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एक छलावा बन गई गाय की विरासत!

आज जिस तरह से गाय को एक राजनीतिक पशु बना दिया गया है, उससे हमारी किसानी, सामाजिक और आर्थिक चेतना गड्ड-मड्ड हो गई है।
एक छलावा बन गई गाय की विरासत!
प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार: PxHere

पिछले दिनों एक चर्चा गर्म थी, कि कोरोना वैक्सीन में बछड़े के सीरम का इस्तेमाल होता है। यह सूचना आते ही भाजपा नेता भड़क उठे और फिर वे पूर्व की भाँति ऐसा कहने वालों को वामी, कांगी और देशद्रोही का तमग़ा देने लगे। लेकिन नहीं इस्तेमाल होता, इसका भी वे पुख़्ता तौर पर खंडन नहीं कर सके। ख़ुद स्वास्थ्य मंत्रालय ने बयान दिया, कि नवजात बछड़े के सीरम का इस्तेमाल केवल वेरो सेल्स को तैयार करने और विकसित करने के लिए किया जाता है। लेकिन भाजपा को इसमें भड़कने कि कौन-सी बात थी? क्या यह सर्वविदित नहीं है कि सदियों से बछड़े को कृषि कार्यों में जोतने के लिए उसे बधिया किया जाता रहा है और आज भी होता है। बधिया यानी वंध्याकरण। नर गो-वंश के पौरुष को बाधित कर देते थे, जिस वजह से उसके अंदर की कामेच्छा का नाश हो जाता था। तब वह सिर्फ़ हल ही खींच सकता था।

हम जिस युग में पले-बढ़े हैं, वहाँ गाय हमारी माता है, के स्लोगन बचपन से ही पढ़ाए गए थे। लेकिन ये हमारे किसानी संस्कार थे। इसके पीछे हो सकता है, कुछ लोगों के मन में धार्मिक संस्कार रहे हों। लेकिन अधिकांश के लिए गाय की वह उपयोगिता थी, जिसकी वजह से भारत जैसे देश में गाय सबके दिल में रच-बस गई थी। हालाँकि कुछ लोग कह सकते हैं, कि भैंस की भी उपयोगिता थी, फिर भैंस को यह सम्मान क्यों नहीं मिला? लेकिन नर भैंस उस तरह काम का नहीं होता जितना कि गो-वंश का नर, जिसे बधिया कर बैल बना लेते थे। फिर वह किसान के लिए ऐसा उपयोगी पशु बन जाता था, जिसकी मिसाल मुश्किल है। इसकी तुलना में नर भैंस सुस्त है और कृषि कार्य में उसकी उतनी उपयोगिता नहीं है, जितनी कि बैल में है। अलबत्ता वह शहरी उपयोगिता का पशु है। शहर की रोलिंग मिलों में माल ढुआई के लिए भैंसे का इस्तेमाल होता है क्योंकि वह बैल की तुलना में अधिक शक्तिशाली है, किंतु फुर्तीला नहीं।

लेकिन आज भारतीय जनता पार्टी और उसका पितृ-संगठन आरएसएस दोनों गाय पर सवार हैं। और गाय पर सवारी करते हुए वे गो-रक्षा के लिए लड़ रहे हैं। गाय हमारे देश का एक ऐसा पशु है, जो हमारी हमारी किसान चेतना में इस तरह रचा-बसा है कि हर हिंदुस्तानी दूध का पर्याय गाय को समझता है। दरअसल गाय एक किसान की एक ऐसी ताक़त थी, जो उसकी समृद्धि का प्रतीक थी। उसका दूध उसके बछड़े उसे आत्म निर्भर बनाते थे और इससे वह ख़ुद आत्म गौरव में डूबता था। स्वयं मेरे अपने घर पर एक गोईं की खेती थी। किसान की समृद्धि या हैसियत उसके दरवाज़े पर बंधी बैलों की जोड़ी से आँकी जाती थी, जिसे गोईं कहते थे। ये बैल गाय के बछड़े होते थे। यानी गाय के बछड़े खेत जोतने के काम आते थे और मादा होगी तो दूध मिलेगा।

हर किसान के मन में गाय रखने की कामना होती थी। अधिकतर सीमांत किसानों की यह हुलस पूरी नहीं हो पाती। ख़ुद मेरे पिता जी खेती गँवाते गए तो भला गाय कहाँ से ख़रीदते! गाँव छोड़ कर वे मज़दूरी के लिए शहर आए। लेकिन गाय नहीं ख़रीद सके। यह गाय वे कोई गोदान के वास्ते नहीं अपनी किसानी लालसा पूरी करने के लिए ख़रीदना चाहते थे।

आज मेरे यहाँ ढाई तीन लीटर गाय का दूध रोज़ आता है लेकिन गाय रखने की इच्छा मेरी भी है। यह हमारी हज़ारों साल की किसान चेतना है, कोई धार्मिक आस्था नहीं। यकीनन हम अगर गाय ख़रीद लें तो उसके बुढ़ाने अथवा मर जाने पर वही करेंगे जो किसान करता आया है। और हमारे इस काम में धर्म आड़े नहीं आएगा।

लेकिन आज जिस तरह से गाय को एक राजनीतिक पशु बना दिया गया है, उससे हमारी किसानी, सामाजिक और आर्थिक चेतना गड्ड-मड्ड हो गई है। अगर आज मैं एनसीआर के क़रीब किसी गाँव में एक गाय ख़रीद कर रख लूँ, तो उसका दूध तब तक ही मिलेगा, जब तक वह अगली बार नहीं बियाती। एक सामान्य क़िस्म की देसी गाय के लिए कम से कम 50 हज़ार रुपये चाहिए। उत्तर प्रदेश में पशु-धन विभाग और कृषि विभाग अब नाम के बचे हैं। इसलिए ग़ाज़ियाबाद और नोएडा में कहीं भी गाय के गर्भाधान के लिए न तो उपयुक्त साँड़ मिलेंगे न ही कृत्रिम गर्भाधान के लिए किसी बलशाली साँड़ का वीर्य (सीमन)। मालूम हो कि पहले गाँवों में कुछ नर गोवंश को छुट्टा छोड़ दिया जाता है। इन्हें बधिया नहीं किया जाता था। ये गाँवों के पास के गोचरों में चरते और अगर कभी-कभार किसानों की फसलों पर भी मुँह मार लेते। लेकिन तब कोई इसका प्रतिरोध न करता था क्योंकि उस समय इनकी ज़रूरत थी और हर गांव में कुछ ज़मीन ऐसी थी, जिसे जोता-बोया नहीं जाता था। ये साँड़ ही गाय के साथ मेटिंग (mating) करते। किसान स्वयं अपनी गाय मेटिंग के लिए उन सांडों के क़रीब छोड़ आता था। अथवा गाँव के बाहर वे गाय को छोड़ देते थे। हष्ट-पुष्ट साँड़ के साथ मेटिंग होने पर गाय पहली बार में ही गर्भवती हो जाती थी। इसके बाद फिर इन सांडों का वीर्य मशीनों से निकाला जाने लगा। तब किसान अपनी गाएँ इन कृत्रिम गर्भाधान केंद्रों में ले जाते और इन्हें उन्नत क़िस्म के साँड़ के वीर्य को इंजेक्शन के ज़रिए मादा गोवंश की जननेंद्रिय में इंजेक्ट किया जाता। 

वैसे वर्ष 2018 में ख़ुद मोदी सरकार एक फ़ार्मूला लेकर आई थी, जिसके मुताबिक़ गायों को ऐसी टेक्नीक से गर्भित क़राया जाएगा, ताकि सिर्फ़ बछड़ी (मादा) ही पैदा हो। इसके पीछे सरकार का तर्क था, कि इस तरह देश में दुग्ध उत्पादन बढ़ेगा और आवारा गो-वंश (नर) के पैदा होने पर रोक लगेगी। यह फ़ार्मूला पशु क्रूरता में तो आता ही था, हिंदू मान्यताओं के प्रतिकूल भी था। नर गो-वंश भगवान शिव का वाहन है। आंध्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में इस नर गो-वंश के मंदिर हैं। बेंगलुरु का बुल टेंपल तो बहुत मशहूर और प्राचीन है। मज़े की बात कि उत्तराखंड और महाराष्ट्र में ऐसे गर्भाधान सेंटर खोले भी गए। एक कदम और बढ़ाते हुए सरकार ने गायों को कृत्रिम गर्भाधान कराने का फैसला लेने वाले किसानों को शुक्राणु में सब्सिडी देने का फैसला भी किया।

पशुपालन, डेयरी विभाग के सूत्रों के अनुसार पहले यह सीमन किसानों को 600 रुपये में सेंटर से दिया जाता था। लेकिन अब केंद्र सरकार द्वारा इस पर 200 रुपये की सब्सिडी देने की घोषणा हुई थी।

केंद्र सरकार ने प्रयोग के तौर पर पहले उत्तराखंड के ऋषिकेश और महाराष्ट्र के पुणे में कृत्रिम गर्भाधान के सेंटर खोले। इसके बाद सरकार ने केरल, हिमाचल, उत्तराखंड, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, महाराष्ट्र, गुजरात, तेलगांना और महाराष्ट्र में भी नए केंद्र खोले है। इस सेंटर में देसी गोवंशीय पशुओं में सिर्फ बछिया को पैदा करने वाले इंजेक्शन तैयार किए जाने लगे हैं। पहले इस तरह के इजेक्शन का विदेशों से आयात किया जाता था। लेकिन अब भारत में ही विदेशी नस्ल की फ्रिजियन, क्रॉसब्रीड, होलस्टीन गायों के साथ देसी नस्ल की गायों के सीमेन को फ्रीज कर गायों को कृत्रिम गर्भाधान कराया जा रहा है। बछिया पैदा करने के लिए तैयार होने वाले इंजेक्शन को लिक्विड नाइट्रोजन में माइनस 196 डिग्री सेल्सियस पर रखा जाता है। इसे करीब 10 वर्षों तक सुरक्षित रखा जा सकता है। इसके एक डोज में मादा व नर पुश के बीस मिलियन स्पर्म रखे जाते है। अन्य देशों से आयात किए जा रहे सीमन की कीमत भारत में करीब पंद्रह सौ रुपये पड़ती है।

लेकिन कड़वी सच्चाई यह है, कि हरियाणा में गाँव वाले तीन-चार उन्नत क़िस्म के साँड़ रखते हैं। उनके लिए गोचर की भी व्यवस्था है। किंतु उत्तर प्रदेश में न तो गोचर हैं न अब ख़ाली ज़मीन है। ये आवारा गो-वंश फसलों को चर रहा है। बेचारा किसान रात-रात भर जग कर अपने खेतों की रखवाली करता है। और साँड़ भी अनुपयोगी हो गए हैं। पशुपालन विभाग में पशु चिकित्सक नहीं हैं। जो हैं, उनकी ड्यूटी गोशालाओं में लगी है। ऐसे में कृत्रिम गर्भाधान केंद्र ख़ाली पड़े हैं। वैसे नियम के अनुसार पशु चिकित्सक घर पर आकर भी ये इंजेक्शन लगा सकता है। इसके लिए 35 रुपये की फ़ीस निर्धारित है। मगर डॉक्टर मिलते नहीं और 300 रुपये लेकर झोला-छाप डॉक्टर होता है। उसके पास जो सीमन होता है, वह बेकार जाता है। इस तरह एक गाय जो पूरे जीवन में पाँच से आठ दफे तक बियाती है, वह हर बार फ़ाउल हो जाती है और एक या दो दफे ही वह गर्भवती होती है। ऐसे में गायों की उन्नत क़िस्म एक छलावा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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