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बहस: अखिलेश यादव अभिमन्यु बनेंगे या अर्जुन!

अगर भाजपा और संघ के प्रचारकों के दावों पर जाएं तो उन्हें यकीन है कि अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह की तरह राजनीति के सभी दांव जानने वाले ज़मीनी नेता नहीं हैं। सात चरणों में होने वाले यूपी के चुनावों के चक्रव्यूह का उन्हें अनुमान नहीं है...
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उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव रोचक है और उसके परिणामों के बारे में कुछ कह पाना कठिन है। अगर भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारकों के दावों पर जाएं तो उन्हें यकीन है कि अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह की तरह राजनीति के सभी दांव जानने वाले जमीनी नेता नहीं हैं। सात चरणों में होने वाले यूपी के चुनावों के चक्रव्यूह का उन्हें अनुमान नहीं है। वे बबुआ हैं और इसी में फंस कर पराजित होंगे। कुछ लोगों का यह भी दावा है कि योगी सरकार ने जिस तरह से यूपी में प्रशासन के बूते पर पंचायत चुनावों पर कब्जा किया उसी तरह से विधानसभा का चुनाव भी जीत लेंगे। यही कारण है कि एक ओर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दावा कर रहे हैं कि इस बीच तमंचावादी पार्टी के लोग ज्यादा ही बोल रहे हैं। दस मार्च के बाद उनकी बोलती बंद हो जाएगी। उनके प्रचारक कह रहे हैं कि देखना अखिलेश आ रहे हैं इस उम्मीद में कुछ ऐसा वैसा न कर बैठना क्योंकि यह योगी है घर के बर्तन भांड़े बिकवा देगा। वहीं अखिलेश यादव गोदी मीडिया से ठकराते हुए उनको झेलते हुए तंज कसते हुए यह दावा कर रहे हैं कि उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे तय हैं। असली चौंकाने वाले परिणाम तो गुजरात से आएंगे जहां यूपी के बाद चुनाव है।

उत्तर प्रदेश चुनाव में मुद्दे तो सभी तरह के हैं लेकिन जिसकी सबसे ज्यादा उम्मीद थी वह मुद्दा सतह पर उभर कर सामने आ नहीं पा रहा है। हर समझदार और विवेकवान व्यक्ति यह महसूस कर रहा है कि पिछले पांच सालों में जो कुछ हुआ उसे देखते हुए यूपी चुनाव में लोकतंत्र और संवैधानिक मूल्यों की रक्षा का सवाल उठना था और उसे केंद्रीय मुद्दे के रूप में आना चाहिए था। लेकिन विभिन्न राजनीतिक दलों से लेकर जनता तक वह मुद्दा कहीं प्राथमिकता में है नहीं। उत्तर प्रदेश में छपने वाले या बिकने वाले अखबारों और यहां देखे जाने वाले चैनलों में यह सवाल कहीं हाशिए पर भले आ जाए लेकिन प्रमुखता से कहीं नहीं है।

देश की सबसे ज्यादा आबादी वाले और सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री देने वाले, इलाहाबाद, बीएचयू जैसे प्रमुख विश्वविद्यालयों वाले इस प्रदेश की दरिद्रता यह है कि यहां की जनता मौलिक अधिकारों की चर्चा नहीं करती। वह या तो जाति और धर्म की चर्चा करती है या फिर हनक, धमक और हड़क की चर्चा करती है।

राजनीतिक और प्रशासनिक घटनाओं को देखने की संवैधानिक और सैद्धांतिक दृष्टि के अभाव में लोग या तो यादवों और मुसलमानों की दबंगई की बात करते हैं या फिर ठाकुरों और पुलिस प्रशासन की गुंडई की बात करते हैं। उत्तर प्रदेश के पत्रकार, विश्वविद्यालयों के शिक्षक और राजनीतिक कार्यकर्ता इन्हीं शब्दावली में संवाद करते हैं। उसके बाद अगर कुछ बात होती है तो राम मंदिर, धार्मिक स्थलों और हिंदू संस्कृति के विकास और धार्मिक विकास के आख्यान के भीतर लोगों को राहत, अनुदान और घर मकान की।

या तो लोगों ने मान लिया है कि संविधान और उसकी व्यवस्था इतनी मजबूत है कि उसे कोई छेड़ नहीं सकता और उस पर बहस करना वकीलों और जजों का काम है उससे आम आदमी का कोई लेना देना नहीं है। या फिर लोगों ने मान लिया है कि वह नेहरू के नेतृत्व में कुछ यूरोपीय लोगों ने हिंदू संस्कृति का मजाक उड़ाने के लिए बनाया था उसे तो बदलना ही है। जितना संविधान की शपथ लेकर बदला जा सके बदल दिया जाए और जितना न बदला जा सके उसे शपथ तोड़ कर बदल दिया जाए। यही वजह है कि बीच चुनाव में प्रयागराज (इलाहाबाद) में धर्मसंसद होती है और उसमें एलान किया गया कि आज से `हिंदू राष्ट्र भारत’ लिखना चालू किया जाए और इस देश का कोई राष्ट्रपिता नहीं हो सकता। राष्ट्रपुत्र हो सकता है। क्योंकि राष्ट्र तो सनातन है उसे किसी ने बनाया नहीं और न ही कोई बना सकता है।

उससे भी बड़ी विडंबना यह है कि इस देश का गृह मंत्री पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यह कहता हुआ घूम रहा है कि वह उन्हें 2013 के हिंदू मुस्लिम या जाट मुस्लिम दंगों की याद दिलाने आया है। गृहमंत्री यह भी कह रहे हैं कि आप भी मुगलों से लड़े थे और हम भी मुगलों से लड़ रहे हैं। इतने स्पष्ट सांप्रदायिक प्रचार को जहां अखबार और इलेक्ट्रानिक मीडिया और धार देते हुए उसे माफिया और अपराध से जोड़ते हुए और ध्रुवीकरण करने पर आमादा हैं वहीं चुनाव आयोग चुप है। लेकिन सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का जिन्न इस बार बोतल से बाहर आने को तैयार नहीं दिखता। वजह साफ है कि अखिलेश यादव ऐसे किसी जाल में नहीं फंस रहे हैं जहां से वैसी स्थिति बने। चाहे जिन्ना संबंधी बयान हो या फिर पाकिस्तान बनाम चीन का बयान हो वे उसे ज्यादा दूर तक खींच नहीं रहे हैं। फिर पिछले साल सितंबर के महीने में मुजफ्फरनगर में हुई किसान महापंचायत ने अल्लाह हो अकबर और हर हर महादेव के जो नारे लगाए उससे 2013 की खाई भरती दिख रही है।

`जो राम को लाए हैं हम उनको लाएंगे’ यह नारा इसलिए नहीं जोर पकड़ रहा है क्योंकि किसी ओर से राम का कोई विरोध है ही नहीं। ऐसी स्थिति को देखते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को राम के धर्म नहीं उनकी जाति का सहारा लेना पड़ रहा है। तभी तो उन्होंने कहा है कि केवल राजपूतों की राजनीति का आरोप लगाने से मुझे अफसोस नहीं है। भगवान भी इसी जाति से थे। हमें क्षत्रिय होने पर गर्व है। देश की इस जाति में भगवान ने बार बार जन्म लिया है। अपनी जाति पर हर व्यक्ति को गर्व होना चाहिए। ऐसा कहते हुए वे एक ओर अपने को रामराज्य का उत्तराधिकारी और भगवान राम का वंशज बता रहे हैं तो दूसरी ओर जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था में आस्था जता रहे हैं। यही प्राचीन और मध्ययुगीन मानसिकता भाजपा और संघ परिवार पर हावी है और इसी जातिगत पवित्रता और श्रेष्ठता की पौराणिक अवधारणा को लेकर वह रामराज्य और धर्म आधारित एक महंत और बाबा के नेतृत्व चलने वाले उत्तर प्रदेश के प्रशासन का आख्यान रच रही है। इसी की ओट में बाबा अपने को भगवान का अवतार दिखाने की कोशिश कर रहे हैं।

उसकी तुलना में अखिलेश यादव ने सदैव अपने को एक आधुनिक भारतीय नागरिक के रूप में प्रस्तुत किया है और किसी तरह की जातिगत श्रेष्ठता का दावा नहीं किया है। यह कहना तो उचित नहीं है कि अखिलेश यादव किसी तरह का जातिभेद के समूल नाश का अभियान चला रहे हैं या जाति तोड़ो का कार्यक्रम कर रहे हैं लेकिन चूंकि उनमें भाजपा के नेताओं जैसा जातिवाद नहीं है इसलिए उन्हें किसी दलित के घर भोज करने और फिर भगवान राम की जाति में जन्म लेने का दावा करने की जरूरत नहीं पड़ती। लेकिन उन्होंने समाजवादी पार्टी के साथ जिस तरह छोटे दलों का गठबंधन बनाया है उसके भीतर वर्णव्यवस्था विरोधी आख्यान है। अगर जातिगत जनगणना की मांग और सत्ता में भागीदारी के उस आख्यान को फैलाकर देखा जाए तो वह संवैधानिक मूल्यों के ज्यादा करीब बैठता है।

अखिलेश चाहते तो अपने को योगी आदित्यनाथ की तरह भगवान कृष्ण का वंशज घोषित कर सकते थे लेकिन वे उससे दूर हैं। वे जिस तरह से किसानों की आय दोगुनी करने, खेती को छुट्टा जानवरों से बचाने, घरों पर बुलडोजर न चलवाने और दलितों का दमन रोकने की बात कर रहे हैं वह लोगों के मौलिक और संवैधानिक अधिकारों को ही संरक्षित करने की बात है।

हालांकि संघ परिवार ने डॉ. लोहिया की इस अवधारणा को बार बार खंडित करने की कोशिश की है कि पिछड़ों और दलितों का नेतृत्व सांप्रदायिक नहीं होता और अगर आजादी की लड़ाई में उनके नेतृत्व की प्रमुखता होती तो देश का विभाजन न होता। भाजपा ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए पिछड़ा नेतृत्व को खासा प्रशिक्षण दिया है। इसके बावजूद अगर अखिलेश यादव के नेतृत्व में पिछड़ों और दलितों की गोलबंदी हो रही है तो उसने डॉ. लोहिया की धारणा को एक हद तक जिंदा रखा है।

जो लोग अखिलेश यादव और उनके पिता जी में अंतर करते हुए यह कहते हैं कि उनके पिताजी ज्यादा परिपक्व थे वे यह भूल जाते हैं कि अस्सी और नब्बे के दशक में जब उनके पिता जी युवा थे और हिंदुत्व से संघर्ष कर रहे थे तब हिंदुत्व उभर रहा था। तब देश में कांग्रेस भी मजबूत थी और आंबेडकरवादी राजनीति का भी उभार हो रहा था। आज देश में हिंदुत्व के रूप में सांप्रदायिक फासीवाद केंद्रीय सत्ता में है और वह देश के तमाम एजेंडा को निर्धारित कर रहा है। वह नीतियों को बदल रहा है। वह इतिहास को बदल रहा है। वह संविधान को रद्द करने की तैयारी में है। वह एक दो साल में भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की घोषणा भी कर सकता है। ऐसे में अखिलेश यादव की चुनौती अपने पिता से बड़ी है। विडंबना यह है कि अखिलेश यादव पहले कांग्रेस और फिर बसपा से गठबंधन करके अपने पिता वाला प्रयोग भी आजमा चुके हैं और अब वह उस रूप में चलने वाला नहीं है।

अखिलेश यादव ने भले समाजवादी पार्टी को विपक्षी एकता का मंच नहीं बनाया है लेकिन उनके साथ देश के उन तमाम दलों की सहानुभूति है जो संविधान की व्यवस्था और कानून का राज चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि आजादी के अमृत महोत्सव वर्ष में किसी पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, राजनीतिक कार्यकर्ता या राजनेता को भी राष्ट्रद्रोही बताकर, किसी को माफिया बताकर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून या यूएपीए लगाकर जेल में लंबे समय तक ठूंस दिया जाए। इसलिए यह कहना कि अखिलेश यादव अभिमन्यु की तरह सातवां द्वारा तोड़ना नहीं जानते उनकी क्षमताओं, राजनीतिक शैली और संवाद शैली और इस देश की जनभावना को कम करके आंकना होगा।

सबसे बड़ी बात यह है कि संघ परिवार के मजबूत प्रचार तंत्र और धार्मिक मठों और मंदिरों के अतिवादी प्रचारकों से अलग यहां की जातियों की संरचना ने ज्यादा समझदारी से लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मुद्दों को उठा रखा है। जिन खाप पंचायतों को मध्ययुगीन और बर्बर कह कर खारिज किया जाता है उन्होंने पिछले साल भर में किसान आंदोलन के दौरान बहुत सकारात्मक भूमिका निभाई है। अगर खाप पंचायतों और सिख जत्थेबंदियों का समर्थन न होता तो किसान आंदोलन सफल न होता। उसी ऊर्जा ने सांप्रदायिक विभाजन खत्म किया है और उसी ने राष्ट्रवाद और धर्म के फर्जी मुद्दों की ओर जाती राजनीति को ठोस धर्मनिरपेक्ष मुद्दों की ओर मोड़ा है। उसी ने इस बात को चर्चा के केंद्र में स्थापित किया है कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के सरकार के वादे का क्या हुआ। उसी परिप्रेक्ष्य में लाठी खाते युवाओं ने भी यह बात याद दिलाई है हर साल डेढ़ करोड़ नौकरियां देने का क्या हुआ?

बहुजन समाज पार्टी जो कि आंबेडकर के संविधानवादी दर्शन से निकली हुई पार्टी है और जिसे तमाम लोकतांत्रिक मुद्दों को उठाना चाहिए था उसने परशुराम जयंती मनाने और ब्राह्मण मतदाताओं को रिझाने तक अपने को सीमित कर लिया है। वह बहुजन समाज के अधिकारों के लिए भी लड़ती हुई या उसकी मांग करती हुई नहीं दिखती। हालांकि उसे उपेक्षित करना पूंजीवादी मीडिया की रणनीति भी हो सकती है लेकिन उसकी सत्तारूढ़ गठबंधन से मिलीभगत है इस बात से अब उसके समर्पित कार्यकर्ता भी इनकार नहीं कर पाते। यही वजह है कि कांशीराम के मिशन वाले तमाम कार्यकर्ता मायावती से अलग अखिलेश में एक उम्मीद देख रहे हैं।

ऐसे में देश के संवैधानिक मूल्यों और स्वतंत्रता संग्राम के मूल्यों की उत्तर प्रदेश में रक्षा की सारी जिम्मेदारी अकेले अखिलेश यादव पर आन पड़ी है। भले ही प्रियंका गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस संघर्ष करते हुए अपना प्रभाव बढ़ा रही है लेकिन उसके पास जातिगत और राजनीतिक संगठन का अभाव है। अखिलेश को अपने दायित्व का अहसास है। यही कारण है वे कभी डॉ. राम मनोहर लोहिया के विचारों की बात करते हैं तो कभी डॉ. भीमराव आंबेडकर के। वे महात्मा गांधी को नहीं भूले हैं और उनकी विरासत को लेकर चलने का संकल्प जताते हैं। उन्होंने जयंत चौधरी को अपने साथ लिया है तो यह समझ कर कि उनके साथ चौधरी चरण सिंह और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खाप पंचायतों की पूरी विरासत है। वह खाप पंचायतें जिन्होंने 1857 से लेकर आजादी की लड़ाई में विभिन्न चरणों में हिस्सा लेने का संकल्प किया था। वह पंचायतें जिन्होंने चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में हिंदू और मुस्लिम एकता कायम की थी।

जाहिर है कि जो लोग अखिलेश को अभिमन्यु समझ कर आसानी से निपटा देने की सोच रहे हैं वे भूल रहे हैं। अखिलेश के पास अर्जुन की तरह तमाम श्रेष्ठ विचारों के ब्रह्मास्त्र हैं। उनके पास भाजपा जैसे दिग्गज महारथियों की फौज भले नहीं है लेकिन उनके साथ जनता की नब्ज पर पकड़ रखने वाले तमाम नेताओं का इंद्रधनुषी गठबंधन है। उनके साथ लोकतांत्रिक और संवैधानिक विवेक रूपी कृष्ण भी सारथि के रूप में है। इसलिए इस कठिन लड़ाई में उन्हें हल्का न समझा जाए।  

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।) 

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