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भारत को अपने कर राजस्व से वंचित करना नव-उपनिवेशवाद, कैर्न एनर्जी नई ईस्ट इंडिया कंपनी है!

मुख्य बिंदु यह है कि कैर्न एनर्जी को भारी मुनाफ़ा कमाकर देने वाली प्राकृतिक संपत्तियां (तेल और गैस क्षेत्र) भारत में स्थित हैं, इसलिए इन पर भारत कर लगा सकता है।
भारत को अपने कर राजस्व से वंचित करना नव-उपनिवेशवाद, कैर्न एनर्जी नई ईस्ट इंडिया कंपनी है!

आशीष खेतान लिखते हैं कि कैर्न एनर्जी के पक्ष में दिए गए मध्यस्थों के फ़ैसले से में भारत 1.2 अरब डॉलर के कर राजस्व से वंचित हो जाएगा। यह भारत के कर दाताओं का वह पैसा है, जो स्कूल, हॉस्पिटल बनाने या गरीब़ों के लिए स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर करने के लिए इस्तेमाल हो सकता था।

अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी की हालिया रिपोर्ट बताती है कि जबसे कोरोना महामारी चालू हुई है, तबसे अब तक 23 करोड़ से ज़्यादा भारतीय गरीबी में ढकेले जा चुके हैं। मतलब यह लोग 375 रुपये प्रतिदिन से कम कमाते हैं।

इस बीच कैर्न एनर्जी का गृहदेश ब्रिटेन कोरोना राहत कार्यों पर अपनी कुल जीडीपी का 18 फ़ीसदी खर्च कर चुका है। वहीं अमेरिका (जहां कैर्न एनर्जी भारत पर 1.2 अरब डॉलर का मुकदमा चला रही है) में कोरोना से जंग में 5 ट्रिलियन डॉलर से ज़्यादा खर्च किए जा चुके हैं। यह मात्रा अमेरिका की कुल जीडीपी का 25 फ़ीसदी है। लेकिन विकासशील भारत में सरकार गरीब़ों और जरूरतमंदों को राहत पहुंचाने में नाकाम रही है। अपनी मौद्रिक स्थिति के चलते भारत अपने लोगों को कोरोना से राहत में सिर्फ़ कुल जीडीपी का 8.6 फ़ीसदी ही खर्च कर सका है।

इस कठिन वक़्त में, जब कोविड-19 ने भारत को तबाह कर दिया है, जब अस्पतालों में ऑक्सीजन ख़त्म हो रही है, स्वास्थ्य संसाधनों की आपूर्ति कम पड़ रही है, स्वास्थ्य सुविधाएं ना होने के चलते कोरोना से संक्रमित लोग मर रहे हैं और लोगों की लाशें गंगा नदी में बह रही हैं, तब हेग स्थित 'स्थाई मध्यस्थता न्यायालय' द्वारा नियुक्त किेए गए दो निजी मध्यस्थों ने भारत को आदेश दिया है कि वे कैर्न एनर्जी और वोडाफोन के 3.8 अरब डॉलर से ज़्यादा के कर बकाया को भूल जाएं।

कैर्न ने भारत की संपत्तियों को ज़ब्त करने के लिए विदेशी न्यायालयों में कानूनी प्रक्रिया शुरू की है, इस संपत्ति में एयर इंडिया का विमान तक शामिल है। अब कंपनी जनता के मत को अपने पक्ष में बनाने के लिए प्रचार का बड़ा अभियान चला रही है।

कंपनी अब भारत के घावों पर नमक छिड़क रही है।

कैर्न एनर्जी के वकील उदय वालिया ने 25 मई को NDTV की वेबसाइट पर 1500 शब्दों का एक लंबा लेख लिखा है, जिसमें कहा गया है कि भारत के कर प्राधिकरणों ने कैर्न के साथ गलत व्यवहार किया है।

वालिया ने पूर्व वित्तमंत्री के वक्तव्य, बीजेपी मेनिफेस्टो में किए गए वायदे के साथ-साथ पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा ब्रिटेन के अपने समकक्ष को लिखे उस ख़त का हवाला दिया है, जिसमें सिंह ने कहा था कैर्न के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार नहीं किया गया। इसके बाद वालिया 2006 में कैर्न द्वारा अपने भारतीय व्यापार को फिर से पुनर्गठित करने और एक IPO के बारे में लिखते हैं, जिसके बाद भारत के कर विभाग ने कैर्न के गुड़गांव स्थित ऑफ़िस में सर्वे किया था। सर्वे के बाद 6 अरब डॉलर की मांग की गई थी। वालिया फिर भारत के "कर आतंकवाद" के चलते, कैर्न इंडिया में कैर्न द्वारा अपने शेयर बेचने की चर्चा करते हैं।

वालिया बहुत अच्छे वकील हैं, लेकिन उन्होंने बहुत चालाकी से मामले के सबसे अहम पहलू को छुपा लिया। कैर्न एनर्जी ने 2006 में भारत में अपने निवेश से बहुत ज़्यादा मुनाफ़ा कमाया था, इसके ऊपर कंपनी ने कहीं भी में पूंजी लाभ कर (कैपिटल गेन टैक्स) के रूप में एक पैसा तक नहीं चुकाया। अगर स्थाई मध्यस्थता न्यायालय द्वार नियुक्त मध्यस्थों के फ़ैसले को लागू किया जाता है और भारत को 1.2 अरब डॉलर कैर्न एनर्जी को चुकाने के लिए मजबूर किया जाता है, तो कंपनी दो देशों में कर देने से बच जाएगी। ना तो उसे भारत में कर चुकाना पड़ेगा और ना ही ब्रिटेन में। यह कर से बचने का एक चिर-परिचित केस है।

मैं कैर्न के वकील को याद दिलाना चाहूंगा कि 2019 में दावोस में 1500 अरबपतियों के सामने डच इतिहासकार रटजर ब्रेगमैन ने क्या कहा था। उन्होंने कहा था, "कर, कर और सिर्फ़ कर। मेरी नज़र में बाकी चीजें कचरा हैं।"

भारत में कैर्न का प्रवेश

जब 1990 में भारत ने अपने बाज़ारों को खोला और टेलिकम्यूनिकेशन, बीमा, तेल-गैस और खनन जैसे अहम क्षेत्रों में रणनीतिक नियंत्रण को कम किया, तो बहुराष्ट्रीय उद्योग घरानों ने मॉरीशस, सिंगापुर, जर्सी और केमैन द्वीपों में पोस्ट बॉक्स कंपनियां बनाकर निवेश करना शुरू कर दिया।

'टैक्स हैवन रूट' का फायदा उठाया गया, ताकि विदेशी उद्योग घरानों को भारत में किसी तरह का कर ना भरना पड़े या स्थानीय निवेशकों की तुलना में बहुत कम कर देना पड़े।

1996 में जब कैर्न एनर्जी PLC (CEP) ने ऑस्ट्रेलियाई कंपनी 'कमांड पेट्रोलियम लिमिटेड' और सोक्को ऑस्ट्रेलिया लिमिटेड का अधिग्रहण किया, तब कंपनी ने भारत में तेल, गैस अन्वेषण और विकास व्यापार शुरू किया था। सोक्को ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटिश वर्जिन द्वीप में पंजीकृत कंपनी है, इसके कृष्णा गोदावरी बेसिन में राव्वा तेल और गैस क्षेत्र में हित हैं।

1996 और 1997 के बीच CEP ने ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, नीदरलैंड और ब्रिटिश वर्जिन द्वीप में पंजीकृत कंपनियों के ज़रिए कई शेयर हस्तांतरण किए और भारत में अपनी हिस्सेदारी को पुनर्गठित किया। उपरोक्त सभी कंपनियां भारत में स्थित संपत्तियों से पैसा कमाती थी। (ब्रिटिश वर्जिन द्वीप कुख्यात टैक्स हैवन है, जबकि नीदरलैंड किसी एक देश से दूसरे देश भेजे जाने वाली पूंजी का सबसे बड़ा मध्यस्थ रास्ता है। हाल में एलन मस्क ने टेस्ला के भारत में निवेश को नीदरलैंड के रास्ते ही भेजा। क्योंकि वहां का प्रशासन करों में रियायत देता है।

2006 तक CEP, ब्रिटेन में बनाई गई 9 सहायक कंपनियों और दुनिया के दूसरे टैक्स हैवन में पंजीकृत 18 सहायक कंपनियों के ज़रिए भारत में अपनी संपत्ति पर नियंत्रण कर रही थी।

कैर्न कॉरपोरेट द्वारा पुनर्गठन सिर्फ़ कर चुकाने से बचने का एक तरीका था

2006 में लेनदेन के जटिल जाल के ज़रिए कैर्न यूके होल्डिंग्स लिमिटेड (CUHL) ने जर्सी पंजीकृत एक नई कंपनी- कैर्न इंडिया होल्डिंग लिमिटेड (CIHL) का गठन किया। इस कंपनी को CUHL और भारत में समूह की तेल और गैस व्यापार से जुड़ी 9 कंपनियों के बीच स्थापित कर दिया। बता दें जर्सी दुनिया का सातवां सबसे बड़ा टैक्स हैवन है।

वालिया ने अपने लेख में जिसे औद्योगिक घराने का पुनर्गठन बताया है, दरअसल वो भारत में पूंजी लाभ कर से बचने का उपकरण नज़र आता है। कैर्न के पुनर्गठन के दौरान, 2006 दिसंबर में लाए गए IPO के ज़रिए भारतीय तेल और गैस संपत्तियों की बिक्री शामिल थी। यह पुनर्गठन विदेशी कंपनियों के एक जाल के ज़रिए किया गया था। सहायक कंपनियों में अपनी 30 फ़ीसदी हिस्सेदारी को बेचने और IPO के ज़रिए CUHL को बहुत मुनाफ़ा हुआ।

यहां मुख्य बिंदु यह है कि कैर्न को बड़ा मुनाफ़ा पहुंचाने वाले प्राकृतिक संसाधन (तेल और गैस) भारत में स्थित हैं, इसलिए उनके ऊपर भारत में कर लगना चाहिए।

लेकिन कैर्न ने शेयरहोल्डिंग के अप्रत्यक्ष हस्तांतरण के ज़रिए भारत को उसके हिस्से का कर चुकाने से बचने की कोशिश की। कर विभाग को यह सबूत मिले कि CUHL ने अपने पूंजी लाभ को नहीं बताया और जानबूझकर 2007 से 2012 के बीच CUHL द्वारा CEP को चुकाए गए लाभांश पर कर नहीं काटा। इसके ऐवज में आयकर विभाग ने 1.2 अरब डॉलर का कर बकाया होने का आंकलन किया।

वोडाफोन की तरह, कैर्न ने भारतीय कर व्यवस्था की खामियों का फायदा उठाया

कैर्न एनर्जी ने वोडाफोन इंडिया की तरह भारतीय कानून की एक खामी का फायदा उठाने की कोशिश की। दरअसल 2012 तक भारतीय कानून, भारत में स्थित संपत्तियों में हिस्सेदारी के अप्रत्यक्ष हस्तांतरण पर कर लगाने का प्रबंध नहीं करता था।

मार्च, 2012 में भारतीय संसद ने वित्त कानून 2012 पास किया और इस खामी को ख़त्म कर दिया।

तब विपक्ष में रही बीजेपी ने मनमोहन सिंह पर 'प्रतिगामी कर' लगाने की बात कहते हुए निवेश के माहौल को खराब करने का आरोप लगाया। यूपीए की कर नीतियों को खराब दिखाने के घटनाक्रम ने बीजेपी को भला दिखाने में मदद की। बीजेपी ने खुद को देशी-विदेशी बड़ी पूंजी के मित्र के तौर पर पेश किया, इसने पार्टी को सत्ता में आने में मदद की। कर पर भारत के रवैये को नकारात्मक प्रकाश में लाना बीजेपी के लिए फायदेमंद हो सकता है, लेकिन यह भारत के राष्ट्रीय हित में तो कतई नहीं था, अब देर से बीजेपी को यह महसूस हो रहा है।

कैर्न एनर्जी केस में अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता न्यायालय द्वारा दिया गया फ़ैसला एक अंतरराष्ट्रीय आर्थिक कानून व्यवस्था का उत्पाद है, जो पूरी तरह पूंजी निर्यात करने वाले विकसित देशों के व्यापारिक हितों में झुका हुआ है। पिछले कुछ दशकों से द्विपक्षीय निवेश संधियों (BITs) और DTAA (दोहरे करारोपण से बचाव के लिए समझौते) समझौते विकासशील देशों को बहुत नुकसान पहुंचा रहे हैं और उन्हें उनके अधिकार वाले कर राजस्व से वंचित कर रहे हैं। कैर्न एनर्जी ने भारत-ब्रिटेन के बीच हुई निवेश संधि के तहत केस जीता है।

अंतरराष्ट्रीय निवेश व्यवस्था कर से बचने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पक्ष में झुकी

स्टानिमिर एलेक्सॉन्द्रोव और लौरेंट लेवी तीन में से दो मध्यस्थ थे, जिन्होंने कैर्न के पक्ष में मध्यस्थता का फ़ैसला करवाया है। लेवी, अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता में जेनेवा स्थित लेवी कौभमान-कोहलर फर्म के साझेदार हैं। उनका परिचय बताता है कि लेवी को कॉरपोरेट विवाद में बहुत अनुभव है। खासकर तेल, गैस, हवा और अंतरिक्ष के साथ-साथ वित्तीय उद्यम के क्षेत्र में। एलेक्सेंद्रोव वाशिंगटन डीसी में अपनी प्राइवेट फर्म चलाते हैं। दोनों ही लगातार मध्यस्थता करते रहे हैं। यह दोनों लोग वकीलों और अकदामिक जगत की उस छोटी सी दुनिया का हिस्सा हैं, जो व्यावसायिक कानून से जुड़े कई अरबों डॉलर वाले मध्यस्थता के केस संभालते हैं या बड़े कॉरपोरेशन के लिए निजी सलाहकारी का काम करते हैं।

कैर्न और वोडाफोन दोनों ने ही मध्यस्थता बहुत गुप्त तरीके से की, जिसकी सुनवाई के बारे में ना तो आम लोगों को पता चला और ना ही प्रेस को। क्या विकसित देशों की आत्मा परेशान नहीं होती कि वे निजी वकीलों (मध्यस्थों) को भारत जैसे गरीब़ देश को विदेशी कॉरपोरेशन पर करारोपण से रोकने की अनुमति देते हैं। जबकि यह करारोपण उस संपदा पर किया जा रहा है, जो इस कॉरपोरेशन ने भारत में बनाई है?

भारत की कर संप्रभुता पर मध्यस्थता नहीं की जा सकती

BIT और DTAA का मकसद कभी कर से बचने या स्थानीय देशों को उनके हिस्से के कर राजस्व से वंचित कराने का नहीं था।

राज्य की जनहित की शक्ति पर सिर्फ़ कानून के शासन और संवैधानिक तरीके से ही लगाम लगाई जा सकती है। भारत के आयकर कानूनों को विदेशी और भारतीय, दोनों ही तरह की कंपनियों पर लागू होना चाहिए।

अपने विकास की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए अपनी कर व्यवस्था में बदलाव करने की भारत की शक्ति उसकी संप्रभुता में निहित है। किस पर कर लगाया जा सकता है या किस पर नहीं, इसका अधिकार हेग में बैठे किसी भी मध्यस्थ को नहीं दिया जाना चाहिए। यह काम सिर्फ़ भारतीय संसद द्वारा किया जाना चाहिए और अगर विवाद होता भी है, तो उसका निपटारा भारतीय न्यायालयों द्वारा किया जाना चाहिए।

वालिया एक सवाल के साथ अपना निबंध ख़त्म करते हैं, जो सार्वजनिक हित में दिखाई पड़ता है: इस तरह के रिकॉर्ड के साथ हम विदेशी निवेश को कैसे आकर्षित करेंगे?

FDI का इतिहास बताता है कि कैर्न और वोडाफोन जैसे विदेशी कॉरपोरेशन, भारत जैसे गरीब़ देशों में प्राथमिक तौर पर उनके प्राकृतिक संसाधनों (जैसे तेस, गैस, खनिज, स्पेक्ट्रम आदि) या नए उपभोक्ता बाज़ारों (जैसे भारतीय मध्य वर्ग) तक पहुंच बनाने या स्थानीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा अनुकूल परिस्थितियों (जैसे चीन द्वारा सस्ता उत्पादन) का लाभ उठाने के लिए निवेश करते हैं। BIT और DTTA समझौतों का विदेशी निवेश को आकर्षित करने में बहुत कम योगदान होता है।

भारत में बनाई गई संपदा को भारत से बाहर संचित किया गया

BIT और DTAA समझौतों की विकृति के चलते भारत अपने बहुत जरूरी कर राजस्व से वंचित हो रहा है। कुछ अनुमानों के मुताबिक़, मॉरीशस कर संधि के चलते ही भारत अब तक 10-15 अरब डॉलर के राजस्व का नुकसान उठा चुका है। नतीज़तन भारत में बनाई संपदा, भारत में ही संचित नहीं है, बल्कि बाहर विदेशी वित्तीय केंद्रों और टैक्स हैवन में जा रही है।

कैर्न द्वारा भारतीय संपदा पर अधिकार करने की कोशिश कॉरपोरेट के निरंकुश लोभ को दर्शाता है। अब उनके वकील लेखों के ज़रिए भारत को नसीहत देकर अपना घमंड दिखा रहे हैं।

भारत को ना सिर्फ़ कानूनी मैदान में कैर्न से लड़ना चाहिए, बल्कि इनके खिलाफ़ उसे पूरी ताकत के साथ भूराजनीतिक अभियान छेड़ देना चाहिए, ताकि कैर्न के कर से बचने के तरीकों का खुलासा किया जा सके और कैर्न द्वारा भारतीय तेल और गैस क्षेत्र से जो संपदा बनाई गई है, उसके ऊपर बकाया कर की मांग की जा सके।

यह लेख मूलत: द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

आशीष खेतान लेखक और वकील हैं। उन्होंने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से अंतरराष्ट्रीय आर्थिक कानून में विशेषज्ञता हासिल की है। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

 Denying India its Tax Revenue is Neo-colonialism. Cairn Energy is the new East India Company!

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