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यूपी में संघ-भाजपा की बदलती रणनीति : लोकतांत्रिक ताकतों की बढ़ती चुनौती

नज़रिया: ऐसा लगता है इस दौर की रणनीति के अनुरूप काम का नया बंटवारा है- नॉन-स्टेट एक्टर्स अपने नफ़रती अभियान में लगे रहेंगे, दूसरी ओर प्रशासन उन्हें एक सीमा से आगे नहीं जाने देगा ताकि योगी जी के 'सुशासन' की छवि निखरती रहे।
Yogi
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (बाएं)। अयोध्या में सांप्रदायिक दंगें कराने की साज़िश का खुलासा करती पुलिस (दाएं) फाइल फोटो।

इस बार ईद में खूब गहमा-गहमी रही। एक वजह तो शायद यह थी कि दो साल के महामारी के दौर के बाद खुशी का यह मौका आया था। साथ ही यह मौजूदा नफरती माहौल के खिलाफ, जिसका जहांगीरपुरी के बुलडोजर सबसे बड़ा प्रतीक बन गए थे, मोहब्बत, अमन और भाईचारे की ताकतों का प्रतिरोध और जवाब भी था। सोशल मीडिया भी ईद के बधाई सन्देशों से भरा रहा। अक्षय तृतीया जैसे त्योहारों को ईद के समांतर और शायद प्रतिस्पर्धा में खड़ा करने की हास्यास्पद और शरारतपूर्ण कोशिशें भी की गईं। पर वे कामयाब नहीं हुईं।

ईद के मौके पर चारों ओर दिखे परम्परागत प्रेम और भाईचारे ने फिर यह साबित किया कि नफरती ताकतें लाख कोशिशों के बावजूद आम जनता के बीच जमीनी स्तर पर मौजूद सौहार्द और सामाजिक तानेबाने को तोड़ पाने में नाकाम हैं।

उत्तर प्रदेश में, ऐसा नहीं है कि ईद की खुशियां छीन लेने और माहौल खराब करने की कोशिशें कम हुईं, पर वे कामयाब नहीं हुईं। अयोध्या, मेरठ, अलीगढ़, आगरा ताजमहल के जो वीडियो वायरल हुए हैं, वे दिखा रहे हैं कि नफरती ताकतें अहर्निश अपने काम में लगी हुई है, पर समाज में उन्हें response नहीं मिल रहा है। दूसरी ओर पुलिस प्रशासन ने लगता है शासन के इशारे पर सख्ती दिखाई और माहौल बिगाड़ने की कोशिश सिरे नहीं चढ़ सकी।

दरअसल, अन्य राज्यों में भले योगी जी का बुलडोजर मॉडल लोकप्रिय हो रहा है और borrow किया जा रहा है, लेकिन उत्तरप्रदेश में योगी राज- पार्ट 2 में योगी ने रणनीति में बदलाव किया है। इसका पूरा content तो अभी unfold होना बाकी है, पर ऐसा लगता है कि मुसलमानों के खिलाफ राज्य मशीनरी के दमनात्मक रुख को tone down किया जाएगा, क्योंकि शायद उसकी अब पहले जैसी जरूरत नहीं रह गयी है, मोदी के पहले कार्यकाल की तरह UP में भी उसके उद्देश्य को योगी के पहले कार्यकाल में ही हासिल किया जा चुका है। अब " सबका साथ, सबका विकास " और " कानून के राज" वाले सुशासन की छवि गढ़ी जाएगी, जो अपनी मूल दिशा में अल्पसंख्यकों के subjugation और marginalisation के लिए काम करता रहेगा।

यह कुछ-कुछ मोदी के मुख्यमंत्री के तौर पर दूसरे-तीसरे कार्यकाल की कॉपी जैसा लग रहा है, जब उन्होंने प्रधानमन्त्री बनने की महत्वाकांक्षा पालनी शुरू की होगी, post-गोधरा जो छवि उनकी बनी थी, उससे आगे बढ़ते हुए हिन्दू हृदय सम्राट के ऊपर विकासपुरुष की छवि गढ़ने की कवायद युद्धस्तर पर शुरू हुई थी, vibrant Gujarat जैसे कार्यक्रमों के माध्यम से गुजरात मॉडल को देश में सबसे salable hot commodity बना दिया गया था।

जाहिर है, historical conjuncture अलग है, सन्दर्भ बिल्कुल बदला हुआ है, UP गुजरात नहीं है, इसलिए अगले पायदान की तैयारी में लगे योगी की इस कोशिश का क्या नतीजा निकलेगा, इस दिशा पर वे टिके रहेंगे या फिर पुराने अवतार में लौटेंगे, इन सारे सवालों का जवाब भविष्य के गर्भ में है।

योगी-शासन की इस बदली रणनीति के पीछे एक प्रमुख कारण यह है कि UP चुनाव में जिस पैमाने पर एकजुट मुस्लिम वोट उनके खिलाफ पड़ा है, और उसने विपक्षी वोटों को जिस रिकॉर्ड ऊंचाई पर पहुंचा दिया ( विपक्षी गठबंधन का वोट 37% पहुँच गया, भाजपा गठबंधन से उसके बीच मात्र 6% का फर्क रह गया अर्थात 3-4% मतदाताओं की shifting से पूरी तस्वीर बदल सकती थी ), उससे भाजपा के रणनीतिकार चिंतित है।

इसी रणनीति के तहत बड़ी आबादी वाले पसमांदा मुस्लिम समाज के अंसारी समुदाय से अबकी बार भाजपा ने मंत्री बनाया है और सत्ता में हिस्सेदारी के नाम पर उन्हें उन विपक्षी दलों से अलग करने की कोशिश चल रही है जिनके दौर में अशराफ़ मुस्लिम तबके का मुस्लिम राजनीति में दबदबा रहता था।

प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा पाल रहे योगी के लिए नरम हिंदुत्व की यह line हिन्दुओं के उदार हिस्से को भी जीतने की कोशिश लगती है, जो उग्र सांप्रदायिक उन्माद को पसंद नहीं करता। हमें भूलना नहीं चाहिए कि गोधरा दौर से आगे बढ़ते हुए मोदी जब 2013-14 में विकास पुरुष के नए अवतार में सामने आए तो अनेक स्वनामधन्य उदारवादी बुद्धिजीवी जिनमें प्रताप भानु मेहता जैसे लोग तक शामिल थे, उनके प्रशंसक हो गए थे,(हालांकि उनमें से अनेक अब उनके विरोधी हो गए हैं) अटल बिहारी वाजपेयी के ऐसे प्रशंसकों की तादाद तो बहुत बड़ी थी जो अंततः उनके सत्तारोहण में मददगार साबित हुई थी।

ऐसा लगता है इस दौर की रणनीति के अनुरूप काम का नया बंटवारा है-नॉन-स्टेट एक्टर्स अपने नफरती अभियान में लगे रहेंगे, दूसरी ओर प्रशासन उन्हें एक सीमा से आगे नहीं जाने देगा ताकि योगी जी के 'सुशासन' की छवि निखरती रहे, लेकिन विभाजनकारी एजेंडा भी बुझने न पाए, धीमी आंच में सुलगता रहे, लोगों के दिल-दिमाग में slow poison घुलता रहे ( low intensity communalisation ) और जैसे ही जरूरत हो, उसे लहकाया जा सके !

योगीराज-2 में विरोधी राजनीतिक ताकतों और असहमत सामाजिक कार्यकर्ताओं और बौद्धिक शख़्सियतों के प्रति दमनात्मक रुख जारी रहने के संकेत हैं। CAA, NRC आंदोलन के दौर में बिल्कुल फर्जी आरोपों में प्रताड़ित किये गए तमाम सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं तथा आम लोगों को सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बावजूद हाल ही में फिर नोटिस भेजा गया है। दरअसल, सरकार डरी हुई है कि महंगाई, बेरोजगारी, किसानी, शिक्षा जैसे खौलते सवालों पर समाज में कभी भी outburst हो सकता है, इसलिए वह सारी विपक्षी वैचारिक-राजनीतिक ताकतों को लगातार डरा कर रखना चाहती है ।

जाहिर है देश के राजनीतिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण राज्य में रणनीति को परिस्थितियों के अनुरूप और fine-tune करती संघ-भाजपा की ओर से चुनौती लगातार बढ़ती जा रही है और देश एक खतरनाक भविष्य की ओर बढ़ रहा है।

आज समाज के सभी संवेदनशील, जिम्मेदार लोगों के लिए, जिनके अंदर देशप्रेम की भावना है और समाज के भविष्य की चिंता है , यह गहरे introspection का विषय है कि जो कुछ हो रहा है, वह देश को कहाँ ले जा रहा है।

क्या देश की 25 करोड़ से ऊपर अल्पसंख्यक आबादी का Cultural subjugation, social ghettoisation, economic-political marginalisation, जैसा संघ-भाजपा चाहते हैं, कभी समाज के लिए कोई सहज स्वीकार्य स्थिति हो सकती है ?

ऐसे समाज की दो ही नियति हो सकती है-या तो यह खुले राष्ट्रीय विखंडन की ओर बढ़ता जायगा ( जैसा 1947 में हमारे उपमहाद्वीप में हो चुका है या 1971 में तत्कालीन पाकिस्तान में हुआ और एक नए राष्ट्र बांग्लादेश का जन्म हो गया ) अथवा एक ही राष्ट्र राज्य के अंदर गृहयुद्ध जैसे हालात पैदा कर सकता है। ( जैसा श्रीलंका जैसे अनेक देशों में हुआ।)। स्वाभाविक रूप से ऐसे समाज में आर्थिक प्रगति और विकास का एजेंडा बहुत पीछे चला जायेगा, वर्तमान ही नहीं, आने वाली पीढ़ियों का भी भविष्य बर्बाद हो जाएगा। राज्य की निरंकुश शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए राष्ट्रीय सम्पदा और मेहनतकशों की कमाई की कारपोरेट लूट आसान हो जाएगी। जाहिर है ऐसे समाज में अल्पसंख्यक ही नहीं, बहुसंख्यक समुदाय की मेहनतकश, आम जनता भी न सिर्फ आर्थिक रूप से तबाह हो जाएगी बल्कि हक के लिए उसके आंदोलन-असहमति को भी बलपूर्वक दबा दिया जाएगा।

इतिहास गवाह है पूँजी की सबसे प्रतिक्रियावादी ताकतें ऐसे समाज में पर्दे के पीछे से शासन की सारी नीतियों और दिशा को dictate करती हैं, और न सिर्फ लोकतन्त्र को रौंदती हैं, बल्कि अपने वर्ग हित में किसी भी हद तक जा सकती हैं, जरूरी होने पर सीधे सीधे देश को तोड़ देने में भी नहीं हिचकतीं।

कुल मिलाकर यह मुकम्मल तबाही का ही रास्ता है।

आज सचेत नागरिक समाज, आंदोलन की ताकतों तथा विपक्ष की राजनैतिक शक्तियों को एकजुट होकर हमारे लोकतन्त्र, अमन और भाईचारे के समक्ष मौजूद चुनौतियों का मुकाबला करना होगा।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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