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चिनहट पॉटरी : ख़त्म हो चुके कारोबार से आज भी उम्मीद की आस बांधे हैं यहां के लोग

आज चिनहट पॉटरी की जगह टेराकोटा और खुर्जा का सामान बेचा जा रहा है। मगर आज भी लोग इस इलाक़े को उसी कला से याद करते हैं और अभी भी अकसर कद्रदान भूले भटके इन सामानों की तलाश में यहां आते ज़रूर हैं मगर मायूस होकर लौट जाते हैं।
Chinhat Pottery

1957 में जिस समय लखनऊ की आबादी 6 लाख से कम हुआ करती थी, उस समय यहां चिनहट पॉटरी की फैक्ट्री बनी। तब ये इलाक़ा शहर के बाहर हुआ करता था। धीरे कारोबार फला फूला और सैकड़ों लोग इस काम से जुड़े। इस हुनर ने हज़ारों की आजीविका का बंदोबस्त किया। मगर आज जब दूर दूर तक पैर पसार चुके इस शहर की आबादी 38 लाख से ज़्यादा है और चिनहट के बहुत आगे तक लखनऊ आबाद हो चुका है, उस बीच तेज़ रफ़्तार शहर के इस हिस्से में ये हुनर दफ़न होता चला गया। फैक्ट्री बंद हुए तीन दशक हो रहे हैं। चिनहट पॉटरी की जगह टेराकोटा और खुर्जा का सामान बेचा जा रहा है। मगर आज भी लोग इस इलाक़े को उसी कला से याद करते हैं और अभी भी अकसर कद्रदान भूले भटके इन सामानो की तलाश में यहां आते ज़रूर हैं मगर मायूस होकर लौट जाते हैं।

नाज़िम अहमद को आज भी उम्मीद है कि सरकार चिनहट के पॉटरी कारोबार की सुध लेगी। उन्होंने इस उम्मीद के साथ ये आस भी बांध रखी है कि अगर सरकार इस बंद पड़ी फैक्ट्री को एक बार फिर से खोल दे तो चीनी मिटटी के बर्तन और सजावटी सामान का कारोबार फिर से ऊंचाइयों पर पहुंच जायेगा। सैकड़ों लोगों का रोज़गार बहाल होगा और ख़त्म हो चुकी ये कला एक बार फिर से अपनी पुरानी पहचान को न सिर्फ देश में बल्कि दुनिया में कायम कर सकेगी।

1957 में राज्य योजना विभाग के प्लानिंग रिसर्च एंड एक्शन इंस्टिट्यूट (PRAI) द्वारा एक प्रोजेक्ट के तहत लखनऊ की पूर्वी सीमा पर एक फैक्ट्री स्थापित की गई। ये जगह चिनहट के नाम से जानी जाती है। इस कारोबार ने चिनहट पॉटरी के नाम से देश के साथ दुनिया में भी इस हुनर को पहुंचाया और नाम कमाया।  

चिनहट पॉटरी की कारीगरी बड़ी ही दिलकश हुआ करती थी। हस्तशिल्पियों का ये हुनर भी ऐसा निराला था कि दूर दराज़ के कद्रदानों ने इसे सराहा और इसकी बदौलत सैकड़ों लोगों के घरों का रोज़गार मिला। धीरे धीरे फैक्ट्री में तैयार होने वाला मिटटी का सामान लोगों के किचन, कमरों और लॉन की शोभा बढ़ाता गया।

1970 के दशक तक चिनहट फैक्ट्री में ग्यारह यूनिट काम कर रही थीं, 400 से ज़्यादा कारीगर इस काम से जुड़ चुके थे जबकि अप्रत्यक्ष रूप से हज़ारों लोग अपनी जीविका के लिए इस पर कहीं न कही निर्भर थे। इस दशक में उत्तर प्रदेश में लखनऊ की पूर्वी सीमा पर स्थित ये इलाक़ा  इन सामानों के लिए बड़े पैमाने पर लोकप्रियता बटोर चुका था।

स्थापना के एक दशक में ही पोटरी उद्योग बेहतरीन उत्पादन करने लगा। प्रदेश के अलावा देशभर में इसका उत्पादन होने लगा। चिनहट पोटरी के ख़रीदारर दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद और बंगलुरु से आने लगे। देश ही नहीं विदेश में भी चिनहट पॉटरी में तैयार मिटटी के बर्तन और सजावट के सामान अपनी पहचान बनाने लगे थे। स्थापना के डेढ़ दशक बाद जब ये करोबार अपने चरम पर था उस समय 1970 में इसे उत्तर प्रदेश लघु उद्योग निगम लिमिटेड कानपुर के हवाले कर दिया गया। अब इसका संचालन और देख रेख यहां से होने लगी थी।

वसी अहमद सिद्दीकी जो पॉटरी उद्योग बिक्री केंद्र के संचालक रहे हैं, वह बताते हैं कि कानपुर उद्योग विभाग के हवाले किये जाने के बाद निगम द्वारा कच्चे माल की दर में होने वाली वृद्धि का इस कारोबार पर बुरा प्रभाव पड़ा। इस दर वृद्धि का उत्पाद के मूल्य पर असर पड़ा और इसकी बिक्री में भारी गिरावट देखने को मिली। इस तरह 1957 में स्थापित होने वाली ये फैक्ट्री 1997 में बंद हो गई। उनका कहना है कि ग्राहकों का आना बदस्तूर जारी था, इस सामान की मार्केट में मांग भी थी मगर फिर भी इसके बंद होने का कारण घाटा बताया गया। उनके मुताबिक़ दूर दराज़ से सामान लेने आने वालों को भी ये जानकार अफ़सोस होता कि देशभर में चिनहट पॉटरी अपने आप में एकलौता और अनूठा प्रोडक्शन उद्योग था। यहां से खाली हाथ लौटने वाले दुकानदार भी फैक्ट्री बंद होने का कारण जब घाटा सुनते तो हैरान होते।

स्थानीय निवासी और समाज सेवक कृपाल सिंह ने इस उद्योग के शिखर पर पहुंचने के दिन भी देखे हैं और यहां पर ताला लगने का मंज़र भी। कृपाल सिंह बताते हैं कि फैक्ट्री बंद होने की दशा में कुछ कारीगर विभिन्न विभागों में शिफ्ट कर दिए गए और कुछ यूनिट्स में काम करने वालों को सरकार द्वारा सहायता दी गई। मगर सुविधाओं की कमी के चलते इस काम को ज़्यादा दिनों तक जारी नहीं रखा जा सका। धीरे धीरे कई लोग दूसरे कारोबारों से जुड़ने लगे और कुछ ने दिल्ली और खुर्जा से सामान आयात करके इस कारोबार को नये रूप में जारी रखने का प्रयास किया। इस समय यहां पर इक्का दुक्का दुकाने हैं जिनमे खुर्जा से आयातित सामान की बिक्री होती है। मौजूदा कारोबार का ज़िक्र करते हुए नाज़िम अहमद बताते हैं कि खुर्जा से सामन लेकर यहां बेचना कोई आसान और किफ़ायती प्रक्रिया नहीं है। सामान यहां तक लाने में अच्छी रक़म ट्रांसपोर्ट पर खर्च करने के साथ 12 फीसद की जीएसटी देना होती है। इस तरह से हर आइटम पर 30-35 प्रतिशत दाम बढ़ जाता है। इसके अलावा अगर कोई चीज़ यहां तक लाने में टूट जाये तो इस नुकसान की कोई भरपाई नहीं।

बुज़ुर्ग हो चुके वसी सिद्दीक़ी बताते हैं कि आज जब इस इलाक़े में चिनहट पॉटरी का काम पूरी तरह ख़त्म हो चुका है और उसकी जगह खुर्जा या टेराकोटा का सामान बिकने लगा है, तब भी अकसर भूले भटके लोग चिनहट पॉटरी वाले मिटटी के बर्तनों की तलाश में यहां आते हैं और मायूस होकर लौट जाते हैं। वह बताते हैं कि जब काम बंद हुआ था तो उस समय सरकारी पंचायत की तरफ से मेनरोड पर उन्हें किराये पर एक दुकान दी गई थी, जिसमे स्वयंनिर्मित सामान बेचा करते थे। मगर 1993 के बाद से लाख कोशिशों के बाद भी उनसे इस दुकान का किराया नहीं लिया गया। मदद के लिए उन्होंने अदालत का दरवाज़ा खटखटाया, लेकिन यहां भी उन्हें इस मामले में कोर्ट से कोई राहत नहीं मिली। आखिरकार कुछ महीने पहले पंचायत राज अधिकारी की तरफ से दुकान खाली करवा कर उसमें ताला डलवा दिया गया। अब वह गली में बने अपने घर के एक हिस्से से ये सामान फरोख्त कर रहे हैं।

पॉटरी उद्योग में निर्मित सजावट के सामान के अलावा मिटटी का सामान यहां का प्रमुख आकर्षण था। हालांकि इस उद्योग से जुड़े ज़्यादातर लोग अपने रिटायरमेंट की उम्र पार कर चुके हैं और कइयों ने दूसरे कारोबार को अपना लिया है। फैक्ट्री बंद होने पर कई कारीगर विदेश में मज़दूरी करने चले गए थे। मगर आज भी कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हे इस फैक्ट्री से अभी भी लगाव है और उनकी चाहत है कि सरकार इसे दोबारा स्थापित कर इस काम को एक नई पहचान दे। इन लोगों द्वारा फैक्ट्री को फिर से बहाल किये जाने के प्रयासों के बारे में जानकारी लेने पर समाजसेवक कृपाल सिंह बताते हैं कि समय समय पर राज्य सरकार से उन्होंने इसे दोबारा बहाल करने की फ़रियाद ज़रूर की मगर कामयाबी नहीं मिली। उनके मुताबिक़ 2011 में जब मुलायम सिंह यादव की सरकार थी उस समय भी उन्होंने इस संबंध में भाग दौड़ की। इसके अलावा कुछ समय पहले केंद्र और राज्य सरकार का इस ओर ध्यान दिलाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को भी पत्र लिखे गए हैं। आज भी इन लोगों की ख्वाहिश है कि सरकार इस ऐतिहासिक धरोहर बचाने के लिए आगे आये और इस कारोबार को फिर से खड़ा करने में मदद करे।

(समीना ख़ान स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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