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संकट की घड़ी: मुस्लिम-विरोधी नफ़रती हिंसा और संविधान-विरोधी बुलडोज़र न्याय

इसका मुकाबला न हिन्दू बनाम हिंदुत्व से हो सकता, न ही जातियों के जोड़ गणित से, न केवल आर्थिक, मुद्दा आधारित अर्थवादी लड़ाइयों से। न ही महज़ चुनावी जोड़ तोड़ और एंटी-इनकंबेंसी के भरोसे इन्हें परास्त किया जा सकता। ये सब ऐतिहासिक तौर पर विफल (historically failed) रणनीतियाँ हैं।
bulldozer politics
Image courtesy : Scroll

आज हमारे संवैधानिक लोकतन्त्र के लिए गम्भीर संकट की घड़ी है। हालात चिंताजनक जरूर हैं, पर लोग जिस तरह प्रतिरोध कर रहे हैं और जमीनी स्तर पर जनता ने आपसी भाईचारा बना कर रखा है, वह उम्मीद की किरण है।

देश के कई इलाकों, विशेषकर election-bound states से होते हुए राम नवमी और हनुमान जयंती के त्योहार पर शुरू नफरती तांडव और बुलडोजर न्याय का नया रंगमंच ( 2020 दंगों के बाद ) एक बार फिर राजधानी दिल्ली को बनाया गया है। शायद इसलिए कि राजधानी दिल्ली से पूरे देश में सन्देश जाता है और उसका demonstrative effect अधिक व्यापक और गहरा होता है।

पहले राम नवमी के दिन JNU में नॉन-वेज के सवाल को मुद्दा बनाकर छात्रों पर हमला किया गया। हनुमान जयंती के दिन जहांगीरपुरी में पहले उन्मादी हिंसक जुलूस भेजकर उकसावेबाजी की गई, फिर वहां हुई झड़प को आधार बनाकर मुसलमानों के ख़िलाफ़ इकतरफा कार्रवाई शुरू कर दी गयी, षडयंत्र के तार रोहिंग्या, बांग्लादेशी घुसपैठियों, PFI से लेकर 2020 के दिल्ली दंगों तक से जोड़ दिए गए और फिर अतिक्रमण हटाने का बहाना बनाकर गरीब मुसलमानों के मकानों पर, यहां तक कि मस्जिद के चबूतरे पर बुल्डोजर पहुँच गया। हद तो तब हो गई जब इस कार्रवाई पर  सुप्रीम कोर्ट के रोक के आदेश की कई घण्टे तक, आदेश की कॉपी न मिलने का बहाना बनाकर, अवमानना की गयी और अंततः वामपंथी नेताओं बृंदा करात और रवि राय तथा उनके साथियों के बुलडोजर के सामने खड़े होने के साहसिक कदम के  बाद ही कार्रवाई रुकी। 

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कानून के राज और संवैधानिक मूल्यों की खुली अवहेलना तथा सर्वोच्च न्यायालय तक के आदेश की अवमानना और  ऐसे संगीन हालात में सत्ता के सर्वोच्च पदों पर बैठे Executive Heads की खतरनाक भूमिका हमारे राष्ट्र और लोकतन्त्र के भविष्य के लिए अशुभ सम्भावनाओं का संकेत है।

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मोदी जी तो पूरे मामले पर चुप्पी साध कर अपना स्पष्ट सन्देश-loud and clear- दे ही रहे हैं, दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल की भूमिका भी कम चिंताजनक नहीं है। मासूम केजरीवाल को शोभा यात्रा पर पथराव करने वाले अपराधी दिखे, पर शोभा यात्रा के नाम पर तलवार लहराने वाले, मस्जिद तक पहुंच कर उकसावेबाजी करने वाले दंगाई नहीं दिखे। मुसलमानों के मत्थे उस दिन की झड़प की जिम्मेदारी मढ़ने के बाद AAP पार्टी के सारे शीर्ष नेता व प्रवक्ता अवैध बांग्लादेशी या रोहिंग्या मुसलमानों को दिल्ली में बसाने  का भाजपा पर आरोप लगाते हुए अपने को संघ-भाजपा से भी बड़ा  हिन्दू-हित रक्षक साबित करने की होड़ कर रहे हैं। 

वैसे जहांगीरपुरी के बंगाली भाषी निवासियों के मन में यह भी एक सवाल है कि क्या उनसे बंगाल में भाजपा की हार का बदला लिया जा रहा है। क्या उन्हें दिल्ली मे आप पार्टी का समर्थन करने की कीमत चुकानी पड़ रही है ? 

हनुमान जयन्ती के दिन के पूरे घटनाक्रम की निष्पक्ष जांच रिपोर्ट देश के सामने रखने और फिर साहसिक हस्तक्षेप द्वारा बुलडोजर रुकवाने के लिए वामपंथी नेताओं की तारीफ  हो रही है, वहीं राजधानी दिल्ली और देश के अन्य इलाकों के घटनाक्रम ने फासीवादी आक्रमकता का मुकाबला कर पाने में  विपक्षी पार्टियों की चरम अक्षमता को फिर बेनकाब कर दिया है। हमलों के खिलाफ जनता और न्याय के पक्ष में उनके खड़े न होने के पीछे मूल कारण बहुसंख्यकवाद के आगे उनका पूर्ण विचारधारात्मक समर्पण और चुनावी अवसरवाद है।

इन सारे मामलों में अतिक्रमण हटाने आदि के जो भी बहाने बनाये जा रहे हैं अथवा हिजाब से लेकर अजान और मांसाहार तक के अलग-अलग मुद्दे अलग अलग जगहों पर उठाये जा रहे हों, इसके बारे में शायद ही किसी को रत्ती भर भी शक हो कि यह जो नफरती उन्माद का अभियान पूरे देश में चलाया जा रहा है, वह न स्वतःस्फूर्त है, न कोई local या किसी खास मुद्दे का मामला है, बल्कि यह सब संघ-भाजपा के सर्वोच्च स्तर से संचालित मुस्लिम विरोधी विभाजनकारी अभियान है, जो कानून के राज, संविधान सब की धज्जियां उड़ाते हुए अन्ततःएक full-fledged कारपोरेट-फासीवादी हिन्दूराष्ट्र बनाने की ओर लक्षित है। 

जाहिरा तौर पर वैश्विक पूँजी और कारपोरेट घरानों के पुरजोर समर्थन तथा कारपोरेट नियंत्रित मीडिया की backing से देश में लोकतन्त्र के खात्मे का यह विभाजनकारी अभियान चल रहा है ताकि राष्ट्रीय सम्पदा और संसाधनों तथा मेहनतकश जनता की कमाई की अंधाधुंध लूट सुनिश्चित हो सके और इसके विरुद्ध जनता संघर्ष में एकजुट न हो सके।

जिस तरह द कश्मीर फाइल्स जैसी चरम नफरती फ़िल्म को मोदी जी ने स्वयं प्रोमोट किया और फिर  संघ-भाजपा ने फ़िल्म के प्रदर्शनों के दौरान प्रायोजित ढंग से पूरे देश में उन्माद का माहौल बनाया, उसने आज की मुस्लिम-विरोधी हिंसा लिए tone set किया। संघ प्रमुख भागवत ने अगले 15-20 वर्षों में अखंड भारत बनाने की भविष्यवाणी करते हुए और लाठी रखने की वकालत करते हुए चेतावनी दी कि इसके रास्ते में जो आएगा वह मिट जाएगा, यह खुली उकसावेबाजी और इशारा था।

फिर रामनवमी और हनुमान जयंती को उत्तेजक गाली गलौज भरे नारों के साथ देश के अनेक राज्यों के मुस्लिम-बहुल इलाकों में आक्रामक जुलूस निकाले गए जैसे किसी दुश्मन territory पर हमला हो रहा हो, मुस्लिम घरों और मस्जिदों के सामने खड़े होकर तांडव किया गया, यहां तक कि कई जगहों पर मस्जिद में घुसने, उस पर भगवा लगाने की कोशिश हुई, वह इसके बारे में शक की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता कि यह सब कुछ बिल्कुल सुनियोजित है और संघ-भाजपा तथा सत्ता के शिखर से प्रायोजित और संरक्षित है। 

आज देश में जो fascist mobilisation चल रहा है, उसका एक अहम उद्देश्य आगामी चुनावों को प्रभावित करना है। दरअसल देश में  कई राज्यों के चुनावों से होते हुए 2024 के आम चुनावों के लिए एक तरह से count-down शुरू हो गया है और इन चुनावों को लेकर आश्वस्त होने का संघ-भाजपा के पास कोई कारण नहीं है।

भारत भले ही श्रीलंका न हो और यहां इकॉनमी का उस तरह collapse न हो, परन्तु जिस तरह का घनघोर आर्थिक संकट आज भारत में भी व्याप्त है और जिसका दूर-दूर तक कहीं अंत नहीं दिख रहा, महंगाई, बेरोजगारी ने लोगों के जीवन को जिस कदर असह्य बना दिया है, उसमें कभी भी जनअसंतोष का विस्फोट हो सकता है।

पुरानी बात नहीं है जब अचानक उठ खड़ा हुआ ऐतिहासिक किसान आंदोलन पूरे 13 महीने चलता रहा और उसने सरकार को घुटने पर ला दिया था, आज फिर उसके पुनर्जीवन की तैयारियां चल रही है, इसी तरह शाहीन बागों के आगे भी सरकार को नाकों चने चबाने पड़े थे। बेरोजगार युवाओं का रेलवे भर्ती को लेकर पटना से इलाहाबाद तक उठ खड़ा हुआ स्वतःस्फूर्त उभार, जिससे सरकार सकते में आ गयी थी, अभी हाल ही की बात है। पिछले दिनों देश मजदूरों की ऐतिहासिक राष्ट्रव्यापी हड़ताल का भी साक्षी बना, जिसका किसानों ने भी समर्थन किया।

संघ-भाजपा अपनी विनाशकारी नीतियों के ख़िलाफ़ जनाक्रोश के विस्फोट की सम्भावनाओं से डरे हुए हैं, वे समाज में साम्प्रदायिक विभाजन को एक ऐसे मुकाम पर पहुँचा देना चाहते हैं जहां जनता के जीवन से जुड़े मूलभूत मुद्दे बेमानी हो जाँय और लोग बस एक विवेकहीन भीड़ बनकर उनके एजेंडा के साथ चलते रहें।

बेशक इस फासीवादी अभियान की कमान खाये-अघाये, मध्य-उच्च वर्गीय शातिर खिलाड़ियों के हाथ है पर फासीवादी तोप का चारा (cannon fodder) तो आम गरीब निम्न परिवारों के वे किशोर और युवा  बनाये जा रहे हैं जिनके लिए बेहतर भविष्य के सारे रास्ते बंद हैं, ये वे बच्चे हैं जिनके लिए अच्छी शिक्षा के दरवाजे बंद हैं। उन्हें सांस्कृतिक विकास, वैज्ञानिक चेतना, तर्क, विचार-विवेक से वंचित कर  दिया गया और बेरोजगार बना दिया गया है।  उनके पास आगे बढ़ने की कोई उम्मीद, कोई space नहीं है। अपनी energy को channelise करने का कोई outlet, कोई रास्ता, कोई अवसर उनके पास नहीं है। यह non-aspirational class है!

इन्हीं नौजवानों को कभी मोदी जी ने हर साल 2 करोड़ रोजगार देने का वायदा किया था! वह दिया होता अर्थात 8 साल में 16 करोड़ नौजवानों को रोजगार मिला होता, तो आज इनके हाथ तलवार, त्रिशूल पकड़ाने की जरूरत न होती! अब इन्हीं बेरोजगार युवाओं को एक गढ़े हुए दुश्मन के खिलाफ धर्मध्वजा रक्षक होने के मिथ्या गौरवबोध से लैस कर फासीवादी वाहिनी का हिस्सा बनाया जा रहा है। उन्हें अनवरत साम्प्रदयिक उन्माद का डोज़ और उन्मादी शोभा यात्राओं का action programme देकर सक्रिय और engage रखा जा रहा है। देखते देखते विराट युवा आबादी का डेमोग्राफिक डिविडेंड, डेमोग्राफिक डिजास्टर में तब्दील हो गया है। यह इस पूरे घटनाक्रम का सबसे चिंताजनक पहलू है।

इसका मुकाबला न हिन्दू बनाम हिंदुत्व से हो सकता, न ही जातियों के जोड़ गणित से, न केवल आर्थिक, मुद्दा आधारित अर्थवादी लड़ाइयों से। न ही महज चुनावी जोड़ तोड़ और एंटी-इनकंबेंसी के भरोसे इन्हें परास्त किया जा सकता। ये सब ऐतिहासिक तौर पर विफल ( historically failed) रणनीतियाँ हैं।

जरूरत है कारपोरेट हिंदुत्व के पूरे विचारधारात्मक-राजनीतिक पैकेज के खिलाफ सशक्त counter-offensive लांच करने की। हिन्दू राष्ट्रवाद की अवधारणा का जोरदार वैचारिक निषेध और प्रतिरोध हो, उसके वैश्विक पूँजी और कारपोरेटपरस्त चरित्र को सशक्त जनांदोलनों के माध्यम से बेनकाब किया जाय जैसे किसान-आंदोलन ने किया था। आज़ादी की लड़ाई के दौर से आज तक के उनके साम्राज्यवादपरस्त दलाल चरित्र के खिलाफ मेहनतकश जनता के हितों पर आधारित सच्चे देशप्रेम, सुसंगत सामाजिक न्याय तथा प्रगतिशील मूल्यों का झंडा बुलंद किया जाय। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ सुस्पष्ट दिशा के साथ किसानों, छात्र-युवाओं, मजदूरों के ज्वलंत मुद्दों पर जोरदार आंदोलन खड़े हों। प्रगतिशील सांस्कृतिक आंदोलन की नई लहर खड़ी हो, इप्टा की " ढाई आखर प्रेम की " यात्रा अच्छा प्रयोग है। सर्वोपरि हर फासीवादी हमले के ख़िलाफ़ जमीनी प्रतिरोध की तैयारी हो।

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फासीवादी आक्रामकता के खिलाफ ऐसा counter-offensive खड़ा करने में एकताबद्ध वामपंथ की भूमिका निर्णायक है जो हिंदुत्व विरोधी सभी प्रगतिशील लोकतान्त्रिक, धर्मनिरपेक्ष ताकतों के संयुक्त मोर्चे के निर्माण में उत्प्रेरक और केन्द्रक की भूमिका निभा सकती है।

ऐसा सशक्त बहुआयामी फासीवाद-विरोधी प्रत्याक्रमण ही वह जमीन तैयार कर सकता है, जहाँ एकताबद्ध विपक्ष जनता के संघर्षों के साथ खड़ा होकर भाजपा को सत्ता से बेदखल कर सकता है, तभी फासीवाद को पीछे धकेलने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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