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भारत के बहुसंख्यक हिंदुओं को इज़राइल के हालात से सबक़ लेना चाहिए

एक ओर, समुदाय व पहचान के आधार पर अंधता, ज़ुल्म की हिमायत, अंततोगत्वा ख़ुद को भी मज़लूम बनाती है।
israel
फ़ोटो साभार : AFP

जिस समय भारत के बहुसंख्यक हिंदुओं का एक बड़ा हिस्सा या तो देश के विभिन्न अल्पसंख्यक समुदायों के साथ होने वाली नाइंसाफी, हिंसा व जुल्म, जिसका मणिपुर ताजा व अत्यंत दर्दनाक उदाहरण है, का समर्थन कर रहा है या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘विकास’ के वादों में बहकर उस अन्याय पर चुप्पी साधे बैठा है, ठीक उसी वक्त नरेंद्र मोदी के हिंदुत्ववादियों के अत्यंत प्रिय व अति-प्रशंसित आदर्श इज़राइल में ऐसा कुछ हो रहा है जो भारत के मोदी समर्थक बहुसंख्यकवादी हिंदुओं के लिए किसी जादुई शीशे में अपना भविष्य देखने जैसा है।

इतिहास में हुए सच्चे-झूठे जुल्मों के भारी कुप्रचार से तैयार ‘पीड़ित ग्रंथी’ के आधार पर विशेष समुदायों को निशाना बनाकर खड़ी की गई बहुसंख्यकवादी मुहिम के नतीजे क्या होते हैं, इसका सबक सिखाने के लिए इज़राइल से बेहतर क्या हो सकता है, क्योंकि मुस्लिम अल्पसंख्यकों से साझा नफरत और उन्हें ऐतिहासिक सबक सिखाने की नीति में इज़राइल ही तो भारतीय फासिस्टों का वर्तमान आदर्श है, हालांकि इन्हीं यहूदियों पर बर्बर जुल्म ढाने वाले जर्मन नाजी उनके मौलिक आदर्श और सम्मानित गुरु रहे हैं!

इज़राइल में बेंजामिन नेतन्याहू की सरकार ने वहाँ की शीर्ष न्यायपालिका द्वारा सरकार के स्वेच्छाचारी फैसलों, नीतियों, नियुक्तियों व कानूनों पर पुनर्विचार व उन्हें रद्द करने की शक्ति छीन लेने का कानून पारित कर दिया है हालांकि मार्च में भारी जनविरोध व इज़राइली मजदूर वर्ग द्वारा पूरे देश में आम हड़ताल की स्थिति पैदा किए जाने के बाद उन्होंने इस प्रस्ताव को टालने व इस पर विपक्ष के साथ चर्चा के बाद फैसला लेने का ऐलान किया था। इस दौरान होने वाले प्रदर्शनों पर पुलिस ने सख्त हिंसात्मक दमनचक्र चलाया है। इज़राइली पुलिस, फौज व यहूदीवादी फासिस्ट सेटलर समूह इज़राइली कब्जे वाले फिलिस्तीनी इलाकों की आबादी पर दशकों से अत्यंत नृशंस दमन चक्र चलाते आए हैं। मौजूदा दमन चक्र इससे बहुत नरम है, पर एक फासिस्ट सत्ता कैसे जुल्म ढा सकती है, इज़राइली बहुसंख्यक यहूदी आबादी के लिए यह इसकी पहली झलक है और उसने ही इसे हिला कर दिया है।

याद रहे इज़राइल में कोई संविधान नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ही स्वेच्छाचारी सरकार पर किसी प्रकार की रोकथाम का एकमात्र विकल्प है। उसे इस शक्ति से वंचित करने वाले इन प्रस्तावों के सामने आने के बाद जनवरी से ही इसका विरोध चल रहा था। लंबे सख्त प्रतिरोध के बाद 25 मार्च को नेतन्याहू ने न्यायिक प्रणाली के खिलाफ एक प्रकार से तख्तापलट करने की अपनी योजना पर अमल को अस्थायी रूप से निलंबित कर दिया था। लेकिन धुर दक्षिणपंथी नेतन्याहू और उनके सहयोगी यहूदी कट्टरपंथियों के साथ फासिस्ट गठबंधन ने विपक्ष के साथ जारी वार्ता को तोड़ते हुए अपनी योजना पर अमल कर दिया है। इससे ही एक बार फिर जनरोष उबल पड़ा है।

मार्च में नेतन्याहू द्वारा अस्थाई तौर पर पीछे हटने की वजह इज़राइल के इतिहास का सबसे बड़ा आम जनता व खास तौर पर इज़राइली मजदूर वर्ग का विरोध बना था। तब बड़े पैमाने पर सड़कों पर विरोध के बाद मजदूर वर्ग के विशाल हिस्सों ने काम का पूर्ण बहिष्कार कर दिया था। हवाई अड्डे, शिपिंग, परिवहन, विनिर्माण, बिजली-पानी जैसी सेवाएं, स्कूल, डे केयर सेंटर, विश्वविद्यालय और वस्तुतः सभी सरकारी संचालन इससे प्रभावित हुए थे।

इज़राइल की नींव ही फिलिस्तीनी अवाम को व्यवस्थित ढंग से उजाड़ने, हिंसा और आतंक के माध्यम से रखी गई थी। इसके बाद इज़राइली क्षेत्र का विस्तार पश्चिम एशिया में अमेरिकी साम्राज्यवाद के बर्बर एजेंट के तौर पर काम करने के मकसद से छेड़े गए युद्धों की श्रृंखला के जरिए हुआ था। मगर 1990 के दशक तक घोषित आधिकारिक नीति इज़राइल के लिबरल डेमोक्रेसी होने, यहूदी व फिलिस्तीनी दो राज्यों को मानने और वार्ता के द्वारा समाधान की थी। इज़राइल के आधिपत्य वाले इलाकों को लौटा देने व यहूदी, ईसाई तथा इस्लाम तीनों धर्मों के पवित्र ऐतिहासिक केंद्र जेरूसलम (यरुशलम) पर किसी शांतिपूर्ण साझा नियंत्रण की थी।

किंतु 1990 के दशक में नेतन्याहू एवं अन्य धुर दक्षिणपंथी व फासिस्ट समूहों के नेतृत्व में उभरी मुहिम ने कब्जे वाले इलाकों के इज़राइल में स्थाई विलय, जेरूसलम को राजधानी बनाने और फिलिस्तीनियों को नागरिकता के अधिकारों से वंचित करने की नाजी शैली की नीतियों को आगे बढ़ाना शुरू किया। इज़राइली कम्युनिस्टों व जनवादी कार्यकर्ताओं ने तभी चेतवानी दी थी कि यह नीतियाँ अंततोगत्वा सिर्फ फिलिस्तीनियों को ही दोयम दर्जे के नागरिक नहीं बनायेंगी बल्कि यहूदियों में से भी मजदूर वर्ग व अल्पसंख्यक यहूदी समुदायों के जनवादी अधिकारों को कुचलने का आधार बनेंगी। फिलिस्तीनियों के साथ वार्ता के समर्थक प्रधानमंत्री यित्जाक राबिन की हत्या ने भी इसके संकेत स्पष्ट कर दिए थे।

नेतन्याहू, बेन ग्विर व स्मोट्रिच के फासिस्ट गठबंधन के इरादों के बारे में फाइनेंशियल टाइम्स (लंदन) में इज़राइली बुद्धिजीवी युवाल नूह हरारी ने लिखा है कि यहूदी प्रभुत्ववादी धर्मांध इज़राइली शासक अपने कब्जे वाले फिलिस्तीनी इलाकों के निवासियों को नागरिकता दिए बगैर उन इलाकों को इज़राइल में मिला लेना चाहते हैं और उनका सपना अल अक्सा मस्जिद परिसर को ढहाकर वहां यहूदी मंदिर बनाना है।

हालांकि नेतन्याहू इन कानूनों के पक्ष में राष्ट्रीय सुरक्षा मजबूत बनाने का ‘तर्क’ दे रहे हैं पर मार्च में हुए राजनीतिक विस्फोट के लिए नए न्यायिक कानून का विरोध कर रहे रक्षा मंत्री योआव गैलेंट की बर्खास्तगी थी। उन्होंने न्यायपालिका पर नियंत्रण की योजना छोड़ने के लिए कहा था क्योंकि इस पर हो रहा राजनीतिक संघर्ष इज़राइली रक्षा बलों (आईडीएफ) को विभाजित कर रहा है। इस बार भी इज़राइली सेना चीफ ने चेतावनी दी है कि इस कानून से गृह युद्ध की स्थिति पैदा हो सकती है और इज़राइल का अस्तित्व तक मिट सकता है।

सेना में उभरा संकट उस संघर्ष की ही अभिव्यक्ति है जिसने इज़राइली समाज को गहराई से हिलाकर रख दिया है और जायनिज्म या यहूदीवाद के इस बुनियादी मिथक को चकनाचूर कर दिया है कि इज़राइल दुनिया के सभी यहूदियों की एकता का प्रतिनिधित्व करता है। इसने यह सच्चाई उजागर कर दी है कि इज़राइल भारी सामाजिक, राजनीतिक और वर्ग अंतर्विरोधों से त्रस्त है। जनरोष के स्तर से पता चलता है कि इसमें शामिल मुद्दे बहुत गहरे हैं। लंबे समय से दबाकर रखे गए सामाजिक अंतर्विरोध सत्तारूढ़ वर्ग में परस्पर टकराव के माध्यम से प्रस्फुटित हो रहे हैं और इज़राइल की आबादी के व्यापक जनसमूह और सबसे बढ़कर मजदूर वर्ग को राजनीतिक केंद्र में ला रहे हैं। इस संघर्ष का कोई तात्कालिक समाधान भी इस सामाजिक आंदोलन के आगे के विकास को दबा नहीं पायेगा, क्योंकि यह इज़राइल के भीतर अत्यधिक आर्थिक असमानता और वैश्विक पूंजीवादी संकट के प्रभाव से जनित है।

अपने विशाल पैमाने के बावजूद इस आंदोलन की एक बड़ी कमजोरी है कि इसने अभी तक फिलिस्तीनी लोगों के संघर्षों को गले नहीं लगाया है। इज़राइली झंडों से पटे आंदोलन में इज़राइली कब्जे वाले क्षेत्रों की फिलिस्तीनी आबादी को तो छोड़ ही दें स्वयं इज़राइली अरब नागरिकों तक से समर्थन जुटाने का प्रयास नहीं किया गया है। सफलता के किसी भी अवसर के लिए यहूदी श्रमिकों और युवाओं को यहूदीवादी विचारधारा के अंधत्व से मुक्त होकर पूंजीवाद के खिलाफ एक आम संघर्ष में यहूदी और अरब श्रमिकों के क्रांतिकारी एकीकरण के आधार पर एक समाजवादी रणनीति अपनानी होगी।

हालांकि न्यायपालिका पर नियंत्रण की कोशिश भ्रष्टाचार के कई सारे मुकदमों से जूझ रहे नेतन्याहू द्वारा अपनी खुद की खाल बचाने की इच्छा से प्रेरित है लेकिन इसके वास्तविक मुद्दे कहीं अधिक बुनियादी हैं। इन न्यायिक प्रस्तावों का वास्तविक सार उन धर्मांध यहूदीवादियों और फिलिस्तीनी इलाकों में जबरदस्ती बसने वाले कट्टरपंथियों की तानाशाही की राह में सभी कानूनी और प्रक्रियात्मक बाधाओं को समाप्त करना है, जो यहूदी आबादी में भी अल्पसंख्यक हैं, पर वहां की राजनीतिक व्यवस्था पर पूर्णतया हावी हैं।

असल में सभी धर्मों की तरह यहूदी भी कोई एकाश्म आबादी नहीं है और उसके अंदर भी सांप्रदायिक, नस्ली व आर्थिक गैर-बराबरी की बहुत बड़ी समस्या है। यहूदियों में भी सिर्फ यूरोपीय गोरे अश्केनाजी कट्टरपंथी, जो अमरीकी-यूरोपी वित्तीय पूंजी के साथ जुड़े हैं, का प्रभुत्व है और दूसरे यहूदी संप्रदायों खास तौर पर हमेशा से ही फिलिस्तीनी अरबी इलाकों में बिना सांप्रदायिक नफरत के मिल जुला जीवन बिताते आ रहे यहूदियों की स्थिति निम्न स्तर की है। काले इथिओपियाई यहूदियों के साथ तो भारी नस्ली भेदभाव किया जाता है। इज़राइल की एक वर्गहीन राज्य के रूप में यहूदीवादी प्रस्तुति, जहां सभी यहूदी लोग एक झंडे के नीचे एकजुट हो सकते हैं, जहां सामाजिक विभाजन मिटा दिए गए हैं, हमेशा से ही झूठ था।

श्रमिक वर्ग की अधीनता कायम रखने हेतु वर्ग संघर्ष को व्यवस्थित रूप से दबाने और यहूदीवादी विचारधारा के प्रभुत्व हेतु बनाए गए फौजी राज्य के जरिए जिस प्रतिक्रिया को अंजाम दिया गया, आज उसका नतीजा सामने है। फिलिस्तीनी जनता पर अत्याचार के लिए लामबंद की गई ताकतों - सबसे बढ़कर, फासीवादी सेटलर (कब्जा करने वाले) तत्व - को अब खुद यहूदी मजदूरों, अल्पसंख्यक यहूदी समुदायों और युवाओं के खिलाफ भी इस्तेमाल किया जा रहा है। इसने बड़ी संख्या में इज़राइलियों को सड़कों पर ला दिया है। उन्होंने धुर दक्षिणपंथ के खिलाफ अपनी ताकत को आजमाना शुरू कर दिया है। इसने यहूदी श्रमिकों और युवाओं को विवश कर दिया है कि वे कट्टर यहूदीवाद के साथ एक राजनीतिक हिसाब वाले टकराव की ऐतिहासिक आवश्यकता को महसूस करें।

इज़राइल में हिंसक दमन, धुर दक्षिणपंथी तानाशाही और फासीवाद की ओर यह मोड़ पूंजीवाद की मौजूदा वैश्विक प्रक्रिया का ही हिस्सा है। भारत में ही नहीं फ्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका जैसे साम्राज्यवादी देशों से लेकर तुलनात्मक रूप से अल्पविकसित पूंजीवादी देशों श्रीलंका, पाकिस्तान, घाना, नाइजीरिया, पेरू, आदि में शासक वर्ग को फासीवादी तरीकों के अलावा विश्व पूंजीवाद के लगभग चिरस्थाई बन चुके सामाजिक और राजनीतिक संकट से बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखता। इस संकट ने हर जगह पूंजीवादी जनतंत्र की कलई खोल दी है।

भारत के आम हिंदू लोगों में से भी भ्रम में आकर इज़राइल प्रेमी हिंदुत्ववादी फासिस्ट शासकों के हिमायती बने लोगों को आज इज़राइल के हालात से ही सबक लेने का एक ऐतिहासिक मौका मिला है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा सरकार के फैसलों को पलटने का अधिकार समाप्त कर देने के बाद तेल अवीव में विरोधियों पर पुलिस ने उन्हें निर्मम हिंसा की जो पहली झलक दिखलाई है उससे ही अब बहुत से इज़राइलियों को फासिज्म शब्द याद आ रहा है। उन्हें अब पता चल रहा है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद की फंडिंग के बदले हिटलर के नाजियों के जुल्म के विरोध को बस यहूदी पहचान तक सीमित कर देने, यहूदीवादी बन जाने से, वे खुद फिलिस्तीनी जनता पर जुल्म ढाने वाली एक फासिस्ट सत्ता के समर्थक बन गए थे, हालांकि सच्चाई यह है कि नाजीवाद के जुल्म सिर्फ यहूदियों पर नहीं, स्लाव, रूसी, रोमां आदि पूर्व यूरोप की सारी नस्लों व राष्ट्रीयताओं पर भी उतने ही भयानक थे और इस जुल्म को पराजित करने में सबसे बड़ी कुर्बानी तो सोवियत जनता ने दी थी - ढाई करोड़ सोवियत जिंदगियां। पास्टर नीमोलर की कविता 'जब वो मेरे लिए आए ....' अब इज़राइल में भी कुछ लोगों द्वारा याद की जा रही है। कुछ ऐसा ही सबक पिछले साल श्रीलंका की बहुसंख्यक आबादी को सीखना पड़ा था। पाकिस्तान में खास तौर पर खैबर पख्तूनख्वा के लोग इस तकलीफदेह सबक की वजह से ही पाकिस्तानी तालिबान का जबरदस्त विरोध कर रहे हैं।

सबक सबके लिए है। एक ओर, समुदाय व पहचान के आधार पर अंधता, जुल्म की हिमायत, अंततोगत्वा खुद को भी मजलूम बनाती है। दूसरी ओर, अपने समुदाय-पहचान के साथ जुल्म के विरोध में शेष मानवता को भूल जाने, सभी उत्पीड़ितों के साथ एकजुटता के बजाय, दूसरों के साथ जुल्म को छोटा कर देखने, नजरअंदाज करने, का नतीजा एक दिन खुद उस जुल्म का हिमायती बन जाना ही होता है। दूसरों के साथ जुल्म का मजा लेते लोग खुद कब जुल्म का शिकार हो जाते हैं यह तो बाद में समझ आता है।

अपने साथ जुल्म का विरोध करते हुए हर जगह हर किसी के साथ शोषण-जुल्म का विरोधी होना, सभी मजलूमों की एकजुटता की हिमायत करना आज फासीवाद से लडने की जरूरी शर्त है। देश और दुनिया के सभी मेहनतकशों व उत्पीडितों की व्यापक एकता ही आज दुनिया में बढते, पूंजीवादी साम्राज्यवाद द्वारा पोषित, फासीवादी प्रवृत्तियों का समूल नाश कर सकती है।

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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