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पांचों राज्य में मुंह के बल गिरी कांग्रेस अब कैसे उठेगी?

मैदान से लेकर पहाड़ तक करारी शिकस्त झेलने के बाद कांग्रेस पार्टी में लगातार मंथन चल रहा है, ऐसे में देखना होगा कि बुरी तरह से लड़खड़ा चुकी कांग्रेस गुजरात, हिमाचल और फिर 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए ख़ुद को कैसे तैयार करती है।
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सियासी फिज़ाओं में पिछले कई सालों से एक ही बात तैर रही है, कि कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर में है। लेकिन इस दौर का अंत कब होगा? ये बड़ा सवाल है। हम ऐसा इसलिए भी कह रहे हैं क्योंकि कांग्रेस पार्टी के पंजे में फिलहाल वो ताकत भी नहीं दिखाई पड़ रही है, जिससे वो अपने सबसे पुराने और भरोसेमंद नेताओं को कसके पकड़कर रख सके। कांग्रेस की इसी कमज़ोरी का नज़राना हालही में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में देखने को मिला। उत्तर प्रदेश में 388 विधानसभा सीटों से 2 विधानसभा सीटों पर आ गई। उत्तराखंड में कांग्रेस 36 से 19 सीटों पर आ गई, गोवा में 11 पर और मणिपुर में इतिहास की सबसे बड़ी हार दर्ज कर महज़ 5 सीटें अपने नाम कर पाई। इसके अलावा कांग्रेस को जहां सबसे बड़ा झटका लगा वो था पंजाब, क्योंकि कुछ राज्यों में से यही एक ऐसा राज्य था जहां कांग्रेस की सरकार सबसे मज़बूती से खड़ी थी। लेकिन पार्टी की अंतर्कलह ने पंजाब को आम आदमी पार्टी के रूप में एक नया विकल्प दे दिया। जिसका नतीजा ये रहा कि यहां भी कांग्रेस को महज़ 18 विधानसभा सीटों से संतुष्ट होना पड़ा। चलिए एक नज़र डाल लेते हैं पांच राज्यों में कांग्रेस के प्रदर्शन पर

पांच राज्यों में करारी शिकस्त के बाद अब आहटें तो ऐसी भी हैं कि 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ बिना कांग्रेस वाला विपक्ष तैयार किया जा रहा है। जिसका मुख्य चेहरा पं बंगाल की ममता बनर्जी हो सकती है। और इनका साथ अरविंद केजरीवाल और अखिलेश यादव जैसे धुरंदर देंगे।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस

ख़ैर... शुरुआत करते हैं उत्तर प्रदेश से। यहां 90 के दशक के बाद समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के रूप में कुछ ऐसा राजनीतिक दल उभरकर आए कि कांग्रेस खत्म सी होने लगी। जो रही-सही कसर थी वो भारतीय जनता पार्टी ने पूरी कर दी। कहने का मतलब ये, कि 90 के दशक के बाद उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस सिर्फ अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए लड़ती आई है, जीती कभी नहीं। यहां तक कभी कांग्रेस का गढ़ कहे जाने वाली अमेठी और रायबरेली में भी कांग्रेस की दशा बेहद दयनीय हो चुकी है। जिसका असर लोकसभा चुनावों में भी खूब देखने को मिला है। ज्यादा दूर न जाकर बात करते हैं साल 2017 के विधानसभा चुनावों की, जब कांग्रेस ने साइकिल की हैंडिल थाम ली थी। राहुल गांधी और अखिलेश यादव ने प्रदेश में खूब रैलियां की, बड़े-बड़े वादे किए, लेकिन अंतत: मोदी मोदी लहर चली और दोनों युवा नेता अपने-अपने रास्ते चल दिए। विधानसभा चुनाव में हारने के बाद भी कांग्रेस के राहुल गांधी ने हौसला नहीं हारा और पूरे दम-खम के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। ‘’चौकीदार चोर है’’ के नारे को लेकर राहुल ने कांग्रेस को फिर से स्थापित करने की कोशिश की लेकिन जब चुनाव हुए तो उत्तर प्रदेश के अंदर कांग्रेस को 80 मे से महज़ एक लोकसभा सीट हासिल हुई वो भी रायबरेली लोकसभा... जहां से सोनिया गांधी ख़ुद चुनाव लड़ रही थीं। इन चुनावों में जो सबसे बड़ा झटका था, वो अमेठी में राहुल गांधी की हार थी। यहीं उत्तर प्रदेश के भीतर कांग्रेस पार्टी की और ज्यादा फज़ीहत हुई और नेताओं के साथ सीटों का भी नुकसान होता चला गया। इसके बाद कांग्रेस उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता जितिन प्रसाद, संजय सिंह और आरपीएन सिंह का पार्टी छोड़ कर जाना कभी न भरने वाला घाव साबित हुआ। आज़ादी से अभी तक विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन पर एक नज़र डाल लेते हैं:

आंकड़े से साफ है कि कैसे साल-दर-साल कांग्रेस का पतन हुआ है, हालांकि प्रदेश में कांग्रेस की आखिरी उम्मीद बनकर आईं प्रियंका गांधी का जादू भी कुछ खास नहीं चल पाया। लोग कह रहे थे कि प्रियंका अपनी दादी इंदिरा गांधी की परछाई हैं, यही कारण रहा है कि 2022 के चुनावों में प्रियंका गांधी ने 40 फीसदी टिकट पर महिलाओं की भागीदारी तय कर दी। और ‘’लड़की हूं लड़ सकती हूं’’ नारे के साथ ताबड़तोड़ मैराथन करवाईं और प्रचार किया। लेकिन प्रियंका का ये लड़कियों वाला फॉर्मूला जनता को पसंद नहीं आया। यही कारण है कि कांग्रेस को महज़ 2 सीटों से ही संतुष्ट होना पड़ा।

उत्तराखंड में कांग्रेस

उत्तर प्रदेश से ही अलग हुए उत्तराखंड राज्य में भी कांग्रेस का हाल कुछ अच्छा नहीं है। इन चुनावों के बाद राजनीतिक विशेषज्ञों का तो यहां तक कहना है कि कांग्रेस ने हारी हुई भाजपा को जिता दिया। क्योंकि उत्तराखंड में मुद्दों का अंबार था, लेकिन कांग्रेस अपने पुराने नेताओं की छवि को बनाने के चक्कर में इन्हें भुना ही नहीं पाई। और यही कारण रहा कि यहां कांग्रेस को महज़ 19 विधानसभा सीटों से संतुष्ट होने पड़ा। हालांकि उत्तराखंड कांग्रेस को अभी तक का सबसे ज्यादा वोट शेयर मिला है। यानी इस बार कांग्रेस को 37.91 प्रतिशत लोगों ने वोट दिया। एक नज़र डाल लेते हैं उत्तराखंड विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के प्रदर्शन पर:

इस बार चुनावी हार में जो सबसे बड़ी बात रही वो ये कि पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के दिग्गज नेता हरीश रावत तक अपनी सीट नहीं बचा सके। जबकि राहुल गांधी ने ख़ुद प्रदेश में बड़ी-बड़ी रैलियां कर स्वास्थ्य, शिक्षा और रोज़गार जैसे मुद्दों को लेकर भाजपा पर हमला बोला था, इतना ही नहीं राहुल भाजपा नेताओं की तरह ही मंदिर-मंदिर भी खूब घूमे थे। लेकिन जनता को रिझाने में नाकामयाब साबित हुए।

पंजाब में कांग्रेस

ये कहना ग़लत नहीं होगा कि पंजाब में तो जैसे कांग्रेस ने ख़ुद अपनी हार की स्क्रिप्ट लिखी हो। आपको याद होगा कि कैसे नवज़ोत सिंह सिद्दू ने अपने अड़ियल और ज़िद्दी तरीकों से तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह पर हावी होकर पार्टी प्रदेश के अध्यक्ष बन गए थे। जिसके बाद कैप्टन ने इस्तीफा दिया और भाजपा की ओर रुख कर गए। आपको ये भी याद होगा कि जब कांग्रेस हाईकमान ने चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया तो सिद्दू लगातार उनपर हमला कर रहे थे। यानी पंजाब में भी पार्टी की अंतर्कलह खुलकर बाहर आ रही। यानी जब सही उम्मीदवारों को मैदान में लाने की बात हो रही थी तब सिद्दू और चन्नी में ये जंग थी--- कि मुख्यमंत्री कौन होगा? वरना कांग्रेस के पास पंजाब में किसान आंदोलन से लेकर तमाम ऐसे मुद्दे थे जिससे सत्ता में वापसी की जा सकती थी। पंजाब में कांग्रेस के प्रदर्शन पर नज़र डालते हैं:

वैसे तो सभी राज्यों में कांग्रेस का भाजपा से मुकाबला था, लेकिन पंजाब में तो कांग्रेस का खुद से ही मुकाबला था, उसपर भी मुख्यमंत्री बनने के बाद कुछ दिनों में चन्नी के कामों ने भी लोगों को खूब प्रभावित किया, इसके बावजूद पिछले 10 सालों की पार्टी ने आज़ादी से पहले बनी पार्टी को मात देकर खुद को पंजाब में स्थापित कर लिया।

गोवा में कांग्रेस

नतीजे आए भी नहीं थे कि कांग्रेस ने रिजॉर्ट बुक कराने शुरू कर दिए थे, डर था कि कहीं पिछली बार की तरह इस बार भी विधायक हमें छोड़कर न चले जाएं। हालांकि चुनावों से पहले राहुल गांधी ने खुद वहां जाकर अपने उम्मीदवारों को शपथ दिलाई थी। इसके बावजूद पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ा। गोवा में अभी तक कांग्रेस का प्रदर्शन:

चुनाव से कुछ समय पहले कांग्रेस को नेतृत्वहीन छोड़ दिया गया था, उसके कई विधायकों ने पार्टी छोड़ दिया और उनमें से ज्यादातर ने बीजेपी का दामन थाम लिया, पार्टी की छवि चमकाने की बात कहते हुए कांग्रेस ने प्रतिकूल परिस्थितियों से अवसर बनाने की कोशिश की। उसने बागी नेताओं को पार्टी में वापस लेने से इनकार कर दिया। शायद यही कारण रहा है कि इस बार भी जनता ने कांग्रेस पर विश्वास नहीं जताया।

मणिपुर में कांग्रेस

60 विधानसभा सीटों वाले इस राज्य में वोटरों ने लगातार दूसरी बार किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं दिया है। साल 2017 से पहले लगातार 15 साल तक यहां राज कर चुकी कांग्रेस को जहां बड़े पैमाने पर दलबदल की कीमत चुकानी पड़ी है, वहीं क्षेत्रीय दलों के बेहतर प्रदर्शन ने भी उसका खेल बिगाड़ दिया। राजनीतिक पंडितों का अनुमान था कि अगर पार्टी पिछले प्रदर्शन के आसपास रहती है तो वह एनपीपी के साथ मिलकर सरकार बना सकती है। लेकिन उसके खराब प्रदर्शन ने इस संभावना को खत्म कर दिया। और मणिपुर में कांग्रेस को इतिहास की सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा। इस राज्य में कांग्रेस के अबतक प्रदर्शन पर एक नज़र डालते हैं:

मणिपुर राज्य में हमेशा से पिछड़ापन, विकास और बेरोज़गारी जैसे मुद्दे खास रहे हैं, अक्सर राजनीतिक पार्टियां इन्ही अपना आधार बनाकर चुनाव लड़ती आईं हैं, लेकिन इस बार विवादास्पद सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम यानी अफस्पा भी मुख्य मुद्दों में रहा था, हालांकि कांग्रेस इसे भुनाने में कामयाब नहीं हो सकी। इसी तरह मुद्दों में एक गहरा संकट राजधानी इंफाल में पानी के पानी का और सीवर का है। लेकिन विशेषज्ञों की मानें तो बाकी चार राज्यों की तरह यहां भी मुद्दे चुनाव का हिस्सा कम ही रहे।

इसके बाद अब गुजरात और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं, फिर 2024 में लोकसभा चुनावों को लेकर भी बज़ बनने लगा है, लेकिन कांग्रेस के सामने सबसे बड़ा संकट राष्ट्रीय अध्यक्ष का है। जिसके लिए पार्टी के भीतर ही अक्सर आवाज़ें बुलंद होती रही हैं। कांग्रेस के भीतर ही बगावती तेवर लिए बैठे ‘G-23’ के नेता अध्यक्ष के लिए चुनाव कराने की बात करते हैं, लेकिन कांग्रेस की दिगग्ज है कि वो गांधी परिवार से फिलहाल बाहर निकलती नहीं दिख रही है। हालही में हुई कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में एक बार फिर सोनिया गांधी को ही पार्टी का अध्यक्ष बने रहना पड़ा। हालांकि उन्होंने ये साफ कर दिया कि कांग्रेस की मज़बूती के लिए गांधी परिवार के सभी लोग इस्तीफा देने को तैयार हैं। अब सवाल ये भी है कि अगर गांधी परिवार से कोई नहीं तो फिर कौन? क्योंकि जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा ने कांग्रेस को खत्म करने की कसम खा रखी है ऐसे में अध्यक्ष पद के लिए किसी युवा और तेज़ तर्रा नेता की ही ज़रूरत है, लेकिन दुर्भाग्य है कि कांग्रेस के पुराने स्तंभों के कारण युवा इस पार्टी में ज्यादा टिक नहीं पा रहे हैं। या फिर यूं कहें कि उन्हें अपना सही स्थान या हक नहीं मिल पा रहा है। फिलहाल भाजपा के बढ़ते कद और दूसरे विपक्षियों के बीच 2024 के लिए कांग्रेस को बेहद मेहनत करनी पड़ेगी।

(आंकड़े पुलकित शर्मा द्वारा एकत्रित)

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