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डीयू: डूसू और डूटा के चुनाव होंगे पर डूरा की बहाली कब?

दिल्ली विश्वविद्यालय शोधार्थी संघ (डूरा) भी कई साल पहले अस्तित्व में था जिसमें विशेषतः एमफिल और पीएचडी के शोधार्थी भी चुनावी प्रक्रिया में शामिल होते थे लेकिन डीयू प्रशासन द्वारा क़रीब डेढ़ दशक पहले इसे भंग कर दिया गया।
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फ़ोटो साभार : HT

दिल्ली विश्वविद्यालय में सितंबर माह के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) और दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (डूटा) के चुनाव होने जा रहे हैं। कोरोना महामारी के कारण प्रभावित हुए अकैडमिक कैलेंडर के कारण छात्र संघ चुनाव तीन वर्ष के अंतराल के बाद होंगे। लेकिन आज से लगभग 20 वर्ष पूर्व दिल्ली विश्वविद्यालय शोधार्थी संघ (डूरा) भी अस्तित्व में था। जिसमें विशेषतः एमफिल और पीएचडी के शोधार्थी भी चुनावी प्रक्रिया में शामिल होते थे जो मूलतः शोधार्थियों का ही प्रतिनिधित्व करते थे (हालांकि अब एमफिल को ख़त्म कर दिया गया है)। लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा इसे भंग कर दिया गया। डूरा मुख्यतः विश्वविद्यालय में नामांकित शोधार्थियों से संबंधित समस्याओं के निदान लिए एक मंच प्रदान करता था। शोधार्थियों की भी चुनावी प्रक्रिया में भागीदारी होती थी। किताबी ज्ञान व शोध के अलावा भी डूरा विश्वविद्यालय परिसर में शोधार्थियों की समस्याओं के निवारण में एक सहयोगी की भूमिका में था। दिल्ली विश्वविद्यालय शोधार्थी संघ शोध विद्वानों का प्रतिनिधित्व, समर्थन और उनकी आवाज़ को मजबूती प्रदान करने वाला दिल्ली विश्वविद्यालय का एक प्रमुख शोध निकाय था जिसे भंग नहीं किया जाना चाहिए था। अगर इसकी कार्यप्रणाली में कोई समस्या भी रही हो तो इसे भंग करने की बजाए इसमें सुधार किया जा सकता था।

समय-समय पर डूरा की बहाली के लिए मांग उठाई गई है। 10 सितंबर 2018 को न्यूज़ वेबसाइट 'फर्स्टपोस्ट' को दिए एक वक्तव्य में तत्कालीन डूटा अध्यक्ष राजीब रे ने छात्र राजनीति और एमफिल व पीएचडी शोधार्थियों की चुनावों में भागीदारी को लेकर एक वक्तव्य दिया था जो एमफिल व पीएचडी शोधार्थियों की चुनावों में भागीदारी और डूरा की पुनः बहाली का समर्थन करता था। सवाल पूछा गया था कि "डीयू में छात्र राजनीति वोट बैंक से प्रेरित लगती है। एमफिल और पीएचडी उम्मीदवारों को, जिनकी संख्या लगभग 5,000 है, डूसू चुनावों में प्रतिनिधित्व क्यों नहीं दिया जाता? दिल्ली यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष और किरोड़ीमल कॉलेज में दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर राजीब रे ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया कि जेएनयू के विपरीत, डीयू शोध विद्वानों को कवर नहीं करता है। “अगस्त के महीने में दिल्ली विश्वविद्यालय के एमफिल और पीएचडी पाठ्यक्रमों में कोई प्रवेश नहीं हुआ। ऐसा मुद्दा दिल्ली विश्वविद्यालय शोधार्थी संघ (डूरा) जैसी संस्था द्वारा उठाया जा सकता था, जिसे डेढ़ दशक पहले भंग कर दिया गया था।"

अलग अलग विषयों में शोधरत शोधार्थी विभिन्न प्रकार की समस्याओं का सामना करते हैं जिनके निवारण के लिए उन्हें कोई उचित मार्गदर्शन नहीं मिलता और ऐसे में शोधार्थी कई बार बमुश्किल शोध कर पाते हैं या फिर बीच में ही पीएचडी शोध को छोड़ कर चले जाते हैं।

कई बार शोध छात्रों ने इसे पुनः बहाल करने के लिए कुलपति से भी अपील की लेकिन 20 वर्षों में कई कुलपति दिल्ली विश्वविद्यालय में आए और गए लेकिन उन्होंने डूरा को बहाल नहीं किया। वर्ष 2017 में अभिषेक वर्मा द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय में एक अपील दायर की गई जिसमें अपीलकर्ता ने मुख्य रूप से राहत की मांग की थी कि ‘दिल्ली विश्वविद्यालय में जो पीएचडी छात्र है, उन्हें दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ (डूसू) चुनावों में भाग लेने की अनुमति दी जाए’ जिसे हाई कोर्ट द्वारा कई मानदंडों के आधार पर ख़ारिज कर दिया गया। दिल्ली विश्वविद्यालय की तरफ से कोर्ट में उपस्थित वकील की तरफ से कई दलील दी गई जिसमें एक दलील और तथ्य महत्वपूर्ण है जो डूसू में पीएचडी शोधार्थियों की भागीदारी की बजाए डूरा की पुनः बहाली के पक्ष में था। जिसे 18 जुलाई 2017 को हाई कोर्ट द्वारा जारी फैसले में देखा जा सकता है। फैसले के बिंदु 13 में स्पष्ट शब्दों में अंकित किया गया कि "पीएचडी छात्र और अन्य शोध छात्र डूरा को पुनर्जीवित करने के हकदार हैं। इस संबंध में, उन्होंने विश्वविद्यालय द्वारा जारी दिनांक 11.08.2016 के संचार का हवाला दिया है, जिसमें विश्वविद्यालय ने कहा है कि शोध विद्वानों की चिंताओं को डूरा संविधान के प्रावधानों के अनुसार संबोधित किया जा सकता है और शोध विद्वान डूरा के माध्यम से अपना प्रतिनिधित्व जारी रख सकते हैं।" वहीं बिंदु 14 में पुनः डूरा चुनाव बहाली को लेकर फैसला था कि "अपीलकर्ता द्वारा अनुरोध किए जाने पर विश्वविद्यालय अपीलकर्ता को डूरा का संविधान प्रदान करेगा। उन्होंने आगे कहा कि विश्वविद्यालय डूरा के चुनावों के पुनरुद्धार और आयोजन की सुविधा प्रदान करेगा, ताकि अपीलकर्ता जैसे शोध छात्रों की चिंताओं को विश्वविद्यालय द्वारा संबोधित किया जा सके।" इसके बावजूद भी दिल्ली विश्वविद्यालय ने डूरा की पुनः बहाली प्रक्रिया शुरू नहीं की।

दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के भूतपूर्व अध्यक्ष अक्षय कुमार एवं अन्य शोधार्थियों ने डूरा की पुनः बहाली के लिए वर्ष 2017 में ग्वायर हॉल हॉस्टल, कला संकाय एवं विश्वविद्यालय के अन्य परिसरों में शोधार्थियों से अपील की और विश्वविद्यालय प्रशासन को प्रतिवेदन भी प्रेषित किए। विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा डूरा की बहाली को लेकर तब भी कोई कार्रवाई नहीं की गई। इस दौरान कई बैठकों में मैं स्वयं भी शामिल रहा हूं। डूरा की बहाली को लेकर शोधार्थी समय-समय पर संघर्ष करते रहे हैं। स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया-एसएफआई द्वारा भी एमफिल व पीएचडी के शोधार्थियों को चुनाव में भागीदारी एवं मतदान अधिकार के साथ-साथ डूरा की पुनः बहाली के मुद्दे को कई बार विश्वविद्यालय प्रशासन के समक्ष उठाया गया। 2018-19 में एसएफआई ने विभिन्न मांगों को लेकर अंबेडकर जयंती के दौरान 2019 में जारी किए घोषणा पत्र में भी डूरा की बहाली एवं शोधार्थियों की अन्य मांगों को दोहराया और प्रशासन को ज्ञापन प्रेषित किया। जिस ज्ञापन पर प्रशासन द्वारा कभी संज्ञान नहीं लिया गया।

दिल्ली विश्वविद्यालय इस वर्ष अपनी शतवार्षिकी मना रहा है और इस शतवार्षिकी वर्ष के दौरान प्रशासन दिल्ली विश्वविद्यालय शोधार्थी संघ की पुनः बहाली कर दी जाए तो यह भी प्रशासन का एक बेहतरीन निर्णय होगा। डूरा की बहाली की वर्तमान समय में अति आवश्यकता भी है जिसके कुशल संचालन को सुनिश्चित कर शोध एवं शोधार्थियों की समस्याओं का निदान किया जा सके एवं उनकी बेहतरी के लिए कार्य किया जा सके।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में पीएचडी शोधार्थी हैं। विचार निजी हैं।)

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