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डीयू : एडमिशन ही नहीं यहां हॉस्टल मिलना भी है एक चुनौती, लाखों छात्रों के टूट जाते हैं सपने!

देश के टॉप विश्वविद्यालयों की सूची में शामिल 90 कॉलेज और 20 डिपार्टमेंट वाली इस यूनिवर्सिटी के महज़ 4 प्रतिशत छात्रों को ही हॉस्टल की सुविधा मिल पा रही है।
delhi university

दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले की चिंता के साथ ही हॉस्टल की चिंता भी छात्र और उनके अभिभावकों को सताने लगी है। ये वो बोतल का जिन है, जो हर साल एडमिशन के समय बाहर तो आता है लेकिन फिर थोड़े ही समय में ठंडे बस्ते में चला जाता है। हालांकि ये हॉस्टल की समस्या आपको एक नज़र देखने में जरूर छोटी लग सकती है, लेकिन ये तब गंभीर हो जाती है, जब इसके चलते हाशिए पर खड़े लोगों का देश की इस प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी में पढ़ने का सपना टूट जाता है। ये समस्या तब और विकराल लगती है जब किसी दूर-देहात की छात्रा का मेरिट में सेलेक्शन तो हो जाए लेकिन आवास की समस्या के चलते घर वाले उसे यहां भेजने से ही मना कर दें।

आपको बता दें कि मौजूदा समय में दिल्ली विश्वविद्यालय के कुल 91 कॉलेजों में से सिर्फ 20 कॉलेजों में ही हॉस्टल की सुविधा उपलब्ध है। यहां अंडरग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट कोर्सेस में पढ़ने वाले स्टूडेंट्स की कुल संख्या लगभग 2 लाख से अधिक है वहीं कुल हॉस्टल सीटों की संख्या 7 से 8 हजार तक ही सिमटी हुई है। और जो हॉस्टल उपलब्ध हैं उनकी तरफ भी किसी खास उम्मीद से नहीं देखा जा सकता है क्योंकि उनका न्यूनतम महीने का खर्च भी 12 से 13 हजार रुपये है।

क्या है पूरा मामला?

दिल्ली विश्वविद्यालय ने हाल ही में अपने शताब्दी समारोह का जश्न प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में मनाया है। इस अवसर पर पीएम मोदी ने कहा कि ये सिर्फ एक विश्वविद्यालय ही नहीं बल्कि एक मूवमेंट रहा है। हालांकि ये एक विडंबना ही है कि देश के टॉप विश्वविद्यालयों की सूची में शामिल 90 कॉलेज और 20 डिपार्टमेंट वाली इस यूनिवर्सिटी के महज़ 4 प्रतिशत छात्रों को ही हॉस्टल की सुविधा मिल पा रही है। ये समस्या इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि संसाधनों की कमी के चलते कई बच्चे इस कैंपस तक का सफर तय नहीं कर पाते हैं। जो किसी तरह व्यवस्था को चुनौती देते हुए यहां तक पहुंचते हैं। उनके सामने मेरिट लिस्ट और आवास का दोहरा संघर्ष हमेशा चलता रहता है।

अब सवाल उठता है कि आखिर सौ साल पुराने दिल्ली विश्वविद्यालय के पास हॉस्टल की सुविधा इतनी कम क्यों है। इस संबंध में दिल्ली यूनिवर्सिटी एक्ट, 1992 का एक नियम भी है, जिसका सेक्शन 33 यूनिवर्सिटी को अपने सभी छात्रों को ठहरने का प्रबंध कराने का निर्देश देता है। फिर ऐसी क्या वजह है कि इस विश्वविद्यालय में छात्र सालों से आवास की समस्या से दोचार हो रहे हैं। इसका कोई आधिकारिक जवाब नहीं है, लेकिन ऑफ द रिकॉर्ड दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ चुके और पढ़ाने वाले कई जानकारों के मुताबिक हॉस्टल की सुविधा इस विश्वविद्यालय की कभी प्राथमिकता नहीं रही, न ही इसके लिए कभी पर्याप्त कोशिश की गई है।

नाम न छापने की शर्त पर कई लोग बताते हैं कि यूनिवर्सिटी की जमीन मुखर्जी नगर के ढाका क्षेत्र और प्रीतमपुरा इलाके में खाली पड़ी है। लेकिन उस पर हॉस्टल बनाने का कोई प्रस्ताव कभी नहीं आया है। इसके अलावा यूनिवर्सिटी के फंड और संसाधन भी इस दिशा में लगभग अनुपयोग ही रहे हैं। क्योंकि मौजूदा समय में भी विश्वविद्यालय के पास इतनी जमीन है कि ज्यादातर छात्रों को हॉस्टल की सुविधा मिल सकती है। जिसमें सभी न सही लेकिन बाहर से आने वाले जरूरतमंदों की तो समस्या आसानी से हल हो सकती है। क्योंकि किसी भी विश्वविद्यालय को कम से कम 25 प्रतिशत छात्रों को हॉस्टल सुविधा तो देनी ही चाहिए।

छात्र-छात्राओं का दोहरा संघर्ष

कई बार हॉस्टल संघर्षों में शामिल दिल्ली विश्वविद्यालय की पूर्व छात्रा अमिषा न्यूज़क्लिक को बताती हैं कि दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्राओं के लिए हॉस्टल की करीब तीन हजार सीटें हैं, जबकि यहां पढ़नेे वाली छात्राओं की संख्या इससे कई गुना अधिक है। हज़ारों लड़कियां कैंपस के बाहर रहती हैं और कई तो यहां तक हॉस्टल ना होने के चलते पहुंच ही नहीं पाती। वहीं हॉस्टल में रहे वाली लड़कियों को अलग पाबंदियां झेलनी पड़ती हैं।

अमिषा के मुताबिक कई हॉस्टलों के प्राइवेटाइज होने के कारण उनका हॉस्टल चार्ज भी बेहद अधिक है, जिसके कारण स्टूडेंट्स को प्राइवेट हॉस्टल, पीजी और किराये के कमरों पर निर्भर रहना पड़ता है। कैंपस के आस-पास रहने की सस्ती जगह तलाशना भी एक चुनौती है। क्योंकि कैंपस के आसपास बहुत महंगी जगहें मिलती हैं जिनका मकसद छात्रों को केवल लूटना ही होता है। इसके साथ ही एक कारण सुरक्षा से जुड़ा हुआ भी है, जिसे लेकर अभिभावकों के मन में चिंता रहती है। दिल्ली में जो लड़कियां हॉस्टल में हैं उनकी खबरें ही सुर्खियों में रहती हैं, तो बाहर रहने वालों का क्या ही कहना।

बीते साल यूपी से दिल्ली पढ़ने आईं ममता अपने एडमिशन के दिनों को याद करते हुए कहती हैं उनके सामने मेरिट और हॉस्टल दोनों का संघर्ष था। क्योंकि उनके घरवालों की ये सख्त हिदायत थी कि अगर कॉलेज का हॉस्टल मिलेगा, तभी दिल्ली जाओगी, नहीं तो आगे की पढ़ाई यहीं घर से होगी।

खर्चीला है कैंपस के बाहर रहना

ममता बताती हैं कि उनके कई दोस्तों के लिए विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए पीजी या फ्लैट का खर्च उठाना काफी चुनौती भरा रहा है। कैंपस के पास पीजी के कमरे भी छोटे-छोटे होते हैं और उनमें कई लड़कियों को एक साथ रहना पड़ता है। अधिक किराए के साथ ही लड़कियों के लिए रोक-टोक अलग से रहती है। कैंपस से दूर रहना और खर्चों को बढ़ावा देता है। बस और मेट्रो के सफर की परेशानियां तो ज़ुड़ती ही हैं, साथ ही घरवालों के लिए सुरक्षा भी एक अलग मुद्दा हो जाता है।

वैसे हॉस्टल की समस्या सिर्फ लड़कियों की ही नहीं है, लड़के भी इससे कहीं ज्यादा पीड़ित हैं। इनके लिए हॉस्टल तो कम हैं ही, इसके अलावा जो हैं उनमें से भी कई में कोवि़ड के बाद रेनोवेशन का काम चल रहा है, जिसका हवाला देकर उन पर ताले लटका दिए गए हैं। इस यूनिवर्सिटी में पढ़ने की मारामारी को यहां के कई कॉलेजों के कटऑफ लिस्ट से भी समझा जा सकता है, ऐसे में यहां रहने की समस्या मध्यम वर्ग के छात्रों के लिए ज्यादा न सही निम्म वर्ग के लिए तो आफत ही है।

छात्रों का संघर्ष

शायद आपको याद होगा कि साल 2019 में इसी यूनिवर्सिटी के पूर्व छात्र और सामाजिक कार्यकर्ता प्रवीण सिंह ने हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की थी। इस याचिका में दिल्ली यूनिवर्सिटी एक्ट, 1992 के सेक्शन 33 का हवाला दिया गया था जो दिल्ली यूनिवर्सिटी को अपने सभी छात्रों को ठहरने का प्रबंध कराने का निर्देश देता है। वहीं, जिन छात्रों को हॉस्टल सुविधा नहीं मिल पा रही है उन्हें 10 हजार रुपये का स्टाइपेंड दिया जाए। इसके अलावा यूनिवर्सिटी प्रांगण के 5 किलोमीटर रेंज में जितने भी हॉस्टल हैं उनका रेंट रेगुलेट किया जाए।

इस याचिका को हाईकोर्ट ने ये कहते हुए रद्द कर दिया था कि इस तरह का निर्णय आर्थिक रूप से व्यवहारिक नहीं है और इसमें बहुत पैसे खर्च होंगे। प्रवीण इससे पहले भी 'आवास का अधिकार' और हॉस्टल के मुद्दों को उठाते रहे हैं। हालांकि इन सबके बावजूद न तो सरकार और न ही प्रशासन नींद टूटती है। उल्टा सरकार शिक्षा के बजट पर हर साल कटौती ही करती नज़र आती है। जानकारों के मुताबिक मौजूदा समय में जीडीपी का कुल 2.9% शिक्षा पर खर्च किया जा रहा है। आर्थिक सर्वे 2022-23 के हिसाब से पिछले सात सालों में शिक्षा पर खर्च, कुल खर्च के 10.4% से 9.5% तक कम हुआ है। ऐसे में जाहिर है एक ओर सरकारी शिक्षण संस्थानों की फीस में बढ़ोत्तरी हो रही है, तो वहीं दूसरी ओर हाशिए पर खड़े लोग शिक्षा से दूर होते चले जा रहे हैं।

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