जो कि पेशे से माली थे व उनकी माता का नाम जगरानी देवी था जो एक गृहणी थीं। चंद्रशेखर का परिवार बहुत ही गरीब था जिसकी वजह से उन्हें बहुत ही युवावस्था में नौकरी करनी पड़ी। चंद्रशेखर की पहली नौकरी उनकी ही तहसील में लगी, लेकिन वो यह नौकरी ज्यादा दिन कर नहीं पाए क्योंकि उनको हर दिन अफ़सर को झुक कर सलामी देनी पड़ती थी जो उन्हें बिलकुल पसंद नहीं था।

चंद्रशेखर ने यह नौकरी छोड़ दी और पिता की डाँट सुनने के बाद एक ठेकेदार की मदद से मुंबई पहुंच गए। मुंबई में आज़ाद कुली का काम करते हुए एक मज़दूर बस्ती में रहे। लेकिन कुछ दिनों बाद चंद्रशेखर को यह जीवन  भी रास नहीं आया और वो भागकर बनारस चले गए जहाँ अपने एक पुराने शिक्षक की मदद से काशी विद्यापीठ में संस्कृत की पढ़ाई करने लगे। इसी समय महात्मा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने देश की आज़ादी के लिए असहयोग आंदोलन छेड़ दिया जिसमे चंद्रशेखर ने पूरे उत्साह के साथ हिस्सेदारी की। एक प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने उनको पकड़ लिया और अगले दिन कोर्ट में पेश किया।

जब मजिस्ट्रेट ने चंद्रशेखर से उनका नाम पूछा, तो उन्होंने 'आज़ाद' बतलाया; पिता का नाम 'स्वाधीनता' बतलाया और पता 'जेल' बतलाया। ऐसे जवाब सुन कर मजिस्ट्रेट को गुस्सा आ गया और उसने चंद्रशेखर को पंद्रह दिन की कैद और पंद्रह कोड़ो की सजा सुनाई, जिसे चंद्रशेखर ने बहादुरी से स्वीकार किया। इस घटनाक्रम के बाद चंद्रशेखर, 'आज़ाद' , के नाम से पूरे बनारस में मशहूर हो गए और कांग्रेस की कई बैठकों और प्रदर्शनों में हिस्सा लेने लगे। 

लेकिन जब गांधी ने चौरीचौरा कांड के बाद असहयोग आंदोलन वापस ले लिया तो आज़ाद भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की क्रांतिकारी धारा की तरफ़ उन्मुख हो गए। उस समय बनारस क्रांतिकारियों का एक प्रमुख केंद्र था। तब के संयुक्त प्रांत में शचींद्र नाथ सान्याल ने क्रांतिकारी आंदोलन को पुनर्गठित करना शुरू कर दिया था जिसके तहत उन्होंने 1923 में ‘हिंदुस्तान प्रजातान्त्रिक संघ’ की स्थापना की। आज़ाद राजेंद्र लाहिड़ी और मन्मथ नाथ गुप्त के संपर्क में आकर इस भूमिगत क्रांतिकारी संगठन से जुड़ गए और इसके सक्रिय सदस्य हो गए। शुरुआती दिनों में उनका काम पर्चे बांटना और क्रांतिकारी साथियों के बीच संदेश पहुचाना था।

इस क्रांतिकारी संगठन से जुड़ने के बाद आज़ाद के लिए जरूरी था कि वे क्रांतिकारी साहित्य भी पढ़ना प्रारंभ करें। पर चूंकि उनकी आरंभिक शिक्षादीक्षा बहुत कम हुई थी इसलिए सैद्धांतिक किताबों को समझने में बाधाएं थीं। इस बाधा को दूर करने के लिए उन्होंने अपने क्रांतिकारी साथियों की सहायता लेनी शुरू कर दी। हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ के पूर्ण कांलिक सदस्य बनने के क्रम मे उन्होंने इतावली क्रातिकारियों जुइसेप्पे मात्सिनी और जुइसेप्पे  गारिबाल्डी के साथ साथ आयरिश क्रांतिकारी टेरेंस मैकस्विनी की जीवनियां भी पढ़ी और शचींद्र नाथ सान्याल की आत्मकथा बंदी जीवन भी।

क्रांतिकारी साहित्य की पढ़ाई के इसी सिलसिले में उन्होंने हिस्ट्री ऑफ आय़रिश रिवोल्यूशनरीज, (आयरिश क्रांतिकारियों का इतिहास), हिस्ट्री ऑफ रसियन रिवोल्यूशनरीज (रूसी क्रांतिकारियों का इतिहास) के साथ साथ गुरू गोविंद सिंह, शिवाजी, राणा प्रताप जैसे व्यक्तित्वों की जीवनियां पढ़ीं क्योंकि ये सब संगठन के सदस्यों को अनिवार्यत:  पढनी होती थीं।

हिसप्रस की सक्रियता के दिनों में ही आज़ाद ने अपने साथी शिव वर्मा के माध्यम से कार्ल मार्क्स और एंगेल्स के कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो का भी अध्ययन किया। जब आज़ाद हिसप्रस के कमांडर बन गए तो उन्होंने सत्यभक्त की लिखी `एबीसी ऑफ कम्युनिज्म’  में भी दिलचस्पी दिखाई ताकि साथियों को साम्यवाद और समाजवाद की बुनियादी शिक्षा दी जा सके। मगर यहां यह भी उल्लेख करना आवश्यक है कि  अध्ययन में दिलचस्पी दिखाने के बावजूद वे संगठन और व्यवहारिक राजनीति को ही अधिक वरीयता देते थे।

1925 में आज़ाद ने मशहूर काकोरी ट्रेन डैकैती में हिस्सा लिया। इसके पहले उन्होंने और भी कई डकैतियों में भाग लिया था जो अलग अलग जगहों और गांवों में बड़े बड़े जमींदारों और साहूकारों के यहां डाली गई थीं। पर काकोरी कांड क्रांतिकारी पार्टी के लिए काफ़ी नुकसानदेह साबित हुआ क्योंकि इसके बाद अंग्रेजी हुकूमत से सीधा टकराव शुरू हो गया। पुलिस ने क्रांतिकारियों की धड़पकड़ शुरू कर दी, कई पकड़े भी गए और जेल में डाल दिए गए। लेकिन आज़ाद पकड़ में नहीं आए। वे झांसी चले गए और वेश बदलकर कुछ समय रहे।  वेश बदल कर रहने और पकड़ में न आने की इसी क्षमता के कारण राम प्रसाद बिस्मिल नें उनको क्विक सिल्वर (‘पारा’) उपनाम दिया।

काकोरी कांड के बाद क्रांतिकारी आंदोलन बिखर गया। आज़ाद पुराने क्रांतिकारियों में एक मात्र प्रमुख व्यक्ति थे जो जेल से बाहर थे इसलिए उन पर एक बड़ा दायित्व आ गया था कि संगठन को कैसे बचाएं और सक्रिय रखे। झांसी में रहते हुए चंद्रशेखर आज़ाद क्रांतिकारी पार्टी को फिर से संगठित करने का प्रयास करने लगे जिसमें उन्हें पंजाब के क्रांतिकारी भगत सिंह और सुखदेव का साथ मिला। इनके आपसी सहयोग और अथक परिश्रम की वजह से क्रांतिकारियों की एक नई खेप तैयार होने लगी जिसनें ताकतवर अंग्रेजी हुकूमत को चुनौती देना शुरू कर दिया: नई ऊर्जा और गहन वैचारिकता के साथ।

इन क्रांतिकारियों के अथक प्रयास से 8 -9 सितंबर 1928 में 'हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातांत्रिक संघ' (हिसप्रस) की स्थापना हुई जिसका मकसद भारत को अंग्रेजी राज से सशस्त्र क्रांति के माध्यम से आज़ाद कराना था और भारत में सर्वहारा राज कायम करना था। चंद्रशेखर आज़ाद को नए संगठन का ‘कमांडर-इन –चीफ’ और साथ ही साथ मिलिट्री विभाग का मुखिया चुना गया।

वैसे तो नवगठित हिसप्रस पुराने हिंदुस्तान प्रजातत्र संगठन का ही नया रूप था पर दो अंतर भी थे। एक तो समाजवाद की स्थापना का लक्ष्य रखा गया और दूसरे सभी तरह के धार्मिक और जातीय प्रतीकों और चिह्नों को तिलांजलि दे दी गई। सभी सदस्यों के लिए ये अनिवार्य कर दिया गया कि वे न जनेऊ पहनेंगे, न तिलक लगाएंगे और न सिखों वाली पगड़ी बांधेंगे।

हिसप्रस का पहला बड़ा काम था लाजपत राय को मारनेवाले जेपी सांडर्स का वध। औऱ दूसरा बड़ा काम था पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिसप्यूट बिल के विरोध में भगत सिंह औऱ बटुकेश्वर दत्त द्वारा केद्रीय विधानसभा में बम फेंकने का। इन दोनों घटनाओं ने इस क्रांतिकारी अभियान को राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में ला दिया और देश के लोगों का जनसमर्थन भी मिला। लेकिन इस वाकये न हिसप्रस को क्षत विक्षत भी कर दिया। 

आज़ाद की विचार यात्रा

क्रांतिकारी आंदोलन के वैचारिक पक्ष और विकास की जब भी बात आती है तो भगत सिंह का नाम सबसे पहले आता है। भगत सिंह की लेखनी और वक्तव्य को आधार बनाकर हम पूरे क्रांतिकारी आंदोलन के वैचारिक विकास की रेखा को खींचने की कोशिश करते हैं। इस व्यक्ति केंद्रित विश्लेषण की एक कमी यह है कि वह पूरे क्रांतिकारी आंदोलन को एक व्यक्ति तक सीमित कर देता है जिसकी वजह से क्रांतिकारी आंदोलन का वैचारिक पक्ष हमेशा ही कठघरे में रहता है।

चंद्रशेखर आज़ाद को आम तौर पर क्रांतिकारी आंदोलन के जाबांज सिपाही के तौर पर ही याद किया जाता है, लेकिन जब हम उनके जीवन को और गहराई में जा कर टटोलते हैं तो ये पाते हैं की वो भी उसी ओर बढ़ रहे थे, जिस ओर भगत सिंह, यानी की समाजवाद की ओर। आज़ाद उस संगठन के मुखिया थे जिसका मकसद सशस्त्र क्रांति के माध्यम से भारत में पूंजीवाद-उपनिवेशवाद को हराते हुए सर्वहारा राज कायम करने का था।

जेल में रहते हुए भगत सिंह और सुखदेव क्रन्तिकारी आंदोलन की कमी और भविष्य की रूपरेखा पर चिंतन मनन करते हुए इस निष्कर्ष पे पहुंचे थे की आगे का संघर्ष बम और पिस्तौल की जगह मज़दूर-किसान वर्ग को संगठित करके लड़ा जाना चाहिए। उन्होंने बम की फैक्ट्री के बदले प्रिंटिंग प्रेस लगाने पे ज़ोर दिया ताकि क्रन्तिकारी विचारों का जनता के बीच प्रचार-प्रसार हो सके।

बाहर चंद्रशेखर आज़ाद भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे। अजय घोष जब लाहौर षड्यंत्र केस से बरी हो कर आये और आज़ाद से मिले तो उन्होंने आज़ाद की सोच में ये बदलाव देखा। घोष के अनुसार, “आज़ाद का विचार था की अधिक से अधिक साथी किसानों-मज़दूरों का संगठन तथा अन्य जन-कार्य करने जाएं।” 

आज़ाद अपने कुछ साथियों को क्रन्तिकारी कामों में दीक्षा प्राप्त करने के लिए सोवियत रूस भी भेजना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने मेरठ षड्यंत्र केस के कुछ अभियुक्तों से संपर्क भी साधा था। इस यात्रा के लिए कुछ साथियों का नाम भी तय कर लिया गया था जिनको बम्बई से कुछ अंग्रेज़ कम्युनिस्टों की मदद से सोवियत रूस में ले जाने की  तैयारी भी कर ली थी  लेकिन आज़ाद की असामयिक मृत्यु और उसके बाद गिरफ्तारियों की वजह से अमल में नहीं आ सका।  

समाजवाद के अलावा आज़ाद ने अनीश्वरवाद को भी अपना लिया था जिसका जिक्र यशपाल अपने संस्मरण 'सिंहावलोकन' में करते हैं। इसके अलावा दल के निर्णय के अनुसार आज़ाद ने जातीय- धार्मिक प्रतिक 'जनेऊ' का भी तिरस्कार कर दिया था, जिसका उल्लेख आज़ाद के साथी छैलबिहारी लाल अपने में संस्मरण में करते हैं।

छैलबिहारी लाल लिखते हैं,

"बड़े भैया ने मेरा जनेऊ देखकर कहा, 'यह यहाँ नहीं चलेगा।' मैंने उसी समय अपना जनेऊ उतर दिया। बड़े भैया ने कहा, 'देश के लिए जीवन की कुर्बानी देने आये हो तो इसकी कुर्बानी पहले दो'।"

आज़ाद की मूछों को ताव देते हुए, जनेऊ पहनी जो तस्वीर हम देखते हैं वो आज़ाद की फरारी के समय की है जब वह एक साधु के भेस में रामायण का पाठ पढ़ाते हुए अंग्रेजी सरकार को चकमा दे रहे थे! उससे पहले और बाद में आज़ाद मोटर मैकेनिक, पठान, सेठ, गवैया का भी छद्म रूप अपना चुके थे। 

सोशल मीडिया के जमाने में चंद्रशेखर आज़ाद को मात्र एक मूछों को ताव देने वाले, जनेऊ पहने, बलिष्ठ भुजाओं वाले व्यक्ति की तौर याद किया जाने लगा है जिसकी वजह से उनके विचार पीछे छूटते जा रहे हैं। 

आज़ाद समाजवादी भारत का सपना लिए हुए शहीद हो गए। आज ज़रूरत है आज़ाद और उनके साथ साथ पूरे क्रन्तिकारी आंदोलन के वैचारिक पक्ष को जनता के सामने बार-बार लाने की ताकि क्रांतिकारियों की एक धर्मनिस्पेक्ष-जाति विहीन-साम्यवादी समाज के सपने को पूरा करने की लड़ाई और तेज़ की जा सके।

(लेखक प्रबल सरन अग्रवाल और हर्षवर्धन जेएनयू के शोधार्थी हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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