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कोरोना लॉकडाउनः प्यार तब भी ज़िंदा रहेगा

बांद्रा, मालदा, इंदौर व बुलंदशहर से आयी ख़बरें उम्मीद की लौ जलाती हैं। ये ख़बरें बताती हैं कि हिंदुस्तान अभी ज़िंदा है, दिलों में प्यार अभी ज़िंदा है।
प्यार तब भी ज़िंदा रहेगा
फ़ोटो साभार : नई दुनिया

क्या कोरोना वायरस के दौर में भी प्यार ज़िंदा रहेगा ?

हां, कोरोना वायरस से लड़ने के लिए प्यार ज़िंदा रहेगा।

बर्तोल्त ब्रेख़्त की एक कविता से प्रेरित ऊपर की दो पंक्तियां पिछले दिनों ज्वाला गुट्टा के बयान और बांद्रा (मुंबई), मालदा (पश्चिम बंगाल), इंदौर (मध्य प्रदेश) और बुलंदशहर (उत्तर प्रदेश) की चार घटनाओं से दिमाग़ में आयीं। इनसे पता चलता है कि कोरोना वायरस बीमारी (कोविड-19)  के लगातार बज रहे- बजाये जा रहे डरावने भोंपू के बावजूद लोगों में एक-दूसरे के प्रति प्यार, सामाजिक एकजुटता व सहभागिता, और संकट के समय निःस्वार्थ मदद की भावना बनी हुई है। हालांकि यह भी सही है कि इस बीमारी ने सहज मानवीय मूल्यों को बहुत चोट पहुंचायी है और समाज के काफ़ी बड़े हिस्से को संक्रमित कर उसे सामाजिक रूप से बीमार, क्रूर व हिंसक बना दिया है। सामाजिक तानाबाना काफ़ी हद तक छिन्न-भिन्न हालत में पहुंच गया है। यह चीज़ नाज़ीवाद व फ़ासीवाद के लिए खाद-पानी मुहैया कराती है।

ऐसी स्थिति में बांद्रा, मालदा, इंदौर व बुलंदशहर से आयी ख़बरें उम्मीद की लौ जलाती हैं। ये ख़बरें बताती हैं कि हिंदुस्तान अभी ज़िंदा है, दिलों में प्यार अभी ज़िंदा है। इन चारों जगहों पर मुसलमान नौजवानों ने सामाजिक एकजुटता व सहभागिता की और निःस्वार्थ मदद की शानदार मिसाल पेश की है।

अंतिम संस्कार करने-कराने में मुसलमान नौजवानों  ने अग्रणी भूमिका निभायी। कफ़न जुटाने से लेकर अरथी का सामान जुटाने और अरथी अपने कंधों पर लेकर श्मशान घाट तक ले जाने में वे लगे रहे। सर पर सफ़ेद गोल टोपी पहने और कंधे पर अरथी लिये इन नौजवानों की तस्वीरें बड़ी ह्रदयग्राही लग रही थीं। ख़बरों में बताया गया है कि ये नौजवान पारंपरिक हिंदू शवयात्रा में लगने वाला नारा ‘राम नाम सत्य है’ भी लगा रहे थे।

दरअसल मृतकों के परिवारजन देशव्यापी लॉकडाउन के चलते दूर-दराज फंसे-अटके थे और आ नहीं सकते थे, या अत्यंत ग़रीब व असहाय थे, या कोरोना वायरस बीमारी की छूत लग जाने की आशंका से डरे थे। इस बीमारी ने प्रियजन को प्रियजन का दुश्मन भी तो बना दिया है! ऐसे में मुसलमान नौजवानों ने सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंस—यह निहायत प्रतिक्रियावादी टर्म है) को धता बताते हुए सामाजिक एकजुटता (सोशल सॉलिडैरिटी) का परिचय दिया।

भारत की ज्वाला गुट्टा बैडमिंटन खिलाड़ी हैं और हैदराबाद में रहती हैं। खेल जगत का वह काफ़ी जाना-पहचाना नाम हैं। वह चीनी मां और भारतीय पिता की संतान हैं, और इसलिए वह अक्सर नस्ली टीका-टिप्पणियों की शिकार होती रही हैं। कोरोना वायरस बीमारी के इस दौर में उन्हें ऐसी टिप्पणियां झेलनी पड़ी हैं। हाल में दो अख़बारों में छपे उनके बयान/वृतांत से उनकी व्यथा, उनकी तकलीफ़ को समझने का मौक़ा मिला। साथ ही, किसी के लिए उनके गहन प्यार को भी जानने का मौक़ा मिला, जो उनके दिल में जगमगा रहा है।

ज्वाला गुट्टा का एक दोस्त है, जिसे वह ‘ब्वॉय फ़्रेंड’ कहती हैं। वह चेन्नई में रहता है और फ़िल्म अभिनेता है। कोरोना वायरस बीमारी के चलते 25 मार्च से लागू देशव्यापी लॉकडाउन के पहले वे दोनों हफ़्ते में दो-तीन बार कभी चेन्नई तो कभी हैदराबाद में साथ-साथ रहते थे। अब लॉकडाउन के चलते ये दोनों अलग-अलग शहर में बंद हैं और एक-दूसरे से मेल-मुलाक़ात फ़िलहाल असंभव है। अपने प्रिय से वियोग की इस यंत्रणा ने ज्वाला गुट्टा के प्रेम को और भी घना, और भी तीव्र कर दिया है। उन्होंने एक फ़ोटो भी जारी की है, जिसमें वह अपने दोस्त के सीने से लगी हुई हैं। जैसे वह कह रही हों: कोरोना वायरस बीमारी के दौर में प्यार की, संग-साथ की और भी ज़्यादा ज़रूरत है!

पिछले दिनों लखनऊ में, जहां मैं रहता हूं, मेरे साथ तीन ऐसी घटनाएं घटीं, जिनसे संकेत मिला कि कोरोना वायरस बीमारी को लेकर जो आतंक या हौआ पैदा किया गया है, उसने हमारे सोच-विचार व सामाजिक संबंध पर तेज़ी से असर डालना शुरू कर दिया है। उसने दोस्त व प्रिय को अचानक दुश्मन में तब्दील कर दिया है। ये तीनों घटनाएं 17 मार्च से 31 मार्च 2020 के बीच की हैं।

घटना नंबर एकः मेरी एक दोस्त ने, जो लेखक है, मुझसे हाथ मिलाने से इनकार कर दिया। उसने कहा: ‘नो हैंडशेक, ओनली नमस्ते।’ जबकि इसके पहले वह गर्मजोशी से मिलती व हाथ मिलाती थी। घटना नंबर दोः मेरे एक दोस्त ने, जो कला-संस्कृति जगत से जुड़ा है, मुझे अपने घर आने और चाय पीने के मेरे प्रस्ताव को सख़्ती से मना कर दिया। उसने कहा, मैं दरवाज़ा नहीं खोलूंगा। उससे टेलीफ़ोन पर बात हो रही थी। घटना नंबर तीनः एक दोस्त से, जो लेखक है, टेलीफोन पर बात हो रही थी। मैंने उससे कहा कि तुमसे मिले बहुत दिन हो गये, मैं तुम्हारे घर आ जाता हूं। वह सख़्ती से बोली, नहीं आप नहीं आयेंगे, अगर आप आ गये, तो मैं कहलवा दूंगी कि मैं घर में नहीं हूं। टेलीफ़ोन कट।

इन तीनों से मेरी दोस्ती कई बरस पुरानी है। अब दोस्ती के तार ढीले हो गये हैं। दोस्ती, चाय, बेतकल्लुफ़ गपशप डरावनी चीज़ें हो गयी हैं। इस बीमारी की आड़ में केंद्र की हिंदुत्व राष्ट्रवादी पार्टी की सरकार ने समाज को अ-सामाजिक बनाने का बीड़ा उठा लिया है।

इस बीमारी ने अपने दोस्तों व प्रियजनों से न मिलने को ‘प्यार की निशानी’ बता दिया है। आलिंगन और चुंबन को घातक, जानलेवा हथियार के तौर पर देखा जाने लगा है। मनुष्य की कोमल संवेदनाओं और भावनाओं को अचानक ग़ैर-ज़रूरी व फालतू चीज़ बताया जाने लगा है। प्यार देखते-देखते आतंकवादी शब्द बन गया है।

लेकिन ज्वाला गुट्टा जिस प्रेम के लिए तरस रही हैं, उसकी व्याख्या किस तरह की जायेगी? क्या उसे ग़ैर-ज़रूरी कह दिया जायेगा? कोरोना आतंकवाद को धता बताते हुए जिन मुसलमान नौजवानों ने मानव प्रेम और सहभागिता की ज़बर्दस्त मिसाल पेश की, उसकी व्याख्या किस तरह की जायेगी? क्या यह इस बात को रेखांकित नहीं करता कि प्यार की ज़रूरत कभी ख़त्म नहीं होगी?

गैब्रिएल गार्सिया मार्ख़ेज़ अगर ज़िंदा होते, तो वह अपना नया उपन्यास ‘कोरोना के दिनों में प्यार’ शीर्षक से लिखते!

(लेखक वरिष्ठ कवि व राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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