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छत्तीसगढ़ चुनाव: धान ख़रीदी, बोनस और कर्ज़ा माफ़ी के बूते कांग्रेस को फ़िलहाल बढ़त

“कांग्रेस की किसान-आदिवासी केंद्रित नीतियों का लाभ तो उसे मिला ही, साथ ही कांग्रेस ने भाजपा की ध्रुवीकरण की राजनीति को रामपथ गमन मार्ग, छत्तीसगढ़ियावाद, गोठान के माध्यम से काउंटर किया है”।
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पहले चरण में दक्षिण और मध्य छत्तीसगढ़ की कुल 20 सीटों पर 7 नवंबर को और दूसरे चरण में मध्य और उत्तर छत्तीसगढ़ की कुल 70 सीटों पर 17 नवंबर को चुनाव होना है। अब तक सभी प्रमुख राजनीतिक दल कुल 90 विधानसभा सीटों पर अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर चुके हैं।

बीते विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 90 में से 68 सीटों पर जीत दर्ज करके पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। जबकि भाजपा 15 सीटों पर सिमट गई। वहीं जेसीसी 5 सीटों पर और बसपा 2 सीटों पर जीत दर्ज की। इस बार भाजपा ने निषाद पार्टी के साथ गठबंधन किया है और निषाद पार्टी के खाते में एक मात्र सीट ‘कसडोल विधानसभा’ सीट आई है। कांग्रेस ने अकेले सभी 90 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है।

हिन्दी पट्टी के तमाम राज्य और चुनावी गुणा-गणित के लिहाज से इस बात को बताना बेहद जरूरी हो जाता है कि साल 2023 का विधानसभा चुनाव कई मायनों में भिन्न है। कांग्रेस का आला नेतृत्व इस कोशिश में है कि चुनावी एजेंडा वो सेट करे। मुद्दे - धान खरीद, शिक्षा और स्वास्थ्य हों। हालांकि छत्तीसगढ़ की निवर्तमान भूपेश बघेल सरकार ने बहुचर्चित ‘गौ-धन न्याय योजना’ के साथ ही राम को केन्द्र में रखते हुए राम वन गमन पथ के निर्माण और उसके प्रचार-प्रसार पर खासा खर्च किया है।

बात अगर राजनीनिक दलों के बीच जारी खींचतान और समीकरण की करें तो वर्तमान समय में दो प्रमुख दलों कांग्रेस और भाजपा के अलावा बहुजन समाज पार्टी, छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा), हमर राज पार्टी, निर्बल इंडियन शोषित हमारा आम दल (निषाद) और आम आदमी पार्टी जैसे दल मैदान में दिख रहे हैं लेकिन लाख टके का सवाल यह भी है कि क्या छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में जहां परंपरागत तौर पर दो ध्रुवों (कांग्रेस और भाजपा) के वोट बैंक में अन्य दल कितना सेंध लगा पाएंगे?

सामाजिक कार्यकर्ता आलोक शुक्ला मानते हैं कि सर्व आदिवासी समाज द्वारा बनाई गई 'हमर राज पार्टी’ इस बार चुनाव में आंशिक ही सही लेकिन कांग्रेस को नुकसान पहुंचा सकती है।

आलोक शुक्ला कहते हैं, '2018 का चुनाव बहुत महत्वपूर्ण चुनाव था पंद्रह साल की रमन सरकार में संसाधनों की लूट व्यापक स्तर पर थी। बस्तर के अंदर जो दमन था आदिवासियों की गिरफ्तारियां, फर्जी मुठभेड़ चरम पर था, आदिवासियों के संवैधानिक अधिकार की धज्जियां उड़ाई जा रही थी। किसानों को बोनस देने का वादा किया गया था लेकिन वह बोनस नहीं दिया गया, जिसको लेकर रमन सरकार के खिलाफ व्यापक आक्रोश था। जो जनवादी संगठन थे खास कर पूरे प्रदेश में किसान आंदोलन हुआ जिससे किसान एकजुट हुए। उसी तरह से आदिवासियों के सवालों पर जनवादी संगठन इकट्ठे हुए इसमें सबसे महत्वपूर्ण भूमिका सर्व आदिवासी समाज की रही।'

वे आगे कहते हैं, 'कांग्रेस की सरकार बनने के बाद जनवादी संगठनों से सरकार ने संवाद नहीं रखा। यही कारण है कि सर्व आदिवासी समाज 'हमर राज पार्टी' बना कर आदिवासियों के सवालों के साथ मैदान में है। यह पार्टी कितना वोट खींच पाती है यह तो समय बताएगा लेकिन आदिवासी आरक्षित सभी सीटों पर हमर राज पार्टी अपना प्रत्याशी लड़ा रही है। कहीं न कहीं इसका नुकसान कांग्रेस को उठाना पड़ेगा। बीजेपी को भी नुकसान होगा लेकिन ज्यादा नुकसान कांग्रेस को होगा। पिछली बार आदिवासी आरक्षित सीटों पर जीत का मार्जिन 20 से 25 हजार का था इस बार जीत-हार का मार्जिन निश्चित तौर पर कम रहेगा।'

क्या चुनाव में भ्रष्टाचार कोई मुद्दा है?

गौरतलब है कि कांग्रेस सरकार बनने के बाद से ही भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली छत्तीसगढ़ सरकार पर शराब घोटाला, कोयला घोटाला, गोबर घोटाला और पीएससी घोटाला के आरोप लगते रहे हैं। छत्तीसगढ़ सरकार में शामिल कई मंत्रियों, व्यापारियों और आला अधिकारियों पर ईडी की छापेमारी की ख़बरों ने सुर्खियां बटोरीं। कई बार तो ऐसा भी देखने में आया कि केंद्र सरकार की जांच एजेंसियां और राज्य सरकार आमने-सामने आ गए।

मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की निजी सचिव सौम्या चौरसिया समेत दो आईएएस ऑफिसर समीर बिश्नोई और रानू साहू लेवी स्कैम मामले में अभी भी जेल में हैं। ईडी की टीम ने भारत सरकार के मनी लॉन्ड्रिंग एक्ट के तहत सरकार के बीस से अधिक करीबी व्यापारियों, विधायकों और अधिकारियों के यहां छापेमारी की।

लेकिन सवाल यही है कि इस सबके साथ क्या भाजपा भ्रष्टाचार को चुनावी मुद्दा बनाने में सफल रही है?

रायपुर के वरिष्ठ पत्रकार रवि भोई मानते हैं कि भाजपा भ्रष्टाचार को चुनावी मुद्दा बनाने में पूरी तरह असफल रही। वे कहते हैं, 'भाजपा ने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने की कोशिश की लेकिन भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं बन पाया। क्योंकि भ्रष्टाचार का प्रभाव शहरों में ज्यादा दिखा गांवों में नहीं। गांवों में कांग्रेस की अधिक दर पर धान खरीदी, बोनस और कर्जा माफी ने भ्रष्टाचार को मुद्दा नहीं बनने दिया। पिछले पांच सालों में गांव वालों को न्याय योजना का जो पैसा मिला है लोगों ने उसे देखा बनिस्बत भ्रष्टाचार को।'

धान का कटोरा कहे जाने वाले राज्य में कौन पड़ेगा भारी?

छत्तीसगढ़ को यदि भौगोलिक तौर पर बांटें तो उसे उत्तर, दक्षिण और मध्य में बांटा जा सकता है। राजनीतिक दृष्टिकोण से मध्य छत्तीसगढ़ अहम है क्योंकि मध्य में सबसे अधिक 64 विधानसभा सीटें हैं। बाकी दक्षिण यानी बस्तर सम्भाग में 12 सीटें और उत्तर यानी सरगुजा सम्भाग में 14 सीटें आती हैं। मध्य छत्तीसगढ़ का विकास अंग्रेजी जमाने में हुआ। मुम्बई, ओडिशा और पश्चिम बंगाल जाने वाली रेलवे लाइन भी छत्तीसगढ़ के मध्य से होकर गुजरती है इसलिए मध्य सबसे अधिक कनेक्टेड क्षेत्र रहा है। प्रशासनिक संस्थाएं, पावर प्लांट और खनन भी मध्य क्षेत्र में ही विकसित हुआ। जनसंख्या की दृष्टि से भी यह अहम क्षेत्र है। प्रदेश की सबसे अहम महानदी मध्य से होकर गुजरती है।

मध्य छत्तीसगढ़ में ही सबसे ज्यादा धान किसान हैं। इस राज्य में धान की फसल भी दो बार कटती है। छत्तीसगढ़ की राजनीति के जानकार मानते हैं कि किसानों की कर्ज माफी और धान की एमएसपी से अधिक दर पर खरीद के वादे ने कांग्रेस को पूर्ण बहुमत में ला दिया। पिछले पांच सालों में भूपेश बघेल के नेतृत्व वाली छत्तीसगढ़ सरकार की नीतियों और योजनाओं के केंद्र में किसान रहे हैं। वह चाहे राजीव गांधी किसान न्याय योजना हो या गोधन न्याय योजना हो या राजीव गांधी ग्रामीण भूमिहीन कृषि मजदूर न्याय योजना हो इन योजनाओं का मैदानी क्षेत्रों में सकारात्मक प्रभाव पड़ा है।

पोसन महन्त रायगढ़ में गार्ड का काम करते हैं। वे सरकार के बारे में कहते हैं, "इस सरकार ने बहुत अच्छे-अच्छे काम किये हैं। हम भूमिहीन हैं। हमें ग्रामीण भूमिहीन न्याय योजना के तहत साल भर में तीन किस्त में 7000 रुपये मिले। हमने पेपर में पढ़ा अगर कांग्रेस सरकार बनी तो भूमिहीनों को पट्टा भी मिलेगा। हमें उम्मीद है सरकार पट्टा देगी।"

चुनाव से पहले किसान सम्‍मेलन को संबोधित करते हुए छत्तीसगढ़ सरकार के कृषि पशुपालन और मत्स्य पालन मंत्री रविंद्र चौबे ने कहा कि "इस वर्ष भी धान की कीमत पूरे देश में सबसे ज्यादा छत्तीसगढ़ के किसानों को मिली। आने वाले साल में धान की कीमत किसानों को लगभग 2800 रुपये मिलेगी।

न्‍यूनतम समर्थन मूल्‍य (एमएसपी) में वृद्धि और राजीव गांधी किसान न्याय योजना के तहत इनपुट सब्सिडी के कारण से अगले कार्यकाल तक किसानों को धान की कीमत 3600 रुपये प्रति क्विंटल तक मिलने लगेगी।"

छत्तीसगढ़ के जिन क्षेत्रों में किसान धान की खेती कम करते हैं वहां कांग्रेस की स्थिति कमजोर नज़र आती है। दक्षिण और उत्तर में पिछले चुनाव में कांग्रेस ने क्लीन स्वीप किया था लेकिन इस बार दोनों क्षेत्रों में भाजपा खासी मेहनत करती नज़र आ रही है। हालांकि दोनों क्षेत्रों में मध्य की अपेक्षा सीटें कम हैं।

जसपुर जिले के धान किसान नन्दे कुमार यादव दस एकड़ में धान की खेती करते हैं। नन्दे कहते हैं, "हम कांग्रेस की धान खरीद से खुश हैं, समय से तय रेट पर धान खरीद हुई और बोनस भी समय-समय पर आया। लेकिन सरकार गोठान का जो कम्पोस्ट दे रही है वह गड़बड़ है क्योंकि जबरदस्ती गोबर खाद दे रहे हैं। उसमें धूल, मिट्टी मिलावट रहती है। खाद अच्छी नहीं रहती है। किसानों के लिए रमन सरकार की अपेक्षा भूपेश सरकार ज्यादा अच्छी है। किसान लोगों के लिए एक नम्बर काम किया है।"

छत्तीसगढ़ सरकार की कई योजनायें फ्लॉप रहीं जिसे लेकर सरकार सवालिया घेरे में आती रही। इसमें गोधन न्याय योजना सबसे चर्चित योजना रही। सरकार का दावा है जुलाई-2023 तक हितग्राहियों को गोधन न्याय योजना के तहत अब तक 526 करोड़ रुपये सरकार के द्वारा उनके खातों में ट्रांसफर किया जा चुका है, लेकिन अधिकांश गौशालाओं में दो-चार गायें ही हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार गौठानों में जुलाई महीने के दूसरे पखवाड़े में 2 लाख 80 हजार क्विंटल गोबर की खरीदी गोधन न्याय योजना के तहत की गई है।

जगदलपुर से 'पत्रिका' अख़बार के वरिष्ठ पत्रकार मनीष गुप्ता मानते हैं कि छत्तीसगढ़ सरकार की गोठान योजना फेल रही है। वे कहते हैं, 'गोठान ऑन पेपर अच्छी योजना बनी है। इम्प्लीमेंटेशन में समस्या आई है। गोठान के लिए जो जमीन चाहिए गांवों में वो जमीन उपलब्ध नहीं है। कई गांवों में गोठान तक जानवर पहुंच नहीं पाते हैं। गोठान को आगे चलकर सरकार ने मल्टीप्लानिंग के तहत स्वयंसहायता समूह और जीविकोपार्जन से जोड़ दिया वह भी मूर्त रूप नहीं ले पाया। यही कारण है इस योजना का सही प्रतिसाद नहीं हो पाया।'

गुप्ता आगे कहते हैं, 'भाजपा इसको लेकर लगातार मुद्दा बनाती रही है। भाजपा ने जिस तरह से इसमें भ्रष्टाचार का मुद्दा बनाया है, कहीं न कहीं यह सियासी मुद्दा बन गया है। आने वाले समय में भाजपा शायद इसे भुनाये भी।'

जातियों की राजनीति को साधने में कौन ज़्यादा सफल?

गौरतलब है कि देश में इन दिनों जाति आधारित गणना या कहें कि ओबीसी गणना को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर बहस छिड़ी हुई है। पिछड़ा और अति-पिछड़ा कार्ड के साथ ही हिन्दुत्व की राजनीति को साधते हुए भारतीय जनता पार्टी दो बार केन्द्र की सत्ता पर काबिज हो चुकी है। तो अब कांग्रेस भी जाति आधारित गणना के सहारे देश की राजनीतिक रुख को अपने पक्ष में करने की जद्दोजहद में जुट गई है। उसी कड़ी में कांग्रेस शासित राज्यों में कांग्रेस ने जातीय जनगणना कराने के वादे कर चुकी है।

कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी ने छत्तीसगढ़ में एक रैली को संबोधित करते हुए कहा कि अगर कांग्रेस की सरकार दोबारा सत्ता में आती है तो राज्य में जातीय जनगणना कराई जाएगी। इससे पहले राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने भी बिहार की तर्ज पर राज्य में जातीय जनगणना कराने की बात कही थी।

भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियां प्रदेश में ओबीसी जातियों को साधने की भरपूर कोशिश में जुटी हैं। चुनाव से चंद दिनों पहले ही छत्तीसगढ़ सरकार ने सरकारी नौकरियों में ओबीसी आरक्षण को बढ़ाने की कवायद शुरू कर दी थी। हालांकि बिलासपुर हाईकोर्ट ने याचिका पर सुनवाई करते हुए आरक्षण को निरस्त कर दिया।

छत्तीसगढ़ मुख्यमंत्री भूपेश बघेल खुद पिछड़ी जातियों में शुमार की जाने वाली कुर्मी जाति से आते हैं। वहीं कांग्रेस पार्टी ने प्रदेश में ओबीसी राजनीति को साधते हुए कुल 30 सीटों पर ओबीसी प्रत्याशी उतारे हैं। जिसमें कुर्मी जाति से 9 प्रत्याशी और साहू समाज से 9 प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है। जबकि भाजपा ने 31 सीटों पर ओबीसी प्रत्याशी उतारे हैं। जिसमें सबसे ज्यादा 11 प्रत्याशियों को साहू समाज से और कुर्मी जाति से 8 प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है।

ऐसा कहा जाता रहा है कि साहू समुदाय भाजपा का पारंपरिक वोटर रहा है लेकिन पिछले चुनाव में यह समीकरण बदल गया था। साहू समाज के बीच यह चर्चा थी कि कांग्रेस से ताम्रध्वज साहू को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है। जबकि चुनाव के बाद कांग्रेस केंद्रीय नेतृत्व ने कुर्मी समुदाय से भूपेश बघेल को मुख्यमंत्री बनाने का निर्णय ले लिया। ऐसे में सवाल यह है कि क्या इस बार जब घोषित तौर पर कांग्रेस भूपेश बघेल के चेहरे पर चुनाव लड़ रही है तो प्रदेश में अहम पिछड़े समुदाय में शुमार ‘साहू’ इस बार अधिकांशत: किसके साथ रहेंगे?

छत्तीसगढ़ की राजनीति पर नज़र रखने वाले हर्ष दुबे मानते हैं कि भूपेश बघेल के मुख्यमंत्री बनने के बाद प्रदेश में पिछड़े वर्ग की राजनीति गर्मायी है।

हर्ष दुबे कहते हैं, 'मैदानी क्षेत्र में संख्या के आधार पर दो प्रमुख जातियां हैं साहू और कुर्मी। बघेल के कुर्मी होने की वजह से भाजपा ने साहू, जिनका झुकाव परंपरागत रूप से भी भाजपा की ओर रहा है को वापस अपनी ओर करने का प्रयास किया है जो 2018 में कांग्रेस की ओर शिफ़्ट हुए थे। भाजपा ने अपना प्रदेश अध्यक्ष आदिवासी विक्रम उसेंडी की जगह बिलासपुर सांसद अरुण साव को बनाया, जो साहू समाज से आते हैं।'

साहू वोट को साधने में कौन ज्यादा सफल हो सकता है? इस सवाल पर हर्ष दुबे कहते हैं, 'आरक्षण को लेकर भूपेश सरकार के निर्णय, युवाओं के आंदोलन से यह स्पष्ट होने लगा कि प्रदेश की राजनीति अब पिछड़ा वर्ग केंद्रित हो रही है। आगामी चुनाव को लेकर कांग्रेस जो वादे कर रही है उसमें से एक महत्वपूर्ण वादा सरकार बनने पर जातीय जनगणना कराने का है, जिस प्रकार बिहार में हुआ है। यह कदम सीधे तौर पर ओबीसी मतदाताओं को लुभाने का कदम है। ताम्रध्वज साहू को मुख्यमंत्री या उप-मुख्यमंत्री ना बनाना व बीरनपुर में हुई घटना जिसमें एक साहू युवक की हत्या कर दी गई थी जैसे मुद्दों की वजह से साहू समाज फिर एक बार कांग्रेस पर 2018 जैसा विश्वास जतायेगा, इसकी संभावना थोड़ी कम है।'

खेमेबाज़ी का नुकसान किसको कितना?

छत्तीसगढ़ के दोनों प्रमुख दलों कांग्रेस और भाजपा के टिकट वितरण में गुटबाजी का असर साफ तौर पर देखने को मिलता है। गुटबाजी के डर से ही भाजपा चुनाव के अंत समय तक भी मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं कर सकी है। रमन सिंह पंद्रह साल तक मुख्यमंत्री रहे लेकिन छत्तीसगढ़ बनने के बाद पहली बार है जब पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह प्रदेश में मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं हैं। भाजपा हिमाचल और कर्नाटक की तर्ज पर ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ रही है।

वहीं दूसरी तरफ प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनने के कुछ ही दिनों बाद से मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर मंत्री टीएस सिंह देव और भूपेश बघेल के बीच खींचतान होने लगी थी। दोनों कांग्रेस नेता अपने समर्थक विधायकों के साथ दिल्ली तक पहुंच गए थे। हालांकि केंद्रीय नेतृत्व द्वारा समझाने-बुझाने के बाद प्रदेश में मिलकर काम करने के वादे के साथ दोनों नेता छत्तीसगढ़ में साथ काम करते दिखे तो जरूर लेकिन थोड़े दिनों बाद ही टीएस सिंह देव ने पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग से इस्तीफा दे दिया।

सीएम बघेल और सिंह देव के बीच जारी मनमुटाव के चलते पार्टी दो गुटों में बंट रही थी। ऐसे में कांग्रेस का पूरा फोकस चुनाव से पहले इस गुटबाजी को खत्म करना था। चुनाव से छह महीने पहले कांग्रेस आलाकमान ने सिंह देव को उपमुख्यमंत्री बनाकर प्रदेश कांग्रेस के भीतर जारी अंदरूनी कलह को शांत करने की कोशिश तो जरूर की।

कांग्रेस आलाकमान ने सिंह देव को उपमुख्यमंत्री बना कर भले ही संगठन के भीतर की कलह को शांत कर दिया हो लेकिन उत्तर छत्तीसगढ़ में कांग्रेस यह संदेश देने में असफल रही कि सिंह देव की खोई गरिमा को उपमुख्यमंत्री बना कर पार्टी ने वापस कर दिया।

क्या टीएस की राजनीति को लगेगा डेंट?

राजनीतिक पंडित मानते हैं कि सरगुजा संभाग की चौदह सीटों पर हार-जीत में सिंह देव निर्णायक भूमिका अदा करते हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में उस इलाके में कांग्रेस ने क्लीन स्वीप किया क्योंकि इस इलाके में ऐसा शोर था कि जीत के बाद वे सूबे के मुख्यमंत्री होंगे लेकिन हो गया कुछ और…!

सवाल यह है कि यदि इस बार सरगुजा सम्भाग की इन चौदह सीटों में कुछ उलट-फेर होता है तो क्या उसका खामियाजा सिंह देव को झेलना पड़ सकता है?

जशपुर से दैनिक भास्कर के वरिष्ठ पत्रकार विकास पांडेय कहते हैं, 'जिन सीटों पर टीएस सिंह देव अपने उम्मीदवार उतारे हैं अगर वो नहीं जिता पाएंगे, जैसे रामानुजगंज से वृहस्पवी सिंह और सामरी से चिंतामणि महाराज का टिकट काटकर नए प्रत्याशियों को टिकट दिया है तो निश्चित तौर पर इनके ऊपर प्रभाव पड़ेगा। मनरेंद्रगढ़ में कांग्रेस विधायक विनय जैसवाल का टिकट काटकर नए प्रत्याशी को टिकट दिया है और पुराने प्रत्याशी बागी हो गए हैं। ऐसी संभावना बन रही है कि इन सीटों पर कांग्रेस का जीतना मुश्किल हो। कांग्रेस पार्टी इन्हें महत्व दे रही है क्योंकि वो चाहती है जो स्थिति पहले निर्मित हो रही थी वो आगे न हो। इसका फायदा बीजेपी लेना चाह रही थी इसलिए कांग्रेस डैमेज कंट्रोल के लिए सिंह देव को महत्व दे रही है।'

पिछले चुनाव से यह चुनाव कितना भिन्न ?

छत्तीसगढ़ का विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए हिंदी पट्टी में अस्तित्व बचाने का चुनाव है। छत्तीसगढ़ ही एक मात्र राज्य है जहां कांग्रेस पूर्ण बहुमत के साथ सरकार में है। कांग्रेस पार्टी अन्य प्रदेशों में भी ‘छत्तीसगढ़ मॉडल’ लागू करने की बात जोर-शोर से कर रही है। हाल ही में राजस्थान में अशोक गहलोत ने छत्तीसगढ़ सरकार की गोधन न्याय योजना की तर्ज पर कहा है कि कांग्रेस सरकार बायोगैस का उत्पादन करने के लिए पशुओं का गोबर 2 रुपये प्रति किलो खरीदेगी।

वहीं कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने छत्तीसगढ़ में अपनी पहली चुनावी सभा को संबोधित करते हुए यह स्पष्ट कर दिया है कि उनके एजेंडे में शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दे पहले पायदान पर रहेंगे। अव्वल तो वे केजी से पीजी तक मुफ्त शिक्षा की बात कह रहे हैं। तो वहीं धान खरीद के रेट को 2500 से बढ़ाकर 3000 रुपये करने की बात भी कह रहे। जाहिर तौर राहुल गांधी ने राज्य के भीतर चुनावी एजेंडा सेट कर दिया है और अब चुनौती भाजपा और अन्य दलों के सामने है कि वे लोगों का रुझान खुद की ओर कैसे मोड़ें?

राजनीतिक विश्लेषक राजन पांडेय मानते हैं कांग्रेस की किसान-आदिवासी केंद्रित नीतियों का लाभ तो उसे मिला ही, साथ ही कांग्रेस ने भाजपा की ध्रुवीकरण की राजनीति को रामपथ गमन मार्ग, छत्तीसगढ़ियावाद, गोठान के माध्यम से काउंटर किया है।

राजन पांडेय कहते हैं, 'छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल के छत्तीसगढ़ियावाद ने भाजपा की राजनीति को पंचर करने का काम किया है। क्योंकि भाजपा में शीर्ष लीडरशिप रमन सिंह, ब्रजमोहन अग्रवाल या सरोज पांडेय सभी अपर कास्ट से हैं। छत्तीसगढ़ में अपर कास्ट की संख्या बहुत कम है। इसीलिए इस बार चुनाव में भाजपा ने प्रयोग किया और कई बड़े नेताओं का टिकट काट कर नए लोगों को दिया है। इस प्रयोग का लाभ भले ही भाजपा को इस चुनाव में न मिले लेकिन आने वाले चुनावों में इसका लाभ मिल सकता है।'

छतीसगढ़ में कांग्रेस नवजवानों, किसानों और आदिवासियों से जुड़े एक के बाद एक घोषणा करती जा रही है जबकि भाजपा अभी तक अपना घोषणापत्र जारी नहीं कर सकी है। देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा अपने घोषणापत्र में कांग्रेस को काउंटर करने के लिए क्या रुख अख्तियार करती है!

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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