छावला गैंगरेप-मर्डर केस: अदालत और पुलिस दोनों पर उठते सवाल
"यह सच है कि अगर आरोपी बरी हो जाते हैं तो इससे समाज में और ख़ासकर पीड़ित के परिवार में पीड़ा और बेचैनी बढ़ेगी, लेकिन क़ानून इस बात की इजाज़त नहीं देता है कि सिर्फ़ शक और नैतिकता की बुनियाद पर अदालत किसी को दोषी क़रार दे।"
यह बातें सुप्रीम कोर्ट ने 2012 के बहुचर्चित छावला गैंगरेप और हत्याकांड मामले में तीनों आरोपियों को रिहा करने का फैसला सुनाते हुए कहीं। देश की सबसे बड़ी अदालत ने इस बात को स्वीकार किया कि यह बहुत ही घृणित अपराध है, लेकिन सबूतों के अभाव में अदालत के पास उन्हें रिहा करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पुलिस और निचली अदालत पर जांच को ठीक से नहीं करने और सुनवाई के दौरान कई अनियमितताएं बरतने का आरोप भी लगाया है। यह केस दिल्ली सरकार के पास था, लेकिन इस केस की गंभीरता को देखते हुए केंद्रीय गृह मंत्रालय ने दिल्ली सरकार से केस अपने पास ले लिया था। ऐसे में इस मामले की गंभीरता को देखते हुए अदालत के न्याय पर सवाल उठने के साथ ही दिल्ली पुलिस और सरकार की भूमिका भी सवालों के घेरे में है।
बता दें कि इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस यूयू ललित, जस्टिस रविंद्र भट्ट और जस्टिस बेला त्रिवेदी की बेंच ने की। इसी साल छह फ़रवरी को तीन जजों की इस बेंच ने फ़ैसला सुरक्षित रख लिया था जिसे सोमवार, सात नवंबर, 2022 को सुनाया गया। इस से पहले साल 2014 में निचली अदालत ने तीनों अभियुक्तों को फांसी की सज़ा सुनाई थी जिसे दिल्ली हाईकोर्ट ने भी 2014 के ही अपने फ़ैसले में बरक़रार रखा था। इसके बाद बचाव पक्ष ने इस फ़ैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया, जहां से उन्हें अब बरी कर दिया गया है।
अदालत ने फ़ैसला किस आधार पर दिया?
तीनों जजों की बेंच से जस्टिस बेला त्रिवेदी ने इस फैसले को अदालत में सबके सामने रखा। उन्होंने बहुत ही कम समय और शब्दों में कहा कि हाईकोर्ट और निचली अदालत के फ़ैसले को रद्द किया जाता है और अभियुक्तों को रिहा किया जाता है। बाद में आए 40 पन्नों के आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि उसके सामने जो भी सबूत रखे गए, उनके आधार पर कहा जा सकता है कि अभियोजन पक्ष अभियुक्तों के ख़िलाफ़ जुर्म साबित करने में नाकाम रहा है।
सप्रीम कोर्ट के मुताबिक अभियुक्तों को निष्पक्ष मुक़दमे का लाभ नहीं मिला जिसका उन्हें अधिकार था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट ने इस बात की जांच नहीं की कि डीएनए रिपोर्ट का आधार क्या था और इसके लिए सही तकनीक का इस्तेमाल किया गया था या नहीं। अदालत ने पुलिस की खामियों की ओर इशारा करते हुए कहा कि पुलिस ने अभियुक्तों के डीएनए सैंपल तो लिए, लेकिन वो बिना किसी सुरक्षा के 11 दिनों तक पुलिस के मालख़ाने में पड़े रहे। पुलिस ने 49 गवाहों में से 10 का क्रॉस एग्ज़ैमिनेशन भी नहीं करवाया। इस मामले में दिल्ली पुलिस, हरियाणा पुलिस और प्राइवेट गवाहों ने अलग-अलग बयान दिए थे।
इसके अलावा अदालत ने कहा कि जो साक्ष्य पीड़िता के शव के पास मिलने का दावा किया गया, जैसे कि बंपर, वॉलेट और बालों के अंश वो संदिग्ध हैं और इन सबूतों का जिक्र मुख्य साक्षी यानी कि विटनेस द्वारा नहीं किया गया है। इसके अलावा दिल्ली और हरियाणा पुलिस के फोटोग्राफी और वीडियोग्राफी में भी आरोपियों के जीन्स और हथियार को लेकर कई खामियां हैं।
अदालत के अनुसार पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में पीड़िता की मृत्यु के समय का भी ठीक से ज्रिक नहीं किया गया। डीएनए प्रोफाइल, कॉल रिकार्ड, सीडीआर, आरोपियों की गिरफ्तारी, गाड़ी और उनकी पहचान, आपत्तिजनक सामग्रियां मिलने और फोरेंसिक नमूने एकत्र करने और इन एकत्र सबूतों से छेड़छाड़ की आशंका को भी खारिज नहीं किया जा सकता। और इसलिए अदालत के पास आरोपियों को बरी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता, भले ही वे बहुत जघन्य अपराध में शामिल रहे हों।
ध्यान रहे कि इसी साल 7 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान भी चीफ जस्टिस यूयू ललित, जस्टिस रविंद्र भट्ट और बेला त्रिवेदी की बेंच ने कहा था कि भावनाओं को देखकर सजा नहीं दी जा सकती है। सजा तर्क और सबूत के आधार पर दी जाती है। अदालत भावनाओं को समझ रहा है, लेकिन भावनाओं को देखकर कोर्ट में फैसले नहीं होते हैं।
क्या था पूरा मामला?
उत्तराखंड के पौड़ी की रहने वाली 19 साल की पीड़िता दिल्ली के छावला में रह रही थीं। नौ फ़रवरी, 2012 की शाम नौकरी से लौटते वक़्त उन्हें तीन लोगों ने अग़वा कर लिया था। पुलिस ने इस मामले में राहुल, रवि और विनोद नाम के तीन लोगों को गिरफ़्तार किया था। इनकी पूछताछ के बाद पुलिस ने 14 फ़रवरी को दिल्ली से सटे हरियाणा के रेवाड़ी के एक खेत में से उनकी लाश बरामद की थी। पुलिस के अनुसार लाश बहुत ही बुरी हालत में थी। लड़की के साथ गैंगरेप किया गया था और फिर बड़ी बेरहमी से उनकी हत्या कर दी गई थी। पुलिस की मानें तो दोषियों ने पीड़िता को असहनीय यातनाएं दी थी। उसके शरीर को सिगरेट और गर्म लोहे से दाग़ा गया था, चेहरे और आंखों में तेज़ाब डाला गया था।
घटना के दो साल बाद 2014 में दिल्ली की द्वारका अदालत ने तीनों आरोपियों को रेप और हत्या का दोषी मानते हुए मौत की सजा सुनाई थी। फिर दिल्ली हाईकोर्ट ने भी फांसी की सजा पर मुहर लगा दी थी। निचली अदालत और हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान मृत पीड़ित लड़की को अनामिका का नाम दिया गया था। इसलिए इस मामले को 'अनामिका' केस भी कहा जाता है।
जिस समय दोषियों की तरफ से सजा के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई, उस वक्त मामले पर दिल्ली पुलिस ने मौत की सजा कम करने की अर्जी का विरोध किया था। पुलिस की तरफ से पेश हुईं एडिशनल सॉलिसीटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने कहा था कि ये अपराध सिर्फ पीड़िता के साथ नहीं बल्कि पूरे समाज के साथ हुआ है। उन्होंने कहा कि दोषियों ने ना केवल युवती से सामूहिक बलात्कार किया बल्कि उसके मृत शरीर का अपमान भी किया।
वहीं इस मामले में एमिकस क्यूरी यानी कोर्ट की सहयोगी बनाई गई वरिष्ठ वकील सोनिया माथुर ने जजों से अनुरोध किया था कि वह इन दोषियों में सुधार आने की संभावना पर विचार करें। उन्होंने कहा था कि दोषियों में से एक विनोद बौद्धिक क्षमता से पीड़ित है। वह ठीक ढंग से सोच विचार नहीं कर पाता। वरिष्ठ वकील ने कोर्ट से दोषियों के प्रति सहानुभूति भरा रवैया अपनाने का आग्रह किया था।
गौरतलब है कि इस फैसले ने अनामिका के मां-बाप और इस संघर्ष में शामिल सभी लोगों को निराश किया है। लेकिन ये फैसला कानूनी और न्यायिक तौर पर कितना सही है, इसकी व्याख्या तो आने वाले दिनों में पुनर्विचार याचिका की सुनवाई के दौरान देखने को मिल सकती है। फिलहाल इस मामले में पीड़िता के परिवार और सरकार के पास दो क़ानूनी विकल्प हैं। वो पुनर्विचार याचिका दायर कर सकते हैं और यदि वहां भी उनके अनुसार फ़ैसला नहीं मिला तो वो क्यूरेटिव याचिका दायर कर सकते हैं। जाहिर है परिवार का संघर्ष अभी ख़त्म नहीं हुआ है और न ही न्याय की आस। लेकिन इतना जरूर है कि इस फैसले ने एक बार फिर पुलिस की जांच और पूरी शासन-प्रशासन की व्यवस्था को जरूर कठघरे में खड़ा कर दिया है।
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