वित्तीय वैश्वीकरण के दौर में निर्यात संचालित वृद्धि के ख़तरे
श्रीलंका और पाकिस्तान के बाद, बांग्लादेश अब हमारे पड़ोस का ऐसा तीसरा देश हो गया है, जो गंभीर आर्थिक संकट की चपेट में आ गया है। उसने अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से 4.5 अरब डालर के ऋण की प्रार्थना की है और इसके अलावा विश्व बैंक से 1 अरब डालर और बहुपक्षीय एजेंसियों तथा दानदाता देशों से 2.5 से 3 अरब डालर तक की सहायता मांगी है। हालांकि, देश की सरकार चिंता की कोई बात नहीं की मुद्रा बना रही है, बांग्लादेश वास्तव में बढ़ते व्यापार घाटे, सिकुड़ते विदेशी मुद्रा संचित भंडार, तेजी से अवमूल्यन की शिकार मुद्रा, रिकार्ड मुद्रास्फीति और ऐसे ऊर्जा संकट का शिकार है, जिसके चलते बड़े पैमाने पर पावर कट करने पड़ रहे हैं।
बांग्लादेश: अर्श से फर्श पर
विडंबना यह है कि अभी कुछ महीने पहले तक ही बांग्लादेश की ‘‘विकास’’ की सफलता की कहानी बताकर उसकी वाहवाही की जा रही थी और वाकई कई मानकों के हिसाब से तो उसने उल्लेखनीय प्रगति की भी है। वहां स्त्री-साक्षरता बढक़र 73 फीसद हो गयी बताते हैं। शिशु मृत्यु दर उस पाकिस्तान से आधी हो गयी है, जिससे 1971 में वह अलग हुआ था। और उसका ‘मानव विकास सूचकांक’ भारत, पाकिस्तान और इस क्षेत्र दूसरे अनेक देशों से बढ़कर था। बहुतेरे उसे एक ‘आर्थिक चमत्कार’ कहते थे और बिल्कुल बेवजह ही नहीं कहते थे। आजाद होने के समय जिस देश का आर्थिक रूप से नाकाम होना तय माना जा रहा था, वह काफी उल्लेखनीय तरीके से इस गिरावट से निकलकर बाहर आ गया था और अपने सभी पड़ोसियों को पीछे छोड़ते हुए तरक्की कर रहा था। इसीलिए, वहां अचानक आर्थिक कठिनाइयों का उभरकर सामने आ खड़ा होना, बहुतों को बहुत ही हैरानी की बात लग रहा है।
और श्रीलंका के मामले की ही तरह, यह प्रवृत्ति है कि इस संकट के लिए 'भ्रष्टाचार' पर दोष डाल दिया जाए। हालांकि भ्रष्टाचार अपने आप में निंदनीय चीज है, फिर भी इस संकट की यह व्याख्या बिल्कुल ही उथली है। इससे ज्यादा वास्तविक तो यह नजरिया लगता है कि यूक्रेन युद्ध की पृष्ठभूमि में अनेक मालों के अंतर्राष्ट्रीय बाजार में दाम में जो बढ़ोतरी हुई है, उसने बांग्लादेश के आयात बिलों को इस हद तक बढ़ा दिया कि उसके पास अपने आयातों का भुगतान करने के लिए विदेशी मुद्रा ही नहीं बची।
संकट के कारणों की सतही व्याख्याएं
इससे, इस आयातों पर निर्भर देश में, घरेलू बाजार में मालों की तंगी पैदा हो गयीं और इसने मुद्रास्फीति की दर को बढ़ा दिया। और विदेशी मुद्रा की इस तंगी से ही, उसकी मुद्रा के गिरते विनिमय मूल्य की भी व्याख्या की जा सकती है, जबकि विनिमय दर में यह गिरावट भी, देश की मुद्रा को स्थिर करने में संचित विदेशी मुद्रा के खपाए जाने के बावजूद हुई है। लेकिन, इस तरह की व्याख्या की समस्या यह है कि इसमें सिर्फ आयातों पर ही ध्यान केंद्रित किया जाता है और कपड़ा उद्योग से बांग्लादेश की निर्यात आय में आयी गिरावट को हिसाब में ही नहीं लिया जाता है, जबकि इन निर्यातों का बांग्लादेश के कुल निर्यातों में 83 फीसद हिस्सा है।
बांग्लादेश के कुछ अर्थशास्त्रियों ने इस संकट के लिए देश की मौद्रिक नीति को ही जिम्मेदार ठहराया है। बांग्लादेश ने अपनी ब्याज की दरों को बढ़ाने के बजाय, लंबे समय तक उन्हें जस का तस बनाए रखा था। अगर उसने अपनी ब्याज की दरें बढ़ायी होतीं, तो वह अपने व्यापार घाटे की भरपाई करने के लिए पर्याप्त निजी वित्त प्रवाह खींचने में कामयाब रहा होता। और जब ऐसा होता तो उसकी विनिमय दर में भी गिरावट नहीं हुई होती और इस तरह की गिरावट की प्रत्याशा से, बाहर से देश में भेजी जाने वाली कमाई भी नहीं घटी होती। लेकिन, यह भी काफी सतही व्याख्या ही है। समस्या कहीं गहरी है। समस्या तो निर्यात-संचालित आर्थिक वृद्धि की रणनीति की प्रकृति में ही है और यही वह रणनीति है जिस पर, नवउदारवाद के दौर में दूसरे अधिकांश देशों के साथ ही, बांग्लादेश भी चलता आया है।
नवउदारवाद के दौर में निर्यात संचालित वृद्धि
निर्यात संचालित वृद्धि की रणनीति पर चलने की अक्लमंदी-नासमझी पर विकास अर्थशास्त्रियों के बीच कम से कम आधी सदी से तो बहस होती ही आ रही है। यह बहस खासकर तब से शुरू हुई जब तथाकथित पूर्वी-एशियाई ‘चमत्कार’ को, भारत जैसे ऐसे देशों की अपेक्षाकृत सुस्त वृद्धि के मुकाबले में खड़ा किया जाने लगा; जो विश्व बैंक की शब्दावली में ऐसे देश थे जो तब एक ‘अंतर्मुखी’ विकास रणनीति पर चल रहे थे। बहरहाल, इस समूची बहस में ही एक महत्वपूर्ण नुक्ता छूट ही गया, जो वास्तविक जीवन में एक अहम भूमिका अदा करता है।
किसी भी अर्थव्यवस्था में सकल मांग जिन अनेकानेक घटकों से बनती है, उनमें कुछ तो स्वायत्त होते हैं, जबकि अन्य खुद सकल मांग में वृद्धि से उत्प्रेरित होते हैं। आयातों तथा सरकारी खर्चों को आम तौर पर दो मुख्य स्वायत्त घटक माना जाता है। और किसी भी आय वितरण विशेष के लिए उपभोग को, खुद आय के स्तर पर ही निर्भर माना जाता है। इसमें कोई शक नहीं है कि उपभोग में एक स्वायत्त तत्व भी होता है, जो आय से स्वतंत्र होता है। लेकिन, यह तत्व कुछ खास परिस्थितियों में ही प्रबल होता है, मिसाल के तौर पर ऐसी परिस्थितियों में जब ऐसे माल जो पहले उपभोक्ताओं को अनुपलब्ध हों, उन्हें अचानक उपलब्ध हो जाते हैं।
किसी अर्थव्यवस्था में मांग का और इसलिए उत्पाद का बढऩा, मांग के स्वायत्त तत्व की वृद्धि पर निर्भर करता है। और एक नवउदारवादी अर्थव्यवस्था में, जहां सीमा के आर-पार वित्तीय प्रवाहों के लिए दरवाजों का खुला होना, जीडीपी के अनुपात के रूप में राजकोषीय घाटे पर एक सीमा लगाता है और अमीरों पर कर लगाने की सरकार की सामर्थ्य पर सीमाएं लगाता है तथा राजकोषीय घाटा बढ़ाए बिना ही मांग को उत्प्रेरित करने की भी सीमा लगाता है, निर्यात ही वृद्धि का मुख्य उत्प्रेरण बन जाते हैं। संक्षेप में नवउदारवादी अर्थव्यवस्था की पहचान ही, मुख्यत: निर्यात-संचालित वृद्धि पर निर्भरता से होती है।
निर्यात संचालित वृद्धि का चीन का अनुभव भिन्न क्यों?
बहरहाल, निर्यात संचालित आर्थिक वृद्धि की रणनीति, सिर्फ नवउदारवादी व्यवस्था तक ही सीमित नहीं होती है। कोई सरकार सोचे-समझे तरीके से, अपना खर्चा बढ़ाने के जरिए, अपने घरेलू बाजार को बढ़ाने के बजाए, निर्यातों को बढ़ाने का रास्ता अपना सकती है और इस तरह, सरकारी खर्चे से संचालित वृद्धि के बजाए, निर्यात संचालित वृद्धि की स्थिति पैदा हो सकती है। फिर भी, इस प्रकार की वृद्धि में धुरी की भूमिका में तो सरकार ही होगी। वास्तव में बहुतों का तो तर्क है कि पूर्वी-एशियाई देशों के मामले में यही तो हो रहा था।
हमें निर्यात-संचालित वृद्धि की रणनीति पर चलने वाले देशों की दो श्रेणियों के बीच अंतर करना चाहिए। एक श्रेणी उन देशों की है जो व्यवस्थित तरीके से विशाल चालू खाता बचतें अर्जित करते हैं और इस तरह अपने यहां विदेशी मुद्रा के विशाल भंडार खड़े कर लेते हैं। चीन, इस श्रेणी का सबसे बड़ा उदाहरण है। इस तरह की किसी भी अर्थव्यवस्था के मामले में, विश्व आर्थिक हालात में अगर कोई प्रतिकूल परिस्थितियां पैदा होती भी हैं, तो उनका असर सिर्फ उनकी चालू खाता बचत के आकार पर पड़ता है और कुल मिलाकर उनके संचित विदेशी मुद्रा कोष के आकार पर, इस सब का मामूली सा ही असर दिखाई देता है। इसलिए, संबंधित देश इस तरह की प्रतिकूल स्थितियों से आसानी से उबर सकता है और इसकी वजह से उसे किसी खास संकट का सामना नहीं करना पड़ता है।
दक्षिण एशियाई देशों की कमजोर नस
दूसरे अनेक देश, इससे भिन्न दूसरी श्रेणी में आते हैं। इस श्रेणी में आने वाले देश कमोबेश साल-दर-साल चालू खाता घाटे में बने रहते हैं और अपने भुगतान संतुलन को, निजी वित्तीय पूंजी के प्रवाहों के बल पर संभाले रहते हैं। और इस श्रेणी में आने वाले देश, जब अपने यहां विदेशी मुद्रा के भंडार जमा भी करते हैं तो, ये भंडार भी ऋणों के बल पर ही खड़े किए जाते हैं, जिसमें निजी वित्तीय खिलाडिय़ों के ऋण भी होते हैं। भारत इसी श्रेणी में आता है और आम तौर पर दक्षिण एशिया के देश और वास्तव में विकासशील दुनिया के ज्यादातर देश ही, इसी श्रेणी में आते हैं।
इस दूसरी श्रेणी में आने वाले देशों के मामले में, अगर किसी बाहरी कारण से उनका चालू खाता घाटा बढ़ जाता है, जो कि मिसाल के तौर पर किसी महामारी के चलते पर्यटन से होने वाली आय में कमी की वजह से हो सकता है (जैसे कि श्रीलंका के मामले में) या यूक्रेन युद्ध जैसे किसी युद्ध के चलते आयात के दाम बढऩे की वजह से हो सकता है या फिर विश्व मंदी के चलते निर्यात आय में हुई गिरावट की वजह से हो सकता है (बांग्लादेश में ये दोनों ही कारण सक्रिय थे), अर्थव्यवस्था पर इस गिरावट का असर आम तौर पर निजी आर्थिक खिलाडिय़ों और खासतौर पर निजी वित्तीय खिलाडिय़ों की करनियों के चलते और भी बहुत बड़ा होकर अपना काम करता है। इसकी वजह यह है कि जब चालू खाता बढ़ता है तथा इसके चलते निजी वित्तीय प्रवाहों की जरूरत बढ़ जाती है, तब इस राजकोषीय घाटे के बढऩे से ही संबंधित अर्थव्यवस्था से वित्त का पलायन बढ़ जाता है।
वित्त का पलायन लाता है अर्श से फर्श पर
जब किसी देश का चालू खाता घाटा बढ़ता है, निजी वित्त निवेशकों की धारणा के अनुसार, उसकी मुद्रा के अवमूल्यन के आसार पैदा हो जाते हैं और इसलिए, चूंकि वे सिर्फ अपने स्वार्थों की रक्षा करने के हिसाब से ही चलते हैं, वे अपना पैसा संबंधित अर्थव्यवस्था से बाहर निकाल लेते हैं और इस तरह संबंधित अर्थव्यवस्था के विदेशी मुद्रा संकट को और बढ़ा देते हैं। वास्तव में अगर सब कुछ ‘बाजार’ पर ही छोड़ा जा रहा हो, तो यह कहना मुश्किल है कि ऐसा देश क्या कभी विदेशी मुद्रा बाजार में संतुलन की स्थिति में पहुंचेगा भी या नहीं। लेकिन, इस संकट के सामने संबंधित देश अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का दरवाजा खटखटाता है और उससे लिए जाने वाले ऋण से निजी वित्त निवेशकों के बीच यह प्रत्याशा पैदा होती है कि संबंधित देश की मुद्रा का जो अवमूल्यन हो रहा था उसे रोका जाएगा और इससे विदेशी मुद्रा बाजार एक प्रकार के संतुलन की स्थिति में आ सकता है। लेकिन, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ऋण देने की शर्तों के रूप में भारी कीमत वसूल करता है और सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को समेटने, राष्ट्र की परिसंपत्तियां विदेशियों के हवाले किए जाने (कभी-कभी परिसंपत्तियों का ‘नि:राष्ट्रीयकरण’ भी कहा जाता है) आदि की शर्तें लागू कराता है।
इस तरह, शुरू में विदेशी मुद्रा की जो तंगी होती है, उसे निजी वित्तीय पूंजी का इस तरह का आचरण कई गुना बढ़ा देता है और यह एक प्रकार से रातों-रात हो जाता है और अब यह संकट देश को अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के लौह आलिंगन में धकेल देता है। इसीलिए, संबंधित देश ‘आर्थिक चमत्कार’ से रातों-रात याचक बन जाते हैं। निर्यात संचालित वृद्धि की ठीक यही समस्या है, कि इसकी अभी जो कामयाबी नजर आती है, पलक झपकते ही फुर्र हो सकती है। और ऐसा तब होता है जब निर्यात संचालित वृद्धि के पीछे भागना, किसी देश को वैश्वीकृत वित्तीय पूंजी के रहमो-करम पर निर्भर बनाकर रख देता है।
भारत भी इस संकट से परे नहीं है
हमने अपने पड़ोस में, श्रीलंका तथा बांग्लादेश जैसे देशों में भी ऐसा होते हुए देखा है, जिन देशों ने मानव विकास के पहलू से प्रभावशाली कामयाबियां दर्ज करायी हैं। अब जबकि विश्व अर्थव्यवस्था में गतिरोध आ गया और इस गतिरोध की मार, तीसरी दुनिया के अनेक देशों के निर्यातों पर पडऩे जा रही है, याचक बनकर रह जाने वाले देेशों की संख्या आने वाले दिनों में बढ़ जाने वाली है। और भारत भी, अपनी अर्थव्यवस्था के बड़े आकार और अपने विदेशी मुद्रा संचित कोष के विशाल आकार के बावजूद (हालांकि यह कोष कोई चालू खाता बचतों से नहीं जमा हुआ है बल्कि वित्तीय प्रवाहों से ही जमा हुआ है), इस संकट से किसी भी तरह से परे नहीं है। भारत के मामले में एक ही राहत की बात है और वह है उसकी खाद्य आत्मनिर्भरता (हालांकि यह आत्मनिर्भरता उपभोग का काफी निचले स्तर पर चल रहे होने पर टिकी हुई है)। इसके अलावा, भारत के विदेश संबंध ऐसे हैं कि वह साम्राज्यवाद की पाबंदियों के शिकार देशों से तेल का आयात करता रह सकता है। बहरहाल, भारत की यह खाद्य आत्मनिर्भरता भी काफूर हो गयी होती, अगर तीन कृषि कानूनों के मामले में मोदी सरकार की चली होती। फिलहाल, किसानों ने इस खतरे से देश को बचा लिया।
दो विश्व युद्धों के बीच के पूंजीवाद के संकट से, निर्यात-संचालित वृद्धि का विचार पिट ही गया था। लेकिन, नवउदारवाद के रास्ते से इसकी दोबारा वापसी हो गयी। बहरहाल, अब जबकि विश्व पूंजीवाद को एक नये संकट का सामना करना पड़ रहा है, इसके त्यागे जाने के ही आसार नजर आ रहे हैं।
(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं।)
मूल अंग्रेजी लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
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