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'बंबई में का बा' इसका जवाब तब मिलेगा जब आप यह जानेंगे कि ' गांव में क्या नहीं है' !

दूसरा पक्ष: बम्बई या मुंबई में क्या है?, यह जानने के लिए आपको यह जानना पड़ेगा कि गांव में क्या नहीं है। इसी सवाल का जवाब तलाश रहे हैं अजय कुमार।
बम्बई में का बा

प्रवासियों के पास अपना 'देस' नहीं होता, देस की स्मृतियां होती हैं। स्मृतियों की खासियत यह होती है कि उन्हें कथा कहानी कविता गीत में मनभावन तरीके से ढाला जा सकता है। इसी कड़ी में 'बम्बई में का बा' गीत खूब सुना जा रहा है।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के विद्यार्थी रह चुके डॉक्टर सागर द्वारा रचित इस भोजपुरी रैप 'बम्बई में का बा' ने ऐसी ही सार्थकता हासिल की है। इस गीत में मनोरंजन भी भरपूर है और प्रवासी मजदूर के दुखों को भी बड़े ही शानदार शब्दों के जरिए उकेरा गया है। अनुभव सिन्हा के निर्देशन और मनोज बाजपेई की अदाकारी और गायकी को इस गीत के लिए बधाई दी जानी चाहिए।

इसे पढ़ें : ‘बम्बई में का बा’: सवाल के कंधे पर चढ़कर प्रवासी मज़दूरों की पीड़ा को सामने रखता भोजपुरी रैप

लेकिन यह गीत है तो स्मृतियां हैं। वह भी मनभावन स्मृतियां। इसलिए बहुत शानदार होने के बावजूद इससे यथार्थ का कुछ हिस्सा छूट जा रहा है।

तो अब आप पूछेंगे कि आखिरकार यथार्थ क्या है? यथार्थ या सच का सिरा यह है कि जब गांव को शहरों के बनिस्बत रखा जाता है तो यह कहना गलत होगा कि गांव की दुनिया शहरों से बेहतर है। और जब शहरों को गांव के बनिस्बत रखा जाता है तो यह कहना गलत होगा कि शहरों की दुनिया गांव से बेहतर है। गांव न उतने मासूम और रूमानी हैं जितना उन्हें बताया जाता है और शहर न उतने क्रूर और गंदे हैं जितना उन्हें दिखलाया जाता है। मानवीयता और अमानवीयता की घनघोर मौजूदगी शहर और गांव दोनों में हैं। और ऐसा तो बिल्कुल नहीं है कि केवल स्कूल और अस्पताल देने के बाद मौजूदा डेवलपमेंट के मॉडल में गांव की बदहाली में सुधार आ जाए।

चूंकि 'बम्बई में का बा' गीत में गांव को हकीकत के तरीके से पेश किया गया है, तो इस गीत के शब्दों के जरिए हैं गांव के दूसरे पक्ष को समझने की एक संक्षिप्त यात्रा की तरफ चलते हैं।

कोई अगर पूछे कि इस गीत की सबसे बड़ी कमी क्या है? तो शायद इसका जवाब यह हो कि इस गीत में औरतों की दशा के बारे में कुछ ठोस बात निकल कर नहीं आती है। सारा गीत मर्दों की दुखों के इर्द-गिर्द ही रचा गया है।

एक छोटा सा सर्वे करके कभी देखिएगा, गांव से निकली हुई बच्चियों से पूछिएगा कि वह गांव और शहर दोनों में से किस जगह पर रहना पसंद करेंगी तो उनमें से 90 फ़ीसदी से अधिक बच्चियों और औरतों का जवाब होगा कि वह शहरों में रहना पसंद करेंगी। औरतों की आजादी को लेकर गांव एक बद से बदतर जगह है। अगर किसी घर मर्द जागरूक न हो तो कोई सोचने की कोशिश भी नहीं करता है कि उसके घर में रहने वाली औरत किस दशा में रहती है। कोई मर्द शर्ट खोलकर पूरे खेत खलिहान में घूम सकता है लेकिन एक शादीशुदा औरत कई साल तक अपने घर में ही रीति रिवाज के चक्कर में बंद रहती है। एक खास उम्र पार करने के बाद बच्चियों को गांव से बाहर जाने पर बहुत सारी पाबंदियों का सामना करना पड़ता है। जब तक घर वालों से इजाजत नहीं मिलेगी तब तक बच्चियां वहां नहीं जा सकती जहां वह जाना चाहती हैं। इस सोच में थोड़ा बहुत बदलाव हुआ है लेकिन बहुत ज्यादा बदलाव नहीं हुआ है। अगर पढ़ाई की दुनिया नहीं होती तो शायद अब भी बच्चियों को घर और गांव से निकलने में महीनों लग जाते। इस लिहाज से किसी भले मर्द के सामने कोई औरत कहे कि उसे गांव में नहीं रहना तो इसमें कोई अचरज भरी बात नहीं है।

अब आते हैं इस गाने के बोल पर। गाने की पहली लाइन है कि ‘2 बीघा में घर बा लेकिन सुतल बानी टेंपो में’ चूंकि किसी एक किरदार के बहाने पूरा गाना रचा गया है, तो इसमें कोई परेशानी नहीं है। गाने के भाव बढ़े अच्छी तरीके से आम जनता से संवाद कर ले रहे हैं। लेकिन जैसे गाने के शुरुआत में खुद कहा गया है कि बम्बई हिंदुस्तान के किसी भी शहर का प्रतीक है और यह गाना प्रवासी मजदूरों से जुड़ा हुआ है जो अपना घर बार छोड़कर दो जून की रोटी खातिर शहर की तरफ पलायन कर जाते हैं।

इस लिहाज से अगर बिहार की हकीकत देखी जाए तो यह है कि बिहार में तकरीबन 91.9 फ़ीसदी आबादी के पास 1 हेक्टेयर से भी कम ज़मीन है। और इस ज़मीन में औसतन केवल 0.25 हेक्टेयर ज़मीन ही खेती करने लायक होती है। एक हेक्टेयर में तकरीबन 4 बीघा जमीन होता है तो 0.25 हेक्टेयर जमीन का मतलब यह है कि बिहार में खेती करने लायक जमीन बहुत लोगों के पास एक बीघा से भी कम है। अगर ऐसी स्थिति है तो सोचिए कि 2 बीघा में जमीन में किसी का घर कैसे होता होगा?

मैं खुद बिहार के गांव का निवासी हूं। मेरे गांव के तकरीबन 90 फ़ीसदी नौजवान प्रवासी मजदूर हैं। लेकिन मैंने अपने गांव में किसी का घर दो बीघा जमीन में नहीं देखा।

लेकिन इतिहास की किताबें बताती हैं कि जमींदारों के पास इतनी रहीसी हुआ करते थी। उनके पास बड़े-बड़े इलाके में घर हुआ करते थे। जमींदारी प्रथा को खत्म किया गया। भू सुधार कानून लागू हुए तब जाकर जमीनों का बंटवारा हुआ। फिर भी हो सकता है कि बड़ी-बड़ी जातियों के कुछ लोगों के घर दो बीघा जमीन में हो। नहीं तो निचले जातियां तो एक दूसरे के छप्पर में सट कर दूसरों खेतों में काम कर अपनी जिंदगी चलाती हैं।

भारत में तकरीबन 85 फ़ीसदी परिवारों के पास एक हेक्टयर से भी कम की जमीन है। इसमें से खेती करने लायक जमीन और भी कम है। इसमें सबसे बड़ा हिस्सा निचली जातियों का है। खेती किसानी की स्थिति बदहाली से भरी हुई है। तब तो शहर की तरफ पलायन करना बनता ही है। लेकिन यह कहना गाने में भले ही सूट कर जाए कि '2 बीघा में घर बा लेकिन सुतल बानी टेंपो में' लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है।

हकीकत तो यह है कि शिक्षा के अभाव में जैसे ही बच्चे एक खास उम्र को पार करते हैं, वैसे ही घर से दबाव आने लगता है कि वह घर छोड़कर कुछ खाने कमाने का जुगाड़ करें। बच्चों को भी लगता है कि अब उन्हें जिम्मेदारी संभालने पड़ेगी। और पिछले कुछ सालों से तो यह हो रहा है कि जैसे ही जिम्मेदारी का बोझ सर पर आता है बच्चों को लगता है कि गांव छोड़ देना चाहिए शहर की तरफ बढ़ जाना चाहिए और शहर जाकर एक टेंपो मिल जाए तब तो बात ही निराली है। तो गांव के बहुतों के लिए टैंपू जैसा जुगाड़ होना उनकी जिंदगी को निखारने का तरीका बन जाता है।

तालाबंदी (लॉकडाउन) में बहुत सारे प्रवासी मजदूर शहर से गांव की तरफ लौटे। उन्हें लगा कि गांव में उन्हें आसरा मिल जाएगा। गांव कनेक्शन मीडिया प्लेटफॉर्म पर लॉकडाउन में भारत की ग्रामीण स्थिति विषय पर एक सर्वे छपा। सर्वे का निष्कर्ष यह रहा है कि गांव को इस लॉकडाउन में बहुत बुरे हालात से गुजरना पड़ा। किसी को अपनी जमीन बेचनी पड़ी। किसी को अपने मोबाइल, जेवर और दूसरी तरह की चीजों को गिरवी रखना पड़ा। जिस साधन से लोगों की जिंदगी की गाड़ी चल रही थी, उस साधन को गंवाना पड़ा।

कहने का मतलब यह है कि शहर से भागे हुए लोगों को गांव में भी मरते हुए जीने के लिए मजबूर होना पड़ा।

'मनवा हरिहर लागे भैया हाथ लगवले माटी में

जियरा अब तो अटकल बाटे घर के चोखा बाटी में'

यह पूरी तरह से मध्यवर्गीय चेतना है। जो गांव के संभ्रांत परिवार के लोग थे जिन्हें सरकारी नौकरियां मिली। जिन्हें अच्छे प्राइवेट कंपनी में काम करने का मौका मिला। जिन्हें अच्छी खासी तनख्वाह मिलती है। जिनकी जिंदगी बड़े अच्छे से गुजरती है। यह उनकी नॉस्टैल्जिया है। यह लोग जब पर्व, त्योहार, साल 2 साल बाद गांव आते हैं तो इन्हें माटी प्यारा लगने लगता है। जब शहर में रहते हैं तो लिट्टी चोखा की याद आती है। यह कैसी जमात है जो अगर अपनी जिंदगी में सामाजिक जिम्मेदारी का रिस्क लेती तो गांव में बहुत बड़ा बदलाव कर सकती था। लेकिन इसने नहीं लिया। अपनी आने वाली पीढ़ियों को गांव से बहुत दूर रखना चाहती है। इसके लिए गांव एक तरह की नॉस्टैल्जिया का नाम है। और जो बहुत बड़ी मजदूर तबके की आबादी है उसकी तो चेतना का विकास ही इतना नहीं होता है कि वह माटी में की जा रही मजदूरी और मशीनों में की जा रही मजदूरी के बीच अंतर कर पाए। उसके लिए तो दो जून की रोटी का जुगाड़ करना बहुत जरूरी है। रोज अगर इस तबके को लिट्टी चोखा मिले भी तो यह तबका अपनी जीवन यात्रा के संघर्ष में भूल ही जाता है कि लिट्टी चोखा के स्वाद में किस तरह का देसीपन घुला हुआ है।

'घी दूध और माठा मिश्री मिलेला हमरा गांव में, लेकिन यहां काम चलत बा खाली भजिया पाव में'

यह लाइन भी गांव के संभ्रांत परिवारों से जुड़ी हुई है। ऐसे परिवारों से जिनके पास एक-दो गाय, भैंस से अधिक मवेशी हों। ऐसे लोगों की तादाद कम है। लेकिन क्योंकि गांव में ऐसे ही लोगों का दबदबा होता है तो लगता है कि गांव इन्हीं लोगों से मिलकर बनता है। इनके अलावा छोटी जातियों का बहुत बड़ा हिस्सा इतना गरीब होता है कि उसके पास ना तो मवेशी खरीदने के पैसे होते हैं और न ही प्रतिदिन 40-50 रुपये किलो दूध खरीदने के पैसे। अगर मवेशी होते भी हैं तो वे दूध का इस्तेमाल अपने परिवार पर कम और बेचने के लिए ज्यादा करते हैं। ताकि उनकी जिंदगी ठीक ठाक चल पाए। तो आप पूछेंगे कि यह दूध दही माठा मिश्री वाला समूह कौन है। इस समूह की संख्या पहले भी बहुत कम हुआ करती थी और अब इसमें पिछड़े वर्ग के कुछ लोग जुड़े हैं तो बढ़ी है लेकिन इसी समूह ने शहरों में अच्छी नौकरियां भी हासिल की हैं। इसलिए यह माठा मिश्री वाला समूह पहले से भी कम हुआ है। बाकी सारी में निचली जातियां पहले जजमानी के अंदर काम करती थी, अब शहरों में जाकर काम करती है। चूंकी गांव में इन्हें जातिगत भेदभाव का सामना अधिक करना पड़ता है इसलिए शहर में जो मिलता है उसे अपना लेते हैं। जरा आप ही सोचिए कि अगर जाति के प्रथाओं से अलग हटकर कोई काम करने पर किसी का घर गांव से अलग कर दिया जाता है। तो क्या वह शहर में जाकर पाव भाजी खाना पसंद नहीं करेगा। माठा, मिश्री, दूध, मलाई की बात अच्छी लगती है लेकिन गांव की हकीकत इतनी ख़ूबसूरत नहीं है।

'काम धाम रोजगार मिली त

गंवे स्वर्ग बनई ता जा'

अब हिंदुस्तान के गांव के लिए यह लाइन एक अबूझ पहेली है। मनरेगा के आंकड़े कहते हैं की मजदूरी मिल जाए तो लोग पलायन नहीं करते हैं। गांव में ही रह जाते हैं। लेकिन ठीक-ठाक नौकरी मिल जाए तो लोग गांव को पूरी तरह से भूल भी जाते हैं। शहर के सम्मोहन के आगे गांव का देसी पन हार जाता है। कोई भी पढ़ा लिखा रोजगारशुदा व्यक्ति अपने परिवार को गांव में नहीं रखना चाहता। इसकी सबसे बड़ी वजह है- लोगों की इच्छाएं या चाहते। इच्छाएं और चाहते संस्कृति से बनती हैं। और आधुनिक संस्कृति में गांव बिल्कुल विलुप्त हो चुके हैं। लोगों की चाहतों में कार है, बिल्डिंग है, सिनेमा है, पार्क है, hello और  how do you do वाली अंग्रेजी है। इसमें धूल में लिपटे हुए खेत नहीं है, फसल बोता हुआ इंसान आधुनिक नहीं है, बड़े प्रेम से नमस्कार और आप कैसे हैं कहने वाला व्यक्ति पिछड़ा हुआ है। इसलिए बहुत मुश्किल है कि मौजूदा डेवलपमेंट मॉडल में केवल रोजगार के सहारे गांव स्वर्ग बन जाए।

"बूढ़ पुरनिया, माई बाबू ताल तलैया छूट गईल

केकरा से बतलाई हम की मनवा भीतर भीतर टूट गईल"

गांव की पहचान संयुक्त परिवार हुआ करती थी। समय बदला समय का चक्र बहुत तेजी से बदला। गांव पीछे चले गए। गांव में हर नई पीढ़ी समय के इस बदलाव में शिक्षा के अभाव में खुद को संभाल नहीं पाई। इसे दिशा ही नहीं मिली। भटकती चली गई। टूटती चली गई। अब गांव की स्थिति ऐसी है कि भाई जवान होते ही घर का बटवारा कर लेते हैं। चलिए भाई की स्थिति तो समझ में भी आती है लेकिन कई घर तो ऐसे हैं जहां पर बूढ़े दंपत्ति भी एक दूसरे के साथ नहीं रहते। बूढ़े बाप का खाना अगर बड़े बेटे के घर बनता है तो बूढ़ी मां का खाना छोटे बेटे के घर। इसकी वजह यह है कि शहर तो बन रहे हैं लेकिन गांव का समाज पूरी तरह से टूट रहा है। यहां की अंतहीन हरियाली में अंतहीन अंधेरा समाता जा रहा है।

"जुल्म होत बा हमनी संघवा कितना अब बर्दाश्त कारी

देश के बड़का हाकिम लोग पर कैसे हम विश्वास करीं"

मेरे लिहाज से यह इस गीत की सबसे सशक्त पंक्तियां हैं। प्रवासी लोग दरअसल रोजगार की तलाश में भटकते हुए लोग ही होते हैं। इनके भटकन को रोकना बहुत जरूरी है। इसकी सारी जिम्मेदारी इस देश के हाकिम यानी नीति निर्माताओं पर ही थी। अब भी इन्हीं पर यह जिम्मेदारी है कि वह गांव व शहर की खामियां दूर कर दोनों को गरिमा पूर्ण जीवन जीने लायक बनाएं। ऐसा न हो कि गांव के दंश से बचने के लिए कोई शहर में आए और शहर में उसे रहने के लिए माचिस के पैकेट के बराबर भी जगह नहीं मिले। ऐसा न हो कि कुछ दिन के लिए शहर बंद हो तो लोगों को पैदल भागकर गांव जाना पड़े और जैसे ही उन्हें लगे कि गांव में उनकी जिंदगी नहीं चलेगी वैसे ही वह फिर से भागकर शहर में आ जाएं।

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