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सांझा विरासत स्थल और सांप्रदायिक एजेंडा

सन 1992 के छह दिसंबर को भारत में किसी भी विरासत स्थल पर सबसे बड़ा संगठित हमला हुआ था. यह हमला राज्य और उसके बल की मौजूदगी में हुआ. रामलला की मूर्तियाँ बाहर निकाली गईं और एक अस्थायी मंदिर में रख दी गईं. अब राममंदिर का उद्घाटन हो रहा है. मगर इसमें भगवन राम की दूसरी मूर्ति रहेगी.
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : Wikipedia

एक धर्मनिरपेक्ष देश के प्रधानमंत्री द्वारा एक मंदिर के उद्घाटन के नाम पर भारत के साथ-साथ दुनिया के करीब 50 देशों में जूनून पैदा किया जा रहा है. संघ परिवार के सभी सदस्य आव्हान कर रहे हैं कि अयोध्या में राममंदिर के उद्घाटन के दिन लोग दिवाली मनाएं और अपने शहर या गाँव के मंदिरों में कार्यक्रमों का आयोजन करें. हिन्दू राष्ट्र के एजेंडा के पैरोकार संघ-भाजपा के लिए राममंदिर बहुत फायदे का सौदा रहा है. बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने से लेकर मंदिर के उद्घाटन तक – हर चरण से भाजपा को चुनावी लाभ हुआ है. मस्जिद का विध्वंस, जो कि एक आपराधिक कृत्या था, उसके बाद हुई हिंसा और फिर मंदिर का उद्घाटन – इस पूरे काल में समाज का धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण और मज़बूत होता गया है.

इसी तरह के प्रयोग अन्य स्थानों पर भी किये गए हैं. कर्नाटक में बाबा बुधनगिरी की मज़ार को मुद्दा बनाया गया. सूफी संतों की मज़ारों की तरह, वहां भी हिन्दू और मुसलमान दोनों मत्था टेकते थे. सन 1990 में सांप्रदायिक ताकतों ने एक अभियान शुरू किया. उन्होंने दावा किया कि यह मज़ार, दरअसल, हिन्दू पवित्रस्थल है जिस पर मुसलमानों ने कब्ज़ा कर लिया है. “सरकारी रिकार्ड में इस स्थल को श्री गुरु दत्तात्रेय बाबा बुधन स्वामी दरगाह कहा गया है...इसे बाबा बुधनगिरी और दत्तात्रेय पीठ भी कहा जाता है. सन 1964 के पहले तक इस तीर्थस्थल में हिन्दू और मुसलमान दोनों श्रद्धा रखते थे. वह सूफी संस्कृति और हिन्दू व इस्लामिक सांस्कृतिक एकता का प्रतीक थी. दो धर्मों का यह तीर्थस्थल अब हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच विवाद का विषय बन गया है.” मामला अब अदालत में है मगर इस दौरान भाजपा, दक्षिण भारत में पहली बार कर्नाटक में अपनी स्थिति मज़बूत बनाने में सफल रही है. कर्नाटक में यह मसला ध्रुवीकरण का स्थाई कारण बन गया है. 

इसी तर्ज पर हैदराबाद में चारमीनार की दीवार से सटे भाग्यलक्ष्मी मंदिर का धीरे-धीरे विस्तार किया जा रहा है ताकि विवाद और तनाव के बीज बोये जा सकें. मंदिर के विस्तार से चारमीनार जो कि एक ऐतिहासिक इमारत है को नुकसान पहुँच रहा है. यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) के नियमों का भी उल्लंघन है. एएसआई लगातार यह कह रही है कि मंदिर में मरम्मत और सुधार से चारमिनार को नुकसान हो सकता है. मगर एएसआई की सुनने को कोई तैयार नहीं है. सरकार चारमीनार को नुकसान होने दे रही है. इससे ऐतिहासिक चारमीनार इलाके और पुराने हैदराबाद में रहने वाले लोगों में ख़ासा आक्रोश है. इस मुद्दे को लेकर कुछ झड़पें भी हो चुकी हैं.

इस मामले में महाराष्ट्र भी पीछे नहीं है. मुंबई के नज़दीक हाजी मलंग दरगाह को लेकर विवाद खड़ा किया गया और अब मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे इस दरगाह को हिन्दू पूजा स्थल घोषित करने को लेकर आन्दोलन फिर से शुरू करना चाहते हैं. इस आन्दोलन की शुरुआत शिंदे के राजनैतिक गुरु आनंद दिघे ने 1982 में की थी. “महाराष्ट्र की मिलीजुली संस्कृति के प्रतीक इस स्थल को लेकर सांप्रदायिक तनाव पहली बार सन 1980 के दशक में भड़का जब शिवसेना नेता दिघे ने यह दावा करते हुए आन्दोलन प्रारंभ कर दिया कि दरगाह उस स्थल पर बनाई गयी है जहाँ पहले नाथपंथ का पवित्र स्थल था.” द इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार दिघे ने यह दावा भी किया कि मज़ार की ज़मीन हिन्दुओं की है क्योंकि वहां 700 साल पहले मछेन्द्रनाथ मंदिर था. शिवना के नेता उर्स के दिन वहां जाने लगे. इससे साथ ही तनाव की शुरुआत हुई. यह मामला भी अदालत में है.

सेंटर फॉर स्टडी ऑफ़ सेकुलरिज्म एंड सोसाइटी, मुंबई, ने मामले की पड़ताल के लिए एक तथ्यान्वेषण समिति बनाई जिसने दरगाह के ट्रस्ट के ट्रस्टी काशीनाथ गोपाल केतकर से बात की. केतकर ने बताया, “उनके पास दस्तावेजी या कोई भी ऐसा दूसरा सुबूत नहीं है जिससे यह साबित होता हो कि यह नाथ पंथ का मंदिर था.” उन्होंने कहा कि “इस विवाद के कारण उर्स के दिन दरगाह पर आने वाले मुसलमानों की संख्या में कमी आई है - मगर वे अन्य दिनों में आते हैं, पूरे साल आते हैं.” जब उनसे पूछा गया कि वे दरगाह के नये नामकरण के बारे में क्या सोचते हैं तो उन्होंने कहा, “मुझे यह बिलकुल सही नहीं लगता बल्कि मुझे यह देख कर दुःख होता है कि इस तरह की चीज़ों को शह दी जा रही है. इसमें कोई संदेह नहीं कि यह स्थल मुस्लिम सूफियों का है और उनके भक्त सभी देशों में पाए जाते हैं.” उन्होंने आगे कहा, “इस पहाड़ी के चारों तरफ के 40 गाँवों के लोग इसे हाजी मलंग ही कहते रहेंगे क्योंकि उनकी इस दरगाह में गहरी श्रद्धा है. मगर जिनके इरादे गलत हैं, वे तो वही कहेंगे जो उनके लिए फायदेमंद हो.” इस वंशानुगत ट्रस्टी ने यह भी कहा, “हमारा लक्ष्य यही है कि बाबा के भक्तों को अच्छी से अच्छी सेवा उपलब्ध करवाएं ताकि उन्हें कोई तकलीफ न हो.”

रामा श्याम नामक एक शोध अध्येता, जिन्होंने इस दरगाह को फोकस में रखते हुए भारत की सांझा संस्कृति पर अपना डॉक्टरेट शोध प्रबंध प्रस्तुत किया है, ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ से एक साक्षात्कार (8 जनवरी 2024) में बताया कि केतकर परिवार के पास ऐसे दस्तावेज हैं जिनसे यह साबित होता है कि वे दरगाह से पिछले 360 सालों से जुड़े हुए हैं. जहाँ तक हाजी मलंग की दरगाह और पहाड़ी की तलहटी से लेकर उसकी चोटी तक स्थित कई पवित्र स्थलों का सवाल है, उनके बारे में कहानियां एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक वाचिक परंपरा से पहुँचती रही हैं. ऐसा कहा जाता है कि बाबा मलंग, मदीना से इस स्थान तक आये थे. एंग्लो-मराठा युद्ध (1774) के समय से इस दरगाह की चर्चा मिलती है. सन 1882 का ठाणे गजेटियर कहता है कि मलंग गढ़ पहाड़ी पर बावा मलंग मेला भरता है.   

विरासत स्थलों के लेकर जबरन विवाद खड़ा करना और उन्हें ऐसे हिन्दू स्थान बताना जिन पर मुसलमानों ने कब्ज़ा कर लिया है और जिन्हें मुसलमानों से छीना जाना चाहिए, सांप्रदायिक ताकतों की पुरानी तकनीक है.

भारत में अनेक पवित्र स्थल हैं, जहाँ सभी धर्मों के लोग पहुँचते हैं. यह दिलचस्प है कि सबरीमाँला मंदिर जाने वाले तीर्थयात्री पहले सेंट सेबेस्टियन चर्च जाते हैं और फिर बावर मस्जिद में. यह है भारत की सांझा संस्कृति. यह संस्कृति सदियों से भारत में फलती-फूलती रही है.

अब तो सांप्रदायिक राष्ट्रवाद ने इतना भयावह स्वरुप अख्तियार कर लिया है कि ट्रैफिक जाम के बहाने सुनहरी बाग मस्जिद तक को निशाना बनाया जा रहा है. ऐसे पवित्र स्थल जहाँ सभी धर्मों के लोग आते हैं, भारत की धार्मिक परंपरा के आधार रहे हैं. साप्रदायिक राजनीति के परवान चढ़ने के साथ ही दरगाहों को निशाना बनाया जा रहा है और सूफियों का दानवीकरण हो रहा है. यह सचमुच दुखद है कि धर्मों के मेलजोल की परंपरा को ही नीची निगाहों से देखा जा रहा है.
 
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया; लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं) 

साभार : सबरंग 

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