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दिल्ली दंगे : 1984 की गूँज के साथ आशा की एक किरण भी

दिल्ली में पली-बढ़ी होने के बावजूद इससे पहले दंगा-ग्रस्त इलाक़ों में जाने का मुझे कभी मौक़ा नहीं मिला था। मैंने जो नज़ारे देखे, वो मेरे मन में बसी 'दिल्ली' की छवि से एकदम अलग थे।
Maujpur

उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुई सांप्रदायिक हिंसा के बारे में पहले ही काफी कुछ कहा और लिखा जा चुका है। हम सब लोग पढ़ चुके हैं कि क्या कुछ घटा है इस बीच ज़मीन पर, किनके आपराधिक कारनामों का ये नतीजा है इसका अनुमान भी लगा रहे हैं, और यहाँ तक कि जिस दिन से यहाँ पर हिंसा की शुरुआत हुई थी, वहाँ से ज़मीनी स्तर पर जुड़कर पहले-पहल ताज़ा-तरीन ख़बरों को हम तक पहुँचाने वाले पत्रकारों की रिपोर्टों से भी अवगत हो रहे हैं।

फिर भी कहीं न कहीं मुझे महसूस होता है कि मैं अपने अनुभवों का साझा करूँ। मैंने दंगा प्रभावित क्षेत्रों का दौरा तब किया, जब बताया गया कि सबसे बुरा समय बीत चुका था। मैं उस इलाक़े में चौथे दिन (26 फ़रवरी) पहुंची, और सबसे पहले मैं मौजपुर-बाबरपुर के इलाक़े में गई।

मेट्रो स्टेशन से बाहर आते ही मुझे दुकानें बंद नजर आईं, सड़कों पर टूटे हुए शीशे बिखरे पड़े थे और जली हुई दुकानों से निकाल कर बाहर फेंका गये सामानों का ढेर सड़क के किनारे में पड़ा था। इलाक़े में कर्फ्यू जारी था, जिसमें देखते ही गोली मारने के आदेश के साथ पुलिस गश्त पर थी। हालाँकि मेरी सारी ज़िंदगी दिल्ली में ही बीती है, लेकिन शहर के इस हिस्से को देखने का मौका कभी नहीं लग पाया था। मैं अपनी ही ‘दिल्ली’ में मगन थी। अब लेकिन समझ नहीं आ रहा था कि जाऊं तो कहाँ जाऊं?

एक जले और टूटे हुए डेंटल क्लिनिक के साथ में मैंने दो लोगों को खड़े पाया। मैंने उनसे बातचीत शुरू की और उन्होंने मुझे बताना शुरू किया कि किस तरह हिंसा की शुरुआत हुई और फिर कैसे यह यह भड़क उठी। दंगाइयों के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं थी, लेकिन वे इस बात से हैरान थे कि क्या इसी मकसद से उन्हें भाड़े पर लाया गया था। उन्होंने बताया कि पहले दिन पत्थरबाजी की छिटपुट घटनाओं के अलावा कुछ ख़ास नजर नहीं आ रहा था और किसी ने सोचा भी नहीं था, कि यह हिंसा काबू से बाहर हो जाने वाली है। उनका दावा था कि गोलीबारी में उनके अपने एक जानने वाले की मौत हो चुकी है और अब उन्हें डर है कि कहीं यह हिंसा उनके अपनों की ज़िंदगी ही न छीन ले।

उनका कहना था कि वे बाहर इसलिये खड़े हैं ताकि वे हालात पर निगाह बनाए रख सकें, और किसी भी समूह के हमले की हालत में बचाव की स्थिति में हों। मैं देख पा रही थी कि गलियों से लोग निकलकर आ रहे थे, उनके हाथों में उनके कपड़े लत्ते और बैग थे, जो किसी सुरक्षित ठिकाने की तलाश में यहाँ से दूर जा रहे थे। उनका मानना था कि यहाँ पर अब शांति से ज़िंदगी गुज़ार पाने का माहौल नहीं बचा है। मुझे इस इलाक़े में घूम-घूम कर दिखाया गया कि किस प्रकार से लोग हिन्दू परिवारों और एक मंदिर की सुरक्षा में लगे हुए हैं, क्योंकि वे नहीं चाहते कि एक दूसरे को किसी प्रकार का नुकसान पहुँचे।

करदमपुरी का इलाक़ा भी सुनसान पड़ा था, सिवाए कुछ लोगों के एक समूह के जो शरारती तत्वों पर निगाह बनाए हुए थे, जो कहीं एक बार फिर से वैसा ही तूफान न खड़ा कर दें, जैसा कि एक दिन पहले ही यहाँ देखने को मिल चुका था। हालाँकि यहाँ पर लोग राजनीतिक नेताओं के बारे में कहीं खुलकर अपनी बातचीत में उनके नफरत भरे बयानों की चर्चा कर रहे थे। उनका मानना था कि जो भड़काऊ बयानबाज़ी इन लोगों के द्वारा की गई थी, उसी के चलते ये हिंसा भड़की है। नागरिकता (संशोधन) क़ानून 2019 के ख़िलाफ़ पिछले दो महीनों से यहाँ पर विरोध प्रदर्शन हो रहे थे। उनके सवाल थे कि फिर अब जाकर ही यह हिंसा क्यों हुई। 

गोकुलपुरी का कबाड़ी बाज़ार जल कर पूरी तरह राख हो चुका है। यमुना विहार, चाँद बाग़ और मुस्तफ़ाबाद के इलाकों की स्थिति भी क़रीब क़रीब वैसी ही थी, हर तरफ़ बर्बादी का मंज़र पसरा हुआ था।

मुझे बताया गया कि अशोक नगर में एक मस्जिद में तोड़-फोड़ की घटना हुई है और उसे जला दिया गया था। इसपर विश्वास करना मुश्किल हो रहा था, लेकिन जब मैं उस इलाक़े में पहुँची तो यह साफ़ हो गया कि ये कोई अफ़वाह नहीं थी। वहाँ पर जली हुई मस्जिद जिसमें तोड़-फोड़ की गई थी और इसकी एक मीनार पर हिन्दू मंदिरों में लगाया जाने वाला झंडा लगा हुआ था। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि भला क्यों कोई भी हिन्दू ऐसा करेगा। यह सब करने के लिए उसे प्रेरणा मिलने का कारण क्या हो सकता है?

मस्जिद के आस पास की दुकानों के साथ ही मुस्लिमों के चार घरों में भी आग लगाई गई थी। उन्हें पूरी तरह से तहस-नहस कर दिया गया था। यहाँ तक कि नल की टोंटियों तक को नहीं बख़्शा गया था। ऐसा खौफ़नाक मंज़र अब मुझसे और देखा नहीं जा रहा था, और लग रहा था कि कैसे यह सब जल्दी से ख़त्म हो, तभी मेरी नज़र एक बच्चे पर पड़ी जो शायद अपनी माँ के साथ अपने घर के बाहर खड़ा था। बचाने के लिए उनके पास कुछ नहीं रह गया था। आँसुओं और भय से भरी आँखें लिए वह अपनी माँ के हाथों को जकड़े खड़ा था। मन में यह खौफ लिए कि आस पास जो भी लोग हैं वे कहीं उसे मार न डालें। सोचिये क्या यह बच्चा कभी भी इस त्रासदी से निकल पाएगा? जो कुछ यहाँ पर उसकी आँखों के सामने घटित हुआ है, क्या वह उसे ज़िंदगी भर भूल पाएगा और एक सामान्य ज़िंदगी जी पाने लायक बन सकेगा?

मैं वहाँ से यही सोचते हुए निकली कि वो सब भाईचारा कहाँ चला गया, और ये नफरत कहाँ से आ गई है। क्या हमेशा से ऐसा ही था, जो अंदर से झांकता रहता था? आखिर कौन सा धर्म इस प्रकार की क्रूरता सिखाता है?

मेरा अगला पड़ाव था जीटीबी हॉस्पिटल जहाँ पर अभी भी घायलों और मृतकों के आने का सिलसिला थमा नहीं था। मृतकों की संख्या में इजाफा दिन प्रतिदिन होता जा रहा है। यह जगह मातम मना रहे परिवारों से भरी हुई थी। नौजवान वकीलों का एक समूह भी देखने को मिला जो सूचनाएं इकट्ठा कर रहा था, और साथ ही मीडिया से जुड़े हुए लोग भी थे जो लोगों से बातचीत में लगे थे, जिनके अपने अब इस दुनिया में नहीं रहे। जबकि पीड़ित परिवार वहाँ पर अपने सगों के मृतक देह के वापस मिलने के इंतज़ार में थे, ताकि उनकी अंतिम विदाई सही तरीके से की जा सके। 

नागरिक समूह संगठनों के लोग और आम जन भी वहाँ पर थे, और जो कुछ मदद की जा सकती थी, उसे करने में लगे थे। 

यह सब नहीं होता, यदि सरकार की ओर से समय रहते कार्यवाही कर दी गई होती, तो पागलपन पर तत्काल लगाम लगा सकती थी।

इस घटना के छठे दिन मैं एक बार फिर से घटनास्थल पर पहुंची। अधिकतर दुकानें अभी भी बंद पड़ी थीं, लोग अपनी-अपनी गलियों से बाहर निकल कूड़े के ढेर और हिंसा के बचे हुए अवशेषों को साफ़ करने में जुटे थे, और इस कोशिश में दिखे कि किसी तरह स्थिति सामान्य हालत लौट आए। मैं यह सब देख रही थी, और लोगों से बातें करने की कोशिश में ही थी कि अचानक से 10-15 लोगों के आक्रामक झुण्ड मेरे चारों तरफ आ गया। उनमें से दो लोग बाइक पर थे और मुझे गुस्से और नफरत से घूर रहे थे।

वे मुझसे लगातार सवाल कर रहे थे कि मैं वहाँ पर क्यों आई हूँ। मैंने उन्हें बताया कि मैं सिर्फ लोगों से बातचीत करने की कोशिश कर रही थी कि वे लोग कैसे हैं, खासकर वे लोग जिनके घर जला दिए गए थे। यह सुनते ही वे और भी गुस्से में नजर आने लगे। उन्होंने मेरे मकसद को लेकर सवाल करने शुरू कर दिए, कि क्यों मैं सिर्फ एक ही पक्ष के बारे में ख़बरें बता रही हूँ, दूसरे पक्ष की नहीं। मैंने कोशिश की उन्हें समझाने की कि किस प्रकार से जो लोग प्रभावित हैं उन्हें उनके पास-पड़ोस के लोग मदद पहुँचा रहे हैं। इन ग़ुस्साए लोगों ने मेरी बात पर विश्वास करने से इनकार कर दिया और मुझसे लगातार सवाल करते रहे कि क्या मैं हिन्दू हूँ। मेरी समझ में ही नहीं आ रहा था कि उनसे क्या कहूँ या दिखा सकूँ जिससे कि उनका ग़ुस्सा शांत हो सके।  कुलमिलाकर मैं उनसे भयभीत हो चुकी थी, और उनके द्वारा इलाक़े से बाहर किये जाने को मजबूर कर दी गई, और इसको लेकर मैं कुछ नहीं कर सकी।

मेरे प्रति इन लोगों का ग़ुस्सा और अपने पड़ोसियों के प्रति दशकों की नफरत ने मुझे अंदर तक हिला डाला। जैसे किसी ने मुझे 1984 के दंगों की याद दिला दी हो। उस दौरान भी पड़ोसियों में एक दूसरे के पार्टी बैर-भाव पनप चुका था। उसी प्रकार के अविश्वास के बीज एक बार फिर से बो दिए गए हैं। 

हालाँकि वे ऐसा कहते हैं लेकिन दूर कहीं आशा की किरण भी दिखती नजर आती है। मौजपुर में मुझे लोगों के एक ऐसे समूह से भेंट हुई जो पीड़ितों में भोजन, आश्रय और पैसे वितरित कर रहे थे। उनमें से एक ने बताया कि 1984 के दंगों में उन्होंने अपने पिता को खो दिया था। ज़िंदगी कितनी तबाह हो जाती है, इसका उन्हें अहसास है। वे चाहते हैं कि ऐसा फिर किसी के साथ न घटे। “मुश्किल की घड़ी में ईश्वर नहीं बल्कि सबसे पहले आपके पड़ोसी आपके काम आते हैं, इस बात को ध्यान में रखना चाहिए”, वे कहते हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Delhi Riots: Echoes of 1984 and a Silver Lining

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