Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

पुण्यतिथि: महात्मा ज्योतिबा फुले के विचारों की ज़रूरत आज भी उतनी ही है, जितनी कल थी!

शायद ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा, कि कल ज्योतिबा थे, इसलिए आज हम महिलाएं और वंचित समाज के लोग शिक्षा की ओर बढ़ सके।
Mahatma Jyotiba Phule

"विद्या बिना मति गयी, मति बिना नीति गयी

नीति बिना गति गयी, गति बिना वित्त गया

वित्त बिना शूद्र गये!

इतने अनर्थ एक अविद्या ने किये"

ये पंक्तियां महान विचारक, समाज सेवी, लेखक, दार्शनिक और क्रांतिकारी महात्मा ज्योतिबा फुले की हैं। उन्हीं महात्मा फुले की जिन्होंने अपना पूरा जीवन महिलाओं, वंचितों और शोषित किसानों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया था। आज भले ही हम इस महात्मा की 134 वीं पुण्यतिथी पर श्रृद्धांजलि अर्पित कर रहे हों लेकिन सच्चाई यही है कि उनके विचारों में अभी भी ताज़गी बनी हुई है, उनका संघर्ष आज भी जारी है। शायद हमें आज और ज्यादा महात्मा फुले की जरूरत है।

ज्योतिबा फुले का जन्म 1827 ई. में महाराष्ट्र के पुणे में हुआ था। क्योंकि उनका परिवार कई दशकों से फूलों के गज़रे बेचने का काम करता था, इसीलिए माली के काम में लगे ये लोग फुले के नाम से जाने जाते थे। ज्योतिबा फुले की माता का निधन इनके जन्म के महज़ एक साल के भीतर ही हो गया। जिसके बाद उन्हें उनके पिता का ही साया मिला। हालांकि पिता पर कई रूढ़ीवादी लोगों का प्रभाव था, जिसके चलते पढ़ने के बहुत शौकिन ज्योतिबा का नाम पिता ने स्कूल से ही कटवा दिया। दरअसल, कुछ लोगों ने उनके पिता के कान भरे थे कि, ‘अगर बेटा पढ़-लिख गया तो किसी काम का नहीं रहेगा, वह असभ्य बन जाएगा।’

हालांकि पिता की मर्जी से ज्योतिबा का बाल-विवाह और तमाम प्रतिकूल परिस्थितियां भी ज्योतिबा को ज्यादा दिनों तक पढ़ाई से दूर नहीं रख पाई, और 21 वर्ष की उम्र में उन्होंने सातवीं कक्षा की पढ़ाई अंग्रेजी में पूरी की। उन्होंने सिर्फ अपने लिए ही नहीं महिलाओं और वंचितों के लिए भी समाज में समय रहते शिक्षा के महत्व को पहचाना और ये महसूस किया कि बहुजन समाज और उनके आसपास की महिलाएं शिक्षा की कमी के कारण गुलामी में जीने को मजबूर हैं।

मनुष्यों के कुछ बुनियादी अधिकार के लिए संघर्ष

ज्योतिबा फुले पर लिखी कई किताबों में इसका जिक्र भी मिलता है कि उन्होंने न सिर्फ जरूरी शिक्षा प्राप्त की, अपितु विभिन्न वैचारिक ग्रंथों और क्रांतियों का अध्ययन किया। उन्होंने थॉमस पायने की किताब 'राइट्स ऑफ़ मैन' पढ़ी। जिसके बाद, उन्हें यह एहसास होने लगा कि मनुष्यों के कुछ बुनियादी अधिकार हैं और उन्हें प्राप्त करना उनका अधिकार है। उन्होंने मज़लूमों के बीच शिक्षा के प्रचार-प्रसार को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया, जिसमें उनकी जीवनसाथी सावित्री बाई फुले ने भी उनका बखूबी साथ दिया।

महात्मा फुले का मानना था कि महिलाओं के लिए स्कूल पुरुषों से ज़्यादा अहम हैं और यही कारण था कि उन्होंने उस समय रूढ़िवादी लोगों का गढ़ कहे जाने वाले पुणे में 1848 के समय अपने सहयोगियों के साथ भिडेवाड़ा में एक लड़कियों के स्कूल की शुरुआत की था। इस स्कूल के चलते वो एक बार फिर अपने पिता और रूढ़िवादियों के निशाने पर आ गए। पहले उन्हें स्कूल बंद करने की धमकियां मिलीं, फिर पिता ने 'घर छोड़ दो या स्कूल बंद कर दो' की शर्त रखी, लेकिन ज्योतिबा को कुछ भी उनके मकसद से डिगा नहीं सका।

हालांकि ज्योतिबा फुले के जीवन में उनके लक्ष्य को लेकर कई उतार-चढ़ाव आए। उनका पहला स्कूल वित्तीय कठिनाइयों के चलते बंद हो गया, फुले दंपति को घर से निकालवा दिया गया, उन पर भद्दी टिप्पणियां की गईं, कुछ लोगों ने उन पर गोबर भी फेंका लेकिन फुले दंपति ने अपना काम नहीं छोड़ा। उन्होंने1851 में चिपलूनकरवाड़ा में लड़कियों के स्कूल को फिर से खोल दिया और इस बार पढ़ाने के लिए महिला टीचर न मिलने के कारण ज्योतिबा ने अपनी पत्नी सावित्री बाई को ही इस काबिल बनाया की वो बच्चों को पढ़ा सकें। और इस तरह सावित्रीबाई फुले भारत के पहले बालिका विद्यालय की पहली महिला अध्यापिका बनीं। बताया जाता है कि इस स्कूल की शुरुआत आठ लड़कियां से हुई और कुछ ही दिनों में इनकी संख्या बढ़कर 48 हो गई। बस फिर क्या था, एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल और खुले, जहां महिलाओं की शिक्षा का रास्ता प्रशस्त हुआ।

ज्योतिबा के विरोधी  बने उनके अनुयायी

धनंजय कीर द्वारा लिखित महात्मा फुले की बायोग्राफ़ी में फुले दंपति के जीवन की एक बड़ी ही महत्वपूर्ण घटना का जिक्र मिलता है। इस किताब के मुताबिक ज्योतिबा की  समाज सेवा को देख कर उनके विरोधियों के साथ ही उनके अपने कई लोग भी उनसे जलने लगे थे। उन्हें मारने की योजना तक बनाई गई, जिसके लिए दो हत्यारों को उनके घर भेजा गया। हालांकि महात्मा ज्योतिबा की बातों से ये दोनों हत्यारे कुछ इस तरह प्रभावित हुए कि वे दुष्टता का मार्ग छोड़ ज्योतिबा के साथ उनके सामाजिक कार्यों में लग गए। उनमें से एक महात्मा फुले के अंगरक्षक बने जबकि दूसरे सत्यशोधक समाज के अनुयायी बने और किताबें भी लिखीं।

ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले ने महिलाओं के जीवन में सुधार लाने के लिए अनेक कार्य किए। विधवा पुनर्विवाह से लेकर यौन शोषण की शिकार महिलाओं के लिए उन्होंने आवाज़ बुलंद की। 1863 में पुणे में ही एक ऐसा घर भी बनवाया गया जहां किसी अनचाहा गर्भधारण करने वाली महिला गुपचुप तरीके अपनी डिलीवरी करवा सकती थी। फिर अगर महिला बच्चे की की देखभाल नहीं करना चाहे तो फुले दंपति ही बच्चों की देखभाल करते।

कुरीतियों के ख़िलाफ़  संघर्ष, कृषि में दूरदर्शिता

महात्मा फुले ने सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ तो संघर्ष किया ही, उन्होंने कृषि के क्षेत्र में भी अपनी दूरदर्शिता का लोहा मनवाया। साल 1883 में 'किसानों का कोडा' नाम से उन्होंने एक पुस्तक लिखी, जिसमें उन्होंने बताया कि नौकरशाही, साहूकारों, बाज़ार व्यवस्था, जाति व्यवस्था, प्राकृतिक आपदाओं से किसानों की दुर्दशा बढ़ गई है। कई कृषि विशेषज्ञ मानते हैं कि इसमें कोई दो राय नहीं महात्मा फुले ने किसानों को लेकर जो समस्याएं तब उठाई थीं, वे आज के दौर में भी बहुत हद तक मौजूद हैं और इसका एक बड़ी कारण पूंजी व्यवस्था ही है।

गौरतलब है कि 28 नवंबर 1890 को 63 साल की उम्र में ज्योतिबा फुले ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया लेकिन ज्योतिबा फुले सिर्फ एक नाम नहीं बल्कि समाज में बदलाव का एक आईना हैं, जिनकी जरूरत आज के दौर में भी उतनी ही प्रासंगिक है, जो करीब 80 में थी। महिलाओं को शिक्षा से जोड़ने और उन्हें मुख्यधारा में लाने का श्रेय भी महात्मा ज्योतिबा को ही जाता है। शायद ये कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा, कि कल ज्योतिबा थे, इसलिए आज हम महिलाएं और वंचित समाज के लोग शिक्षा की ओर बढ़ सके।

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest