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क्या भारत में महामारी के दौरान बाल विवाह एक चेतावनी है?

भारत सरकार ने लॉकडाउन के दौरान देश भर में 5,584 से अधिक बाल विवाह रोकने के लिए हस्तक्षेप किया है।
बाल विवाह

बाल विवाह पर क़ानूनी प्रतिबंध होने के बावजूद, भारत में यह अभी भी बदस्तूर जारी है। जबकि हमारा सरकारी तंत्र कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान क़रीब 5,584 बाल विवाह रोकने में सक्षम रहा है, शायद हज़ारों ऐसे मामले नज़रों से बच गए होंगे। लेखिका का यहां स्पष्ट तर्क है कि विभिन्न राज्यों में व्यापक रूप से स्वीकार्य इस कुप्रथा को रोकने के लिए सख्त कदम उठाए जाने चाहिए।

भारत सरकार को लॉकडाउन के दौरान देश भर में 5,584 से अधिक बाल विवाह रोकने के लिए हस्तक्षेप करना पड़ा है। इस साल अप्रैल में, कर्नाटक के महिला और बाल विकास विभाग ने ऐसे ही 118 बाल विवाह को रद्द करवाया है। 

तेलंगाना स्टेट कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइट्स ने तीन महीने के भीतर ऐसे 204 मामले दर्ज किए हैं। जबकि महाराष्ट्र में ऐसे 80 मामले दर्ज हुए। आंध्र प्रदेश के अधिकारियों ने 25 मार्च से 11 मई के बीच 165 बाल विवाह को रोका है।

अन्य भारतीय राज्यों के भीतर भी कुछ ऐसे ही उदाहरण सामने आए हैं। यह एक ऐसी घटना है जो काफी चिंताजनक है। यूनिसेफ के 2017 के आंकड़ों के अनुसार, भारत में 27 प्रतिशत लड़कियों की शादी उनके 18 वें जन्मदिन से पहले और 7 प्रतिशत की शादी 15 साल की उम्र से पहले कर दी जाती है।

इस तरह के बाल विवाह की घटनाएँ लॉकडाउन के दौरान अधिक बढ़ी हैं क्योंकि जो माता-पिता नाबालिग बच्चों की शादी करना चाहते थे, उन्हें लगा कि वे महामारी में इन्हे आसानी से कर पाएंगे क्योंकि पुलिस और सरकारी विभाग महामारी की ड्यूटि में व्यस्त होंगे इसलिए वे किसी भी कार्यवाही से बच सकते हैं। कोविड-19 लॉकडाउन के कारण कम खर्च वाली शादियां और कम दहेज की मांग की वजह से भी ऐसे विवाहों में वृद्धि देखी गई है।

इंटेरनेशल चिलड्रन चैरिटी वाली संस्था वर्ल्ड विजन ने चेतावनी दी है कि यह महामारी 40 लाख से अधिक लड़कियों को जल्द और जबरन शादी के जोखिम में डाल सकती है। चैरिटी ने नोट किया है कि स्कूल और स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं के बंद होने से भी लड़कियों की स्थिति कमजोर हुई है।

वर्ष 2015-16 में किए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (NFHS-4) में हिमाचल प्रदेश और मणिपुर को छोड़कर सभी भारतीय राज्यों में बाल विवाह की घटनाओं में लगातार गिरावट देखी गई है, जहां मामूली सी वृद्धि दर्ज की गई है। यह देखा गया कि 15 वर्ष की आयु के बच्चों के विवाह अब कम हो रहे है। 

बड़ी चिंता की बात यह है कि यह महामारी पिछले कई सालों में दर्ज़ उपलब्धियों को पूरी तरह से पलट सकती है।

बाल-विवाह और शहरी-ग्रामीण खाई 

एनएफएचएस-4 के अनुसार, शहरी क्षेत्रों (6.9 प्रतिशत) की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों (14.1 प्रतिशत) में बाल विवाह की घटनाएं कहीं अधिक हैं। शिक्षा और परिवार की शहरी आय के आंकड़ों में हुए सुधार का कारण है। लेकिन क्या यह शहरी-ग्रामीण बाल विवाह की बहस को देखने का सही तरीका है?

नई दिल्ली में घरों में काम करने वाली 32 वर्षीय शहनाज़ की 13 साल की उम्र में शादी हो गई थी। अब उसके छह बच्चे हैं और वह एक शराबी और गाली-गलौज करने वाले पति के साथ रहती हैं। लगातार गर्भ धारण और गर्भपात से उसके स्वास्थ्य पर काफी नकारा प्रभाव पड़ा है। वह पिछले एक साल से काम नहीं कर पा रही है। उसकी एक बेटी है जो उसके काम पर जाने के बाद उसके बेटों की देखभाल करती है। वह अपने भाइयों के स्कूल जाने के बाद कभी-कभी शहनाज़ के साथ काम पर जाती है। शहनाज का कहना है कि बेहतर होगा अगर उसकी बेटी की जल्द से जल्द शादी हो जाए। हालाँकि उसे खुद कम उम्र के विवाह की वास्तविकता से जूझना पड़ा है और फिर एक गाली-गलौज वाले रिश्ते में रहना पड़ा, बावजूद इसके वह अपनी बेटी को बेटों की तरह शिक्षित नहीं कर रही है। वह कहती है कि उसका पति बेटी की पढ़ाई के खिलाफ है। 

37 साल की मीना बिहार के एक छोटे से गांव की रहने वाली हैं। वह अपनी 15 वर्षीय बेटी और पति के साथ प्रवासी मजदूरों के रूप में दिल्ली आई थी। यह पूछे जाने पर कि उन्होंने अपनी बेटी को शिक्षित क्यों नहीं किया, उसने कहा, "मेरा बेटा हमारे गाँव में स्कूल जाता है। वह हमारे परिवार के साथ वहां रह रहा है। मैं अपनी बेटी को वहाँ नहीं छोड़ सकती, क्योंकि हमारा गाँव अकेले रहने वाली लड़कियों के लिए सुरक्षित नहीं है।” जब उसकी शादी हुई थे तो मीना 15 साल की भी नहीं थीं।

पिछले साल जब मीना दिवाली मनाने अपने गाँव वापस गई, तो उसने अपनी बेटी के लिए दूल्हा चुन लिया था। इस साल वह दहेज इकट्ठा करने के लिए कड़ी मेहनत से काम कर रही है, जिस दहेज को देने का वादा उसने लड़की की ससुराल वालों किया है, इसलिए शादी जल्द ही हो सकती है।

निरक्षर होने के नाते, उसकी बेटी मानती है कि शादी होना जीवन की सबसे बेहतरीन बात है। इसलिए गैरकानूनी उम्र में शादी करने पर वह कभी विद्रोह नहीं करेगी और न ही हल्ला मचाएगी। 

मीना कहती है कि वह सिर्फ अपनी सामाजिक पहचान और अपने आस-पास की वास्तविकताओं के अनुसार काम करती है। लड़की की उम्र जितनी अधिक होगी, दहेज की उतनी ही अधिक उम्मीद बढ़ेगी। इसके अलावा, "एक लड़की की शुद्धता" का विचार भी डरावना है, बाल विवाह इसलिए भी एक कारण है की कहीं बच्चे खासकर लड़कियाँ किसी भिन्न जाति या धर्म के लड़के से शादी न कर ले।   

प्रवासी संकट ने एक बात जो हमें सिखाई है कि हमारे शहरी कामकाज के लिए प्रवासी श्रमिक कितने जरूरी हैं। वे शहरी भारत का भी उतना ही बड़ा हिस्सा हैं जितना कि वे अपने गाँव की अर्थव्यवस्था के हैं। वे शहरी भारत में अपनी आजीविका कमाते हैं, लेकिन अपने गांवों में वापस जाते हैं, शादी करते हैं, त्योहार मनाते हैं, और फसल के मौसम के दौरान अपने परिवारों की मदद करते हैं। जब हम शहरी जगहों में बाल विवाह की बात करते हैं तो हम उन्हें अलग कैसे कर सकते हैं। अमीर और गरीब के बीच का यह तीक्ष्ण सामाजिक बंटवारा सभी के लिए चौंकाने वाला है।

नियोक्ता यानि मालिक लोग बाल विवाह और उन वास्तविकताओं के बारे में जानते हैं जो माता-पिता को ऐसा करने के लिए मजबूर करती हैं। वे समस्या से जूझने से इनकार कर देते हैं और इसलिए इस अपराध में समान रूप से शामिल हो जाते हैं।

लॉकडाउन के दौरान शहरों से प्रवासी श्रमिकों के बड़े पैमाने पर पलायन की तुलना भारत के 1947 के विभाजन से की गई है। तथ्य यह है कि विभाजन के दौरान, प्रवासियों के बीच कई जबरन और बाल विवाह हुए थे, जिस पर वास्तव में सरकार और भारतीय समाज को अब चिंतित होना चाहिए। अनिश्चित भविष्य और महामारी के दौरान दैनिक आय का कोई स्रोत नहीं होने के कारण, प्रवासी खाली जेबों के साथ अपने गांवों में लौट गए। जैसा कि उनमें से कई भारी कर्ज़ में दबे थे, इस महामारी ने उनमें से कई को ज़िंदा भर रहने के संघर्ष में छोड़ दिया है। 

एनएफएचएस-4 सर्वे के अनुसार, बाल विवाह वाले राज्यों की सूची में पश्चिम बंगाल सबसे ऊपर है। मध्य मार्च के बाद राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन लगाया गया था। मई 2020 में, चक्रवात अम्फन ने पश्चिम बंगाल को हिला कर रख दिया। महामारी के चलते लॉकडाउन से हुए आजीविका का नुकसान और चक्रवात के कारण पूर्ण विनाश ने कई युवा लड़कियों को जल्दी विवाह की तरफ धकेल दिया।

देश के असम और बिहार में तबाही मचाने वाली सालाना बाढ़ इन दो प्रमुख राज्यों में बाल विवाह की संभावना को बढ़ा देती है। चिंता की बात यह है कि कई मामले रिपोर्ट नहीं भी हो सकते हैं।

जटिल कानून और आत्मसंतुष्ट अधिनियम  

बाल विवाह पर रोक (पीसीएम) अधिनियम, 2006 के लागू होने के बावजूद तथा बाल विवाह को  अपराधीकरण करार देने के बावजूद इस प्रथा खात्मा नहीं हुआ है। इस अधिनियम के तहत बाल विवाह का अपराध बिना वारंट के गिरफ्तारी वाला और गैर-जमानती अपराध है, फिर भी यह लोगों को बाल विवाह में लिप्त होने से रोकने में सफल नहीं है। इस अधिनियम के पारित होने के बाद से बाल विवाह से संबंधित कानून लगातार तैयार किए जा रहे हैं।

पीसीएम अधिनियम को 2006 में पारित किया गया था। फिर भी 2017 तक, नाबालिग लड़की के साथ विवाह के बहाने संभोग को बलात्कार नहीं माना जाता था जब कोई व्यक्ति अपनी पत्नी जोकि पंद्रह वर्ष से कम उम्र होती और उसके साथ ऐसा करता था। यह कानून केवल 2017 में बना। इंडिपेंडेंट थॉट बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 375 को इस अपवाद के लिए सहमति की उम्र 15 से बढ़ाकर 18 कर दिया था। उसी ऐतिहासिक फैसले में, अदालत ने इस तथ्य की भी आलोचना की कि पीसीएम अधिनियम केवल बाल विवाह को अमान्य बनाता है न कि गैर-कानूनी। फिर 2017 में पीएमसी एक्ट को पोकसो (POCSO) एक्ट के साथ जोड़कर पेश किया जिसमें नाबालिग लड़की के साथ शादी की आड़ में यौन संबंध या संभोग को बलात्कार की संज्ञा दे दी गई।

जब बाल विवाह की बात आती है तो इस प्रक्रिया को जटिल बनाने में विभिन्न धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों ने भी प्रमुख भूमिका निभाई है। मिसाल के तौर पर, हिंदू विवाह अधिनियम के तहत "विवाह का परित्याग" तलाक का तब वैध आधार है, जब लड़की 15 वर्ष से कम उम्र की हो और उसे शादी के लिए मजबूर किया गया हो। अगर इसे तलाक के लिए उपयुक्त माना जाता है तो इसका मतलब है हमने शादी को कानूनी दर्जा दे दिया।

मुस्लिम पर्सनल लॉ कहता है कि जो लड़की युवावस्था में पहुंच गई है, वह शादी कर सकती है। शफीन जहां बनाम अशोकन केएम के मामले में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के अनुसार, इस्लाम में युवावस्था पाने के बाद दो लोगों के बीच सहमति से विवाह कानूनी है। सितंबर 2019 में, इस मामले का हवाला देते हुए, उत्तर प्रदेश की एक 16 वर्षीय लड़की ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था, जिसमें 24 साल के लड़के से उसकी शादी को अवैध घोषित किया गया था।

अस्पष्ट कानून और उनमें एकरूपता का अभाव

कानून अस्पष्ट हैं और व्याख्या के लिए खुले हैं। विभिन्न उच्च न्यायालयों ने पिछले कुछ वर्षों में परस्पर विरोधी निर्णय भी दिए हैं। जिस तरह से बाल विवाह के मामलों को निपटाया जाता हैं, उनमें पूरे देश में कोई समानता नहीं है।

यहां मूलभूत समस्या ऐसे विवाहों की कानूनी दर्जे की है। पीसीएम अधिनियम बाल विवाह को प्रतिबंधित करता है और इसे गैर-कानूनी बनाने का प्रावधान करता है। बाल विवाह शुरू से अमान्य है। यह अमान्य तब है अगर अदालत इस पर विवाह होने से पहले निषेधाज्ञा जारी करता है। या एक अभिभावक या एक वयस्क जो बच्चे के नज़दीक है अदालत में विवाह को रद्द करने के लिए मामला दायर करता है। या मामले में अपहरण या बाल तस्करी शामिल है।

बाल दुल्हन या बाल दूल्हे व्यसक होने के बाद अदालत जाकर अपने विवाह को अमान्य करवा सकते हैं।  यदि लड़की 20 वर्ष की आयु हासिल करने के बाद अदालत में नहीं जाती है, तो वह विवाह चलता रहेगा। अब, यह बिंदु वर्षों से विधायिका और न्यायपालिका की लापरवाही पर प्रकाश डालता है। एनएचएफएस -4 के अनुसार, 15 से 19 वर्ष की आयु में विवाह करने वाली लगभग तीन लड़कियों में से एक किशोर अवस्था में बच्चे की माँ बन चुकी होती है।

भारत में कम उम्र की लड़कियों की सामाजिक ट्रेनिंग और उनकी वित्तीय स्थिति को देखते हुए बाल दुल्हन के पास क्या विकल्प है? भारत में 23 मिलियन बाल वधू हैं। ये ऐसे मामले हैं जिन्हें ट्रैक किया जा सकता है। अब यह जरूरी हो गया है कि भारत बाल विवाह के संबंध में अपने विधायी दृष्टिकोण पर दोबारा से गौर करे।

प्रभावी ढंग से लागू करना 

फिर इसके अलावा और क्या किया जा सकता है? कड़े कानूनों के साथ-साथ हमें जो जरूरत है, वह यह  विशेष रूप से डेटा को आत्मसात करते हुए कानून को सख्ती से लागू करना। आज हम जो देख रहे हैं, वह यह साबित करने के लिए काफी है कि दंड और अपराधीकरण इस प्रथा को रोकने के लिए पर्याप्त साधन नहीं है। इसके लिंग आधारित संवेदीकरण बेहतर प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया को पूरा करने में पीढ़ियों का समय लग सकता है। तब तक क्या किया जाना चाहिए?

सबसे पहले, सतर्कता ही रोकथाम की सबसे बड़ी कुंजी है। 2006 का अधिनियम बाल विवाह निषेध अधिकारी (सीएमपीओ) का प्रावधान करता है। अधिनियम में दी गई शक्तियां जिला प्रशासन को सशक्त बनाता है। फिर भी, भारत दुनिया में बाल विवाह की संख्या में सबसे आगे है। कानून अभी भी जिला प्रशासन की शक्तियों और जिम्मेदारियों को परिभाषित करता है।

यह अब महत्वपूर्ण है कि स्थानीय सरकार यानि ग्राम पंचायतों के तीसरे स्तर की बात आने पर सत्ता और कार्यों के हस्तांतरण को संस्थागत रूप दिया जाए।

जब तक कि पंचायतें जो गाँव के जीवन की मूल धारा हैं, इन विवाह के लिए जवाबदेह नहीं बनाई जाती हैं, तब तक जटिलता बनी रहेगी। सामाजिक संरचना में बाल विवाह की जड़ें हैं। और एक ग्राम पंचायत गाँव की सामाजिक संरचना से संबंधित है।

यह मानसिकता कि बालिका वधू का असली घर उसके पति का घर होता है या इस डर से कि लड़की कहीं अपनी जाति या धर्म से बाहर शादी न कर ले, यह तथ्य माता-पिता को बच्चों की जल्दी शादी करने पर मजबूर कर देता है।

इसके अलावा, भारत की गाँव की अर्थव्यवस्था में, जहाँ पुरुष काम के लिए शहरों की ओर पलायन कर जाते हैं, घर की देखभालकर्ता और खेत में काम करने में युवा लड़कियों की भूमिका परिवारों को बाल विवाह करने की ज़मीन तैयार करते हैं।

बाल विवाह निरोधक अधिकारियों को सतर्क रहने के प्रशिक्षण देने के साथ-साथ विशेष कार्य बलों को गठित किया जाना चाहिए और विशेष रूप से 2020 के दौरान हुए मामलों का पता लगाने के लिए गैर सरकारी संगठनों और स्कूलों के साथ मिलकर काम करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। स्थानीय सरकारों और अधिकारियों को परिणाम संचालित प्रोत्साहन उन्हे सतर्कता बढ़ाने में मदद कर सकते हैं।

2017 में लॉ कमीशन की रिपोर्ट ने जबरन और जल्दी विवाह की समस्या से निपटने के लिए विवाह पंजीकरण को अनिवार्य बनाने की सिफारिश की थी। 2006 में, सुप्रीम कोर्ट ने विवाह पंजीकरण अनिवार्य कर दिया। लेकिन, यदि कोई युगल विवाह को पंजीकृत करने में विफल रहता है, तो उस विवाह को अभी भी कानूनी माना जाता है यदि उस विवाह को हिंदू विवाह अधिनियम या विशेष विवाह अधिनियम या फिर धार्मिक अनुष्ठानों द्वारा स्वीकार किया गया है। विवाह को वैध बनाने के लिए अनिवार्य पंजीकरण और जन्म के समय अनिवार्य पंजीकरण, बाल विवाह के मामलों को ट्रेस करने और उन्हे रोकने में मदद कर सकता है लेकिन इसमें एक लंबा समय लग सकता है।

असाधारण समय असाधारण उपायों की जरूरत पैदा करता है। हम एक महामारी से गुजर रहे हैं जो पिछले कुछ दशकों में हासिल हमारी सामाजिक उपलब्धियों को नष्ट करने की क्षमता रखती है। सरकारों को ऐसे सभी मामलों का पता लगाने और उन्हे पुनर्वास करने के लिए सक्रिय कदम उठाने चाहिए।

(उनकी पहचान छिपाने के लिए नाम बदले गए हैं।) 

नूपुर डोगरा नई दिल्ली स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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