लॉकडाउन में वेतन न देने को लेकर कंपनी मालिक पहुंचे सुप्रीम कोर्ट, अदालत ने सरकार से मांगा जवाब
दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने लॉकडाउन के दौरान कर्मचारियों को पूरा वेतन देने के सरकारी निर्देश पर केन्द्र सरकार से जवाब मांगा है। सरकार को दो सप्ताह के भीतर अपना जवाब दाखिल करना है। गौरतलब है कि कई निजी कंपनियों ने शीर्ष अदालत में याचिका दाखिल कर लॉकडाउन के दौरान कर्मचारियों को पूरा वेतन देने संबंधी केंद्र सरकार के 29 मार्च के आदेश को चुनौती दी है और कोर्ट से यह आदेश रद्द करने की मांग की है।
आपको बता दें कि गृह मंत्रालय द्वारा 29 मार्च को जारी अधिसूचना के मुताबिक सभी नियोक्ताओं को अपने कर्मचारियों को लॉकडाउन के दौरान पूरा वेतन देना होगा। सरकार के इस आदेश के बाद भी कई जगहों से मजदूरों की शिकायत है कि नियोक्ता उन्हें वेतन नहीं दे रहे है। कंपनी मालिकों की अपनी दलील है की बिना उत्पादन के वो वेतन का भुगतान कैसे करे?
अब इसी सवाल को लेकर कई निजी कंपनियां सुप्रीम कोर्ट चली गई। इसी के साथ एक वकील ने मज़दूरों को पूरा वेतन मिले यह सुनिश्चित करने को लेकर भी जनहित याचिका लगाई थी। इन सभी याचिकाओं पर सोमवार को सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने लॉकडाउन के दौरान कर्मचारियों को पूर्ण वेतन के भुगतान का निर्देश देने वाली गृह मंत्रालय (MHA) अधिसूचना के बारे में अपनी "नीति को रिकॉर्ड पर" रखने के लिए केंद्र को दो सप्ताह का समय दिया। यानी दो सप्ताह के बाद कोर्ट में बताना होगा कि सरकार की क्या नीति है और कैसे कर्मचारियों को उनका पूरा वेतन मिलेगा?
सोमवार को कोर्ट में क्या हुआ?
जस्टिस एनवी रमना, संजय किशन कौल और बीआर गवई की खंडपीठ ने यह आदेश पारित किया, जिसमें निजी संगठनों द्वारा दायर याचिकाओं की सुनवाई की जा रही थी। इस याचिका में गृहमंत्रालय के उस नोटिफिकेशन को चुनौती दी गई है, जिसमें लॉकडाउन के दौरान नियोक्ताओं को पूर्ण वेतन देने का आदेश दिया गया है और यह सुनिश्चित करने के लिए कि किसी कर्मचारी को हटाया नहीं जा सकता है।
लीगल वेबसाइट ‘बार एन्ड बेंच’ की खबर के अनुसार अदालत ने अपने आदेश में कहा है कि सभी याचिकाकर्ता अपने आवेदन की प्रतियों की आपूर्ति सॉलिसिटर जनरल को ई-मेल के माध्यम से करेंगे। यह याचिकाएँ तीन अलग अलग कंपनियों और एडवोकेट आदित्य गिरि द्वारा दाखिल की गई थी। इसमें मुंबई स्थित फर्म, नागरिका एक्सपोर्ट्स, कर्नाटक स्थित कंपनी फिक्स पैक्स प्राइवेट लिमिटेड और पंजाब स्थित लुधियाना हैंड टूल्स एसोसिएशन शामिल हैं ।
मुख्य याचिकाकर्ता नागरिका एक्सपोर्ट्स ने यह कहते हुए अपनी याचिका वापस ले ली कि वह एक ही मुद्दे पर शीर्ष अदालत में दलीलों की संख्या को देखते हुए सबमिशन के टकराव से बचना चाहती थी।
ऐसे में एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड जीतेंदर गुप्ता द्वारा मामले का प्रतिनिधित्व किया गया जो फिक्स पैक्स कंपनी के तरफ से पेश हुए और बहस किया।
कर्नाटक स्थित इस कंपनी ने सचिव (श्रम और रोजगार) द्वारा 20 मार्च की अधिसूचना और MHA द्वारा 29 मार्च की अधिसूचना के खंड III, की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी। दोनों ही अधिसूचनाएं लॉकडाउन की अवधि के दौरान श्रमिकों और कर्मचारियों को पूर्ण मजदूरी का भुगतान करने के लिए मजबूर करती हैं। याचिकाकर्ता कंपनी ने कहा कि "ये दोनों अधिसूचनाएं भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 19 (1) (जी) कानून के प्रावधानों के खिलाफ हैं।"
कंपनी ने बताया कि लॉकडाउन से पहले, इसके सभी कारखानों / गोदामों / कार्यालयों में 176 स्थायी कर्मचारी और 939 ठेका कर्मचरी थे और इसने मार्च 2020 के महीने के लिए "संविदाकर्मियों सहित सभी श्रमिकों को मजदूरी का भुगतान किया था। "
इसी तरह मुंबई की कंपनी जिसने अपनी याचिका को वापस लिया उसने भी कहा था कि करीब 1400 कर्मचारी जो उसके पास काम करते थे उसे उसने मार्च का वेतन दे दिया लेकिन वो अब अप्रैल का वेतन नहीं दे पाएगी।
कोर्ट के सामने तर्क देते हुए याचिकाकर्ता ने कहा कि ये अधिसूचनाएँ औद्योगिक प्रतिष्ठान विशेष रूप से एमएसएमई प्रतिष्ठान को को दिवालिया और भारी नुकसान पहुंचा सकती हैं।
वहीं, लुधियाना हैंड टूल्स एसोसिएशन ने एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड राजीव एम रॉय के माध्यम से कहा कि 29 मार्च को आपदा प्रबंधन अधिनियम, 2005 के तहत एमएचए आदेश संविधान के अनुच्छेद 14, 19 (1) (जी), 265 और 300 का उल्लंघन है। और इसे तत्काल वापस लेना चाहिए।
याचिकाकर्ता ने तर्क दिया था कि लॉकडाउन के दौरान कंपनियों को भी आर्थिक नुकसान हो रहा है, इसलिए उन्हें लॉकडाउन के दौरान अपने काम करने वालों को भुगतान करने से छूट दी जानी चाहिए।
राजीव एम रॉय ने तर्क दिया कि "अकेले अनुबंध की एकतरफा कार्यान्वयन की अनुमति नहीं दी जा सकती है क्योंकि नियोक्ता और कर्मचारी के बीच एक संबंध पारस्परिक वादों के तहत होते हैं जिसमें भुगतान केवल किये गए काम पर ही दिया जाता है।"
याचिकाकर्ताओं के लिए अधिवक्ता राजीव एम रॉय, अभय नेवगी और जमशेद कामा उपस्थित हुए।
दूसरी ओर अधिवक्ता आदित्य गिरि द्वारा दायर जनहित याचिका को अन्य याचिकाओं के साथ ही शामिल किया गया था। वकील गिरि की याचिका में इस महामारी के दौरान "कर्मचारियों की छंटनी पर अंकुश लगाने में विफल रहने के लिए" उनके कर्त्तव्य और उनकी लापरवाही की भूमिका के लिए नियोक्ताओं सहित सभी हितधारकों की जवाबदेही को तय करने की मांग थी। इसके साथ ही इस याचिका में केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को निर्देश जारी करने की मांग की गई थी कि वे निजी क्षेत्र के कर्मचारियों द्वारा फेस की जाने वाली समस्याओं से निपटने के लिए एक रूपरेखा तैयार करें।
क्या सरकार के पास कोई नीति है?
फिलहाल ये मामला अब अदालत में गया है लेकिन सरकार द्वारा अचानक लागू किए गए लॉकडाउन के बाद से ही तमाम सवाल खड़े हो रहे हैं। जैसेकि सरकार ने यह तो कह दिया सबको वेतन दिया जाए लेकिन सवाल यह है कि यह सुनिश्चित कौन करेगा कि सबको वेतन मिले?
तमाम मज़दूर संगठनों का दावा है कि सरकार के अपने संस्थानों में काम करने वाले आउटसोर्स और ठेका कर्मचारयों को वेतन नहीं मिल रहा है। बाकी की तो बात ही छोड़ दो।
गौरतलब है कि दिल्ली सहित देश के कई कंपनियों ने मार्च महीने का वेतन भी अपने मज़दूरों को नहीं दिया है। इस दौरान बड़े स्तर पर लोगों की छंटनी हुई है और कई जगह पर लोगों को अनपेड लीव पर भेजा गया है लेकिन किसी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई हैं। इसके अलावा बहुत सारी ऐसी कंपनियां है जिन्होंने मार्च का भुगतान किया भी है लेकिन अब अप्रैल का वेतन भुगतान करने से मना कर रही है।
लेकिन सरकार के पास अभी भी कोई ठोस नीति नहीं दिख रही है जबकि यह सब सरकार और उसके तंत्र की नाक के नीचे हो रहा है।
गौरतलब है कि दिल्ली में सबसे बड़े मीडिया हाउस टाइम्स ऑफ़ इण्डिया ने अपने कर्मचारियों को लॉकडाउन के दौरान ही हटाया है। इसके साथ ही कई मीडिया संस्थानों में छंटनी, अनपेड लीव और वेतन कटौती के बात सामने आई थी।
इस पर कई जानकारों का कहना है कि सरकार जानबूझकर किसी भी कंपनी के खिलाफ एक्शन नहीं लेती है क्योंकि वो किसी भी उद्योगपति को नाराज़ नहीं करना चाहती है। उद्योगों की भी अपनी सीमा है। सरकार ने तो कह दिया बिना उत्पादन के भी वेतन दो लेकिन कई ऐसे कंपनी मालिक है जिनके लिए यह मुश्किल है। इसके लिए भी सरकार को कोई उपाय करना चहिए था लेकिन उसने नहीं किया। दुनिया के बाकी देश चाहे वो अमेरिका, ब्रिटेन या बाकि यूरोपीय देश हो सभी जगहों की सरकारों ने निजी कंपनियों के कर्मचारियों के वेतन का एक हिस्सा दिया जिससे कंपनी मालिकों पर भी अधिक बोझ न पड़े। परन्तु हमारे यहाँ ऐसा कुछ नहीं किया गया।
हालांकि सरकार ने कई आदेश जारी किये की सभी को वेतन मिले लेकिन जमीन पर इसे लागू करने की मंशा नहीं दिखी। ऐसे में इस महामारी में कर्मचारियों और मज़दूरों के लिए स्थिति और भी भयावह होने की उम्मीद जताई जा रही है।
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